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रुद्राष्टकम् : गोस्वामी तुलसीदास कृत शिव-स्तुतिसनातन धर्म में भगवान शिव को महादेव, भोलेनाथ, शंकर, रूद्र आदि नामों से पुक...
09/08/2025

रुद्राष्टकम् : गोस्वामी तुलसीदास कृत शिव-स्तुति

सनातन धर्म में भगवान शिव को महादेव, भोलेनाथ, शंकर, रूद्र आदि नामों से पुकारा जाता है। वे संहार के देवता होते हुए भी करुणा, कृपा और भक्ति के सागर हैं। शिव की स्तुति में रचित अनेक स्तोत्रों में रुद्राष्टकम् का विशेष स्थान है। यह अद्भुत काव्य गोस्वामी तुलसीदास जी की रचना है, जिसमें भगवान शिव के निराकार, सर्वव्यापक और मोक्षस्वरूप स्वरूप का सुंदर वर्णन मिलता है।

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उत्पत्ति और ऐतिहासिक सन्दर्भ

रुद्राष्टकम् का उल्लेख श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड में मिलता है। कथा के अनुसार, जब भगवान राम और लक्ष्मण गुरु विश्वामित्र के साथ जनकपुर (मिथिला) जा रहे थे, तो मार्ग में उन्होंने एक सुंदर शिव मंदिर देखा। वहाँ पहुँचकर श्रीराम ने विनम्र भाव से भगवान शंकर की स्तुति की। तुलसीदास जी ने उसी भाव को आठ श्लोकों में पिरोकर “रुद्राष्टकम्” के रूप में प्रस्तुत किया।

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संरचना

भाषा: संस्कृत

छन्द: अष्टक (आठ श्लोक)

विषय: भगवान शिव की महिमा, स्वरूप, गुण और कृपा का वर्णन

विशेषता: इसमें शिव के निर्गुण, निराकार, सर्वव्यापक और मोक्षप्रदायक रूप की स्तुति है।

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मुख्य भाव

1. निर्गुण-निराकार शिव – पहले श्लोक में शिव के ब्रह्मस्वरूप और सभी गुणों से परे होने का वर्णन है।

2. काल के भी काल – शिव को महाकाल और संपूर्ण सृष्टि के भी परे बताया गया है।

3. गंगा और चन्द्र से सुशोभित – शिव के अलंकरण में गंगा, चन्द्रमा, सर्प और त्रिशूल का सौंदर्य वर्णन।

4. त्रिताप निवारण – दैहिक, दैविक और भौतिक – तीनों प्रकार के दुःख हरने वाले।

5. कल्याणकारी – शिव सदा सज्जनों को आनन्द देने वाले और मोह को हरने वाले।

6. भक्ति का महत्व – बिना भक्ति के न सुख है न शांति।

7. शरणागत की रक्षा – भक्त के लिए शिव ही अंतिम शरण हैं।

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आध्यात्मिक महत्व

रुद्राष्टकम् का पाठ श्रद्धा और भक्ति से करने पर मन को शांति, दुःखों से मुक्ति और अंतःकरण में पवित्रता आती है।

यह स्तुति भक्त को वैराग्य और ईश्वर के सच्चे स्वरूप की अनुभूति कराती है।

इसमें भक्ति, ज्ञान और वैराग्य – तीनों का सुंदर संगम है।

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पारंपरिक मान्यता

सनातन परंपरा में रुद्राष्टकम् का पाठ विशेष रूप से सोमवार, श्रावण मास, महाशिवरात्रि और प्रदोष व्रत के अवसर पर किया जाता है।
मान्यता है कि इसके नित्य पाठ से शिवजी की असीम कृपा प्राप्त होती है और जीवन के संकट दूर होते हैं।

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निष्कर्ष

रुद्राष्टकम् केवल एक स्तोत्र नहीं, बल्कि भक्त और भगवान के बीच आत्मिक संवाद है। तुलसीदास जी ने इसमें भक्ति, विनम्रता और ज्ञान को इस प्रकार पिरोया है कि पाठक या श्रोता का हृदय शिवमय हो जाता है। यह स्तुति हमें सिखाती है कि परमेश्वर का सच्चा रूप निराकार, सर्वव्यापक और कृपालु है, जो केवल भक्ति और प्रेम से ही प्राप्त किया जा सकता है।

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पाठ प्रारम्भ

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रुद्राष्टकम्

1.
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं
विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपम्।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम्॥

हे मोक्षस्वरूप, विश्वव्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरूप, ईशान दिशा के ईश्वर तथा सबके स्वामी श्रीशिवजी!
मैं आपको नमस्कार करता हूँ। जो निजस्वरूप में स्थित (अर्थात मायादि से रहित), (मायिक) गुणों से रहित, भेदरहित, इच्छारहित, चैतन्य, आकाशरूप एवं आकाश में भी अच्छादित करनेवाले हैं – आपको मैं भजता हूँ।

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2.
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं
गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्।
करालं महाकाल कालं कृपालं
गुणागार संसारपारं नतोऽहम्॥

निराकार, ओंकार (प्रणव) के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत), वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल (महामृत्युञ्जय), कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे परमेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ।

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3.
तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरणं
मनोभूतकोटिप्रभा श्री शरीरम्।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा
लसद्भालबालेंदु कण्ठे भुजङ्गम्॥

जो हिमालय के श्वेत शिखरों के समान गौरवर्ण शरीर वाले हैं, गम्भीर स्वर वाले हैं, जिनके शरीर में मनोभूतों की कोटि को भी छाँव देता हुआ तेज है, जिनके सिर पर गंगा की लहरें लहरा रही हैं, जिनके मस्तक पर चन्द्रमा है, और गले में सर्प का हार है।

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4.
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं
प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं
प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि॥

कर्णों में कुण्डल, सुंदर भ्रुकुटि, विशाल नेत्र, प्रसन्न मुखमंडल, नीला कण्ठ, दयालु स्वभाव, मृगचर्म वस्त्र, मुण्डमाला धारण किए हुए –
सभी के स्वामी, प्रिय शंकर को मैं भजता हूँ।

---

5.
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं
अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम्।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं
भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम्॥

प्रचण्ड (बल-तेज-वीर्य से युक्त), सबमें श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजनमा,
करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशवाले, त्रैहिक (दैहिक, दैविक, भौतिक आदि) तीनों प्रकार के शूलों (दुखों) को निर्मूल करनेवाले, हाथ में त्रिशूल धारण किए हुए, (भक्तों को) भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होनेवाले भवानी-पति श्रीशंकरजी को मैं भजता हूँ।

---

6.
कलातीतकल्याण कल्पान्तकारी
सदा सज्जनानन्ददाता पुरारि।
चिदानन्दसन्दोहमोहापहारी
प्रसीद प्रबो मन्मथारी॥

कलाओं से परे, कल्याणस्वरूप, कल्पांतकाल के संहारक, सदा सज्जनों को आनन्ददाता, त्रिपुर के शत्रु, चिदानन्दमय स्वरूप, मोह का नाश करनेवाले प्रभो! प्रसन्न होइए।

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7.
न यावदुमानाथ पादारविन्दं
भजंतीह लोके परे वा नराणाम्।
न तावत्सुखं शान्तिसन्तापनाशं
प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम्॥

हे उमापति! जब तक आपके चरणकमलों को (मनुष्य) नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इस लोक और परलोक में सुख-शांति मिलती है और न संतापों का नाश होता है। अतः हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करनेवाले प्रभो! प्रसन्न होइए।

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8.
न जानामि योगं जपं नैव पूजां
नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम्।
जराजन्यदुःखौघतातप्तमाना
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो॥

मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजन। मैं तो सदा-सर्वदा आपको नमस्कार करता हूँ ! बुढ़ापा और जन्मजन्य दुःख-शोक से जलते हुए मुझ दुखी जीव को – हे प्रभो ! हे ईश्वर ! हे शम्भो ! मैं आपकी शरण में हूँ, आप रक्षा कीजिए ।

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फलश्रुति

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति॥

भगवान रूद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शंकरजी की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिए ब्राह्मण द्वारा कहा गया।
जो मनुष्य इसे भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं, उन पर भगवान शम्भु प्रसन्न होते हैं।

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         #भक्ति_आंदोलन_bhakti_andolan
09/08/2025

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फलश्रुतिरुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति॥भगवान रूद्र की स्तुति का यह ...
08/08/2025

फलश्रुति

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति॥

भगवान रूद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शंकरजी की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिए ब्राह्मण द्वारा कहा गया।
जो मनुष्य इसे भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं, उन पर भगवान शम्भु प्रसन्न होते हैं।

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#शिव #शिवभक्त #शिवशंकर #शिवजी #ॐ #ॐनमःशिवाय ः__पार्वतीपतये #राम #तुलसीदास

न जानामि योगं जपं नैव पूजांनतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम्।जराजन्यदुःखौघतातप्तमानाप्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो॥मैं न तो य...
08/08/2025

न जानामि योगं जपं नैव पूजां
नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम्।
जराजन्यदुःखौघतातप्तमाना
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो॥

मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजन। मैं तो सदा-सर्वदा आपको नमस्कार करता हूँ ! बुढ़ापा और जन्मजन्य दुःख-शोक से जलते हुए मुझ दुखी जीव को – हे प्रभो ! हे ईश्वर ! हे शम्भो ! मैं आपकी शरण में हूँ, आप रक्षा कीजिए ।

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न यावदुमानाथ पादारविन्दंभजंतीह लोके परे वा नराणाम्।न तावत्सुखं शान्तिसन्तापनाशंप्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम्॥हे उमापति! ज...
08/08/2025

न यावदुमानाथ पादारविन्दं
भजंतीह लोके परे वा नराणाम्।
न तावत्सुखं शान्तिसन्तापनाशं
प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम्॥

हे उमापति! जब तक आपके चरणकमलों को (मनुष्य) नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इस लोक और परलोक में सुख-शांति मिलती है और न संतापों का नाश होता है। अतः हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करनेवाले प्रभो! प्रसन्न होइए।

कलातीतकल्याण कल्पान्तकारीसदा सज्जनानन्ददाता पुरारि।चिदानन्दसन्दोहमोहापहारीप्रसीद प्रबो मन्मथारी॥कलाओं से परे, कल्याणस्वर...
08/08/2025

कलातीतकल्याण कल्पान्तकारी
सदा सज्जनानन्ददाता पुरारि।
चिदानन्दसन्दोहमोहापहारी
प्रसीद प्रबो मन्मथारी॥

कलाओं से परे, कल्याणस्वरूप, कल्पांतकाल के संहारक, सदा सज्जनों को आनन्ददाता, त्रिपुर के शत्रु, चिदानन्दमय स्वरूप, मोह का नाश करनेवाले प्रभो! प्रसन्न होइए।

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशंअखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम्।त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिंभजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम्॥प्रच...
08/08/2025

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं
अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम्।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं
भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम्॥

प्रचण्ड (बल-तेज-वीर्य से युक्त), सबमें श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजनमा, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशवाले, त्रैहिक (दैहिक, दैविक, भौतिक आदि) तीनों प्रकार के शूलों (दुखों) को निर्मूल करनेवाले, हाथ में त्रिशूल धारण किए हुए, (भक्तों को) भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होनेवाले भवानी-पति श्रीशंकरजी को मैं भजता हूँ ।

चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालंप्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्।मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालंप्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि॥कर्ण...
08/08/2025

चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं
प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं
प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि॥

कर्णों में कुण्डल, सुंदर भ्रुकुटि, विशाल नेत्र, प्रसन्न मुखमंडल, नीला कण्ठ, दयालु स्वभाव, मृगचर्म वस्त्र, मुण्डमाला धारण किए हुए –
सभी के स्वामी, प्रिय शंकर को मैं भजता हूँ।

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तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरणंमनोभूतकोटिप्रभा श्री शरीरम्।स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गालसद्भालबालेंदु कण्ठे भुजङ्गम्॥जो ह...
08/08/2025

तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरणं
मनोभूतकोटिप्रभा श्री शरीरम्।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा
लसद्भालबालेंदु कण्ठे भुजङ्गम्॥

जो हिमालय के श्वेत शिखरों के समान गौरवर्ण शरीर वाले हैं, गम्भीर स्वर वाले हैं, जिनके शरीर में मनोभूतों की कोटि को भी छाँव देता हुआ तेज है, जिनके सिर पर गंगा की लहरें लहरा रही हैं, जिनके मस्तक पर चन्द्रमा है, और गले में सर्प का हार है।

निराकारमोंकारमूलं तुरीयंगिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्।करालं महाकाल कालं कृपालंगुणागार संसारपारं नतोऽहम्॥निराकार, ओंकार (प...
08/08/2025

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं
गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्।
करालं महाकाल कालं कृपालं
गुणागार संसारपारं नतोऽहम्॥

निराकार, ओंकार (प्रणव) के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत), वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल (महामृत्युञ्जय), कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे परमेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ।

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रुद्राष्टकम् : गोस्वामी तुलसीदास कृत शिव-स्तुतिसनातन धर्म में भगवान शिव को महादेव, भोलेनाथ, शंकर, रूद्र आदि नामों से पुक...
08/08/2025

रुद्राष्टकम् : गोस्वामी तुलसीदास कृत शिव-स्तुति

सनातन धर्म में भगवान शिव को महादेव, भोलेनाथ, शंकर, रूद्र आदि नामों से पुकारा जाता है। वे संहार के देवता होते हुए भी करुणा, कृपा और भक्ति के सागर हैं। शिव की स्तुति में रचित अनेक स्तोत्रों में रुद्राष्टकम् का विशेष स्थान है। यह अद्भुत काव्य गोस्वामी तुलसीदास जी की रचना है, जिसमें भगवान शिव के निराकार, सर्वव्यापक और मोक्षस्वरूप स्वरूप का सुंदर वर्णन मिलता है।

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उत्पत्ति और ऐतिहासिक सन्दर्भ

रुद्राष्टकम् का उल्लेख श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड में मिलता है। कथा के अनुसार, जब भगवान राम और लक्ष्मण गुरु विश्वामित्र के साथ जनकपुर (मिथिला) जा रहे थे, तो मार्ग में उन्होंने एक सुंदर शिव मंदिर देखा। वहाँ पहुँचकर श्रीराम ने विनम्र भाव से भगवान शंकर की स्तुति की। तुलसीदास जी ने उसी भाव को आठ श्लोकों में पिरोकर “रुद्राष्टकम्” के रूप में प्रस्तुत किया।

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संरचना

भाषा: संस्कृत

छन्द: अष्टक (आठ श्लोक)

विषय: भगवान शिव की महिमा, स्वरूप, गुण और कृपा का वर्णन

विशेषता: इसमें शिव के निर्गुण, निराकार, सर्वव्यापक और मोक्षप्रदायक रूप की स्तुति है।

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मुख्य भाव

1. निर्गुण-निराकार शिव – पहले श्लोक में शिव के ब्रह्मस्वरूप और सभी गुणों से परे होने का वर्णन है।

2. काल के भी काल – शिव को महाकाल और संपूर्ण सृष्टि के भी परे बताया गया है।

3. गंगा और चन्द्र से सुशोभित – शिव के अलंकरण में गंगा, चन्द्रमा, सर्प और त्रिशूल का सौंदर्य वर्णन।

4. त्रिताप निवारण – दैहिक, दैविक और भौतिक – तीनों प्रकार के दुःख हरने वाले।

5. कल्याणकारी – शिव सदा सज्जनों को आनन्द देने वाले और मोह को हरने वाले।

6. भक्ति का महत्व – बिना भक्ति के न सुख है न शांति।

7. शरणागत की रक्षा – भक्त के लिए शिव ही अंतिम शरण हैं।

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आध्यात्मिक महत्व

रुद्राष्टकम् का पाठ श्रद्धा और भक्ति से करने पर मन को शांति, दुःखों से मुक्ति और अंतःकरण में पवित्रता आती है।

यह स्तुति भक्त को वैराग्य और ईश्वर के सच्चे स्वरूप की अनुभूति कराती है।

इसमें भक्ति, ज्ञान और वैराग्य – तीनों का सुंदर संगम है।

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पारंपरिक मान्यता

सनातन परंपरा में रुद्राष्टकम् का पाठ विशेष रूप से सोमवार, श्रावण मास, महाशिवरात्रि और प्रदोष व्रत के अवसर पर किया जाता है।
मान्यता है कि इसके नित्य पाठ से शिवजी की असीम कृपा प्राप्त होती है और जीवन के संकट दूर होते हैं।

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निष्कर्ष

रुद्राष्टकम् केवल एक स्तोत्र नहीं, बल्कि भक्त और भगवान के बीच आत्मिक संवाद है। तुलसीदास जी ने इसमें भक्ति, विनम्रता और ज्ञान को इस प्रकार पिरोया है कि पाठक या श्रोता का हृदय शिवमय हो जाता है। यह स्तुति हमें सिखाती है कि परमेश्वर का सच्चा रूप निराकार, सर्वव्यापक और कृपालु है, जो केवल भक्ति और प्रेम से ही प्राप्त किया जा सकता है।

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पाठ प्रारम्भ

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रुद्राष्टकम्

1.
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं
विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपम्।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम्॥

हे मोक्षस्वरूप, विश्वव्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरूप, ईशान दिशा के ईश्वर तथा सबके स्वामी श्रीशिवजी!
मैं आपको नमस्कार करता हूँ। जो निजस्वरूप में स्थित (अर्थात मायादि से रहित), (मायिक) गुणों से रहित, भेदरहित, इच्छारहित, चैतन्य, आकाशरूप एवं आकाश में भी अच्छादित करनेवाले हैं – आपको मैं भजता हूँ।

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2.
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं
गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्।
करालं महाकाल कालं कृपालं
गुणागार संसारपारं नतोऽहम्॥

निराकार, ओंकार (प्रणव) के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत), वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल (महामृत्युञ्जय), कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे परमेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ।

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3.
तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरणं
मनोभूतकोटिप्रभा श्री शरीरम्।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा
लसद्भालबालेंदु कण्ठे भुजङ्गम्॥

जो हिमालय के श्वेत शिखरों के समान गौरवर्ण शरीर वाले हैं, गम्भीर स्वर वाले हैं, जिनके शरीर में मनोभूतों की कोटि को भी छाँव देता हुआ तेज है, जिनके सिर पर गंगा की लहरें लहरा रही हैं, जिनके मस्तक पर चन्द्रमा है, और गले में सर्प का हार है।

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4.
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं
प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं
प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि॥

कर्णों में कुण्डल, सुंदर भ्रुकुटि, विशाल नेत्र, प्रसन्न मुखमंडल, नीला कण्ठ, दयालु स्वभाव, मृगचर्म वस्त्र, मुण्डमाला धारण किए हुए –
सभी के स्वामी, प्रिय शंकर को मैं भजता हूँ।

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5.
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं
अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम्।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं
भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम्॥

प्रचण्ड (बल-तेज-वीर्य से युक्त), सबमें श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजनमा,
करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशवाले, त्रैहिक (दैहिक, दैविक, भौतिक आदि) तीनों प्रकार के शूलों (दुखों) को निर्मूल करनेवाले, हाथ में त्रिशूल धारण किए हुए, (भक्तों को) भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होनेवाले भवानी-पति श्रीशंकरजी को मैं भजता हूँ।

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6.
कलातीतकल्याण कल्पान्तकारी
सदा सज्जनानन्ददाता पुरारि।
चिदानन्दसन्दोहमोहापहारी
प्रसीद प्रबो मन्मथारी॥

कलाओं से परे, कल्याणस्वरूप, कल्पांतकाल के संहारक, सदा सज्जनों को आनन्ददाता, त्रिपुर के शत्रु, चिदानन्दमय स्वरूप, मोह का नाश करनेवाले प्रभो! प्रसन्न होइए।

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7.
न यावदुमानाथ पादारविन्दं
भजंतीह लोके परे वा नराणाम्।
न तावत्सुखं शान्तिसन्तापनाशं
प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम्॥

हे उमापति! जब तक आपके चरणकमलों को (मनुष्य) नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इस लोक और परलोक में सुख-शांति मिलती है और न संतापों का नाश होता है। अतः हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करनेवाले प्रभो! प्रसन्न होइए।

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8.
न जानामि योगं जपं नैव पूजां
नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम्।
जराजन्यदुःखौघतातप्तमाना
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो॥

मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजन। मैं तो सदा-सर्वदा आपको नमस्कार करता हूँ!
बुढ़ापा और जन्मजन्य दुःख-शोक से जलते हुए मुझ दुखी जीव को –
हे प्रभो! हे ईश्वर! हे शम्भो! मैं आपकी शरण में हूँ, आप रक्षा कीजिए।

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फलश्रुति

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति॥

भगवान रूद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शंकरजी की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिए ब्राह्मण द्वारा कहा गया।
जो मनुष्य इसे भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं, उन पर भगवान शम्भु प्रसन्न होते हैं।

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#राम #शिव #भक्ति_आंदोलन_bhakti_andolan

सुखमनी साहिब पाठ #भक्ति_आंदोलन_bhakti_andolanश्री गुरु अर्जन साहिब जीशब्द महला 5SGGS अंग 262-296सलोकु ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि...
03/08/2025

सुखमनी साहिब पाठ
#भक्ति_आंदोलन_bhakti_andolan

श्री गुरु अर्जन साहिब जी

शब्द महला 5
SGGS अंग 262-296

सलोकु ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

आदि गुरए नमह ॥
जुगादि गुरए नमह ॥
सतिगुरए नमह ॥
स्री गुरदेवए नमह ॥ (1)

ੴ परमात्मा एक है और वह गुरु कृपा से मिलता है I

आरम्भ गुरु की वंदना से I मेरा उस आदिगुरु को नमस्कार है जो सभी गुरुओ का गुरु है वह अविनाशी प्रभु आदि से मौजूद है और युगो युगो तक मौजूद रहता है I मेरा उस सदगुरु को नमस्कार है I मेरा श्री गुरुदेव को नमस्कार है I

असटपदी ॥

सिमरउ सिमरि सिमरि सुखु पावउ ॥
कलि कलेस तन माहि मिटावउ ॥
सिमरउ जासु बिसु्मभर एकै ॥
नामु जपत अगनत अनेकै ॥
बेद पुरान सिम्रिति सुधाख्यर ॥
कीने राम नाम इक आख्यर ॥
किनका एक जिसु जीअ बसावै ॥
ता की महिमा गनी न आवै ॥
कांखी एकै दरस तुहारो ॥
नानक उन संगि मोहि उधारो ॥(1)

हे भाई ! परमात्मा को स्मरण करते हुए उसका ध्यान करो और बार बार उस प्रभु परमेश्वर का धयान कर के अलौकिक सुख को प्राप्त करो इस तरह से भीतर जो दुख और कलेश हैं उनहें मिटा लो I जिस प्रभु का नाम सारी दुनिया के अनेक और अंगणित जीव जपते हैं, सारे धर्मग्रंथों वेद,पुराण, सिम्रिति, संतों की उपदेशित सुधा और साहित्यों में यही सन्देश प्रमुख रूप से दिया गया है की "राम नाम" ही सबसे महत्वपूर्ण है I जिस मनुष्य के भीतर प्रभु के नाम का प्रेम थोड़ा भी ह्रदय मे बस जाता है उसकी महिमा बयान नहीं की जा सकती । गुरु नानक देव जी कहते है कि हे प्रभु ! मेरी आँखें एक ही दर्शन को चाहती हैं तुम्हारे दर्शन को मुझे अपनी संगती मे रख कर मेरा उद्धार करो I

सुखमनी सुख अम्रित प्रभ नामु ॥
भगत जना कै मनि बिस्राम ॥ रहाउ॥

प्रभु का अमृतमय नाम हीं सभी सुखों की मणी सुखमणी है, I भक्तों के मन में इस नाम का विचार ध्यान करने से वह शांति प्राप्त करते हैं I (रहाउ)

सुखमनी साहिब पाठ

प्रभ कै सिमरनि गरभि न बसै ॥ प्रभ कै सिमरनि दूखु जमु नसै ॥ प्रभ कै सिमरनि कालु परहरै ॥ प्रभ कै सिमरनि दुसमनु टरै ॥ प्रभ सिमरत कछु बिघनु न लागै ॥ प्रभ कै सिमरनि अनदिनु जागै ॥ प्रभ कै सिमरनि भउ न बिआपै ॥ प्रभ कै सिमरनि दुखु न संतापै ॥ प्रभ का सिमरनु साध कै संगि ॥ सरब निधान नानक हरि रंगि ॥(2)

हे भाई ! जो मनुष्य प्रभु की स्मृति में रहता है वह कभी गर्भ में नहीं आता,प्रभु की स्मृति में रहते हुए मौत और काल का भय दूर हो जाता है, प्रभु की स्मृति में रहने से सभी दुश्मन भाग जाते हैं। प्रभु की स्मृति में रहते हुए कोई भी बिघना नहीं लगता, प्रभु की स्मृति में रहकर व्यक्ति दिन-रात सचेत होता है । साधु संग में प्रभु की स्मृति करते हुए, गुरु नानक देव जी कहते हैं कि हरि के रंग में रंगने से सभी मनोरथ पूर्ण हो जाती है I

प्रभ कै सिमरनि रिधि सिधि नउ निधि ॥
प्रभ कै सिमरनि गिआनु धिआनु ततु बुधि ॥
प्रभ कै सिमरनि जप तप पूजा ॥
प्रभ कै सिमरनि बिनसै दूजा ॥
प्रभ कै सिमरनि तीरथ इसनानी ॥
प्रभ कै सिमरनि दरगह मानी ॥
प्रभ कै सिमरनि होइ सु भला ॥
प्रभ कै सिमरनि सुफल फला ॥
से सिमरहि जिन आपि सिमराए ॥
नानक ता कै लागउ पाए ॥(3)

हे भाई ! प्रभु के स्मरण से रिद्धि-सिद्धियाँ और नौ निधियाँ प्राप्त होती हैं। प्रभु के स्मरण से ज्ञान, ध्यान और तत्त्व-बुद्धि मिलती है । प्रभु के स्मरण से जप, तप, और पूजा सफल होती है। प्रभु के स्मरण से द्वैत भाव नष्ट हो जाता है। प्रभु के स्मरण से तीर्थों का स्नान (पवित्रता) प्राप्त होती है । प्रभु के स्मरण से उसके दरबार में सम्मान मिलता है । प्रभु के स्मरण से हर कार्य शुभ होता है। प्रभु के स्मरण से फल सुफल (श्रेष्ठ फल) प्राप्त होते हैं । गुरु नानक देव जी कहते हैं कि वह ऐसे लोगों के चरणों में नतमस्तक होते हैं । जो प्रभु का स्मरण निरंतर करते है I पर वही लोग प्रभु का स्मरण करते हैं जिन्हें स्वयं प्रभु ने स्मरण करने की प्रेरणा दी है I

प्रभ का सिमरनु सभ ते ऊचा ॥
प्रभ कै सिमरनि उधरे मूचा ॥
प्रभ कै सिमरनि त्रिसना बुझै ॥
प्रभ कै सिमरनि सभु किछु सुझै ॥
प्रभ कै सिमरनि नाही जम त्रासा ॥
प्रभ कै सिमरनि पूरन आसा ॥
प्रभ कै सिमरनि मन की मलु जाइ ॥
अम्रित नामु रिद माहि समाइ ॥
प्रभ जी बसहि साध की रसना ॥
नानक जन का दासनि दसना ॥(4)

हे भाई ! प्रभु का स्मरण करना ही सब से ऊंचा कार्य है I प्रभु के स्मरण से सभी चिंताएं मिट जाती हैं । प्रभु के स्मरण से विकारो की भूख शांत हो जाती है I प्रभु का स्मरण करने से हर बात की सही समझ आ जाती है I प्रभु का स्मरण करने से मौत का डर नहीं रहता है I प्रभु का स्मरण करने से हर इच्छा पूरी हो जाती है I प्रभु का स्मरण करने से मन निर्मल हो जाता है I और ह्रदय मे प्रभु का अमृतमय नाम सदा के लिए समा जाता है I प्रभु जी साधु की रसना मे बसा है साधुजनों के मुख मे सदा प्रभु का नाम रहता है I गुरु नानक देव जी कहते है की मै ऐसे भगतजनो के दासो का दास बनूँ I

प्रभ कउ सिमरहि से धनवंते ॥
प्रभ कउ सिमरहि से पतिवंते ॥
प्रभ कउ सिमरहि से जन परवान ॥
प्रभ कउ सिमरहि से पुरख प्रधान ॥
प्रभ कउ सिमरहि सि बेमुहताजे ॥
प्रभ कउ सिमरहि सि सरब के राजे ॥
प्रभ कउ सिमरहि से सुखवासी ॥
प्रभ कउ सिमरहि सदा अबिनासी ॥
सिमरन ते लागे जिन आपि दइआला ॥
नानक जन की मंगै रवाला ॥५॥

हे भाई ! जो मनुष्य प्रभु का स्मरण करता है वही धनवान हैं, प्रभु का स्मरण करने वाला ही वंदनीय हैं। जिसने भी प्रभु का स्मरण किया हैं, वे सब से अच्छे है वें जगत मे प्रसिद्ध हुए है। जो मनुष्य प्रभु को स्मरण करते हैं, वे अन्य किसी के मुहताज नहीं होते ,प्रभु को स्मरण करने वाला मनुष्य सभी का बादशाह है I जो मनुष्य प्रभु को स्मरण करते है वो सुखो मे निवास करता है बसते हैं I प्रभु का स्मरण करने वाला मनुष्य सदा के लिए जन्म और मरण से रहित अविनाशी हो जाता है I प्रभु का स्मरण वही करते हैं जिनपे प्रभु स्वयं आप कृपा करते है I गुरु नानक देव जी कहते है की कोई भाग्यशाली मनुष्य ही प्रभु के सेवको की चरण-धूल माँगता है II

प्रभ कउ सिमरहि से परउपकारी ॥
प्रभ कउ सिमरहि तिन सद बलिहारी ॥
प्रभ कउ सिमरहि से मुख सुहावे ॥
प्रभ कउ सिमरहि तिन सूखि बिहावै ॥
प्रभ कउ सिमरहि तिन आतमु जीता ॥
प्रभ कउ सिमरहि तिन निरमल रीता ॥
प्रभ कउ सिमरहि तिन अनद घनेरे ॥
प्रभ कउ सिमरहि बसहि हरि नेरे ॥
संत क्रिपा ते अनदिनु जागि ॥
नानक सिमरनु पूरै भागि II(6)

हे भाई ! प्रभु का स्मरण करने वाला मनुष्य दुसरो की मदद करने वाला परोपकारी होता है I प्रभु का स्मरण करने वालो के (मै) सदा बलिहार जाता हु I प्रभु का स्मरण करने वालो के मुख सदा अच्छे लगते है I प्रभु का स्मरण करने वाले मनुष्य का जीवन सुखमय बीतता है I प्रभु का स्मरण करने वाला अपने आप पर विजय पा लेता है I प्रभु का स्मरण करने वाले मनुष्य का जीवन पवित्र हो जाता है I प्रभु का स्मरण करने वाले मनुष्य के भीतर आनंद हीं आनंद है I प्रभु का स्मरण करने से प्रभु हमेशा पास हीं रहता है I संतो की कृपा से हीं मनुष्य को प्रभु का नाम निरंतर जपने की प्रेरणा मिलती है I गुरु नानक देव जी कहते है की प्रभु का स्मरण कोई बड़े भाग्यशाली मनुष्य को हीं प्राप्त होता है I(6)

प्रभ कै सिमरनि कारज पूरे ॥
प्रभ कै सिमरनि कबहु न झूरे ॥
प्रभ कै सिमरनि हरि गुन बानी ॥
प्रभ कै सिमरनि सहजि समानी ॥
प्रभ कै सिमरनि निहचल आसनु ॥
प्रभ कै सिमरनि कमल बिगासनु ॥
प्रभ कै सिमरनि अनहद झुनकार ॥
सुखु प्रभ सिमरन का अंतु न पार ॥
सिमरहि से जन जिन कउ प्रभ मइआ ॥
नानक तिन जन सरनी पइआ ॥(7)

हे भाई ! जो मनुष्य प्रभु का स्मरण करते है उसके सभी कार्य पूरे होेते है I प्रभु को स्मरण करने से कभी चिंता व सोख परेशान नहीं करते है I प्रभु का स्मरण हीं हरि प्रभु के गुणों वा महिमा की वाणी है I प्रभु को स्मरण करने से चंचल मन सहज़ अवस्था मे टिक जाता है I प्रभु का स्मरण करने से कभी ना डोलने वाली अडोल अवस्था प्राप्त होती है I प्रभु के सिमरन से हृदय कमल-फूल की तरह खिला रहता है। प्रभु के सिमरन से भीतर एक रस लगातार अलौकिक बजे बजते रहते है I प्रभु के सिमरन से होने वाले आनंद का अंत नहीं पाया जा सकता है I प्रभु का स्मरण वही करते है जिनपर स्वयं प्रभु प्रस्सन होते है I गुरु नानक देव जी कहते है की भाग्यशाली मनुष्य प्रभु के चरणों मे स्थान पाते है I

हरि सिमरनु करि भगत प्रगटाए ॥
हरि सिमरनि लगि बेद उपाए ॥
हरि सिमरनि भए सिध जती दाते ॥
हरि सिमरनि नीच चहु कुंट जाते ॥
हरि सिमरनि धारी सभ धरना ॥
सिमरि सिमरि हरि कारन करना ॥
हरि सिमरनि कीओ सगल अकारा ॥
हरि सिमरन महि आपि निरंकारा ॥
करि किरपा जिसु आपि बुझाइआ ॥
नानक गुरमुखि हरि सिमरनु तिनि पाइआ ॥(8)

हे भाई! हरि प्रभु का सिमरन करने से हीं संसार मे भगत प्रसिद्ध होते है I हरि प्रभु के सिमरन मे लग के हीं ऋषि मुनियो मे वेद की रचना की है I हरि प्रभु का सिमरन करने से हीं साधक सिद्ध, इन्द्रिजीत और ज्ञानी बन जाते है I हरि प्रभु का सिमरन कर के नीच पापी जीव भी सारे संसार मे प्रसिद्ध हो जाते है I हरि सिमरन ने हीं सारी धारती को आसरा दिया है I जो सारे जगत का करता एवं मूल कारण है उस हरि प्रभु का सदा सिमरन करना चाहिए I हरि प्रभु के सिमरन से हीं सारे दृश्य जगत के आकर बने है I जहाँ हरि प्रभु का सिमरन होता है वहाँ स्वयं प्रभु निरंकार बसते है I गुरु नानक देव जी ! कहते है ! की जिस जीव पर स्वयं प्रभु कृपा कर अपने रहस्य की समझ देता है I वही मनुष्य गुरु के सानिध्य मे रह कर निरंतर हरि सिमरन को पाते है I

दीन दरद दुख भंजना घटि घटि नाथ अनाथ ॥ सरणि तुम्हारी आइओ नानक के प्रभ साथ ॥सलोकु (1)॥

हे प्रभु ! दुखियो और गरीबो के दर्द व दुखो का नाश करने वाले ! हे हर एक के ह्रदय मे विराजमान हरि ! हे अनाथों के नाथ ! हे प्रभु ! गुरु नानक देव जी संग मै तेरी शरण आया हूँ ।

असटपदी ॥ जह मात पिता सुत मीत न भाई ॥
मन ऊहा नामु तेरै संगि सहाई ॥
जह महा भइआन दूत जम दलै ॥
तह केवल नामु संगि तेरै चलै ॥
जह मुसकल होवै अति भारी ॥
हरि को नामु खिन माहि उधारी ॥
अनिक पुनहचरन करत नही तरै ॥
हरि को नामु कोटि पाप परहरै ॥
गुरमुखि नामु जपहु मन मेरे ॥
नानक पावहु सूख घनेरे ॥१॥

हे भाई ! जिस जगह माता, पिता, पुत्र, मित्र, भाई, तेरे काम नहीं आएगे उस संकट मे मन की सहायता केवल प्रभु का नाम हीं करेगा I जहाँ बड़े डरावाने यमदूतों का दल है, वहाँ तुज़हे बचाने तेरे साथ सिर्फ प्रभु का नाम ही जाता है। जब बड़ी भारी विपत्ति आ जाती है तो प्रभु का नाम तुरंत हीं संकट को दूर कर देता है।अनेक धार्मिक कर्मकांड करके भी मनुष्य पापों से मुक्त नहीं होता है, पर प्रभु का नाम जपने से करोड़ों पापों का नाश हो जाता है I गुरु नानक देव जी ! कहते है ! की ! हे मेरे ! मन ! गुरु की शरण पड़ के प्रभु का नाम जप। प्रभु के नाम मे हीं अपार सुख मिलता है I

सगल स्रिसटि को राजा दुखीआ ॥
हरि का नामु जपत होइ सुखीआ ॥
लाख करोरी बंधु न परै ॥
हरि का नामु जपत निसतरै ॥
अनिक माइआ रंग तिख न बुझावै ॥
हरि का नामु जपत आघावै ॥
जिह मारगि इहु जात इकेला ॥
तह हरि नामु संगि होत सुहेला ॥
ऐसा नामु मन सदा धिआईऐ ॥
नानक गुरमुखि परम गति पाईऐ ॥२॥

हे भाई ! संसार के सभी राजा दुखी रहते हैं, लेकिन जो व्यक्ति प्रभु का नाम जपता है वह सुखी हो जाता है। लाखो करोड़ों की संपत्ति भी मनुष्य के बंधन नहीं काट सकती, पर प्रभु का नाम जपने से जीव संसार-सागर से पार हो जाता है। माया के अनेक रंग (सांसारिक भोग) कभी तृष्णा को शांत नहीं कर पाते, लेकिन प्रभु का नाम जपने से मन को पूर्ण संतोष मिलता है। जिस रास्ते पर यह जीव अकेला जाता है (मृत्यु के समय), वहाँ प्रभु का नाम ही उसके साथ सहजता से चलता है। गुरु नानक देव जी कहते हैं कि हे मन, ऐसे नाम का सदा ध्यान करना चाहिए जो गुरु की शरण में आकर प्राप्त होता है और जिसके स्मरण से परम गति प्राप्त होती है।

छूटत नही कोटि लख बाही ॥
नामु जपत तह पारि पराही ॥
अनिक बिघन जह आइ संघारै ॥
हरि का नामु ततकाल उधारै ॥
अनिक जोनि जनमै मरि जाम ॥
नामु जपत पावै बिस्राम ॥
हउ मैला मलु कबहु न धोवै ॥
हरि का नामु कोटि पाप खोवै ॥
ऐसा नामु जपहु मन रंगि ॥
नानक पाईऐ साध कै संगि ॥३॥

हे भाई ! करोड़ों और लाखों भुजाएँ (शक्तियाँ) भी इसे (माया के बंधनों से) नहीं छुड़ा सकतीं, लेकिन प्रभु का नाम जपने से यह जीव भवसागर पार हो जाता है। जहाँ अनेकों विघ्न आकर परेशान करते हैं, वहाँ प्रभु का नाम तत्काल उद्धार करता है । अनेक योनियों में जन्म लेकर और मरकर यह जीव भटकता रहता है, लेकिन प्रभु का नाम जपने से उसे शांति मिलती है । (अहंकार) मैं मैला हूँ और यह मल (पाप) कभी नहीं धुलता, लेकिन प्रभु का नाम करोड़ों पापों को नष्ट कर देता है । गुरु नानक देव जी कहते हैं कि हे मन, ऐसे नाम का प्रेम से जाप करो जो साधु संतों के संग से प्राप्त होता है ।

जिह मारग के गने जाहि न कोसा ॥
हरि का नामु ऊहा संगि तोसा ॥
जिह पैडै महा अंध गुबारा ॥
हरि का नामु संगि उजीआरा ॥
जहा पंथि तेरा को न सिञानू ॥
हरि का नामु तह नालि पछानू ॥
जह महा भइआन तपति बहु घाम ॥
तह हरि के नाम की तुम ऊपरि छाम ॥
जहा त्रिखा मन तुझु आकरखै ॥
तह नानक हरि हरि अम्रितु बरखै ॥४॥

हे भाई ! ज़िस रास्ते मे कोसो दूर चलना हो कोई संगी साथी साथ देने वाला ना हो वहाँ भी हरि प्रभु का नाम तेरा साथ होता है I जहाँ भयंकर अज्ञान और अंधकार छाया हुआ है वहाँ भी हरि प्रभु का नाम तुज़हे प्रकाश देगा I जहाँ मार्ग में कोई तेरा परिचित नहीं होता, कोई तुझे पहचानता नहीं वहाँ प्रभु का नाम ही तेरी सच्ची पहचान और सहायता करता है। जहाँ मार्ग पर भीषण भय और प्रचंड गर्मी की तरह संसार के ताप जलाते हैं, वहाँ हरि के नाम की छाया तुझे ढँक लेती है, हे मेरे मन ! जहाँ तेरे भीतर की प्यास आत्मिक तृष्णा तुझे सताती है, वहाँ गुरु नानक जी कहते हैं हरि का नाम अमृतवर्षा बनकर तुझे भीतर से तृप्त करता है।

भगत जना की बरतनि नामु ॥
संत जना कै मनि बिस्रामु ॥
हरि का नामु दास की ओट ॥
हरि कै नामि उधरे जन कोटि ॥
हरि जसु करत संत दिनु राति ॥
हरि हरि अउखधु साध कमाति ॥
हरि जन कै हरि नामु निधानु ॥
पारब्रहमि जन कीनो दान ॥
मन तन रंगि रते रंग एकै ॥
नानक जन कै बिरति बिबेकै ॥५॥

हे भाई ! प्रभु के भक्तों की जीवनचर्या ही प्रभु के नाम में लीन होता है । संतजनों का मन हरि नाम में ही शांति को पाता है । प्रभु का नाम ही सेवक का सबसे बड़ा आश्रय है। प्रभु के नाम के प्रभाव से असंख्य लोग संसार-सागर से पार हो जाते हैं । संत जन दिन-रात हरि की कीर्ति और महिमा का गुणगान करते हैं । हरि का नाम उनके लिए ऐसी औषधि है जिसे वे निरंतर सेवन करते हैं और उसी से वे संसार के रोगों से मुक्त होते हैं । हरि के भक्तों के लिए हरि का नाम ही सबसे बड़ा खजाना है — पारब्रह्म ने यह दिव्य दान अपने भक्तों को प्रदान किया है। वे भक्त अपने मन और तन से एक ही रंग में रंगे होते हैं — वह रंग है प्रभु प्रेम का, हरि नाम का । गुरु नानक देव जी कहते हैं कि ऐसे हरिभक्तों का आचरण विवेकपूर्ण होता है, और उनकी जीवनशैली नाम-रस में डूबी हुई होती है।

शब्द महला 5
श्री गुरु अर्जन साहिब जी
SGGS अंग 262-296

आगे के सम्पूर्ण अंग #भक्ति_आंदोलन_bhakti_andolan मंच मे जल्द ही पोस्ट किये जयँगे I (श्री हरि)

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