
09/08/2025
रुद्राष्टकम् : गोस्वामी तुलसीदास कृत शिव-स्तुति
सनातन धर्म में भगवान शिव को महादेव, भोलेनाथ, शंकर, रूद्र आदि नामों से पुकारा जाता है। वे संहार के देवता होते हुए भी करुणा, कृपा और भक्ति के सागर हैं। शिव की स्तुति में रचित अनेक स्तोत्रों में रुद्राष्टकम् का विशेष स्थान है। यह अद्भुत काव्य गोस्वामी तुलसीदास जी की रचना है, जिसमें भगवान शिव के निराकार, सर्वव्यापक और मोक्षस्वरूप स्वरूप का सुंदर वर्णन मिलता है।
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उत्पत्ति और ऐतिहासिक सन्दर्भ
रुद्राष्टकम् का उल्लेख श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड में मिलता है। कथा के अनुसार, जब भगवान राम और लक्ष्मण गुरु विश्वामित्र के साथ जनकपुर (मिथिला) जा रहे थे, तो मार्ग में उन्होंने एक सुंदर शिव मंदिर देखा। वहाँ पहुँचकर श्रीराम ने विनम्र भाव से भगवान शंकर की स्तुति की। तुलसीदास जी ने उसी भाव को आठ श्लोकों में पिरोकर “रुद्राष्टकम्” के रूप में प्रस्तुत किया।
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संरचना
भाषा: संस्कृत
छन्द: अष्टक (आठ श्लोक)
विषय: भगवान शिव की महिमा, स्वरूप, गुण और कृपा का वर्णन
विशेषता: इसमें शिव के निर्गुण, निराकार, सर्वव्यापक और मोक्षप्रदायक रूप की स्तुति है।
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मुख्य भाव
1. निर्गुण-निराकार शिव – पहले श्लोक में शिव के ब्रह्मस्वरूप और सभी गुणों से परे होने का वर्णन है।
2. काल के भी काल – शिव को महाकाल और संपूर्ण सृष्टि के भी परे बताया गया है।
3. गंगा और चन्द्र से सुशोभित – शिव के अलंकरण में गंगा, चन्द्रमा, सर्प और त्रिशूल का सौंदर्य वर्णन।
4. त्रिताप निवारण – दैहिक, दैविक और भौतिक – तीनों प्रकार के दुःख हरने वाले।
5. कल्याणकारी – शिव सदा सज्जनों को आनन्द देने वाले और मोह को हरने वाले।
6. भक्ति का महत्व – बिना भक्ति के न सुख है न शांति।
7. शरणागत की रक्षा – भक्त के लिए शिव ही अंतिम शरण हैं।
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आध्यात्मिक महत्व
रुद्राष्टकम् का पाठ श्रद्धा और भक्ति से करने पर मन को शांति, दुःखों से मुक्ति और अंतःकरण में पवित्रता आती है।
यह स्तुति भक्त को वैराग्य और ईश्वर के सच्चे स्वरूप की अनुभूति कराती है।
इसमें भक्ति, ज्ञान और वैराग्य – तीनों का सुंदर संगम है।
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पारंपरिक मान्यता
सनातन परंपरा में रुद्राष्टकम् का पाठ विशेष रूप से सोमवार, श्रावण मास, महाशिवरात्रि और प्रदोष व्रत के अवसर पर किया जाता है।
मान्यता है कि इसके नित्य पाठ से शिवजी की असीम कृपा प्राप्त होती है और जीवन के संकट दूर होते हैं।
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निष्कर्ष
रुद्राष्टकम् केवल एक स्तोत्र नहीं, बल्कि भक्त और भगवान के बीच आत्मिक संवाद है। तुलसीदास जी ने इसमें भक्ति, विनम्रता और ज्ञान को इस प्रकार पिरोया है कि पाठक या श्रोता का हृदय शिवमय हो जाता है। यह स्तुति हमें सिखाती है कि परमेश्वर का सच्चा रूप निराकार, सर्वव्यापक और कृपालु है, जो केवल भक्ति और प्रेम से ही प्राप्त किया जा सकता है।
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पाठ प्रारम्भ
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रुद्राष्टकम्
1.
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं
विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपम्।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम्॥
हे मोक्षस्वरूप, विश्वव्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरूप, ईशान दिशा के ईश्वर तथा सबके स्वामी श्रीशिवजी!
मैं आपको नमस्कार करता हूँ। जो निजस्वरूप में स्थित (अर्थात मायादि से रहित), (मायिक) गुणों से रहित, भेदरहित, इच्छारहित, चैतन्य, आकाशरूप एवं आकाश में भी अच्छादित करनेवाले हैं – आपको मैं भजता हूँ।
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2.
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं
गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्।
करालं महाकाल कालं कृपालं
गुणागार संसारपारं नतोऽहम्॥
निराकार, ओंकार (प्रणव) के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत), वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल (महामृत्युञ्जय), कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे परमेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ।
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3.
तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरणं
मनोभूतकोटिप्रभा श्री शरीरम्।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा
लसद्भालबालेंदु कण्ठे भुजङ्गम्॥
जो हिमालय के श्वेत शिखरों के समान गौरवर्ण शरीर वाले हैं, गम्भीर स्वर वाले हैं, जिनके शरीर में मनोभूतों की कोटि को भी छाँव देता हुआ तेज है, जिनके सिर पर गंगा की लहरें लहरा रही हैं, जिनके मस्तक पर चन्द्रमा है, और गले में सर्प का हार है।
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4.
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं
प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं
प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि॥
कर्णों में कुण्डल, सुंदर भ्रुकुटि, विशाल नेत्र, प्रसन्न मुखमंडल, नीला कण्ठ, दयालु स्वभाव, मृगचर्म वस्त्र, मुण्डमाला धारण किए हुए –
सभी के स्वामी, प्रिय शंकर को मैं भजता हूँ।
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5.
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं
अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम्।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं
भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम्॥
प्रचण्ड (बल-तेज-वीर्य से युक्त), सबमें श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजनमा,
करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशवाले, त्रैहिक (दैहिक, दैविक, भौतिक आदि) तीनों प्रकार के शूलों (दुखों) को निर्मूल करनेवाले, हाथ में त्रिशूल धारण किए हुए, (भक्तों को) भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होनेवाले भवानी-पति श्रीशंकरजी को मैं भजता हूँ।
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6.
कलातीतकल्याण कल्पान्तकारी
सदा सज्जनानन्ददाता पुरारि।
चिदानन्दसन्दोहमोहापहारी
प्रसीद प्रबो मन्मथारी॥
कलाओं से परे, कल्याणस्वरूप, कल्पांतकाल के संहारक, सदा सज्जनों को आनन्ददाता, त्रिपुर के शत्रु, चिदानन्दमय स्वरूप, मोह का नाश करनेवाले प्रभो! प्रसन्न होइए।
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7.
न यावदुमानाथ पादारविन्दं
भजंतीह लोके परे वा नराणाम्।
न तावत्सुखं शान्तिसन्तापनाशं
प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम्॥
हे उमापति! जब तक आपके चरणकमलों को (मनुष्य) नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इस लोक और परलोक में सुख-शांति मिलती है और न संतापों का नाश होता है। अतः हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करनेवाले प्रभो! प्रसन्न होइए।
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8.
न जानामि योगं जपं नैव पूजां
नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम्।
जराजन्यदुःखौघतातप्तमाना
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो॥
मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजन। मैं तो सदा-सर्वदा आपको नमस्कार करता हूँ ! बुढ़ापा और जन्मजन्य दुःख-शोक से जलते हुए मुझ दुखी जीव को – हे प्रभो ! हे ईश्वर ! हे शम्भो ! मैं आपकी शरण में हूँ, आप रक्षा कीजिए ।
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फलश्रुति
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति॥
भगवान रूद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शंकरजी की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिए ब्राह्मण द्वारा कहा गया।
जो मनुष्य इसे भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं, उन पर भगवान शम्भु प्रसन्न होते हैं।
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