Karuna Rani Vlog

Karuna Rani Vlog Hi everyone. I'm Karuna and a food lover like you Cooking has always been my passion and to purse
(1)

मीरा हमेशा से अपनी छोटी-छोटी खुशियों में संतुष्ट रहने वाली औरत थी।बचपन में ही माँ-बाप चले गए थे, तो नानी ने पाला। शादी ह...
16/09/2025

मीरा हमेशा से अपनी छोटी-छोटी खुशियों में संतुष्ट रहने वाली औरत थी।
बचपन में ही माँ-बाप चले गए थे, तो नानी ने पाला। शादी हुई तो घर बड़ा था—सास-ससुर, तीन देवर, दो ननदें। धीरे-धीरे सबके हिस्से में जीवन की सहूलियतें आईं, पर मीरा के हिस्से में सिर्फ काम और ज़िम्मेदारी।

उसके पास गहनों का डिब्बा भी नहीं था। शादी में मायके से आया हुआ एक काँच का हार था—हरी और सुनहरी मोतियों वाला। मीरा उसे हर त्यौहार पर पहन लेती, और यही सोचकर खुश हो जाती कि "ये ही मेरी पहचान है।"

मीरा का बेटा, आयुष, बारहवीं कक्षा में था। समझदार और चुप-सा लड़का। उसे अक्सर लगता—"माँ हमेशा दूसरों को संवारती है, लेकिन खुद को कभी नहीं।"
कभी-कभी वह माँ की पुरानी अलमारी खोलता, तो देखता वही काँच का हार, एक टूटी हुई चूड़ी और हल्की पड़ चुकी गुलाबी साड़ी।

एक दिन स्कूल से लौटते वक्त आयुष अपने दोस्तों के साथ बाज़ार गया। वहाँ उसने एक गहनों की दुकान में नकली लेकिन सुंदर हार देखे। दाम भी ज्यादा नहीं थे—₹250 से शुरू। आयुष देर तक उन्हें देखता रहा। "काश माँ को एक असली हार दिला पाता… लेकिन अभी तो ये भी बड़ा है मेरे लिए।"

उसने ठान लिया कि वो कुछ भी करके माँ के लिए हार खरीदेगा।
हर रोज़ ट्यूशन के बाद वह बच्चों को पढ़ाने लगा। छोटे बच्चों को अंग्रेज़ी और गणित पढ़ाता। महीने के अंत में उसके पास करीब ₹1200 जमा हो गए।

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रात का खाना चल रहा था। सब लोग हंसी-मज़ाक कर रहे थे। आयुष ने माँ से कहा—
“माँ, कल मुझे ज़रा बाज़ार ले चलना।”

मीरा ने हैरानी से पूछा, “क्यों? क्या चाहिए तुझे?”
“बस, चलना… एक काम है।”

अगले दिन वो दोनों साइकिल से बाज़ार पहुँचे। आयुष सीधा उसी दुकान पर ले गया और बोला—
“माँ, ये देखो… ये हार। अच्छा है ना?”

मीरा सकपका गई। “अरे! ये तो बड़ा अच्छा है बेटा… पर तू क्यों देख रहा है ये सब?”
आयुष मुस्कुरा दिया। दुकानदार से बोला—“भाई साहब, ये पैक कर दो।”

मीरा ने झट से रोका—“पागल हो गया है क्या? कितना महँगा होगा!”
आयुष ने अपनी बचत की गड्डी निकाल दी—छोटे-छोटे नोट।
“माँ, ये मैंने कमाए हैं। दूसरों के बच्चों को पढ़ा-पढ़ाकर। अब ये हार आपका है।”

मीरा की आँखें भर आईं। उसके हाथ काँपते रहे, जब हार उसकी हथेलियों में रखा गया। वह कुछ बोल न सकी, बस बेटे के सिर पर हाथ रख दिया।

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घर पहुँचे तो दादी (आयुष की अम्मा) ने देख लिया।
“अरे बहू! ये नया हार कहाँ से आया?”
मीरा कुछ बोलने ही वाली थी कि आयुष आगे बढ़ गया—
“दादी, ये मैंने दिलाया है। माँ के पास तो बस एक काँच का पुराना हार था। अब देखो, ये पहनेंगी।”

घर में पहली बार सन्नाटा छा गया। सब हैरान थे कि लड़का इतना सोच सकता है।
देवर और ननदें चुप हो गए, और दादी की आँखों में चमक आ गई।
उन्होंने कहा—“बेटा, तूने तो सच में अपने बाप का नाम रौशन कर दिया। बहू की इज़्ज़त रख ली तूने।”

मीरा पहली बार सचमुच सजाई गई थी। उसने जब वो हार पहना, तो चेहरा जैसे खिल उठा। उसके होंठों पर एक संकोची मुस्कान थी।

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रात को आयुष पास बैठा था। मीरा ने धीमे स्वर में कहा—
“बेटा, गहनों से ज़िंदगी नहीं बदलती। पर तेरे प्यार से ज़रूर बदल जाती है। आज तूने मुझे वो खुशी दी है, जो मैंने कभी माँगी भी नहीं थी।”

आयुष ने माँ का हाथ पकड़ लिया—“अब आपको और समझौते नहीं करने दूँगा माँ। आप मेरी जिम्मेदारी हो।”

मीरा की आँखें छलक गईं। उसने महसूस किया कि उसका आने वाला जीवन अब सुरक्षित है। उसके सपनों का “काँच का हार” टूट चुका था, और उसकी जगह अब बेटे के प्यार का असली हार था।

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दादी अक्सर कहा करती थीं—
“औरत की किस्मत में बस चूल्हा-चौका लिखा है।”
पर उस दिन उन्होंने खुद माना—
“नहीं, औरत की किस्मत उसके बेटे के हाथों से बदल सकती है।”

मीरा आईने में खुद को देख रही थी। गले में नया हार चमक रहा था।
दिल में एक ही ख्याल—
"अब मेरा आने वाला समय मेरे बेटे के हाथों में है, और मुझे यकीन है कि वो समय अच्छा होगा।"

भाग - 2

मीरा अब तक चुपचाप सब करती रही थी। सुबह पाँच बजे उठकर घर का काम, सास की दवा, बच्चों का नाश्ता, पति की चाय, फिर दिनभर की रसोई और अंत में देर रात तक सबके कपड़े समेटना।
कभी शिकायत नहीं, कभी कोई गिला नहीं।

लेकिन उस दिन, जब आयुष ने अपनी कमाई से माँ को हार पहनाया, तो जैसे हवा बदल गई।

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रात को, जब सब सो गए, मीरा अपने कमरे में हार को कपड़े में लपेटकर रख रही थी। तभी दरवाजे पर आहट हुई।
उसके पति, विजय, खड़े थे।

“ये हार कहाँ से आया?” उन्होंने सख्त आवाज़ में पूछा।

मीरा कुछ कहने लगी, लेकिन आयुष बीच में आ गया।
“पापा, ये मैंने खरीदा है। माँ के लिए।”

विजय चौंक गए—“तुम? ये सब बचकानी हरकत है। गहनों से क्या होगा? पैसे पढ़ाई में लगाओ।”

आयुष ने पहली बार पिता की आँखों में देखकर कहा—
“पापा, माँ ने भी तो पढ़ाई नहीं छोड़ी थी, जब हम छोटे थे। उन्होंने हमें बड़ा किया। वो कभी अपने लिए कुछ नहीं लेतीं। तो क्या उनका हक भी नहीं?”

कमरे में सन्नाटा छा गया। विजय के पास कोई जवाब नहीं था। वो चुपचाप बाहर निकल गए।

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उस रात विजय सो नहीं पाए। उन्हें याद आने लगा—शादी के वक्त मीरा के हाथों में बस एक काँच का हार था।
फिर बच्चे हुए, खर्च बढ़े, जिम्मेदारियाँ बढ़ीं। उन्होंने कभी सोचा ही नहीं कि मीरा ने अपने लिए कुछ माँगा भी नहीं।
उनके चेहरे पर अपराधबोध था।

अगले दिन रविवार था। विजय ने अचानक कहा—
“मीरा, चलो बाज़ार चलते हैं।”

मीरा चौंक गई—“क्यों?”
“बस… ज़रा देखना है।”

बाज़ार में विजय सीधे कपड़ों की दुकान पर ले गए।
“इनके लिए एक अच्छी सूती साड़ी दिखाइए। हल्की हो, गर्मियों में पहनने लायक।”

मीरा की आँखें नम हो गईं। इतने सालों में पहली बार उनके पति ने खुद उनके लिए साड़ी खरीदी थी।

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जब मीरा ने नई साड़ी पहनकर पूजा में सबको प्रसाद बाँटा, तो दादी ने कहा—
“बहू, ये रंग तुझ पर बहुत फब रहा है।”

देवर और ननदें भी हँसकर बोले—“भाभी, अब तो आप और भी जवान लग रही हैं।”

मीरा झेंप गई, लेकिन दिल में कहीं बहुत गहरी खुशी थी।
अब घर के माहौल में बदलाव था।
कभी बुआ कहतीं—“भाभी, ये नया चश्मा आपके लिए लाया हूँ।”
तो कभी देवर पूछते—“भाभी, डॉक्टर के पास चलूँ आपके साथ?”

सब धीरे-धीरे समझने लगे कि जिस औरत ने घर सँभाल रखा है, उसकी देखभाल भी जरूरी है।

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आयुष अब और भी पढ़ाई में लग गया। उसका सपना था—“एक दिन मैं माँ को सोने का हार दूँगा।”
मीरा ने उसे गले से लगाकर कहा—
“बेटा, मुझे सोने-चाँदी की नहीं, बस तेरे सपनों की ज़रूरत है।”

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वर्षों से दबे हुए प्यार और सम्मान की भूख, एक छोटे से नकली हार ने बाहर निकाल दी थी।
मीरा अब आईने में देखती तो सिर्फ अपना चेहरा नहीं, बल्कि पूरे परिवार का बदलता चेहरा भी देखती।
उसे लगता—
"काँच का हार तो बहाना था, असली गहना तो मेरा बेटा और उसका प्यार है, जिसने सबकी सोच बदल दी।"
#कहानी #

"हे भगवान! अच्छी बहू पल्ले पड़ी हैं मेरे। खाना बनाना भी नहीं आता। तीन महीने हो गए शादी को लेकिन अभी तक वही के वही हाल। य...
16/09/2025

"हे भगवान! अच्छी बहू पल्ले पड़ी हैं मेरे। खाना बनाना भी नहीं आता। तीन महीने हो गए शादी को लेकिन अभी तक वही के वही हाल। यह खाना कोई खाने लायक है। आज भी मुझे भूखा ही उठना पड़ेगा। नमन के टिफिन में तो आचार ही जाएगा आज। अपने ही घर में रोटी भी ढंग की नहीं मिलती"
सासू मां का बड़बड़ाना बदस्तूर जारी था। खाना खाती जा रही थी और खाते खाते दो बातें सुनाए जा रही थी। पर मजाल है कि घर में कोई और सदस्य कुछ कह जाए। वैसे भी सासू मां धीरे तो बोलती है नहीं, तो रसोई में काम करती सुनैना को सब कुछ साफ-साफ सुनाई दे रहा था। पर उसे तो नमन को भी टिफिन पैक करके देना था। इसलिए सासु मां की बातों में ध्यान देने से अच्छा जल्दी जल्दी हाथ चलाने में लगी हुई थी।
दरअसल आज सुनैना ने आलू की रसेदार सब्जी बनाई थी। घर में छाछ नहीं थी। उसने घर में सभी से कहा लेकिन कोई लाने को तैयार नहीं था, तो उसने छाछ की जगह टमाटर डाल दिये। सासू मां और नमन को आलू की सब्जी में छाछ पसंद है। बस उसी बात को लेकर उनका बोलना जारी था।
सुनैना जब भी खाने में कोई बदलाव करती या कुछ नया करती, तो घर में कोई भी आसानी से पचा नहीं पाता। यहाँ तक की उसका पति नमन भी नहीं। इसीलिए टिफिन में पराठे के साथ आचार रखा और दो लेक्चर पति की तरफ से भी सुने,
" जब पता है कि कोई खाता नहीं है तो बनाती क्यों हो। अपने आप को तो बिल्कुल भी बदलने की कोशिश नहीं करती"
सुनैना ने चुप रहना ही ठीक समझा। थोड़ी देर बाद अपने लिए खाना ले कमरे में चली गई और खाना खाने बैठी थी कि सासू मां ने बाहर से ताना मारा,
" अपना ही पेट भरो बाकी तो सब को भूखा मारो"
सुनैना का जी तो चाहा खाना छोड़ कर उठ कर खड़ी हो जाए, पर अन्न का अनादर नहीं करते यही सोच कर जैसे तैसे दो पराठे खाए और अपने काम पर लग गई।
अक्सर ही ऐसा होता था। इस घर में अगर जरा सा भी खाने में कोई बदलाव हो जाता तो सुबह से शाम तक जब तक दस बार सुना नहीं दिया जाता था, किसी का भी खाना हजम नहीं होता। और ऐसा नहीं है कि सिर्फ यह घर में ही होता है अगर बाहर भी खाना खाने गए हैं तो खाना वही पड़ेगा जो सब खा रहे है।
अभी तीन दिन पहले सासू मां, नमन और सुनैना का एक साथ मार्केट जाना हुआ। आते समय रास्ते में चाट पकौड़ी खाने की इच्छा हुई तो सासू मां और नमन ने अपने लिए छोले टिकिया आर्डर किए, जबकि सुनैना की डोसा सांभर खाने की इच्छा हुई। लेकिन नमन छोले टिकिया ही लेकर आया,
"नमन जी मेरी यह खाने की इच्छा नहीं है। मुझे तो डोसा सांभर खाना था"
" अरे भला वह भी कोई खाने की चीज है। इसे खा कर देखो बहुत टेस्टी है"
" हां मैं मानती हूं टेस्टी है पर मेरी इच्छा..."
" अब तुम्हारे लिए अलग से क्या लेकर आता"
"पर दोनों की कीमत तो बराबर ही है"
" देखो बहू, बात पैसों की नहीं है। जो सब लोग खा रहे हैं वही तुम्हें खाना पड़ेगा" अबकी बार सासु माँ ने कहा तो सुनैना कुछ भी कह नहीं पाई।
सुनैना का जी भर आया पर चुपचाप छोले टिकिया खाए और सबके साथ घर रवाना हो गई। आज शाम को ननद के होने वाले सास ससुर आ रहे थे। तो घर में छोले भटूरे बन रहे थे। सुनैना को छोले ग्रेवी वाले पसंद थे, जबकि सभी को छोले रसेदार पसंद है। सुनैना जब छोले बनाने लगी तो उसने ग्रेवी के साथ एक कटोरी छोले निकाल लिए और बाद में पानी डालकर उसे रसेदार कर दिया। जब सासु मां ने उस एक कटोरी छोले को देखा तो उन्होंने उसी बात को लेकर हंगामा कर दिया,
" बहु यह एक कटोरी छोले अलग क्यों निकाल कर रखे हैं"
" मम्मी जी मुझे भटूरे के साथ रसेदार छोले पसंद नहीं है, तो मैंने अपने लिए थोड़े से कटोरी में निकाल कर रखे हैं"
" अब एक ही घर में तुम दो भात करोगी। क्या कमी होती है रसेदार छोले में, जो तुम इस तरह की हरकत कर रही हो। हम सबको तो इसी तरह के छोले पसंद है। कल को नई बहू आएगी तो तुम उसे भी यही सब सिखाओगी"
" मम्मी जी मैंने ऐसा क्या गलत कर दिया जो आप इस तरह की बातें कर रही हो"
" मुझे जवाब देती हो तुम। नमन अभी के अभी किचन में आओ, मुझे तुमसे बात करनी है"
मां की तेज आवाज सुनकर नमन रसोई में आ गया। उसके साथ साथ घर के दूसरे सदस्य भी आ गए। सासू मां ने छोले की कटोरी नमन की तरफ करते हुए कहा,
" देखो तुम्हारी पत्नी को। अपने लिए अलग से छोले निकाल कर रखे हैं इसने। पता नहीं और क्या-क्या हरकतें करती होगी हमारे घर में"
नमन ने गुस्से से सुनैना की तरफ देखा,
" सुनैना, क्या है यह सब? तुम इस तरह की हरकतें क्यों कर रही हो"
" नमन जी मुझे रसेदार छोले नहीं भाते इसलिए मैंने अपने लिए सिर्फ एक कटोरी छोले निकालकर अलग रखें"
" तो जो सबके लिए बनता तुम वह नहीं खा सकती क्या?? थोड़ा तो बदलाव करो अपने में"
अपने पति की बात सुनकर सुनैना की आंखों में आंसू आ गए,
" बदलते बदलते इतना बदल गई कि कहां खो गई पता ही नहीं चला। आप सब लोग एक दिन भी अपने खाने के स्वाद में बदलाव नहीं कर पाते तो सोचो बचपन से लेकर अब तक मैंने जो स्वाद मेरे मुंह पर रखा, उसको कैसे बदल दूँ।
आप लोगों का खान-पान हमारे घर के खानपान से बहुत अलग है। पर फिर भी मैं कोशिश करती हूं कि मैं इस घर के हिसाब से अपने आप को एडजस्ट करूँ। पर नहीं, एडजस्ट तो सिर्फ बहू को करना है, घर के लोगों को नहीं। जो आप लोग चाहो, वही मैं खाऊं। यह क्या बात हुई?? मैंने कौन सा अलग से खर्चा करके कुछ और बनाया है। जो बन रहा था उसी में से कटोरी निकालकर अलग रखा था।
सौ दिन में अगर एक दिन मैंने मेरी मर्जी का खा लिया तो क्या फर्क पड़ गया। हमेशा तो आप लोगों की मर्जी के अनुसार ही खाती हूं। जब देखो तब जो सब खाते वही तुम खाओ तो कभी आप लोग भी तो मेरी मर्जी का कुछ खा लिया करो। आखिर मैं भी तो इसी घर के सदस्य हूँ ना। आप लोग भी तो अपने अनुसार जब टेस्ट बदलना चाहते हो तो बाहर खा लेते हो। अब बहू तो अकेली बाहर भी नहीं जा सकती तो भला टेस्ट कैसे बदले?? मेरी इच्छा का सम्मान करना भी आपकी जिम्मेदारी है। जब मैं आपके अनुसार खा सकती हूँ तो क्या आप कभी मेरे अनुसार नहीं खा सकते"
सुनैना की बातों का किसी के पास कोई जवाब नहीं था। लेकिन ससुराल था। जाहिर सी बात है फर्क तो किसी को पड़ा नहीं। बस फर्क पड़ा तो सुनैना को। वो थोड़ी सी बेपरवाह हो गई। अब सुनैना अपनी इच्छा अनुसार खा लिया करती थी। जिसको चिल्लाना हो, चिल्लाते रहे। आखिर रहना तो उसे उसी घर में है। कब तक मन मार कर रहेगी।
शुरू शुरू में तो हंगामा हुआ। लेकिन जब देखा कि सुनैना पर कोई असर नहीं हो रहा है। तो धीरे-धीरे सब अपने आप ही चुप हो गए।

कभी-कभी डांटने वाले ही हमारी जड़ें सींच रहे होते है.. याद रखिए.. माली ना हो तो फूलों की खुशबू भी खो जाती है। 💐🌹🌺👍
16/09/2025

कभी-कभी डांटने वाले ही हमारी जड़ें सींच रहे होते है.. याद रखिए.. माली ना हो तो फूलों की खुशबू भी खो जाती है। 💐🌹🌺👍

जब कुत्ता भोजन चुरा कर लाता है तब वह उसे छुप कर खाता है। मगर जब हम उसे रोटी डालते है तब हमारे सामने ही खा लेता है। मतलब ...
16/09/2025

जब कुत्ता भोजन चुरा कर लाता है तब वह उसे छुप कर खाता है। मगर जब हम उसे रोटी डालते है तब हमारे सामने ही खा लेता है। मतलब कुत्ता अच्छी तरह जानता है कौनसी रोटी बेईमानी की है और कौनसी ईमानदारी की। और ये बात कुत्ते के लिए नही थी। 🐶🐾💭👀

राजेश अभी घर से निकला ही था, कि उसने देखा उसके स्कूल के मास्टर जी रघुनंदन तिवारी जी उसके घर ही आ रहे थे। वह रुक गया।तभी ...
16/09/2025

राजेश अभी घर से निकला ही था, कि उसने देखा उसके स्कूल के मास्टर जी रघुनंदन तिवारी जी उसके घर ही आ रहे थे। वह रुक गया।

तभी मास्टर जी ने उससे कहा – ‘‘बेटा आज तो स्कूल की छुट्टी है। मुझे तेरे पिता जी से कुछ काम था। क्या वो घर पर हैं।’’

‘‘जी मास्टरजी, पिताजी जी अभी घर पर ही हैं।’’ – राजेश ने जबाब दिया।

उनकी आवाज सुनकर मधूसूदन जी घर से बाहर आये और बोले – ‘‘अरे मास्टरजी आप? क्या राजेश ने कोई गलती कर दी है।’’

मास्टर जी ने हसते हुए कहा – ‘‘अरे नहीं यह तो बहुत होनहार है, इसीलिये मैं आपसे कुछ बात करने आया हूं। आप शायद नहीं जानते कि आपका बच्चा पढ़ने में बहुत तेज है, मैं चाहता हूं, कि इसे शहर भेज दिया जाये। यह एक दिन जरूर आपका नाम रोशन करेगा।’’

मधूसूदन जी ने आश्चर्य से पूछा – ‘‘यह सब तो मुझे पता नहीं है। आप कह रहे हैं, तो ठीक ही होगा, लेकिन इसे भेजे कैसे मेरे पास तो पैसे नहीं हैं।’’

मास्टर जी ने राजेश से कहना शुरू किया – ‘‘बेटा क्या तुम शहर पढ़ने जा पाओगे।’’

राजेश बोला – ‘‘हां मास्टर जी मैं जरूर जाउंगा।’’

मास्टर जी ने आगे कहना शुरू किया – ‘‘बेटा ये देखो मेरे पास एक सोने की कलम है। जब मैं छोटा था तो मैं भी पढ़ने में बहुत तेज था। उस समय मुझे मेरे स्कूल के प्रिसीपल ने यह सोने का पैन दिया था। जिसे मैं आज तक संभाल कर रखता आया हूं। लेकिन अब ये पैन मैं तुम्हें दे रहा हूं। शहर जाकर मेरे मित्र से मिलना उनके पास ये पैन गिरवीं रख देना। वो तुम्हें पैसे दे देंगे। जब तुम पढ़ लिख कर कुछ बन जाओ तो। इस पैन को छुड़ा कर मुझे वापस दे देना।’’

यह कहकर मास्टर जी ने एक डिब्बी राजेश के हाथ में पकड़ा दी। राजेश डिब्बी खोल कर देखने लगा तो उन्होंने रोका और कहा – ‘‘बेटा इस पैन को जब देखना जब तुम इसका कर्ज चुकाने लायक हो जाओ।’’

मास्टर जी से चिट्ठी और पैन लेकर राजेश उनके मित्र के पास पहुंच गया। उन्हें पैन और चिट्ठी दी। उन्होंने खत पढ़ा और राजेश को पैसे दे दिये। राजेश ने वहां के बड़े स्कूल में दाखिला ले लिया। अब जब भी राजेश को पैसों की जरूरत होती वो उनसे पैसे ले लेता और अपनी डायरी में लिख लेता था।

समय बदला कई सालों की कड़ी मेहनत से एक दिन राजेश एक आई एस ऑफिसर बन गया। अब तक वह सब कुछ भूल चुका था। वह दिन रात काम में लगा रहता।

एक बार राजेश के पिता मधुसूदन जी उससे मिलने शहर आये। वे गेट पर पहुंचे तो स्क्योरिटी गार्ड ने उन्हें रोक दिया। उन्होंने कई बार बताया कि वे राजेश के पिता हैं, लेकिन यह सुनकर वह हसने लगा। बहुत देर तक धूप में खड़े रहने के बाद भी जब वे उससे मिल नहीं पाये तो निराश होकर गांव की ओर चल दिये।

रास्ते में उन्हें राजेश की गाड़ियों का काफिला दिखा। पिता को देख राजेश ने गाड़ी रोकी और गाड़ी से उतर कर उनके पैर छुए। फिर उन्हें गाड़ी में बिठा कर अपने घर ले गया।

राजेश को इस तरह देख कर उसके पिता बहुत खुश हुए। राजेश बोला – ‘‘पिताजी अब आप चिन्ता मत कीजिये गांव को छोड़ दीजिये और मेरे साथ यहां आकर रहिये।’’

मधुसूदन जी बोले – ‘‘बेटा मेरा मन यहां नहीं लगेगा। मैं तो गांव में ही ठीक हूं। एक बात और अपने गार्ड से कहो कि वो तुम्हें किसी से मिलने से रोके नहीं। क्योंकि कोई न कोई मुसिबत में होगा तभी तुमसे मिलने आयेगा।’’

राजेश ने तुरंत गार्ड को बुला कर डाटा और कहा – ‘‘मुझसे कोई भी मिलने आये उसे अंदर बिठा कर पहले पानी के लिये पूछो फिर मुझे खबर करो।’’

उसके जाने के बाद राजेश बोला – ‘‘पिताजी गांव के क्या हाल चाल हैं। आपके खेत वगैरहा।’’

मधुसूदन जी बोले – ‘‘बेटा मैं तो तुम्हें कुछ याद दिलाने आया था।’’

राजेश ने कहा – ‘‘हां हां पापा बताईये न।’’

‘‘बेटा तुम्हें वो सोने की कलम याद है या भूल गये। मास्टरजी याद हैं गांव के उनका कर्ज चुकाना था।’’-मधुसूदन जी ने कहा।

राजेश ने अपना सिर पकड़ लिया – ‘‘पिताजी मैं तो सब कुछ भूल गया। मास्टर जी और उनकी सोने की कलम चलिये अभी चलते हैं। उनकी सोने की कलम लेकर उनके देने।’’

राजेश अपने पिता को लेकर मास्टर जी के मित्र के पास पहुंच गया। उसने उन्हें डायरी दिखाई और सारे पैसे चुका दिये। उन्होंने राजेश को वह डिब्बी पकड़ा दी।

राजेश ने डिब्बी खोल कर देखी तो वो खाली थी। राजेश ने गुस्से में कहा – ‘‘लगता है आपकी नियत में खोट आ गया। यह तो खाली है इसमें से सोने की कलम कहां गई।’’

मित्र बोले – ‘‘बेटा पहले यह खत पढ़ लो फिर गुस्सा करना।’’

राजेश ने खत पढ़ा तो उसके आंसू निकल आये। उसमें लिखा था। कि भाई मैं जिस लड़के के हाथ यह खत भेज रहा हूं। उसे पढ़ाई के लिये जितने पैसे चाहिये हों दे देना। मैं अपना खेत बेच कर कुछ ही दिनों में तुम्हारे पैसे चुका दूंगा। यह खाली डिब्बी रख लेना इसे मैंने खोलने को मना किया है। वह जानता है कि इसमें सोने की कलम है।

राजेश की आंखों से आंसू बह रहे थे वह बोला – ‘‘पिताजी, मास्टर जी ने मुझे पढ़ाने के लिये अपने खेत बेच दिये। अभी चलिये हम वो खेत खरीद कर मास्टर जी को वापस दे देते हैं।’’

तभी उनके मित्र ने पीछे से राजेश के कंधे पर हाथ रखा और कहा – ‘‘बेटा ये पैसे तुम्हारे हैं। मेरा कर्ज तो मास्टर जी ने पहले ही चुका दिया। अब उन खेतों को खरीदने का भी कोई फायदा नहीं, क्योंकि मास्टर जी अब इस दुनिया में नहीं हैं।’’

राजेश फूट फूट कर रोने लगा। उसने अपने पिता की ओर देखा। वे बोले – ‘‘बेटा दो दिन पहले ही उनका देहान्त हुआ है। यही खबर देने मैं तेरे पास आया था।’’

राजेश रोते हुए बोला – ‘‘पिताजी मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई। अफसर बनते ही मैं सब भूल गया। काश मैं उनका कर्ज उतार पाता।’’

मधुसूदन जी बोले – ‘‘बेटा तुम कुछ बन गये हो अब गांव के ऐसे ही गरीब बच्चों को शिक्षा देकर अपने लायक बनाओ।’’

राजेश ने अपना तबदला उसी गांव में करवा लिया। अब वह नौकरी के साथ साथ गरीब बच्चों को पढ़ता भी था।

16/09/2025

आज का लंच थाली बिलकुल देसी है तो किस किस को पसंद हैं 😃

सेठ मजदूर से बोला " राजू आज ये सारी बोरियाँ उधर डालनी है। कल यहाँ नया माल आयेगा।" राजू बोला " आधा घण्टे बाद मेरी ड्यूटी ...
16/09/2025

सेठ मजदूर से बोला " राजू आज ये सारी बोरियाँ उधर डालनी है। कल यहाँ नया माल आयेगा।" राजू बोला " आधा घण्टे बाद मेरी ड्यूटी खत्म हो जायेगी सेठ। उसके बाद मै घर जाऊंगा। आज बीवी बच्चों को मेला दिखाने ले जाना है। इसलिए बाकी का काम कल ही होगा। " सेठ बोला " अरे भाई ऑवर टाइम के पैसे दूंगा। फ्री मे थोड़े करवा रहा हूँ। " राजू बोला " मुझे पैसे नही चाहिए सेठ। मैंने बच्चों से वादा किया है आज रात उन्हे मेले मे जरूर ले जाऊंगा। " सेठ गुस्से मे बोला " घर मे आ रही लक्ष्मी के लिए क्यों मना कर रहा है। मेले मे कल चले जाना। मेला तो चार दिन चलेगा न? " राजू बोला " उस वादे का क्या करूँ सेठ जो बीवी बच्चों से कर आया हूँ। आज मुझे अपनो के साथ कुछ हंसी खुशी के पल बिताने है। मेला तो कल भी लगेगा मगर वो घर पर इंतजार कर रहे हैं। मेरे घर पर नही पहुँचने पर उनके चेहरे की मुस्कान बुझ जायेगी उसका मोल आपकी दिहाड़ी से बहुत ज्यादा है।" सेठ अंट गया बोला " मै रात की दुगुनी दिहाड़ी दूंगा। " राजू बोला "नही चाहिए!! " सेठ बोला " अरे यार पांच गुनी दिहाड़ी दूंगा। ये काम तो तुझे आज ही करना पड़ेगा। " राजू बोला " नही चाहिए सेठ। " सेठ आश्चर्य से राजू की तरफ देखता रहा । अपना सिर खुजाता रहा फिर काफी देर सोचने के बाद बोला " भाई तु और तेरा परिवार मुझसे ज्यादा अमीर है। आज मुझे समझ मे आ गया है कि अपनो के साथ "खुशी के पल" जीना ज्यादा जरूरी है। कमाई तो जीवनभर चलती रहेगी। हम यहाँ सिर्फ कमाने थोड़े आये हैं। जीने आए हैं। तु मेले जा। काम होता रहेगा। और इस बार मै तुझे पांच दिन की दिहाड़ी फ्री मे दूंगा। बच्चों को बोलना ताऊ जी ने भेजे हैं। मै भी आज अपने परिवार को लेकर मेले मे आ रहा हूँ। लेखक डी आर सैनी।

वे जोड़ने वाले लोग थेहर चीज जोड़ कर रखते थेचश्मा टूटा तब कतरन बांधीढीली अंगूठी पर लपेटा धागा फटे कुर्ते पर पैबंद चप्पल प...
16/09/2025

वे जोड़ने वाले लोग थे
हर चीज जोड़ कर रखते थे
चश्मा टूटा तब कतरन बांधी
ढीली अंगूठी पर लपेटा धागा
फटे कुर्ते पर पैबंद
चप्पल पर कील ढोंक रस्सी की गाँठ खींच ली।

बड़े चतुर, मेहनती लोग थे
पतीले के हैंडल पर लकड़ी जोड़ लेते
चाकू की धार खुद तेज करते
उनके घर की कुंडी कसी रही
लकड़ी एक कुल्हाड़ी से दो फांक कर लेते।

वे संभाल कर रखते थे
उनके यहाँ मैंने बेकार चीजें नहीं देखी
पुराने कपड़ों के गुदड़े बने
परात पर पतावे लगा कर संभाला गया
कहीं घिस न जाए
फूटी टोकनी पर तली लगवा ली
बाल्टी पर पैंदी
मटके की दरार पर सीमेंट लेप ली
साल भर का ईंधन समेटते थे
पूरे साल का अनाज।

वे मेरा मेरा नहीं
आपणी बेटी, आपणी बहू,
आपणा भाई, आपणा गाम पुकारते थे
सब साझा था
पंचायती बर्तनों में जीमते- जूठते
ऊँची परस( धर्मशाला) वाले लोग थे।

एक दिन जुड़ी जुड़ाई सब चीजें टूट गई
कैसे, कब पता नहीं
हाँ! इतना जानती हूँ
अब कोई जोड़ने वाला भी नहीं रहा
यहाँ टूटी चीजें बस फेंक दी जाती हैं।
सुनीता करोथवाल

16/09/2025

आज नाश्ते में ये चटपटा चना चाट बनाया हेल्दी भी टेस्टी भी 🤤😋

एक भाजी वाली। रोज हमारे घर आती। बड़ी सी लाल बिंदी, करीने से बनाए बाल, और हाथ भर के चूडिय़ां। मम्मी के मुँह लगी थी बड़ी।र...
15/09/2025

एक भाजी वाली। रोज हमारे घर आती। बड़ी सी लाल बिंदी, करीने से बनाए बाल, और हाथ भर के चूडिय़ां। मम्मी के मुँह लगी थी बड़ी।

रोज की तरह दोपहर मे दरवाजे पर आयी।" काकी, सब्जियां लाई। क्या दु?"

रोज की तरह मम्मी ने उसे अंदर से पूछा, "क्या लाई आज?"

मेथी है, लौकी है, गंवार फल्ली है.., " मम्मी ने कहा, "रुक आयी"

दरवाजे में आ कर मम्मी ने उसकी टोकरी को हाथ दिया और नीचे उतारा, "बोलो काकी, क्या दु आज?"

"मेथी कैसी?"

"दस में तीन, ताज़ी है काकी"

"बस तू रोज ऐसे ही हमको बेवकूफ़ बनाती जा" मम्मी ने घुडकी भरी, "दस में चार देती तो दे"

"नई जमेंगा काकी"

"जाने दे फिर"

भाजी वाली ने टोकरी उठाई और जाने लगी।

"काकी, बारह में चार ले लो।"

"नहीं, दस में चार। देती है तो लुंगी" मम्मी ने उसे एक कड़क लुक दे दिया।

भाजी वाली बाई निकल गई। मैंने मम्मी को समझाया, "दे देती उसको बारह रुपये, क्या बिगड़ जाता तेरा?" " तू चुप कर, ऐसे चलाएगा गृहस्थी?"

पांच मिनट बाद आवाज आयी…., "काकी"

भाजी वाली बाई फिर से आ गई थी। मम्मी दरवाजे के पास ही रुकी थी। मम्मी को पता था वो वापिस आयेंगी। अब भाजी वाली बाई दस रुपये में चार गड्डी देने को तैयार हो गई थी। मम्मी ने उसकी टोकरी नीचे उतारने में मदद की। मम्मी ने ठीक से देख के चार गड्डी ले ली। दस रुपये दिए। भाजी वाली बाई ने टोकरी उठाते से उसको चक्कर सा आ गया। मम्मी ने उसको सम्भाला, "कुछ खाया क्या नहीं?

"नहीं काकी, सुबह जल्दी जाना प़डा मंडी में, बस अब घर जाऊँगी और खाना पका के खा लुंगी।"

"ठहर, बैठ यहां पांच मिनट।" मम्मी अंदर गई। आते वक़्त मम्मी के हाथ मे एक लोटा और थाली थी। दो रोटी, सब्ज़ी, और मिर्च का ठेसा।

भाजी वाली बाई ने खाना खतम किया। पानी पिया और वहां से चली गई।

मुझ से रहा नहीं गया, "मम्मी, दो रुपए बढ़ा के नहीं दिए और बाई को दो रोटी खिला दी, जितने बचाए उससे ज्यादा का खिला दिया। कमाल करती हो।"

मम्मी हंसी और जो कहा वो दिल मे घर कर गया।

"व्यापार करते हुए दया नहीं और दया करते हुए व्यापार नहीं।"

भाजी वाली बाई के मन मे मम्मी के लिए जो सम्मान जन्मा वहीं है रिस्पेक्ट। बाकी सब मोह माया।

जीवन में कभी हार मत मानो। हार मानने वाले लोगों को कभी मंज़िल नहीं मिलती, क्योंकि वे कोशिश से पहले ही अपने सपनों को अधूरा...
15/09/2025

जीवन में कभी हार मत मानो। हार मानने वाले लोगों को कभी मंज़िल नहीं मिलती, क्योंकि वे कोशिश से पहले ही अपने सपनों को अधूरा छोड़ देते हैं। लेकिन जो इंसान बार-बार गिरकर भी उठ खड़ा होता है, वही इतिहास रचता है। सफलता का रास्ता हमेशा आसान नहीं होता, लेकिन लगातार मेहनत और विश्वास से हर मुश्किल आसान लगने लगती है।
याद रखो – असफलता अंत नहीं, बल्कि सीखने का पहला कदम है। जब तक आप कोशिश करते रहेंगे, तब तक जीत की संभावना ज़िंदा रहेगी।
इसलिए हर दिन खुद को याद दिलाइए: “मैं हार मानने वाला नहीं हूँ, मैं कोशिश करने वाला हूँ।” क्योंकि कोशिश करने वालों को ही सब कुछ मिलता है – सफलता, सम्मान और सपनों की उड़ान


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