
16/09/2025
मीरा हमेशा से अपनी छोटी-छोटी खुशियों में संतुष्ट रहने वाली औरत थी।
बचपन में ही माँ-बाप चले गए थे, तो नानी ने पाला। शादी हुई तो घर बड़ा था—सास-ससुर, तीन देवर, दो ननदें। धीरे-धीरे सबके हिस्से में जीवन की सहूलियतें आईं, पर मीरा के हिस्से में सिर्फ काम और ज़िम्मेदारी।
उसके पास गहनों का डिब्बा भी नहीं था। शादी में मायके से आया हुआ एक काँच का हार था—हरी और सुनहरी मोतियों वाला। मीरा उसे हर त्यौहार पर पहन लेती, और यही सोचकर खुश हो जाती कि "ये ही मेरी पहचान है।"
मीरा का बेटा, आयुष, बारहवीं कक्षा में था। समझदार और चुप-सा लड़का। उसे अक्सर लगता—"माँ हमेशा दूसरों को संवारती है, लेकिन खुद को कभी नहीं।"
कभी-कभी वह माँ की पुरानी अलमारी खोलता, तो देखता वही काँच का हार, एक टूटी हुई चूड़ी और हल्की पड़ चुकी गुलाबी साड़ी।
एक दिन स्कूल से लौटते वक्त आयुष अपने दोस्तों के साथ बाज़ार गया। वहाँ उसने एक गहनों की दुकान में नकली लेकिन सुंदर हार देखे। दाम भी ज्यादा नहीं थे—₹250 से शुरू। आयुष देर तक उन्हें देखता रहा। "काश माँ को एक असली हार दिला पाता… लेकिन अभी तो ये भी बड़ा है मेरे लिए।"
उसने ठान लिया कि वो कुछ भी करके माँ के लिए हार खरीदेगा।
हर रोज़ ट्यूशन के बाद वह बच्चों को पढ़ाने लगा। छोटे बच्चों को अंग्रेज़ी और गणित पढ़ाता। महीने के अंत में उसके पास करीब ₹1200 जमा हो गए।
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रात का खाना चल रहा था। सब लोग हंसी-मज़ाक कर रहे थे। आयुष ने माँ से कहा—
“माँ, कल मुझे ज़रा बाज़ार ले चलना।”
मीरा ने हैरानी से पूछा, “क्यों? क्या चाहिए तुझे?”
“बस, चलना… एक काम है।”
अगले दिन वो दोनों साइकिल से बाज़ार पहुँचे। आयुष सीधा उसी दुकान पर ले गया और बोला—
“माँ, ये देखो… ये हार। अच्छा है ना?”
मीरा सकपका गई। “अरे! ये तो बड़ा अच्छा है बेटा… पर तू क्यों देख रहा है ये सब?”
आयुष मुस्कुरा दिया। दुकानदार से बोला—“भाई साहब, ये पैक कर दो।”
मीरा ने झट से रोका—“पागल हो गया है क्या? कितना महँगा होगा!”
आयुष ने अपनी बचत की गड्डी निकाल दी—छोटे-छोटे नोट।
“माँ, ये मैंने कमाए हैं। दूसरों के बच्चों को पढ़ा-पढ़ाकर। अब ये हार आपका है।”
मीरा की आँखें भर आईं। उसके हाथ काँपते रहे, जब हार उसकी हथेलियों में रखा गया। वह कुछ बोल न सकी, बस बेटे के सिर पर हाथ रख दिया।
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घर पहुँचे तो दादी (आयुष की अम्मा) ने देख लिया।
“अरे बहू! ये नया हार कहाँ से आया?”
मीरा कुछ बोलने ही वाली थी कि आयुष आगे बढ़ गया—
“दादी, ये मैंने दिलाया है। माँ के पास तो बस एक काँच का पुराना हार था। अब देखो, ये पहनेंगी।”
घर में पहली बार सन्नाटा छा गया। सब हैरान थे कि लड़का इतना सोच सकता है।
देवर और ननदें चुप हो गए, और दादी की आँखों में चमक आ गई।
उन्होंने कहा—“बेटा, तूने तो सच में अपने बाप का नाम रौशन कर दिया। बहू की इज़्ज़त रख ली तूने।”
मीरा पहली बार सचमुच सजाई गई थी। उसने जब वो हार पहना, तो चेहरा जैसे खिल उठा। उसके होंठों पर एक संकोची मुस्कान थी।
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रात को आयुष पास बैठा था। मीरा ने धीमे स्वर में कहा—
“बेटा, गहनों से ज़िंदगी नहीं बदलती। पर तेरे प्यार से ज़रूर बदल जाती है। आज तूने मुझे वो खुशी दी है, जो मैंने कभी माँगी भी नहीं थी।”
आयुष ने माँ का हाथ पकड़ लिया—“अब आपको और समझौते नहीं करने दूँगा माँ। आप मेरी जिम्मेदारी हो।”
मीरा की आँखें छलक गईं। उसने महसूस किया कि उसका आने वाला जीवन अब सुरक्षित है। उसके सपनों का “काँच का हार” टूट चुका था, और उसकी जगह अब बेटे के प्यार का असली हार था।
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दादी अक्सर कहा करती थीं—
“औरत की किस्मत में बस चूल्हा-चौका लिखा है।”
पर उस दिन उन्होंने खुद माना—
“नहीं, औरत की किस्मत उसके बेटे के हाथों से बदल सकती है।”
मीरा आईने में खुद को देख रही थी। गले में नया हार चमक रहा था।
दिल में एक ही ख्याल—
"अब मेरा आने वाला समय मेरे बेटे के हाथों में है, और मुझे यकीन है कि वो समय अच्छा होगा।"
भाग - 2
मीरा अब तक चुपचाप सब करती रही थी। सुबह पाँच बजे उठकर घर का काम, सास की दवा, बच्चों का नाश्ता, पति की चाय, फिर दिनभर की रसोई और अंत में देर रात तक सबके कपड़े समेटना।
कभी शिकायत नहीं, कभी कोई गिला नहीं।
लेकिन उस दिन, जब आयुष ने अपनी कमाई से माँ को हार पहनाया, तो जैसे हवा बदल गई।
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रात को, जब सब सो गए, मीरा अपने कमरे में हार को कपड़े में लपेटकर रख रही थी। तभी दरवाजे पर आहट हुई।
उसके पति, विजय, खड़े थे।
“ये हार कहाँ से आया?” उन्होंने सख्त आवाज़ में पूछा।
मीरा कुछ कहने लगी, लेकिन आयुष बीच में आ गया।
“पापा, ये मैंने खरीदा है। माँ के लिए।”
विजय चौंक गए—“तुम? ये सब बचकानी हरकत है। गहनों से क्या होगा? पैसे पढ़ाई में लगाओ।”
आयुष ने पहली बार पिता की आँखों में देखकर कहा—
“पापा, माँ ने भी तो पढ़ाई नहीं छोड़ी थी, जब हम छोटे थे। उन्होंने हमें बड़ा किया। वो कभी अपने लिए कुछ नहीं लेतीं। तो क्या उनका हक भी नहीं?”
कमरे में सन्नाटा छा गया। विजय के पास कोई जवाब नहीं था। वो चुपचाप बाहर निकल गए।
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उस रात विजय सो नहीं पाए। उन्हें याद आने लगा—शादी के वक्त मीरा के हाथों में बस एक काँच का हार था।
फिर बच्चे हुए, खर्च बढ़े, जिम्मेदारियाँ बढ़ीं। उन्होंने कभी सोचा ही नहीं कि मीरा ने अपने लिए कुछ माँगा भी नहीं।
उनके चेहरे पर अपराधबोध था।
अगले दिन रविवार था। विजय ने अचानक कहा—
“मीरा, चलो बाज़ार चलते हैं।”
मीरा चौंक गई—“क्यों?”
“बस… ज़रा देखना है।”
बाज़ार में विजय सीधे कपड़ों की दुकान पर ले गए।
“इनके लिए एक अच्छी सूती साड़ी दिखाइए। हल्की हो, गर्मियों में पहनने लायक।”
मीरा की आँखें नम हो गईं। इतने सालों में पहली बार उनके पति ने खुद उनके लिए साड़ी खरीदी थी।
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जब मीरा ने नई साड़ी पहनकर पूजा में सबको प्रसाद बाँटा, तो दादी ने कहा—
“बहू, ये रंग तुझ पर बहुत फब रहा है।”
देवर और ननदें भी हँसकर बोले—“भाभी, अब तो आप और भी जवान लग रही हैं।”
मीरा झेंप गई, लेकिन दिल में कहीं बहुत गहरी खुशी थी।
अब घर के माहौल में बदलाव था।
कभी बुआ कहतीं—“भाभी, ये नया चश्मा आपके लिए लाया हूँ।”
तो कभी देवर पूछते—“भाभी, डॉक्टर के पास चलूँ आपके साथ?”
सब धीरे-धीरे समझने लगे कि जिस औरत ने घर सँभाल रखा है, उसकी देखभाल भी जरूरी है।
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आयुष अब और भी पढ़ाई में लग गया। उसका सपना था—“एक दिन मैं माँ को सोने का हार दूँगा।”
मीरा ने उसे गले से लगाकर कहा—
“बेटा, मुझे सोने-चाँदी की नहीं, बस तेरे सपनों की ज़रूरत है।”
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वर्षों से दबे हुए प्यार और सम्मान की भूख, एक छोटे से नकली हार ने बाहर निकाल दी थी।
मीरा अब आईने में देखती तो सिर्फ अपना चेहरा नहीं, बल्कि पूरे परिवार का बदलता चेहरा भी देखती।
उसे लगता—
"काँच का हार तो बहाना था, असली गहना तो मेरा बेटा और उसका प्यार है, जिसने सबकी सोच बदल दी।"
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