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नवरात्रि गरबा में चढ़ा हिंदू - मुस्लिम रंग नवरात्रि के आगमन पर गरबा की थापें फिर चौक-चौराहों में गूंजने लगती हैं। यह पर्...
25/09/2025

नवरात्रि गरबा में चढ़ा हिंदू - मुस्लिम रंग

नवरात्रि के आगमन पर गरबा की थापें फिर चौक-चौराहों में गूंजने लगती हैं। यह पर्व न केवल माँ दुर्गा की उपासना का समय है, बल्कि सामूहिक उत्साह और सांस्कृतिक ऊर्जा का उत्सव भी है। परंतु इस वर्ष गरबा आयोजनों को धार्मिक राजनीति और सामाजिक तनाव की चपेट में देखा जा रहा है। गरबा अब सिर्फ उत्सव नहीं, चुनौती भी बन चुका है—क्या यह समावेशी रहा सकता है या विभाजन का उपकरण बन जाएगा?

नवरात्रि का महत्व पुराने समय से ही धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से गहरा है। इसे सत्य पर असत्य की जीत और धर्म की विजय का प्रतीक माना जाता है। नौ दिनों तक पूजा, कलश स्थापना, उपवास, भजन-कीर्तन और अंतिम दिन कन्या पूजन जैसी परंपराएँ इस पर्व का आधार रहीं। गुजरात और महाराष्ट्र में गरबा-डांडिया नृत्य की परंपरा इसे और जीवंत बनाती है। परंतु समय के साथ गरबा अपने पारंपरिक पवित्र स्वरूप से बदलकर सामाजिक और सांस्कृतिक आयोजन बन गया है।

इस बदलाव के बीच, कुछ हिंदू संगठन गरबा पंडालों में भागीदारी और आयोजकों पर धार्मिक पहचान के मानदंड लगाने लगे हैं। महाराष्ट्र में VHP ने कहा है कि गैर-हिंदुओं को गरबा-डांडिया आयोजनों में नहीं आने देना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा है कि हर प्रतिभागी को तिलक लगाया जाए और केवल हिंदू ही प्रवेश पायें। इसके अलावा तिलक, रक्षा सूत्र और यहां तक ​​कि गौमूत्र छिड़कने जैसी शर्तें भी सामने आई हैं, जिससे साफ संकेत मिलता है कि कुछ प्रयास गरबा को धार्मिक पहचान से जोड़ने के हैं।

मध्य प्रदेश की एक विधायक ने सार्वजनिक रूप से कहा कि जो लोग गैर-हिंदू हों और गरबा में भाग लेना चाहें, उन्हें पहले हिंदू रीति-रिवाजों का पालन करना चाहिए — जैसे तिलक लगाना, गंगाजल पीना, देवी की आरती करना। भोपाल प्रशासन ने पंडालों में बिना पहचान पत्र (ID कार्ड) वाले लोगों को प्रवेश निषिद्ध कर दिया है, ताकि आयोजनों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।

और छत्तीसगढ़ में, वक्फ बोर्ड का एक विवादित बयाना सुर्खियों में है। बोर्ड अध्यक्ष डॉ. सलीम राज ने मुस्लिम युवाओं से आग्रह किया है कि यदि वे मूर्ति पूजा में आस्था नहीं रखते तो गरबा जैसे आयोजनों से दूरी बनाएँ। उन्होंने कहा है कि यदि कोई सम्मान भाव से हिस्सा लेना चाहता हो तो आयोजकों की अनुमति लेकर आ सकता है।

इसी दौरान, बाँस और वक्फ के बीच गरबा पंडलों में गैर-हिंदू प्रायोजकों के विरोध का दृश्य छत्तीसगढ़ के बस्तर में उभरा है। वहाँ VHP और बजरंग दल ने गैर-हिंदू प्रायोजकों द्वारा गरबा आयोजनों को स्वीकार नहीं करने की मांग की है। उन्होंने कहा है कि धार्मिक शुद्धता बनाए रखने के लिए आयोजकों में हिंदू पहचान होनी चाहिए। कुछ कार्यक्रम रद्द कर दिये गये, और आयोजक विरोध कर रहे आयोजनों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की कह रहे हैं।

गुजरात में एक और मामला सामने आया है, जहाँ एक गरबा कार्यक्रम में मुस्लिम वादक ढोल बजा रहे थे। हिंदू संगठनों ने इस पर प्रतिक्रिया दी और आयोजकों से माफी माँगने को कहा गया। आयोजकों ने साफ किया कि उनका उद्देश्य किसी की धार्मिक भावनाएँ आहत करना नहीं था।

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि गरबा आज सांस्कृतिक उत्सव से कहीं आगे बढ़ गया है — वह पहचान, धार्मिक अधिकार, और राजनीतिक सत्ता का विषय बन गया है।

समाजशास्त्र की दृष्टि से, गरबा कभी जाति या धर्म की दीवारों से परे था। ग्रामीण और शहरी समाजों में यह स्त्रियों की सक्रिय भूमिका, सामूहिकता और सांस्कृतिक ऊर्जा का प्रतीक रहा। लेकिन अब इसे तीन विपरीत दिशाओं से दबाव मिल रहा है: बाज़ारीकरण, धार्मिक कट्टरता और राजनीतिक वर्चस्व। आयोजक टिकट, स्पॉन्सरशिप, प्रतियोगिताएं और मीडिया कवरेज जैसे तत्व जोड़ रहे हैं, जिससे गरबा एक भारी व्यावसायिक इवेंट बन गया है।

वहीं दूसरी ओर, धार्मिक कट्टरता इसे पहचान-आधारित आयोजन बनाने की कोशिश कर रही है। “लव जिहाद” के आरोपों को आधार बनाकर गैर-हिंदुओं को बाहर रखना, पहनावे पर पाबंदियाँ लगाना, और पंडालों को “हिंदू स्थल” के रूप में परिभाषित करना — ये सभी ऐसा संकेत देते हैं कि गरबा को विभाजन का माध्यम बनाया जा रहा है।

राजनीतिक दृष्टि से, गरबा पर नियंत्रण का प्रयास राज्य-स्तर पर भी नजर आ रहा है। आयोजकों को निर्देश दिए जा रहे हैं कि वे धार्मिक पहचान सुनिश्चित करें। विवादों में यह प्रश्न उठता है: क्या किसी त्योहार को केवल एक समुदाय के लिए आरक्षित कर देना संविधान और सामाजिक न्याय की दृष्टि से स्वीकार्य है?

इन घटनाओं का असर सिर्फ आयोजनों तक सीमित नहीं है। वे धार्मिक समुदायों के बीच अविश्वास, कटुता और संदेह को बढ़ाते हैं। कभी वह शक्ति, भक्ति और सामूहिक आनंद का प्रतीक था, अब वह एक ऐसा मैदान बन गया है जहाँ पहचान और धर्म के चिह्न सवालों में खड़े होते हैं।

इस स्थिति का सामना करने के लिए आवश्यक है कि गरबा को फिर उसी रूप में देखा जाए जिसमें उसने अपना अस्तित्व पाया था — एक साझा सांस्कृतिक आयोजन जिसमें सभी का स्वागत हो। आयोजकों को पारदर्शी नियम बनाने चाहिए, किसी भी धर्म को बाहर न करना चाहिए, और पहनावे व पहचान के मामलों में संयम बरतना चाहिए। सरकार और प्रशासन को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि धार्मिक स्वतंत्रता और संवैधानिक अधिकार सुरक्षित रहें। सामाजिक और धार्मिक संगठनों को गरबा की मूल भावना — समेत आस्था, आनंद और एकता — को प्राथमिकता देनी चाहिए।

तब ही गरबा फिर से विभाजन का नहीं, समावेशन और एकता का प्रतीक बन सकेगा। भविष्य में गरबा का स्वर ऐसा होना चाहिए कि वह पहचान की दीवारों को नहीं तोड़े, बल्कि दिलों को जोड़ दे। यह नवरात्रि का सबसे बड़ा संदेश हो सकता है — शक्ति की पूजा से भी अधिक, एकता और सहनशीलता की पूजा।

शर्म करो... क्यों एक लेखक के पीछे पड़े हो? - Aaj Ki Jandhara
25/09/2025

शर्म करो... क्यों एक लेखक के पीछे पड़े हो? - Aaj Ki Jandhara

ध्रुव शुक्ल हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि-कथाकार श्री विनोद कुमार शुक्ल को उनके उपन्यास —–‘ दीवार में एक खिड़की रहती थ....

पारदर्शिता लाने कॉपीराइट कानून में प्रावधान हो - Aaj Ki Jandhara
25/09/2025

पारदर्शिता लाने कॉपीराइट कानून में प्रावधान हो - Aaj Ki Jandhara

विनोदकुमार शुक्ल को हिन्दयुग्म प्रकाशन द्वारा दी गयी 30 लाख रुपए की रॉयल्टी को लेकर सोशल मीडिया पर हुई बहस

*पारदर्शिता लाने कॉपीराइट कानून में प्रावधान हों*विनोदकुमार शुक्ल को हिन्दयुग्म प्रकाशन द्वारा दी गयी 30 लाख रुपए की रॉय...
25/09/2025

*पारदर्शिता लाने कॉपीराइट कानून में प्रावधान हों*

विनोदकुमार शुक्ल को हिन्दयुग्म प्रकाशन द्वारा दी गयी 30 लाख रुपए की रॉयल्टी को लेकर सोशल मीडिया पर हुई बहस में लेखक-प्रकाशक संबंधों को लेकर गहराई से बात नहीं हुई है। सारी चर्चा 30 लाख पर केंद्रित होकर रह गयी; जबकि लेखकीय और प्रकाशकीय नैतिकता-जैसे प्रश्नों को लेकर कुछ गंभीर चर्चा की अपेक्षा थी। मूल मुद्दा कॉपीराइट कानून की दृष्टि से लेखकों के हितों का संरक्षण का है। कॉपीराइट एक प्रकार की बौद्धिक संपदा का मामला है। यह वह अधिकार है जो कोई व्यक्ति अपने सृजनात्मक कर्म के द्वारा स्वयमेव अर्जित करता है और जो उसके बौद्धिक श्रम का परिणाम है। कॉपीराइट कानून का प्राथमिक कार्य किसी व्यक्ति के श्रम, प्रतिभा, कौशल या सृजन के फल को अन्य लोगों द्वारा छीने जाने से बचाना है। यह साहित्यिक संपत्ति का अधिकार है जिसके संरक्षण का दायित्व सरकार का है।
कॉपीराइट कानून के तहत किताबों की बिक्री और लेखकों के पारिश्रमिक के विवरण में पारदर्शिता सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है। फ़िलहाल यह क़ानून लेखक को पूर्ण सुरक्षा नहीं देता। पुस्तकों की बिक्री और लेखक की रॉयल्टी का पारदर्शी तरीक़े से विवरण देने की कानूनी बाध्यता नहीं है। प्रकाशक इसी का फ़ायदा उठाते हैं। वे पुस्तक की मनमानी क़ीमत रखकर अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाने का प्रयत्न करते हैं। कोई ऐसी कोई प्रणाली विकसित नहीं की गयी है जो सुनिश्चित कर सके कि पुस्तकों को उचित मूल्य पर बाजार में बेचा जाए। याद रखना चाहिए कि पुस्तकों के कारोबार में केवल लेखक और प्रकाशक का पक्ष ही नहीं है, पाठक के पक्ष की चिंता भी की जानी चाहिए। कॉपीराइट कानून में प्रावधान किया जाना चाहिए कि पुस्तक की लागत, लेखक का पारिश्रमिक, सरकार को देय समस्त कर और प्रकाशक का मुनाफा जोड़कर उसका वास्तविक बिक्री मूल्य निर्धारित किया जाये और पारदर्शी ढंग से उसका विवरण प्रकाशक के वेबसाइट पर दिया जाना चाहिये। यह केंद्र सरकार का दायित्व है कि वह लेखक और पाठक के हितों का संरक्षण करे। इसके लिए कॉपीराइट कानून में आवश्यक संशोधन अनिवार्य है। इसके अभाव में प्रकाशकों की मनमानी और लेखक-पाठक का शोषण बदस्तूर जारी रहेगा ।
लेकिन मुश्किल यह है कि स्वयं केंद्र सरकार ने हाल ही में काग़ज़ और मुद्रित सामग्री पर करारोपण और डाकशुल्क बढ़ा दिया है। इससे पुस्तकों का महँगा होना और उनके वितरण की लागत बढ़ना स्वाभविक है। सरकार की रुचि पुस्तक-संस्कृति को प्रोत्साहित और विकसित करने में नहीं है, बल्कि उल्टे वह उसे हतोत्साहित करने में लगी है। ऐसे में कॉपीराइट कानून में आवश्यक संशोधन की बात भी नहीं सोची जा सकती, जबकि वह आज की महती आवश्यकता है। पुस्तकों और अन्य सृजनात्मक उत्पादों की बढ़ती पायरेसी को देखते हुए यह और भी ज़्यादा ज़रूरी हो गया है। हाल में हिन्दयुग्म के ही एक लेखक ने अपनी पुस्तक की पायरेटेड कॉपी बाजार में प्रचारित होने और लेखक को उससे होने वाले नुक़सान की शिकायत सोशल मीडिया पर की है। केंद्र सरकार को चाहिए कि पायरेसी को गम्भीर समस्या मान कर उचित कार्रवाई करे।
सवाल लेखक की मेहनत के उचित मूल्यांकन और उसके अधिकार का है जिसकी अवहेलना प्रकाशक और बाज़ार के खिलाड़ी निरंतर करते आ रहे हैं। यहीं प्रकाशकीय नैतिकता का का सवाल भी खड़ा होता है। यदि प्रकाशक आगे आकर लेखक के साथ अपने संबंधों का निर्वाह नैतिक आधार पर करें तो कोई विवाद ही नहीं होगा। हिन्दयुग्म ने इसका पालन स्वतः किया है। और इसके लिए वह साधुवाद का पात्र है। लेकिन बरसों से लेखक का पारिश्रमिक हथियाने वाले प्रकाशकों की नैतिकता स्वतःस्फूर्त्त होकर जागने वाली नहीं है। इसलिए कानूनी रूप से उन्हें जवाबदार बनाया जाना अत्यावश्यक है। दुर्भाग्यवश साहित्य और कलाओं के क्षेत्र से राज्यसभा में मनोनीत होने वाले विद्वानों ने कॉपीराइट और लेखकों-कलाकारों के अधिकार के मुद्दे पर कभी संसद में आवाज़ नहीं उठाई। अब समय है कि कॉपीराइट कानून में प्रकाशक द्वारा अपने प्रकाशनों में पारदर्शिता लाने को अनिवार्य किये जाने के उद्देश्य से आवश्यक प्रावधान करने के लिए ज़रूरी पहलक़दमी हो। लेखक के हितों को प्रकाशक यदि बाजार के हवाले कर देने पर आमादा है तो लेखक को कोई परेशानी नहीं है, लेकिन ज़रूरी है कि वह बाज़ार के नियमों के अनुसार चले; चाहे वह नई वाली हिंदी का बाज़ार हो, या उस पुरानी हिंदी का जिसमें गंभीर साहित्यिक कृतियाँ रची गयी हैं। कॉपीराइट कानून का संरक्षण हो तो लेखक ठगा नहीं जाएगा। लुगदी साहित्य की जगह लेने जा रही नई वाली हिंदी के प्रकाशक यदि गंभीर साहित्य के प्रकाशकों को रास्ता दिखा रहे हैं तो हिंदी जगत के हित में है।
बहरहाल, हिन्दयुग्म प्रकाशन द्वारा कवि-कथाकार विनोद कुमार शुक्ल को दी गयी 30 लाख रुपए की रॉयल्टी ने लेखकों के बीच हंगामा तो पैदा किया ही है। सोशल मीडिया पर आम तौर पर हिन्दयुग्म की इस पहल का स्वागत हुआ है। हिन्दयुग्म के शैलेश भारतवासी ने कुछ माह पहले हिंदवी के एक साक्षात्कार में जब यह ऐलान किया था, तब उनका दावा अविश्वसनीय लगा था। लेकिन पिछले दिनों रायपुर में सम्पन्न हिन्दयुग्म उत्सव में सार्वजनिक तौर पर जब उन्होंने विनोद कुमार शुक्ल को तीस लाख रुपये का चेक दिया तो पुस्तकों की बिक्री और लेखक के पारिश्रमिक के मामले में उनकी पारदर्शिता से हिंदी प्रकाशन जगत में एक नई मिसाल तो कायम हुई ही, दीगर प्रकाशक स्वयमेव एक नैतिक कटघरे में खड़े हो गये। ज़ाहिर है, हिंदी के छोटे-बड़े सभी प्रकाशकों के सामने लेखकों की रॉयल्टी हड़पने का आरोप सिद्ध होता है। उनकी ईमानदारी संदिग्ध है। यह तथ्य प्रमाणित हुआ है कि हिंदी में किताबें बिकती हैं लेकिन लेखक को उचित मेहनताना नहीं मिलता।
अपनी पुस्तकों को प्रकाशित करने के लिए याचक भाव से प्रकाशक के सामने खड़ा होने या धनराशि देकर पुस्तक छपवाने वाले लेखक हतप्रभ हैं। लेकिन सोशल मीडिया पर किसी भी लेखक ने विनोदकुमार शुक्ल को दिए गए पारिश्रमिक को लेकर विरोध नहीं किया है जैसा कि कुछ लोग प्रचारित कर रहे हैं। प्रकाशक की नीयत और विनोदजी को अपनी ब्रांडिंग के लिए इस्तेमाल करने के प्रयत्न और सार्वजनिक तौर पर शोर-शराबे के साथ उन्हें चेक सौंपे जाने को लेकर कुछ लोगों ने उचित ही आपत्ति की है।
लेखक के पारिश्रमिक को लेकर हुए इस शोरशराबे में लेखक-प्रकाशक सम्बन्धों की मौजूदा स्थिति पर विचार करें कुल मिलाकर यही लगता है कि प्रकाशक अभी भी लेखक के ऊपर भारी है। लेखक का पारिश्रमिक न देने या नगण्य राशि देने वाले प्रकाशक लेखक को ठगते हैं। लेखक को रॉयल्टी वे प्रायः इस अंदाज़ में देते हैं मानो यह उनका अधिकार नहीं, प्रकाशक की मेहरबानी है। तभी तो रॉयल्टी माँगने की बजाए कुछ लेखक पुस्तक छपवाने के लिए प्रकाशक को पैसे देते हैं और छप जाने पर धन्य होते हैं। लेखक यदि जागरूक होकर रॉयल्टी की माँग करे तो प्रकाशक रोना रोने लगते हैं।
ज़ाहिर है, लेखक और प्रकाशक के बीच में केवल अनुबन्ध होता है जो प्रकाशक अपने पक्ष में स्वयं तैयार करता है और प्रकाशक उस पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य होता है। पुस्तकों के बाज़ार पर लेखक का नहीं, प्रकाशक का नियंत्रण है। इसलिए अचरज नहीं कि वह लेखक के अधिकारों को भी चालाकी से हस्तगत कर ले। यह हिंदी प्रकाशन जगत की सचाई है। ऐसी स्थिति में हिन्दयुग्म की पारदर्शिता इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है कि उन्होंने विनोदकुमार शुक्ल की पुस्तकों की छह माह की बिक्री और पारिश्रमिक कस सार्वजनिक ब्यौरा प्रस्तुत किया। अन्य प्रकाशक ऐसा नहीं करते तो आवश्यक है कि कॉपीराइट कानून में संशोधन के ज़रिए सरकार उन्हें बाध्य करे।

स्थापित लेखकों को नये प्रकाशकों की तलाश रायपुर में हुए हिन्दी युग्म उत्सव के बाद बहुत से हिन्दी के स्थापित लेखकों को अब ...
24/09/2025

स्थापित लेखकों को नये प्रकाशकों की तलाश

रायपुर में हुए हिन्दी युग्म उत्सव के बाद बहुत से हिन्दी के स्थापित लेखकों को अब नये प्रकाशकों की तलाश है। लेखकों को इस परिघटना ने उद्वेलित किया है कि वे इतने वर्षों तक ठगे गए। पाठकों की बदलती रुचि और माध्यमों को देखकर भी प्रकाशक अब नये तरीके की रणनीति और मार्केटिंग कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर चर्चित लोगों द्वारा किताबों की चर्चा, चर्चित किताबों को फैशन की तरह अपने हाथ में दिखाने की चाहत और नई वाली हिन्दी, बोल्ड सब्जेक्ट भी किताब बिक्री का आधार बन रहे हैं। बहुत सारे प्रकाशक आडियो बुक पर रायल्टी की 70 प्रतिशत तक राशि अपने पास रखते हैं वहीं किताब पर बनने वाली फिल्म को लेकर भी यही रवैय्या है। वहीं हिन्दी युग्म जैसे प्रकाशक अपने पास किताब का कापीराइट रखकर केवल एनओसी के आधार पर सहमति दे देता है, उसकी सारी रायल्टी लेखक को मिलती है। आजकल एआई आने के बाद डबिंग करने के लिए डबिंग आर्टिस्ट की जरुरत खत्म होती जा रही है। वैसे हिन्दी के मंचीय कवि जो अपने आप को युग कवि कहलाना पसंद करते हैं, एक-एक कवि सम्मेलन का 20-30 लाख रुपए तक लेते हैंं। उन्हें भी एक बार रायल्टी के रुप में 1 करोड़ रुपए की राशि मिल चुकी है पर ये भी एक प्रकार का मार्केटिंग गीमिक्सी था। विनोद कुमार शुक्ल जैसे कवि के छत्तीसगढ़ में आकर नये लोगों को केवी के माध्यम से कविता सीखाने का उपक्रम भी जारी है। यह सब नये तरह के स्टंैंड हैं। बहुतों को लगता है कि कविता-कहानी की वर्कशाप लगाकर सिखाई जा सकती है।
यह सही है कि किताबें तो हर साल बहुत बिकती है किंतु उसके प्रकाशक उसे कम बताते हैं। हिन्दी युग्म से, जिन दो लेखिकाओं जयंती नटराजन और मधु चतुर्वेदी की किताबें आई हैं, वे भी इनकी कार्यप्रणाली और रायल्टी प्रक्रिया को पारदर्शी बताती हंै। आपसी चर्चा में मधु चतुर्वेदी ने बताया कि हिन्दी युग्म से उनकी चार किताबें जिनमें मन अदहन, धनिका, द्विवेदी विला, फिर मिलोगी प्रकाशित हुई है। जयंती नटराजन की शुगर डैडी, मैमराजी, शैडो की तीन किताबें आई हैं। शैडो पर फिल्म भी बन रही है जिसके लिए उन्हें प्रकाशक से एनओसी मिल चुकी है। वे कहती हैं कि बहुत से लेखक-लेखिकाएं उनसे संपर्क करके हिन्दी युग्म के बारे में पूछ रहे हैं, उन्हें भी लगता है कि न केवल उनकी किताबें बिके बल्कि उन पर व्यापक चर्चा भी हो।
किताब बड़े और पुराने प्रकाशक भी अब उतनी ही बेच रहे हैं, जितनी हिन्द युग्म बेच रहा है। उनके पास भी वे सारे आधुनिक संसाधन हैं जो किताब बेचने के लिए आज जरुरी है। पर बड़े और पुराने प्रकाशकों के पास शायद पारदर्शिता का अभाव है। पारदर्शिता का मतलब है अपने लेखकों को लाखों रुपए रॉयल्टी का भुगतान जो वे दबाते आये हैं और कमाते आये हैं।
यह तो है कि इस 30 लाख की रॉयल्टी ने ना सिर्फ हिंदी के लेखकों को चौंकाया है बल्कि वे अपने को ठगा-सा महसूस कर रहे हैं कि 30 लाख तो छोडिय़े साल भर में आठ दस किताबों के अब तक उन्हें 30 हज़ार भी नहीं मिले हैं। खुद विनोद जी को राजकमल प्रकाशन 10 किताबों की एक साल की मात्र 15 हज़ार रॉयल्टी देता रहा है जिसका हल्ला पहले ही हो चुका है। विनोद जी के लिए रॉयल्टी की बात उठाने वाले मानव कौल हैं, जो अभिनेता भी हैं और शौकिया लेखक भी। मानव कौल को हिन्दी युग्म ने ही छापा है। मानव कौल ही वो पहले आदमी थे जिनके जरिए पता चला कि राजकमल प्रकाशन विनोद जी को सालाना 15 हजार के आसपास और वाणी छह हजार तक की रॉयल्टी देता था। इसके बाद राजकमल और वाणी प्रकाशन के खिलाफ शोर शुरू हुआ।
मेरे लिखे पर फ़ेसबुक में राकेश कुमार की प्रतिक्रिया-
हिंदी लेखक प्रकाशित होने को ही उपलब्धि समझते हैं। प्रेमचंद प्रकाशन से दिवालिया हो गए।
तबसे व्यवसाई तो हैं और वे लेखक के धन से ही प्रकाशन चलते चलाते हैं। हिंदी फिल्मों की तरह हिंदी प्रकाशन भी व्यावसायिक पारदर्शिता से हीन है। सरकारी आश्रय से द्बड्डह्य और अन्य प्रशासकों ने इसे और दूषित किया है। लेकिन पर न विश्वविद्यालय पढ़ाते हैं न पुस्तक प्रचार पर कोई कार्य है । कल फेसबुक पर पुस्तक प्रमोशन का विज्ञापन था आठ हजार से पांच लाख का पैकेज था। मैने कॉल कर रहे व्यक्ति से पिछली सफलता का हिसाब मांगा तो वह भड़क गया। बोला, हमें इस तरह की भाषा सुनने का अभ्यास नहीं है। मैने कहा, प्रभु पांच लाख जैसा शक्ल और गुण पैदा कीजिए फिर आइएगा इस प्रकार के संपादक भी नहीं है जो पुस्तक की गुणवत्ता अथवा सुधार के लिए सुझाव दे सकें । अभी लेखन स्वातं सुखाय हैं।
बिलासपुर छत्तीसगढ़ के बड़े पुस्तक विक्रेता और प्रकाशक श्री बुक डिपो के संचालक पीयूष गुप्ता कहते हैं कि हिन्दी के लेखकों की किताबें तो बहुत बिकती हैं किंतु प्रकाशक ने उन्हें बहुत कम करके बताते हैं। अगर पुराने प्रकाशकों का यही रवैय्या रहा तो हिन्दी युग्म अपनी नई स्ट्रेटजी के तहत स्थापित प्रकाशकों के यहां से सारे बड़े लेखकों को तोड़कर अपने पास पारदर्शी अनुबंध और बिकी हुई किताबों की सही रायल्टी के जरिए ले आएगा। पीयूष गुप्ता उनके द्वारा बेची गई किताबों की सूची उपलब्ध कराने के लिए तैयार हैं।
आतस तापस नाम से सोशल मीडिया पोस्ट पर इसका जिक्र करते हुए कहा गया है कि अब उन्हें ही मिर्ची लग रही है। हिंद युग्म के लिए विनोद जी को छापना कृष्ण का सुदामा के घर आने जैसा है। ये बात दूजी है कि सुदामा ने कृष्ण को कम समय में अतुलनीय रॉयल्टी देने का चमत्कार किया है।
राजकमल ने हाल ही में भोपाल में इससे बड़ा पांच दिवसीय आयोजन किया और लाखों की किताबें बेची है। व्यापार में कोई कमी नहीं है सच तो यह है कि राजकमल और वाणी जैसे प्रकशकों का पुस्तक व्यापार हिन्द युग्म से दस गुना ज्यादा होगा। यह हो सकता है कि ये तथाकथित बड़े प्रकशक रॉयल्टी के मामले में अपना व्यवहार नहीं बदले तो बड़े लेखक तो जरूर अब विकल्प तलाशने लगेंगे। अब विकल्प बहुत खुल गए हैं। सेल्फ पब्लिशिंग प्लेटफार्म जैसे विकल्प भी हैं जो लेखक को 70 प्रतिशत तक भुगतान का दावा करती हैं। अमेज़ॉन फ्लिपकार्ट जैसे बिक्री के प्लेटफार्म तो है ही जहां सब धान एक पसेरी है यानि सब प्रकाशक वहां बराबर हैं। बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा सबकी किताब वहां बिना प्रकाशक के नाम के पंक्तिबद्ध है। यह उपेंद्र नाथ अश्क़ का समय नहीं है, जब उन्हें प्रकाशकों के शोषण से बचने के लिए अपनी किताब छापकर घूम घूम कर बेचैनी पड़ी थी। तब भी वे प्रकाशकों को किताब देने से ज्यादा फायदे में थे। अब तो विकल्प अनन्त हंै। रायल्टी से जुड़ी मेरी पोस्ट को पढ़कर संशय और सच्चाई के बीच की बातें जानने के लिए वरिष्ठ पत्रकार, लेखक रामशरण जोशी जो अमेरिका के बोस्टन में अपनी बिटिया के साथ रह रहे हैं, उन्होंने आश्चर्य मिश्रित खुशी जाहिर करते हुए कहा गया है कि यदि हिन्दी के किसी लेखक की 6 माह में बिकी किताबों की रायल्टी 30 लाख रुपए मिलती है तो यह बहुत अच्छी बात है। उन्होंने कहा कि अंग्रेजी के लेखकों को करोड़ों रुपए मिलते हैं। उन्होंने अपनी किताबों का जिक्र करते हुए कहा है कि उन्हें अभी तक अधिकतम एक लाख रुपए तक की रायल्टी मिली है। उन्होंने कहा कि यदि हिन्दी युग्म जैसे प्रकाशक लेखकों को पारदर्शिता के साथ रायल्टी का हिसाब दे रहा है तो बाकी प्रकाशकों के लिए भी ये एक संकेत है।

राजा निरवंशी हो सकता है, जन कलाकार नहींहिंदू पौराणिक परंपरा में पुत्र को पिता की सार्थकता का आधार माना गया है। यह धारणा ...
23/09/2025

राजा निरवंशी हो सकता है, जन कलाकार नहीं
हिंदू पौराणिक परंपरा में पुत्र को पिता की सार्थकता का आधार माना गया है। यह धारणा रही है कि मृत्यु के बाद भरा-पूरा परिवार शवयात्रा में शामिल हो, कर्मकांड भव्यता से संपन्न हों और जनसमूह शोक व्यक्त करे। इसी वजह से निरवंशी होना शाप की तरह समझा गया। राजा-सामंतों की शवयात्रा इसलिए गर्व और ईर्ष्या का विषय मानी जाती थी क्योंकि वहाँ जनसमूह की भीड़ होती थी।
लेकिन यह मिथक जबलपुर के रंगकर्मी अरुण पांडे की मृत्यु ने तोड़ दिया। 31 सितंबर को उनके निधन के बाद उनकी शवयात्रा में जनगीत गूँज रहे थे। राईट टाउन गेट नंबर चार से ग्वारीघाट तक निकली इस यात्रा में परिवारजन ही नहीं, बल्कि असंख्य परिचित-अपरिचित, शिष्य और रंगकर्मी शामिल थे। यह दृश्य साबित करता है कि एक कलाकार का असली परिवार उसकी कला और उसके लोग होते हैं।
अरुण पांडे ने अपने जीवन की शुरुआत इप्टा और बाद में विवेचना रंगमंडल से की। उन्होंने देश भर में रंग कार्यशालाएँ कीं, असंख्य नाटकों का निर्देशन किया और प्रायः बिना पारिश्रमिक लिए मंचन किया। वे अपने आप में एक नाट्य विद्यालय थे। रंगकर्म की अगली पीढ़ी को गढ़ना ही उनका सबसे बड़ा ध्येय था।
उनकी निर्देशकीय यात्रा में आधे-अधूरे, अंधा युग, घासीराम कोतवाल, ताम्रपत्र और आषाढ़ का एक दिन जैसे नाटक विशेष रूप से चर्चित रहे। इन प्रस्तुतियों में उन्होंने कलाकारों को केवल अभिनय ही नहीं, बल्कि सामाजिक दृष्टि भी दी। कई रंगकर्मी याद करते हैं कि कार्यशाला खत्म होने के बाद भी अरुण पांडे उन्हें घंटों बैठाकर लोकगीत, जनगीत और बस्तर की बोलियों तक समझाते थे। उनके निर्देशन में नाटक सिर्फ मंचन नहीं, बल्कि जीवन के सवालों से टकराने का माध्यम बनते थे।
जबलपुर को संस्कारधानी कहे जाने की परंपरा भी ऐसे ही व्यक्तित्वों से बनी है। हरिशंकर परसाई, रामेश्वर गुरु, आचार्य रजनीश, महर्षि महेश योगी, ज्ञानरंजन, अलखनंदन और अब अरुण पांडे—इन सबकी जीवनधारा आने वाली पीढ़ियों के लिए संस्कार की तरह बहती रही है। परसाई ने लिखा था कि एक शहर की पहचान उसके लोगों से बनती है। अरुण पांडे ने यह कथन अपने जीवन से सिद्ध किया।
कलाकार के लिए उसकी कला ही उसकी संतान है। वही उसे अमर करती है, जाति-धर्म की परिधि से परे एक नई पहचान देती है। अरुण पांडे की शवयात्रा और देशभर से उमड़ी श्रद्धांजलि ने यह साबित कर दिया कि कला व्यक्ति को कितना व्यापक परिवार और सच्चा सम्मान देती है। बड़े-बड़े धनपति और सत्ता-पुरुष भी ऐसी सच्ची श्रद्धांजलि के आकांक्षी रह जाते हैं।
व्यक्ति की लोकप्रियता का असली आकलन उसकी मृत्यु के बाद की प्रतिक्रियाओं से होता है। अरुण पांडे इस अर्थ में सचमुच जीवित रहेंगे—अपने नाटकों, अपने जनगीतों और अपने शिष्यों की स्मृति में।
स्मृति शेष -मित्र अरूण पांडे

जबलपुर रंगमंच के पितामह
सन 2000 का शुरुआती वर्ष। वो हमारे रंगमंच के शुरुआती दशक थे। हमने अभी रंगमंच के क्षेत्र में आंख खोलना शुरू ही किया था कि हमने एक नाटक देखा, परसाई जी की रचना थी और निर्देशक थे अरुण पांडे। हम व्यक्तिगत रूप से उन्हें नहीं जानते थे लेकिन उस नाटक का प्रभाव आज तक है। यही एक सच्ची कला की सार्थकता है कि वो देखनेवालों की स्मृतियों में सदा के लिए अंकित हो जाए। अरुण पांडे द्वारा परिकल्पित विवेचना की ऐसी अनगिनत नाट्य कृतियां हैं जो दर्शकों के स्मृतियों पर अंकित हैं।
वो उस ज़माने के रंगकर्मी हैं जब रंगमंच करना घर फूंक तमाशा देखने का उपक्रम हुआ करता था। उन्होंने न केवल ज़मीन बनाई बल्कि उस स्थान को इतना ज़्यादा उर्वरक बना दिया कि आने वाली पीढ़ी वहां इत्मीनान से लहलहाती फ़सल उगा सके। बेफिक्र, बेलौस, जीवन का जम कर लुत्फ़ उठानेवाले अरूण पांडे सर का ना जीवन और घर रंगमंच से अलग था और ना ही रंगमंच घर और जीवन से अलग। रंगकर्म के अनगिनत पौधों को लगाने, उगाने, उसे पोषित करनेवाले रंगकर्मी का नाम था अरुण पांडे। यह कहा जाए तो शायद कहीं से कोई अतिश्योक्ति न होगी - जबलपुर रंगमंच के पितामह थे अरुण पांडे।
-पुंज प्रकाश,रंगकर्मी, पटना

भारतीय रंगमंच के सच्चे साधक थे
अरुण पांडे जी भारतीय रंगमंच के सच्चे साधक थे। अपने साथी रंगकर्मियों से अगाध प्रेम करने वाले। उनके बुलावे पर हमने जबलपुर में कई नाटकों के प्रदर्शन किए। पूरे देश में सबसे बढ़कर जबलपुर में हमें दर्शकों का प्यार मिला।
बेहतरीन दर्शक वर्ग बनाया था अरुण जी ने अपने अथक प्रयास से। अलग अलग कवियों की कविताओं की प्रस्तुतियां जो अरुण जी ने की शायद ही किसी ने किया हो। जब तक जिय नाटक के लिए जिये जब तक नाटक किए तब तक जिये। नाटक का किसान, मिट्टी का लाल, मिट्टी में समाहित हो गया। अलविदा भाई साहब
विजय कुमार,फिल्म एंव नाट्य अभिनेता निर्देशक, मुंबई

हमें रंगमंच की जमीन से जोड़ा और सिखाया
“अरुण भाई सिर्फ गुरु नहीं, एक आंदोलन थे। उन्होंने हमें रंगमंच की ज़मीन से जोड़ा और सिखाया कि कलाकार को जनता से बड़ा रिश्ता निभाना होता है।”
भूपेंद्र साहू , रंगकर्मी

न की कार्यशाला किताबों से ज्यादा जीवन की पाठशाला थीं
“हमारे लिए अरुण पांडे सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि एक जीवित संस्था थे। उनकी कार्यशालाएँ किताबों से ज्यादा जीवन की पाठशाला थीं।”
रचना मिश्रा, नाट्य निर्देशिका

https://youtu.be/P1Hx7mofJf0
23/09/2025

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हिन्दी के लेखकों को प्रकाशकों से हिसाब मांगना चाहिए - Aaj Ki Jandhara
23/09/2025

हिन्दी के लेखकों को प्रकाशकों से हिसाब मांगना चाहिए - Aaj Ki Jandhara

सुभाष मिश्र ( विनोद कुमार शुक्ल और 30 लाख की रायल्टी प्रसंग) हिंदी जगत में इन दिनों यह सवाल जोरदार

हिन्दी के लेखकों को प्रकाशकों से हिसाब मांगना चाहिएसुभाष मिश्र( विनोद कुमार शुक्ल और 30 लाख की रायल्टी प्रसंग)हिंदी जगत ...
23/09/2025

हिन्दी के लेखकों को प्रकाशकों से हिसाब मांगना चाहिए

सुभाष मिश्र

( विनोद कुमार शुक्ल और 30 लाख की रायल्टी प्रसंग)

हिंदी जगत में इन दिनों यह सवाल जोरदार बहस का विषय है कि जब हिंदी युग्म जैसे प्रकाशक विनोद कुमार शुक्ल को उनकी चार किताबों की महज़ छह माह में 90 हज़ार प्रतियों की बिक्री का पूरा हिसाब देकर तीस लाख रुपये की रॉयल्टी दे सकते हैं तो अन्य प्रकाशक ऐसा क्यों नहीं करते? क्यों वही प्रकाशक, जिन्होंने वर्षों से विनोदजी की किताबें छापी है, इस रॉयल्टी का दसवां हिस्सा भी भुगतान नहीं कर पाए?

स्वयं विनोदजी को भी अपने प्रकाशकों से हिसाब मांगना चाहिए। उदाहरण के लिए राजकमल प्रकाशन समूह ने अपने विज्ञापनों में उनकी दस किताबों को प्रचारित किया—नौकर की कमीज़, खिलेगा तो देखेंगे, हरी घास वाली छप्पर वाली झोपड़ी, सब कुछ होना बचा रहेगा, आकाश धरती को खटकता है, बौना पहाड़, कविता से लंबी कविता, प्रतिनिधि कविता और वह आदमी चला गया नया गर्म कोट पहिन कर चला गया विचार की तरह। इसके बावजूद पारदर्शिता और रॉयल्टी भुगतान का सवाल उठता ही है।

समस्या यह है कि हिंदी के अधिकांश लेखक किताब छपने के एहसान से ही इतने दब जाते हैं कि प्रकाशक से हिसाब माँगने का साहस नहीं जुटा पाते। कई प्रकाशक औपचारिकता निभाने के नाम पर साल-दो साल में बिक्री का एक संक्षिप्त स्टेटमेंट और थोड़ी-बहुत राशि भेज देते हैं। इसके विपरीत हिंदी युग्म ने विनोदजी के पुत्र शाश्वत को मेल पर किताबों की बिक्री का पूरा ब्यौरा भेजा। सवाल यह है कि क्या बाकी प्रकाशक भी इस पारदर्शिता का अनुसरण करेंगे? क्योंकि किताबों की बिक्री पूरी तरह प्रकाशक की ईमानदारी पर निर्भर है। अगर किसी पुस्तक की वास्तविक बिक्री 1000 प्रतियों की हो और प्रकाशक उसे 100 दिखा दे, तो लेखक क्या कर लेगा?

दरअसल, हिंदी लेखक का यह भी दुर्भाग्य है कि उसे किताबों की बिक्री का अंदाज़ा तक नहीं होता। परिणामस्वरूप लेखकों की आर्थिक स्थिति कभी सशक्त नहीं हो पाती।

विनोद कुमार शुक्ल ऐसे कवि हैं जो विचारधारा के पुल से होकर नहीं, बल्कि कविता की नदी को खुद तैर कर पार करते हैं। उन्होंने चलताऊ मुहावरों को तोड़कर संवेदना और काव्य-शिल्प को नया आयाम दिया। अपनी काव्यभाषा के चयन में वे विरल, संयमी और सजग कवि माने जाते हैं।

सोशल मीडिया पर हिंदी युग्म की रॉयल्टी चर्चा का विषय बनी। कोई उन्हें बिक्री के आधार पर हिंदी साहित्य का अब तक का सबसे लोकप्रिय और श्रेष्ठ लेखक कह रहा है तो कोई इसे सोशल मीडिया मार्केटिंग की नई रणनीति बता रहा है। लेकिन यह निर्विवाद है कि सबसे कम समय में सबसे ज्यादा किताबें बिकने और सर्वाधिक रॉयल्टी पाने वाले लेखक के रूप में वे अपूर्व उदाहरण हैं।

सोशल मीडिया पर एक टिप्पणी थी—

विनोद शुक्ल जी, तीस लाख और हिंदी युग्म यह शगूफ़ा नहीं है।
वरिष्ठ लेखक राजेंद्र चंद्रकांत राय का कहना है कि हिंदी युग्म ने वास्तव में हिंदी लेखन और लेखकों के लिए एक नया युग शुरू किया है। उनके अनुसार हर अच्छी पहल की सराहना होनी चाहिए, न कि आलोचना।
प्रकाशन की नई पीढ़ी अब हाई-टेक है और बाजार की तकनीक को गहराई से समझ चुकी है। अब तक जिन लेखकों ने कुछ सौ या कुछ हजार प्रतियों से आगे उम्मीद छोड़ दी थी, उन्हें समझना होगा कि उनके कॉपीराइट्स उनके बच्चों का भविष्य बन सकते हैं। तीस लाख रुपये भले आज की दुनिया में बहुत बड़ी राशि न हो, लेकिन यह संकेत है कि साहित्य से भी लेखकों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ की जा सकती है।

आज वेबसीरीज़ और ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म कहानियों के अधिकार लाखों में खरीद रहे हैं। ऐसे में यदि युवा प्रकाशक ‘राइटर्स बैंकÓ जैसी परिकल्पनाओं के साथ हिंदी साहित्य का नया बाजार तलाश रहे है तो इसे समयानुकूल और सुखद कहा जाएगा।
इसके उलट, वरिष्ठ साहित्यकार और पूर्व ब्यूरोक्रेट डॉ. सुशील द्विवेदी अपने अनुभव साझा करते हैं। उनकी किताब मध्यवर्ती वर्ष 1983 में भारत भवन, भोपाल के उद्घाटन अवसर पर प्रकाशित हुई थी। सरकार ने उस समय 1000 प्रतियां खरीदी थीं। एक साल बाद प्रकाशक ने हिसाब भेजा तो उसमें केवल उन्हीं 1000 प्रतियों का उल्लेख था, मानो उसके बाद एक भी प्रति न बिकी हो। यह घटना बताती है कि लेखकों के साथ किस हद तक अपारदर्शिता बरती जाती रही है।
स्पष्ट है कि लेखक, प्रकाशक को अमीर बनाने के लिए नहीं लिखते। अब वक्त आ गया है कि हिंदी के लेखक सामूहिक रूप से हिसाब माँगें और रॉयल्टी का वास्तविक हक़ हासिल करें। वरना हिंदी साहित्य का लेखक अपनी ही रचनाओं की कमाई से हमेशा वंचित रह जाएगा।
जरुरत है कि प्रकाशक ईमानदारी बरतें, जैसा लग रहा है हिन्द युग्म ने बरता है, नहीं तो भविष्य हिन्द युग्म जैसे प्रकाशकों का रहेगा। अगर यह हिन्द युग्म ट्रेंड चल गया तो चाहे कितना भी बड़ा प्रकाशक हो बाजार से बाहर हो जायेगा। प्रकाशक अपने कामकाज , भुगतान में पारदर्शिता दिखाये और लेखक भी अपने हक के लिए जैसा की बात-बात पर बहुत से लेखक सोशल मीडिया पर बोलते हैं, दिखते हैं अपने खिलाफ होने वाले शोषण अत्याचार और बौद्धिक संपदा की कथित चोरी पर भी बोलें, लिखें।
प्रसंगवश बक़ौल हरिशंकर परसाई –

इस देश में बुद्धिजीवी सब शेर हैं, पर वे सिचारों की बारात में बैण्ड बजाते हैं।
और गजानन माधव मुक्तिबोध के शब्दों में कहूँ तो –
अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
उठाने ही होंगे।
तोडऩे होंगे ही मठ और गढ़ सब।
पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें
जिसमें कि प्रतिपल कांपता रहता
अरुण कमल एक।
मुक्तिबोध की उस कविता के आसपास सोचा जाए तो कह सकते हैं कि इस मामले में आश्चर्यजनक रूप से राजकमल और वाणी जैसे और बहुत से बड़े प्रकाशकों के लेखकों की इस मामले में चुप्पी दिख रही है। ऐसा नहीं है कि वे अपनी मिली रॉयल्टी से हिन्द युग्म की इस घटना के बाद संतुष्ट होंगे। दरअसल, अब वे बस अपने लिए प्रकशक का विकल्प तलाशने तक चुप है, बस इसलिए की कहीं हाथ में है जो वह भी ना छूट जाये। ऐसे लेखकों की चुप्पी हिंदी के लिए दुर्भाग्यजनक है जो बात बेबात वैसे तो बहुत मुखर हंै, अपने प्रकाशक पर सवाल उठाते हुए उनकी सांसें अटकी हुई हैं।

रायपुर। विनोद कुमार शुक्ल को उनकी किताबों की छह माह की रायल्टी के रूप में तीस लाख रूपये की राशि का मिलना हिन्दी साहित्य ...
22/09/2025

रायपुर। विनोद कुमार शुक्ल को उनकी किताबों की छह माह की रायल्टी के रूप में तीस लाख रूपये की राशि का मिलना हिन्दी साहित्य में आये भूकम्प की तरह है। इसके पहले हिन्दी के किसी लेखक को रायल्टी के रूप में इतनी राशि नहीं मिली।

यह बात देश के शीर्षस्थ कवि, विनोद कुमार शुक्ल के 1958 से मित्र रहे नरेश सक्सेना ने रायपुर में आयोजित हिंदी युग्म उत्सव में विनोदजी को तीस लाख चेक मिलने के अवसर पर कही। विनोद कुमार शुक्ल ने अभी तक की अपनी लेखनी के लिए पाठकों को धन्यवाद दिया। इस अवसर पर विनोद कुमार शुक्ल के कहानी संग्रह का विमोचन भी हुआ। विनोद कुमार शुक्ल ने गजानन माधव मुक्तिबोध और हरिशंकर परसाई से जुड़े अपने संस्मरण को साझा किया।

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर स्थित दीनदयाल उपाध्याय ऑडिटोरियम में हिंदी युग्म उत्सव के पहले दिन शनिवार को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित चर्चित साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल का विशेष सम्मान समारोह भी आयोजित किया गया।

ऐसे आयोजन छत्तीसगढ़ की साहित्यिक धरोहर को नई दिशा देंगे: विस अध्यक्ष डॉ. रमन सिंह
इस समारोह में विधानसभा अध्यक्ष डॉ. रमन सिंह शामिल हुए। उन्होंने कहा कि ऐसे आयोजन आने वाले समय में छत्तीसगढ़ की साहित्यिक धरोहर को नई दिशा देंगे और यह प्रदेश की साहित्यिक परंपरा की मजबूत नींव साबित होंगे।

हर व्यक्ति को अपने जीवन में कम से कम एक किताब अवश्य लिखनी चाहिए: विनोद कुमार शुक्ल
वहीं ज्ञानपीठ सम्मानित लेखक विनोद कुमार शुक्ल ने कहा कि यह उत्सव युवाओं के लिए एक अवसर है कि वे साहित्यकारों की किताबें पढ़ें, उन्हें समझें और उनसे सीखें। उन्होंने यह भी कहा कि हर व्यक्ति को अपने जीवन में कम से कम एक किताब अवश्य लिखनी चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ी उसके अनुभवों और ज्ञान से लाभान्वित हो सके। उन्होंने अपने पाठकों को संबोधित करते हुए कहा कि मैं आज मैं जिस मुकाम पर हूं, वो सब आप लोगों की बदौलत ही है।

नई वाली हिन्दी का आंदोलन चला रहे हिन्द युग्म के डायरेक्टर शैलेश भारतवासी को बधाई दी गई। हिंदी पढऩे और लिखने वालों के लिए गर्व करने की बात है ये, हिन्द युग्म प्रकाशन ने आज विनोद कुमार शुक्ल को तीस लाख की रायल्टी का चेक दिया है। यह सिर्फ छह महीने की है, उनकी किताब ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं।

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