
10/06/2025
जून का महीना था। दिल्ली की दोपहर जैसे आग उगल रही थी। सड़कें तप रही थीं, और हवा भी जैसे लू बनकर चेहरे पर चुभ रही थी।
मैं, जो कि हाल ही में गाँव से दिल्ली आया था, पहली बार इस गर्मी का सामना कर रहा था। सुबह-सुबह हमने सोचा, "थोड़ा बाजार घूम आऊं, शायद कुछ नया मिल जाए देखने को।"
पर जैसे ही मैं रूम से बाहर निकला, हमारे होश उड़ गए। सिर पर तेज़ सूरज, पैरों के नीचे जलता हुआ फुटपाथ, और शरीर से बहता पसीना।
हर नुक्कड़ पर लोग शिकंजी, नारियल पानी या आम पन्ना पीते नज़र आ रहे थे। मैंने भी एक ठेले वाले से ठंडी शिकंजी ली और सबसे पहले खुद को धूप से बचाने के लिए छाता लिया। बगल में बैठा एक रिक्शावाला मुस्कराते हुए बोला,�"भाईसाहब, दिल्ली की गर्मी है ये… यहां या तो ए.सी. चाहिए, या बहुत सब्र।"
मैं हँस पड़ा। अब मुझे समझ आ गया था कि दिल्ली की गर्मी से लड़ना नहीं, उसे अपनाना पड़ता है।
शिकंजी की आखिरी घूंट भरते हुए मैंने सोचा, "कल से बाजार नहीं, सिर्फ मेट्रो!"