Karuna Rani Vlog

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तीन उपदेश – एक शिक्षाप्रद मर्मस्पर्शी कहानी✍️एक गरीब आदमी अपनी पत्नी के साथ एक पहाड़ी गाँव में रहता था। जीवन इतना कठिन थ...
26/07/2025

तीन उपदेश – एक शिक्षाप्रद मर्मस्पर्शी कहानी✍️

एक गरीब आदमी अपनी पत्नी के साथ एक पहाड़ी गाँव में रहता था। जीवन इतना कठिन था कि कई बार खाने को भी कुछ नहीं होता। एक दिन वह आदमी रोज़गार की तलाश में गाँव छोड़ने का निश्चय करता है। जाने से पहले वह अपनी पत्नी से कहता है,
"मैं लंबी यात्रा पर जा रहा हूँ। मैं हमेशा तुम्हारे प्रति वफ़ादार रहा हूँ, क्या तुम भी मेरी अनुपस्थिति में मेरे प्रति वफ़ादार रह सकोगी?"

पत्नी ने सिर हिलाकर सहमति जताई।

वह आदमी बहुत दूर जाकर एक व्यापारी के यहाँ नौकरी करने लगा, लेकिन एक शर्त पर — उसकी पूरी कमाई मालिक के पास जमा रहेगी और जब वह नौकरी छोड़ेगा, तब उसे सारा पैसा एक साथ मिलेगा।

बीस साल बीत गए। फिर वह आदमी अपने मालिक से कहता है,
"अब मैं काम छोड़कर अपने घर जाना चाहता हूँ। कृपया मेरी पूरी जमा रकम मुझे लौटा दीजिए।"

मालिक कहता है,
"तुम चाहो तो अपने पैसे ले सकते हो, या फिर मेरी दी हुई तीन महत्वपूर्ण उपदेश ले सकते हो। लेकिन दोनों में से एक ही मिलेगा।"

आदमी ने दो दिन सोचकर कहा,
"मैं आपके तीन उपदेश चाहता हूँ। मुझे पैसे नहीं चाहिए।"

मालिक मुस्कराकर कहता है,
"तो ध्यान से सुनो—

पहला उपदेश:
कभी भी शॉर्टकट (छोटा रास्ता) मत चुनो, चाहे वह जितना भी आसान लगे। लंबे रास्ते अक्सर ज्यादा सुरक्षित और फलदायी होते हैं।

दूसरा उपदेश:
कभी भी किसी चीज़ में जल्दबाज़ी मत करो। पहले पूरी बात समझो, फिर निर्णय लो।

तीसरा उपदेश:
किसी को लेकर धारणा बनाने से पहले पूरे तथ्यों को जानो।"

इसके साथ ही मालिक ने उसे तीन रोटियाँ दीं— दो यात्रा के दौरान खाने के लिए और एक बड़ी रोटी अपने घर पहुँचने पर पत्नी के साथ बाँटकर खाने के लिए।

अब वह व्यक्ति लंबी यात्रा पर निकल पड़ा।

रास्ते में उसे किसी ने बताया कि एक छोटा रास्ता है, जिससे वह जल्दी घर पहुँच सकता है। उसे याद आया पहला उपदेश — उसने लंबा रास्ता ही चुना। बाद में पता चला कि छोटे रास्ते में एक खतरनाक जंगली जानवर था जो उसे मार सकता था।

रात में एक अजनबी ने उसे अपने घर में शरण दी। आधी रात को घर के अंदर कुछ आवाज़ें आईं। वह उठकर देखने को तैयार था, तभी उसे दूसरा उपदेश याद आया — "जल्दबाज़ी मत करो"। वह रुका। सुबह पता चला कि रात को घर में एक बाघ घुस आया था, लेकिन उसके न देखने से उसकी जान बच गई।

आख़िरकार, वह अपने गाँव पहुँचा। घर के पास खिड़की से झाँका तो देखा कि उसकी पत्नी एक पुरुष को गले लगाकर उसके गाल पर चुम्बन कर रही है।

क्रोधित, दुखी और थका हुआ वह आदमी बिना दरवाज़ा खटखटाए वहाँ से लौटने लगा। तभी उसे तीसरा उपदेश याद आया — "किसी के बारे में राय बनाने से पहले पूरी सच्चाई जान लो।"

वह वापस गया और दरवाज़ा खटखटाया। उसकी पत्नी उसे देखकर प्रसन्नता से दौड़कर गले लगाना चाहती थी, लेकिन वह रुक गया और पूछा,
"तुमने मेरी अनुपस्थिति में किसी और पुरुष को क्यों चूमा? क्या तुमने वादा नहीं किया था?"

पत्नी मुस्कराकर बोली,
"पहले घर आओ, सब बताती हूँ।"

"नहीं, मुझे अभी बताओ!" – आदमी ने ज़ोर देकर कहा।

पत्नी बोली,
"जब तुम गए थे, मैं गर्भवती थी। अब हमारा बीस साल का बेटा है। अभी तुम जिसे देख रहे थे, वह तुम्हारा ही बेटा है। मैं उसे काम पर भेजने से पहले उसके गालों पर चुम्बन कर रही थी, ठीक वैसे ही जैसे तुमने मुझे छोड़ते समय किया था।"

उस आदमी की आँखों से आँसू बह निकले। वे दोनों भीतर आए और साथ में वह तीसरी बड़ी रोटी खाने बैठे। जैसे ही रोटी को तोड़ा, उसके भीतर से उसकी बीस वर्षों की पूरी जमा पूंजी निकली — जो मालिक ने छिपाकर दी थी।

सीख:

ज़िंदगी में हर आसान रास्ता सही नहीं होता।

जल्दबाज़ी में किया गया निर्णय अक्सर नुकसानदेह होता है।

हर दृश्य वैसा नहीं होता जैसा दिखता है। सच जानने से पहले निर्णय मत लो।

साभार 🙏

लता मंगेशकर से एक बार पूछा किसी ने अगर आपको दूसरा जीवन मिले तो क्या आप फिर से लता मंगेशकर बनना चाहोगी ...लता मंगेशकर जी ...
26/07/2025

लता मंगेशकर से एक बार पूछा किसी ने अगर आपको दूसरा जीवन मिले तो क्या आप फिर से लता मंगेशकर बनना चाहोगी ...लता मंगेशकर जी ने ज़वाब दिया मैं कभी नहीं चाहूँगी की मैं फिर कभी लता मंगेशकर बनकर
इस धरती पर आऊँ..क्युकी लोगों ने जिस लता मंगेशकर को प्रेम किया वह मैं नहीं हूँ...मेरी पीड़ा को लोगों ने कभी नहीं देखा..मेरी पीड़ा को लोगों ने कभी नहीं समझा..मैं अंदर से जीवन में कितनी टूटी हुई हूँ यह कोई नहीं जानता...लेकिन मैं स्वयं जानती हूँ इसलिये मैं कभी लता मंगेशकर बनकर नहीं आना पसन्द करुँगी...यह शब्द है स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर जी के जिन्होंने जीवन की हर ऊंचाइ को छुआ है..जब एक सफ़ल स्त्री स्वयं..इस दुनिया में उसी रूप में आना नहीं चाहती है तब साधारण स्त्रियाँ कितनी बार टूटती होगी कितनी बार सिसकती होगी...अपने जीवन में..स्त्रियों का जीवन ही नर्क है बड़ी बदनसीब होती है वह आत्मा जो स्त्री रूप में जन्म लेती है..लेकिन पुरुष कभी स्त्रियों के मन को उनकी पीड़ा को नहीं समझ सकते .कभी नहीं समझ सकते....😢
सादर राधे राधे डॉक्टर विजया सिंह ゚

 #जीत या हार...!!मीटिंग के बीच में जब टेबल पर पड़ा फोन वाइब्रेट हुआ तो पूरे हाल का पता चल गया कि किसी का फोन आया है।बड़े...
26/07/2025

#जीत या हार...!!
मीटिंग के बीच में जब टेबल पर पड़ा फोन वाइब्रेट हुआ तो पूरे हाल का पता चल गया कि किसी का फोन आया है।
बड़े पोस्ट पर विद्यमान अधिकारी ने अपनी तरफ से बड़ी विनम्रता से कहा,
"फोन को साइलेंट करके बैठिए प्लीज़..."
दीपक अचानक हड़बड़ा गया। उसने झटपट फोन उठाया, कॉल डिसकनेक्ट किया — बिना ये देखे कि कॉल किसका था।
"सॉरी सर..."
कहते हुए शर्मिंदगी से फोन स्विच ऑफ कर दिया और ध्यान से फिर उस सफेद बोर्ड की ओर देखने लगा जिस पर अगले साल के टारगेट्स की स्लाइड चल रही थी।
लेकिन उस एक वाइब्रेशन ने जैसे मन के अंदर की शांति को खामोशी से तोड़ दिया था।
दीपक एक मध्यमवर्गीय परिवार से था। नौकरी में 7 साल हो चुके थे, और मेहनत, लगन और विनम्र स्वभाव के कारण सबका चहेता था। एक निजी कंपनी में सीनियर ऑपरेशन्स मैनेजर की भूमिका निभा रहा था। उस दिन ऑफिस में रीजनल मीटिंग चल रही थी जिसमें हेड ऑफिस के बड़े अधिकारी आए थे। पूरी टीम की निगाहें दीपक पर थीं — वह उस दिन की मीटिंग को प्रेजेंट करने वाला था।
प्रेजेंटेशन जब खत्म हुआ, तो तालियों की आवाज़ में उसकी मेहनत की गूंज सुनाई दी। मीटिंग सफल रही। अधिकारियों ने सराहना की।
मीटिंग के बाद जब सब रिफ्रेशमेंट की ओर बढ़े, दीपक वहीं चेयर पर बैठा रह गया। सिर नीचे किए, उसकी आंखें उस टेबल की तरफ थीं जहां उसका फोन अब भी स्विच ऑफ पड़ा था।
वो अचानक जैसे यादों में खो गया...
फोन का वाइब्रेशन...
वो एक कॉल...
कहीं मां की तो नहीं थी?
दीपक ने फौरन फोन ऑन किया।
फोन ऑन होते ही पहला मैसेज जो दिखा —
"दीपक, जल्दी कॉल कर। मम्मी की तबीयत अचानक खराब हो गई है। हॉस्पिटल ला रहे हैं।"
भाई राकेश का मैसेज था। 12:17 PM।
घड़ी देखी — 2:05 PM।
यानी पूरे 1 घंटा 48 मिनट वह अनजाने में उस कॉल को टाल चुका था।
कांपते हाथों से उसने भाई को कॉल किया।
रिंग हो रही थी...
राकेश ने उठाया, लेकिन आवाज भारी थी।
"दीपक... मां चली गई यार..."
उसके कानों में जैसे बम फटा हो।
"क्या..? क्या कहा तूने?"
"मैंने तो बस फोन काटा था...मैं...मैं देख ही नहीं पाया..."
"तू आ जा यार...बस अब कुछ कहने को नहीं बचा।"
फोन हाथ से गिर पड़ा।
दीपक की आंखों से आंसू बहने लगे, वहीं मीटिंग रूम की कुर्सी पर।
लोग रिफ्रेशमेंट में व्यस्त थे। कोई उसकी तरफ देख नहीं रहा था।
लेकिन उसे अब दुनिया दिख ही नहीं रही थी। सिर्फ एक तस्वीर आंखों में बार-बार आ रही थी —मां की वो हल्की मुस्कान जब वो घर आता था।
और अचानक उसे याद आया...
सुबह जल्दी निकला था, मां कॉल करना चाह रही थी, लेकिन उसने कहा था,
"अरे मम्मी, मीटिंग है आज...आपको शाम को कॉल करता हूं अच्छे से..."
मां ने भी मुस्कुरा कर कहा,
"ठीक है बेटा, पर ध्यान रखना आज...तेरा बड़ा प्रेजेंटेशन है ना?"
वो आखिरी शब्द थे मां के। शायद मां ने फिर भी आखिरी बार फोन किया था — बेटे की आवाज़ सुनने को।
पर बेटा... उस दिन ‘प्रेजेंटेशन’ में जीत गया... पर ‘मां’ को हार गया।
दीपक उसी दिन शाम की ट्रेन से अपने छोटे शहर के लिए रवाना हो गया।
जब घर पहुंचा, तो सफेद चादर से ढकी मां की देह देखकर उसका दिल फट गया।
राकेश ने बताया,
"मां को सुबह हल्का चक्कर आया था, फिर अचानक सांसें तेज़ हो गईं... हॉस्पिटल ले जा रहे थे, उसी दौरान... उन्होंने तेरा नाम लिया था..."
दीपक ने मां का फोन चेक किया। उसमें सिर्फ एक आउटगोइंग कॉल थी — दीपक को।
उसके बाद मां ने फोन फिर नहीं उठाया।
अगले कई दिन दीपक बस यही सोचता रहा —
"अगर मैं सिर्फ एक सेकंड रुक कर कॉल देख लेता... अगर मीटिंग में साइलेंट की जगह बाहर जाकर कॉल ले लेता... अगर..."
शायद बहुत सारी "अगर" अब उसके जीवन का हिस्सा बन चुकी थीं।
बाहर की दुनिया उसके काम की तारीफ कर रही थी,
पर अंदर का दीपक हर रात मां से माफ़ी मांगता।
आज मां को गए दो साल हो चुके हैं। दीपक अब भी उसी कंपनी में काम करता है, लेकिन अब उसने एक आदत बदल दी है —
फोन कभी भी अनदेखा नहीं करता।
जब भी फोन वाइब्रेट होता है, वो पहले देखता है कि कौन है।
कभी-कभी कॉल्स ज़रूरी नहीं होते, लेकिन इंसान ज़रूर होता है।
एक दिन ऑफिस में एक नया लड़का था — सौरभ।
मीटिंग चल रही थी, उसका फोन बजा। उसने तुरंत उठाया और बाहर जाने लगा।
दीपक ने अधिकारियों की तरफ देखकर विनम्रता से कहा,
"सॉरी, वो ज़रूरी कॉल हो सकता है। थोड़ा सा समय दे दीजिए उसे।"
मीटिंग कुछ देर रुकी।
सौरभ बाहर गया, फिर लौटा और आंखों में आंसू लिए बोला,
"सर... मेरी बहन का एक्सीडेंट हुआ है... अस्पताल जा रहा हूं..."
दीपक ने उसकी पीठ पर हाथ रखा और बस इतना कहा,
"जाओ सौरभ... सबसे जरूरी मीटिंग वहीं है अभी तुम्हारी..."
एक मीटिंग, एक प्रेजेंटेशन, एक नौकरी — ये सब ज़िंदगी का हिस्सा है, लेकिन जो लोग हमें बिना शर्त चाहते हैं — मां, पिता, भाई, बहन, दोस्त — उनका एक फोन कभी अनदेखा मत करना।
क्योंकि...
"कभी-कभी एक अधूरी कॉल... एक अधूरी कहानी बन जाती है..!"

*इंसान की जरूरतें सिर्फ रोटी और दवा नहीं होतीं*"क्या बात है निशा, फिर से मुंह फुलाया है तुमने? अब क्या हो गया?"—अभय ने ऑ...
26/07/2025

*इंसान की जरूरतें सिर्फ रोटी और दवा नहीं होतीं*

"क्या बात है निशा, फिर से मुंह फुलाया है तुमने? अब क्या हो गया?"—अभय ने ऑफिस से लौटते ही जैसे ही देखा कि पत्नी निशा ड्रॉइंग रूम में चुपचाप बैठी है, तो उसने थके हुए स्वर में पूछा।"कुछ नहीं, तुम पूछोगे ही क्यों, अब तो तुम्हारी सारी दुनिया बस बाबूजी बनकर रह गए हैं, कब क्या चाहिए, क्या नहीं चाहिए, उनकी हर बात पर तुम्हारा ध्यान रहता है, और मैं? मैं तो जैसे इस घर में हूं ही नहीं"—निशा ने नाक सिकोड़ते हुए कहा।"ओह फिर वही बात! अब तुम ये मत कहना कि मैंने तुम्हारे साथ बैठकर खाना नहीं खाया या तुम्हारी पसंद की फिल्म देखने नहीं गया"—अभय ने बैग एक तरफ रखते हुए कहा।"हां! यही तो! ना मैं तुम्हारे साथ बैठकर खाना खा पाती हूं, ना मेरी कोई बात तुम सुनते हो। तुम्हारे बाबूजी को हर वक़्त तुम्हारी ज़रूरत रहती है, और तुम भी एकदम वैसे ही दौड़ पड़ते हो। मैं तो जैसे एक मशीन बन गई हूं, जिसे सिर्फ घर के काम करने हैं। एक बीवी हूं मैं तुम्हारी, नौकर नहीं!"—निशा के स्वर में अब तक गुस्से से ज़्यादा दर्द था।अभय चुप हो गया। कुछ देर तक कमरे में सन्नाटा रहा।फिर उसने धीरे से कहा—"निशा, तुम जानती हो न कि मम्मी के जाने के बाद बाबूजी कितने अकेले हो गए हैं। कितनी बार उन्होंने बस मेरे नाम की पुकार लगाई है, किसी सहारे की उम्मीद में। क्या तुम नहीं देखती जब वो खांसी में दम तोड़ते हुए मुझे आवाज़ लगाते हैं? जब रात को उनकी नींद टूटती है और मैं दौड़ता हूं उनके पास पानी देने?"—"तो फिर मैं क्या करूं? मेरा क्या? मुझे भी तो ज़रूरत होती है तुम्हारी, तुम्हारे साथ बिताने का समय चाहिए। कब तक हर चीज़ मैं अकेले संभालूं?"—निशा अब आंसुओं में बोल रही थी।अभय उसके पास आया, उसके कंधे पर हाथ रखा और बहुत शांत स्वर में बोला—"तुमने सब संभाला है, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन निशा, एक बात बताओ, क्या हम सिर्फ इसलिए सेवा करें क्योंकि वो हमारे पिता हैं? या फिर इसलिए कि वो अब मजबूर हैं? या फिर इसलिए कि मैं बेटा हूं? नहीं, निशा, मैं सेवा इसलिए करता हूं क्योंकि वो मेरे पिता हैं, पर उससे ज़्यादा इसलिए कि वो एक इंसान हैं, जो उम्र के इस पड़ाव पर सबसे ज़्यादा अकेले हो गए हैं। और एक इंसान की जरूरतें सिर्फ रोटी और दवा नहीं होतीं, उसे अपनापन, सहारा, मुस्कान, और साथ भी चाहिए होता है"।"और रही बात तुम्हारी, तो तुम्हें अलग नहीं किया गया है, तुम्हें अपने बराबर लाया गया है। जब मैं पापा के साथ बैठकर खाना खाता हूं, तो चाहूं तो तुम भी वहीं बैठो। जब मैं उनकी दवा लेकर जाता हूं, तो चाहूं तो तुम मेरे साथ चलो। सेवा का बोझ तभी भारी लगता है जब उसे अकेले उठाया जाए। अगर हम दोनों साथ चलें, तो ना ये बोझ होगा और ना शिकायत"।निशा की आंखों से आंसू बह निकले। वो कुछ पल चुप रही। फिर बहुत धीमे से बोली—"पर तुमने कभी मुझे बताया ही नहीं कि तुम्हारे अंदर इतना कुछ चल रहा है। मैंने तो हमेशा यही समझा कि तुम बस पापा को लेकर ज्यादा चिंतित रहते हो और मुझे नज़रअंदाज़ करते हो"।"नज़रअंदाज़ नहीं करता निशा, बस शायद तुम्हें शामिल करने में चूक हो गई"—अभय ने हाथ थामते हुए कहा।अगले दिन सुबह निशा जल्दी उठ गई। उसने अभय के पापा के कमरे में जाकर देखा कि वो खिड़की के पास बैठे हैं, और अकेले में कुछ बुदबुदा रहे हैं।"पापा जी, क्या कह रहे हैं आप?"—निशा ने स्नेह से पूछा।वो चौंके, मुस्कराए और बोले—"बस यूं ही पुराने दिनों को याद कर रहा था बेटा। जब तुम्हारी सासू मां जिंदा थीं, तो मैं कभी भी दवा लेना नहीं भूलता था। अब भूलने लगा हूं।"निशा ने मुस्कराकर उनका हाथ थामा—"अब मैं हूं ना पापा जी, अब कुछ भी भूलने की ज़रूरत नहीं"।उस दिन पहली बार निशा ने अपने हाथों से चाय बनाई और पापा जी को दी। उनकी आंखें भर आईं।और उस शाम जब अभय घर लौटा तो देखा कि डाइनिंग टेबल पर तीन प्लेटें सजी थीं। उसकी नज़र निशा पर पड़ी, जो मुस्कराते हुए बोली—"आज डिनर हम तीनों साथ करेंगे। क्योंकि अब से सेवा सिर्फ बेटे की ज़िम्मेदारी नहीं, बहू की खुशी भी है"।अभय ने निशा को देखा। उसकी आंखों में वो सुकून था जो वर्षों से गुम हो गया था। और निशा को अपने भीतर एक नयी स्त्री मिल चुकी थी—जो सिर्फ पत्नी नहीं, एक बेटी भी थी।अब पापा जी की दवाइयाँ, दूध, खाना—सब निशा समय से देती। वो हर शाम उनके साथ बैठती, उनके पुराने किस्से सुनती। और पापा जी हर बार कहते—"बेटा तो था ही, पर बहू में बेटी मिल गई"।अब कोई शिकायत नहीं थी। कोई चुप्पी नहीं थी। अभय जब भी कहता—"बेटा हूं, सेवा करूंगा", तो निशा मुस्कराकर कहती—"पत्नी हूं, पर बेटी भी बन सकती हूं"।
दोस्तो आगर आपको ये कहानी अच्छी लगी हो तो लाइक शेयर और फॉलो जरूर करे!
Writer✍️
Shanvi Sharma

बहन और बेटी में फर्क क्योंकल फोन आया था वो एक बजे ट्रेन से आ रही है. किसी को स्टेशन भेजने की बात चल ऱही थी आज रिया ससुरा...
26/07/2025

बहन और बेटी में फर्क क्यों

कल फोन आया था वो एक बजे ट्रेन से आ रही है. किसी को स्टेशन भेजने की बात चल ऱही थी आज रिया ससुराल से दुसरी बार दामाद जी के साथ आ रही हैं घर के माहौल में एक उत्साह सा महसूस हो रहा हैं
इसी बीच .....एक तेज आवाज आती हैं
"इतना सब देने की क्या जरूरत है ??
बेकार फिजूलखर्ची क्यों करना ??
और हाँ आ भी रही है तो कहो कि टैक्सी करके आ जाये स्टेशन से।"
(बहन के आने की बात सुनकर अश्विन भुनभुनाया )
माँ तो एक दम से सकते में आ गई
की आखिर यह हो क्या रहा हैं ????
माँ बोली .....
"जब घर में दो-दो गाड़ियाँ हैं तो टैक्सी करके क्यों आएगी मेरी बेटी ??
और दामाद जी का कोई मान सम्मान है कि नहीं ???
पिता जी ने कहा की ससुराल में उसे कुछ सुनना न पड़े।
मैं खुद चला जाऊंगा उसे लेने, तुम्हे तकलीफ है तो तुम रहने दो।"
पिता गुस्से से एक सांस में यह सब बोल गए
"और ये इतना सारा सामान का खर्चा क्यों? शादी में दे दिया न। अब और पैसा फूँकने से क्या मतलब।"
अश्विन ने बहन बहनोई के लिए आये कीमती उपहारों की ओर देखकर ताना कसा ....
पिता जी बोले बकवास बंद कर
"तुमसे तो नहीं माँग रहे हैं। मेरा पैसा है, मैं अपनी बेटी को चाहे जो दूँ। तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या जो ऐसी बातें कर रहे हो।" पिता फिर से गुस्से में बोले।
अश्विन दबी आवाज में फिर बोला
"चाहे जब चली आती है मुँह उठाये।"
पिता अब अपने गुस्से पर काबू नही कर पाये और चिल्ला कर बोले
"क्यों न आएगी ????
हाँ इस घर की बेटी है वो।
मेरी बेटी हैं वो ये उसका भी घर है। जब चाहे जितने दिन के लिए चाहे वह रह सकती हैं। बराबरी का हक है उसका।
आखिर तुम्हे हो क्या गया है जो ऐसा अनाप-शनाप बके जा रहे हो।"
अब बारी अश्विन की थी ...
"मुझे कुछ नही हुआ है पिताजी। आज मैं बस वही बोल रहा हूँ जो आप हमेशा बुआ के लिए बोलते थे।
आज अपनी बेटी के लिए आज आपको बड़ा दर्द हो रहा है लेकिन कभी दादाजी के दर्द के बारे में सोचा हैं ????? कभी बुआ की ससुराल और फूफाजी के मान-सम्मान की बात नहीं सोची ???
माँ और पिता जी एक दम से सन्नाटे में चले गए ...
अश्विन लगातार बोल जा रहा हैं
"दादाजी ने कभी आपसे एक ढेला नहीं मांगा वो खुद आपसे ज्यादा सक्षम थे फिर भी आपको बुआ का आना, दादाजी का उन्हें कुछ देना नहीं सुहाया....क्यों ???
और हाँ बात अगर बराबरी और हक की ही हैं तो आपकी बेटी से भी पहले बुआ का हक है इस घर पर।"
अश्विन की आवाज आंसूओ से भर्रा सी गई थी अफसोस भरे स्वर में बोला।
पिता की गर्दन शर्म से नीची हो गयी
पर अश्विन नही रूका
"आपके खुदगर्ज स्वभाव के कारण बुआ ने यहाँ आना ही छोड़ दिया।
दादाजी इसी गम में घुलकर मर गए ...
और हाँ में खुद जा रहा हूँ स्टेशन रिया को लेने पर मुझे आज भी खुशी है कि मैं कम से कम आपके जैसा खुदगर्ज भाई तो नहीं हूँ।"
कहते हुए अश्विन कार की चाबी उठाकर स्टेशन जाने के लिए निकल गया।
पिता आसूँ पौंछते हुए अपनी बहन सरिता को फोन लगाने लगे।
दीवार पर लगी दादाजी की तसवीर जैसे मुस्कुरा रही थी।

"एक दस्तक की कहानी"कोई लगातार घंटी बजा रहा था।भावना ने करवट बदली, आंखें मिचमिचाईं और दीवार की घड़ी की तरफ देखा — सुबह के...
26/07/2025

"एक दस्तक की कहानी"

कोई लगातार घंटी बजा रहा था।

भावना ने करवट बदली, आंखें मिचमिचाईं और दीवार की घड़ी की तरफ देखा — सुबह के 7 बज रहे थे।

उसने धीरे से खुद से बड़बड़ाया,
"इतनी सुबह कौन होगा? शायद कबीर होगा… दूध वाला फिर लेट हो गया होगा।"

वह उठने ही वाली थी कि पीछे से विराज की आवाज़ आई —
"तुम रुको, मैं देखता हूँ।"
वो बड़बड़ाए, चश्मा पहनते हुए, "लोगों को सुबह-सुबह चैन क्यों नहीं है..."

भावना का दिल थोड़ा तेज़ धड़कने लगा। कबीर दूध वाला था, लेकिन उससे अक्सर किसी न किसी बात पर विराज की कहासुनी हो जाती थी — कभी पैसे को लेकर, कभी देरी को लेकर।
"कहीं आज फिर झगड़ा न हो जाए...", वह सोचते हुए उनके पीछे-पीछे चल पड़ी।

जैसे ही विराज ने दरवाज़ा खोला, सामने एक अनजान युवक खड़ा था।
करीब 22–23 साल का, साधारण कपड़े, कंधे पर एक बैग टंगा हुआ। उसकी आंखों में थकावट और चेहरे पर गहरी चिंता थी।

"जी?" विराज ने सख़्त स्वर में पूछा।

युवक ने झिझकते हुए कहा,
"माफ़ कीजिए, मैं ग़लत वक़्त पर आया हूँ शायद। पर... क्या ये मकान पहले मिसेज़ संध्या शर्मा का था?"

विराज और भावना दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा।

"हाँ, था... लेकिन अब हमें यहाँ रहते दस साल हो गए। आप कौन हैं?" भावना ने थोड़ा नरम लहजे में पूछा।

युवक ने गहरी सांस ली,
"मैं... राघव। संध्या मेरी माँ थीं। मैं अनाथालय में पला-बढ़ा। आज से कुछ दिन पहले मुझे एक चिट्ठी मिली, जिसमें लिखा था कि मेरी असली माँ इस पते पर रहती थीं... या रहती थीं।"
उसकी आवाज़ भीग गई थी।

भावना के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकने जैसी हुई। उन्होंने इस घर को दस साल पहले खरीदा था, जब संध्या जी की मृत्यु हुई थी। तब वो अकेली थीं, कोई परिवार नहीं बताया गया था।

"तुम्हें ये सब कैसे पता चला?" विराज का संदेह अब भी बाकी था।

राघव ने बैग से एक मुड़ी हुई चिट्ठी निकाली। उस पर पुराने अक्षरों में लिखा था:
"मेरे बेटे राघव के लिए, अगर कभी उसे सच्चाई पता चले।"

भावना ने चिट्ठी को कांपते हाथों से खोला। संध्या जी की लिखाई उन्हें अच्छी तरह याद थी — वो इस कॉलोनी में सबकी मदद करती थीं, शांत स्वभाव की।
चिट्ठी में लिखा था:

"राघव, अगर ये चिट्ठी कभी तुझे मिले, तो जान ले बेटा कि मैंने तुझे मजबूरी में छोड़ा था, नफरत में नहीं। मैंने तुझे एक बेहतर ज़िंदगी देने के लिए खुद से अलग किया। लेकिन अगर कभी तू मुझे ढूंढते हुए इस पते तक पहुंचे — तो जान ले, मैंने तेरा इंतज़ार किया था... हर सुबह, हर शाम।"

भावना की आंखें नम हो गईं।

राघव अब भी द्वार पर खड़ा था, जैसे जीवन के सबसे बड़े मोड़ पर रुक गया हो।

"आओ बेटा, अंदर आओ।" भावना ने कहा।
विराज ने भी एक गहरी सांस ली और सिर हिलाया।

राघव अंदर आया। उसने घर को बड़े ध्यान से देखा — एक-एक दीवार, एक-एक कोना। भावना ने उसे पानी दिया, और खुद भी पास बैठ गईं।

"संध्या जी बहुत प्यारी थीं," उन्होंने कहा।
"तुम्हारे बारे में उन्होंने कभी नहीं बताया, पर अब समझ आ रहा है कि क्यों। शायद दिल में बहुत दर्द था।"

राघव ने सिर झुकाया।
"मैं बस जानना चाहता था कि वो कैसी थीं... क्या उन्होंने कभी मेरे बारे में सोचा..."

"बहुत," भावना बोलीं, "हर सुबह वो एक पुराने झूले पर बैठकर चुपचाप कुछ लिखती थीं... शायद वही चिट्ठियाँ। वो कहती थीं कि हर माँ का एक कोना हमेशा अपने बच्चे के लिए खाली रहता है — चाहे कितनी ही दूर क्यों न हो।"

कमरे में कुछ देर सन्नाटा छा गया।

फिर भावना उठीं और अलमारी से एक पुराना छोटा सा बक्सा निकाल लाईं।
"ये उनके कुछ पुराने सामान हैं, जिन्हें हमने सहेज कर रखा था — कुछ खत, एक डायरी, और उनकी एक तस्वीर। शायद ये तुम्हारे काम आएं..."

राघव की आंखें भर आईं। उसने कांपते हाथों से वो सामान लिया, और माँ की तस्वीर को जैसे अपने दिल से लगा लिया।

"क्या मैं कुछ देर यहाँ बैठ सकता हूँ? शायद वो यहीं कहीं होती हों..." उसने धीमे से कहा।

विराज ने कहा,
"बिलकुल बेटा। यह घर कभी उनका था... और अगर तुम चाहो, आज से यह तुम्हारा भी हो सकता है।"

*हर घर में शबरी*पति के लिए जूस बनाया और जूस पीने से पहले ही पति की आंख लग गई थी। नींद टूटी,तब तक एक घंटा हो चुका था। पत्...
26/07/2025

*हर घर में शबरी*

पति के लिए जूस बनाया और जूस पीने से पहले ही पति की आंख लग गई थी।
नींद टूटी,तब तक एक घंटा हो चुका था।
पत्नी को लगा कि इतनी देर से रखा जूस कहीं खराब ना हो गया हो।
उसने पहले जरा सा जूस चखा और जब लगा कि स्वाद बिगड़ा नहीं है, तो पति को दे दिया पीने को।

सवेरे जब बच्चों के लिए टिफिन बनाया तो सब्जी चख कर देखी।
नमक, मसाला ठीक लगा तब खाना पैक कर दिया।
स्कूल से वापस आने पर बेटी को संतरा छील कर दिया।
एक -एक परत खोल कर चैक करने के बाद कि कहीं कीड़े तो नहीं हैं,खट्टा तो नहीं है,
सब देखभाल कर जब संतुष्टि हुई तो बेटी को एक एक करके संतरे की फाँके खाने के लिए दे दीं।

दही का रायता बनाते वक्त लगा कि कहीं दही खट्टा तो नहीं हुआ और चम्मच से मामूली दही ले कर चख लिया।
"हां ,ठीक है ", जब यह तसल्ली हुई तब ही दही का रायता बनाया।

सासु माँ ने सुबह खीर खूब मन भर खाई और रात को फिर खाने मांगी तो झट से बहु ने सूंघी और चख ली कि कहीँ गर्मी में दिन भर की बनी खीर खट्टी ना हो गयी हो।

बेटे ने सेंडविच की फरमाईश की तो ककड़ी छील एक टुकड़ा खा कर देखा कि कहीं कड़वी तो नहीं है। ब्रेड को सूंघा और चखा की पुरानी तो नहीं दे दी दुकान वाले ने। संतुष्ट होने के बाद बेटे को गर्मागर्म सेंडविच बनाकर खिलाया।

दूध, दही, सब्जी,फल आदि ऐसी कितनी ही चीजें होती हैं जो हम सभी को परोसने से पहले मामूली-सी चख लेते हैं।

कभी कभी तो लगता है कि हर मां, हर बीवी, हरेक स्त्री अपने घर वालों के लिए शबरी की तरह ही तो है।
जो जब तक खुद संतुष्ट नहीं हो जाती, किसी को खाने को नही देती।
और यही कारण तो है कि हमारे घर वाले बेफिक्र होकर इस शबरी के चखे हुए खाने को खाकर स्वस्थ और सुरक्षित महसूस करते हैं।

हमारे भारतीय परिवारों की हर स्त्री शबरी की तरह अपने परिवार का ख्याल रखती है और घर के लोग भी शबरी के इन झूठे बेरों को खा कर ही सुखी, सुरक्षित,स्वस्थ और संतुष्ट रहते हैं।

हर उस महिला को समर्पित जो अपने परिवार के लिये *"शबरी"* है।
🙏🙏

पुराने जमाने मे एक कहावत थी "जितने हाथ उतनी कमाई" उस समय बच्चों की संख्या 15 तक पहुँच जाती थी। फिर कहावत आई " बच्चे हो च...
26/07/2025

पुराने जमाने मे एक कहावत थी "जितने हाथ उतनी कमाई" उस समय बच्चों की संख्या 15 तक पहुँच जाती थी। फिर कहावत आई " बच्चे हो चार, सुखी रहेगा परिवार! " तीसरी कहावत आई "हम दो हमारे दो" अब जमाना है शेर का बच्चा एक ही अच्छा। अब आने वाले समय मे कहावत आयेगी " ना बच्चा, ना बच्ची, नींद आये अच्छी☺

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