Gayatri Gyan Ganga

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26/06/2024

मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...
मुझे हर उस बात पर प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए, जो मुझे चिंतित करती है।

मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...
जिन्होंने मुझे चोट दी है,
मुझे उन्हें चोट नहीं देनी है।

मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...
शायद सबसे बड़ी समझदारी का लक्षण भिड़ जाने के बजाय अलग हट जाने में है।

मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...
अपने साथ हुए प्रत्येक बुरे बर्ताव पर प्रतिक्रिया करने में,
आपकी जो ऊर्जा खर्च होती है, वह आपको खाली कर देती है और आपको दूसरी अच्छी चीजों को देखने से रोक रही है।

मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...
मैं हर आदमी से वैसा व्यवहार नहीं पा सकूंगी, जिसकी मैं अपेक्षा करती हूँ।

मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...
किसी का दिल जीतने के लिए बहुत कठोर प्रयास करना, समय और ऊर्जा की बर्बादी है और यह आपको कुछ नहीं देता, केवल खालीपन से भर देता है।

मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...
जवाब नहीं देने का अर्थ यह कदापि नहीं कि यह सब मुझे स्वीकार्य है, बल्कि यह कि मैं इससे ऊपर उठ जाना बेहतर समझती हूँ।

मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...कभी-कभी कुछ नहीं कहना सब कुछ बोल देता है।

मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...
किसी परेशान करने वाली बात पर प्रतिक्रिया देकर, आप अपनी भावनाओं पर नियंत्रण की शक्ति किसी दूसरे को दे बैठते हैं।

मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...मैं कोई प्रतिक्रिया दे दूँ, तो भी कुछ बदलने वाला नहीं है इससे लोग अचानक मुझे प्यार और सम्मान नहीं देने लगेंगे। यह उनकी सोच में कोई जादुई बदलाव नहीं ला पायेगा।

मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...जिंदगी तब बेहतर हो जाती है ,जब आप इसे अपने आस-पास की घटनाओं पर केंद्रित करने के बजाय उस पर केंद्रित कर देते हैं, जो आपके अंतर्मन में घटित हो रहा है।

आप अपने आप पर और अपनी आंतरिक शांति के लिए काम करिए और आपको बोध होगा कि चिंतित करने वाली हर छोटी बड़ी बात पर #प्रतिक्रिया_नहीं_देना, एक स्वस्थ और प्रसन्न जीवन का 'प्रथम अवयव' है!

*Navratri Day 1 | Maa Shailputri | माँ शैलपुत्री**यह पहला स्वरूप है। इसका रहस्य समझने के लिए शिव-सती प्रसंग पर ध्यान देन...
09/04/2024

*Navratri Day 1 | Maa Shailputri | माँ शैलपुत्री*

*यह पहला स्वरूप है। इसका रहस्य समझने के लिए शिव-सती प्रसंग पर ध्यान देना होगा। हर नारी को पहले बाल्यकाल में शैलपुत्री अर्थात् शिवत्व के प्रति समर्पित भाव से विकसित होना चाहिए। बुद्धि को भी अपनी कुशलता दिखाने की अपेक्षा केवल कल्याणकारी उद्देश्यों के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए। इस मूल आस्था को दृढ़ किया जाए तो नर-नारी सभी की शक्ति शिवोन्मुख कल्याणकारी हो जाएगी। शैलपुत्री की साधना से ऐसी ही दृढ़ आस्था विकसित होनी चाहिए।*

https://youtu.be/1mcCo0Ft0I4
*Shantikunj Rishi Chintan Youtube Channel*

Navratri Day 1 | Maa Shailputri | माँ शैलपुत्री | यह पहला स्वरूप है। इसका रहस्य समझने के लिए शिव-सती प्रसंग पर ध्य...

03/04/2024

ह्रदय रोगों का कारण और निवारण
भाग 4

कभी कभी ह्रदय की कोई दीवार ही घायल हो जाती है या कोई अंग ठीक तरह काम कर सकने के अयोग्य हो जाता है, तब भी दिल में दरद या दौरे पड़ने लगते हैं। बूढ़ा और कमजोर दिल जरा जरा से कारणों पर अपना संतुलन खो बैठता है और उसकी चाल घटने- बढ़ने से लेकर रक्त के अवरोध तथा घर्षण से सह्य या असह्य पीड़ा होने लगती है।कहना न होगा कि हृदय की विपत्ति का प्रभाव समस्त शरीर पर पड़ता है। रक्त का शोधन और अभिसरण ठीक तरह न होने पर अंगों को न तो उचित मात्रा में रक्त मिलता है और न वह आवश्यक शक्ति देने योग्य शुद्ध होता है।ऐसी दशा में सिर चकराने से लेकर हाथ- पाँव काँपने तक और घबराहट, बेचैनी से लेकर पसीना छूटने तक अनेक प्रकार के उपद्रव विभिन्न स्थानों पर उठ खड़े हो सकते हैं।ह्रदय का दौरा पड़ने पर शरीर की प्रायः सभी स्वभाविक क्रिया-प्रक्रियाएं लड़खड़ा सकती हैं।

जीवेम शरदः शतम
श्री राम शर्मा आचार्य

03/04/2024

ह्रदय रोगों के कारण और निवारण

भाग 3

दिल के दौरे के यों अनेक कारण और अनेक स्वरूप हो सकते हैं, पर हार्ट अटैक के नाम से प्रचलित व्यथा में अधिकांश रोगियों को एक ही कठिनाई का सामना करना पड़ता है कि ह्रदय की रक्त लाने-ले जाने वाली नाड़ियों को पोलापन घट जाता है और उनकी दीवारें कठोर हो जाती है।एक ओर तो नाड़ियों की यह सिकुड़न तथा कठोरता और दूसरी ओर रक्त में चरबी तथा खून की फुटकी सी बढ़ने लगती है।यह फुटकी रक्त नाड़ियों में अटक जाती है, तो हृदय के अमुक भाग को शुद्ध रक्त मिलना बंद हो जाता है और भूख से तड़पकर मरने लगता है।यह तड़पन दिल के दरद के रूप में प्रकट होती है।यह आंशिक क्षति हुई। इसे विश्राम से दूर किया जा सकता है।नसों पर दबाव न पड़े तो आहिस्तागी के साथ उस अवरोध का कोई न कोई मार्ग निकाल देती है।ऐसा भी हो सकता है कि जो दूसरी नाड़ियाँ उस क्षुधित स्थान को रक्त पहुंचाती थीं, अधिक सक्रिय होकर अभाव की पूर्ति कर सकने योग्य बन जाएं और जहाँ अवरोध अड़ गया था, उसमें कुछ अधिक बड़ा संकट न रहे।

जीवेम शरदः शतम
श्री राम शर्मा आचार्य

03/04/2024

ह्रदय रोगों का कारण और निवारण

भाग 2

बुढ़ापे से लेकर आहार-विहार तक की विकृतियाँ और दुश्चिंताएँ जैसे कारण मिलकर ह्रदय रोग उत्पन्न करते हैं।शरीर में खराबी अधिक चरबी वाले रसायन कॉलेस्ट्रॉल के इकट्ठे होने से आरंभ होती है। इससे धमनियों में जकड़न ऑर्थोरोक्लेरोसिस की शिकायत बढ़ती है। नाड़ियां मोटी और बड़ी होती चली जाती हैं। दूसरी ओर रक्त में चरबी के थक्के(थ्रोबिन) बढ़ते हैं और वे इन कड़ी नाड़ियों में जा उलझते हैं। जब तक नाड़ियों में कोमलता रहती है, तब तक वे रबड़ की तरह फूलकर इन थक्कों के लिए आवागमन का रास्ता देती रहती हैं, पर जब वे अकड़ जाती हैं, तो उनकी फूलने- फैलने की क्षमता कुंठित हो जाती है। इसी दशा में थक्के जब अड़ जाते हैं तो रास्ता रुक जाता है और दिल का दौरा सामने आता है।नाड़ियों में बढ़ने वाली कठोरता अंततः ह्रदय की कठोरता स्टेकोकार्डिया में परिणत होती है और वह कठोरता जब रक्तभिसरण में अड़चन उत्पन्न करती है तो स्थानीय संघर्ष उठ खड़ा होता है और सूजन या घाव को जन्म देता है। इसी परिस्थिति को डॉक्टरों की भाषा में मायोकार्डियल इंफेक्शन कहते हैं। क्रमिक रूप से बढ़ती हुई ये विकृतियाँ ह्रदय रोगों की छोटी-बड़ी , साध्य -असाध्य स्थिति के रूप में जानी जाती हैं।

जीवेम शरदः शतम
श्री राम शर्मा आचार्य

03/04/2024

ह्रदय रोगों का कारण और निवारण

भाग 1

विश्व स्वास्थ्य संगठन के सर्वेक्षण के अनुसार 1 लाख के पीछे 456 मौतें ह्रदय रोगों से होती हैं। संसार की सबसे घातक व्यथा ह्रदय रोगी की है।अन्य सब रोगों का नंबर इसके बाद का है।

ह्रदय के दौरे क्यों आते हैं और उनका उपचार क्या हो सकता है, यह जानने से पहले हमें इस महत्वपूर्ण अवयव की संरचना की थोड़ी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए।

ह्रदय चार कक्षों में विभक्त है।दाईं ओर के दो का काम यह है कि वे रक्त को फेफड़ों में भेजकर उसमें आक्सीजन का सम्मिश्रण कराएँ। बाईं ओर के दो कक्षों का काम यह है कि शुद्ध रक्त को सम्पूर्ण शरीर में भेजें। दो निकास-नलियाँ ह्रदय से निकलती हैं- (1)पल्मोनरी आर्टरी- फुसफुस धमनी; (2) एओर्ट - महाधमनी।पहली फेफड़ो तक जाती है और दूसरी शेष शरीर तक। महाधमनी में ऐसे वाल्व होते हैं, जो एक ही दिशा में खुले और बंद हों। उसी विशेष व्यवस्था के कारण रक्त उल्टा नहीं लौट सकता।

जीवेम शरदः शतम
श्री राम शर्मा आचार्य

12/03/2024

_*श्रीरामचरितमानस - विचार*_

बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा ।
प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा ।।
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना ।
जिमि इंद्रिय गन उपजें ज्ञाना ।।

( किष्किंधाकांड 14/6 )

वर्षा ऋतु में राम जी प्रवर्षन पर्वत पर वास कर रहे हैं । लक्ष्मण जी से वे कह रहें हैं कि पृथ्वी अनेक तरह के जीवों से भर गई है तथा वह उसी तरह से शोभायमान हो रही है जैसे सुराज पाकर प्रजा का विकास होता है । जहाँ तहाँ अनेक यात्री थककर विश्राम कर रहें हैं जैसे ज्ञान उत्पन्न होने पर इंद्रियाँ विषयगमन नहीं करती हैं ।

मित्रों! ज्ञान उत्पन्न होने पर इंद्रियाँ विषयगमन नहीं करती हैं और यदि किसी के ह्रदय में राम जी अवतरित / अवस्थित हो जाएँ तो व्यक्ति विषयों से असंपृक्त हो जाता है, वह विषयों की तरफ़ ताकता भी नहीं है और सदा के लिये सुखी हो जाता है । अतएव राम धारण करें , राम पारायण करें । अथ ! जय जय राम , जय जय जय राम 🚩

24/01/2024

“रामायण” क्या है?

अगर कभी पढ़ो और समझो तो आंसुओ पे काबू रखना.......

रामायण का एक छोटा सा वृतांत है, उसी से शायद कुछ समझा सकूँ... 😊

एक रात की बात हैं, माता कौशल्या जी को सोते में अपने महल की छत पर किसी के चलने की आहट सुनाई दी।
नींद खुल गई, पूछा कौन हैं ?

मालूम पड़ा श्रुतकीर्ति जी (सबसे छोटी बहु, शत्रुघ्न जी की पत्नी)हैं ।
माता कौशल्या जी ने उन्हें नीचे बुलाया |

श्रुतकीर्ति जी आईं, चरणों में प्रणाम कर खड़ी रह गईं

माता कौशिल्या जी ने पूछा, श्रुति ! इतनी रात को अकेली छत पर क्या कर रही हो बेटी ?
क्या नींद नहीं आ रही ?

शत्रुघ्न कहाँ है ?

श्रुतिकीर्ति की आँखें भर आईं, माँ की छाती से चिपटी,
गोद में सिमट गईं, बोलीं, माँ उन्हें तो देखे हुए तेरह वर्ष हो गए ।

उफ !
कौशल्या जी का ह्रदय काँप कर झटपटा गया ।

तुरंत आवाज लगाई, सेवक दौड़े आए ।
आधी रात ही पालकी तैयार हुई, आज शत्रुघ्न जी की खोज होगी,
माँ चली ।

आपको मालूम है शत्रुघ्न जी कहाँ मिले ?

अयोध्या जी के जिस दरवाजे के बाहर भरत जी नंदिग्राम में तपस्वी होकर रहते हैं, उसी दरवाजे के भीतर एक पत्थर की शिला हैं, उसी शिला पर, अपनी बाँह का तकिया बनाकर लेटे मिले !!

माँ सिराहने बैठ गईं,
बालों में हाथ फिराया तो शत्रुघ्न जी नेआँखें खोलीं,

माँ !

उठे, चरणों में गिरे, माँ ! आपने क्यों कष्ट किया ?
मुझे बुलवा लिया होता ।

माँ ने कहा,
शत्रुघ्न ! यहाँ क्यों ?"

शत्रुघ्न जी की रुलाई फूट पड़ी, बोले- माँ ! भैया राम जी पिताजी की आज्ञा से वन चले गए,
भैया लक्ष्मण जी उनके पीछे चले गए, भैया भरत जी भी नंदिग्राम में हैं, क्या ये महल, ये रथ, ये राजसी वस्त्र, विधाता ने मेरे ही लिए बनाए हैं ?

माता कौशल्या जी निरुत्तर रह गईं ।

देखो क्या है ये रामकथा...

यह भोग की नहीं....त्याग की कथा हैं..!!

यहाँ त्याग की ही प्रतियोगिता चल रही हैं और सभी प्रथम हैं, कोई पीछे नहीं रहा... चारो भाइयों का प्रेम और त्याग एक दूसरे के प्रति अद्भुत-अभिनव और अलौकिक हैं ।

"रामायण" जीवन जीने की सबसे उत्तम शिक्षा देती हैं ।

भगवान राम को 14 वर्ष का वनवास हुआ तो उनकी पत्नी सीता माईया ने भी सहर्ष वनवास स्वीकार कर लिया..!!

परन्तु बचपन से ही बड़े भाई की सेवा मे रहने वाले लक्ष्मण जी कैसे राम जी से दूर हो जाते!
माता सुमित्रा से तो उन्होंने आज्ञा ले ली थी, वन जाने की..

परन्तु जब पत्नी “उर्मिला” के कक्ष की ओर बढ़ रहे थे तो सोच रहे थे कि माँ ने तो आज्ञा दे दी,
परन्तु उर्मिला को कैसे समझाऊंगा.??

क्या बोलूँगा उनसे.?

यहीं सोच विचार करके लक्ष्मण जी जैसे ही अपने कक्ष में पहुंचे तो देखा कि उर्मिला जी आरती का थाल लेके खड़ी थीं और बोलीं-

"आप मेरी चिंता छोड़ प्रभु श्रीराम की सेवा में वन को जाओ...मैं आपको नहीं रोकूँगीं। मेरे कारण आपकी सेवा में कोई बाधा न आये, इसलिये साथ जाने की जिद्द भी नहीं करूंगी।"

लक्ष्मण जी को कहने में संकोच हो रहा था.!!

परन्तु उनके कुछ कहने से पहले ही उर्मिला जी ने उन्हें संकोच से बाहर निकाल दिया..!!

वास्तव में यहीं पत्नी का धर्म है..पति संकोच में पड़े, उससे पहले ही पत्नी उसके मन की बात जानकर उसे संकोच से बाहर कर दे.!!

लक्ष्मण जी चले गये परन्तु 14 वर्ष तक उर्मिला ने एक तपस्विनी की भांति कठोर तप किया.!!

वन में “प्रभु श्री राम माता सीता” की सेवा में लक्ष्मण जी कभी सोये नहीं , परन्तु उर्मिला ने भी अपने महलों के द्वार कभी बंद नहीं किये और सारी रात जाग जागकर उस दीपक की लौ को बुझने नहीं दिया.!!

मेघनाथ से युद्ध करते हुए जब लक्ष्मण जी को “शक्ति” लग जाती है और हनुमान जी उनके लिये संजीवनी का पर्वत लेके लौट रहे होते हैं, तो बीच में जब हनुमान जी अयोध्या के ऊपर से गुजर रहे थे तो भरत जी उन्हें राक्षस समझकर बाण मारते हैं और हनुमान जी गिर जाते हैं.!!

तब हनुमान जी सारा वृत्तांत सुनाते हैं कि, सीता जी को रावण हर ले गया, लक्ष्मण जी युद्ध में मूर्छित हो गए हैं।

यह सुनते ही कौशल्या जी कहती हैं कि राम को कहना कि “लक्ष्मण” के बिना अयोध्या में पैर भी मत रखना। राम वन में ही रहे.!!

माता “सुमित्रा” कहती हैं कि राम से कहना कि कोई बात नहीं..अभी शत्रुघ्न है.!!

मैं उसे भेज दूंगी..मेरे दोनों पुत्र “राम सेवा” के लिये ही तो जन्मे हैं.!!

माताओं का प्रेम देखकर हनुमान जी की आँखों से अश्रुधारा बह रही थी। परन्तु जब उन्होंने उर्मिला जी को देखा तो सोचने लगे कि, यह क्यों एकदम शांत और प्रसन्न खड़ी हैं?

क्या इन्हें अपनी पति के प्राणों की कोई चिंता नहीं?

हनुमान जी पूछते हैं- देवी!

आपकी प्रसन्नता का कारण क्या है? आपके पति के प्राण संकट में हैं...सूर्य उदित होते ही सूर्य कुल का दीपक बुझ जायेगा।

उर्मिला जी का उत्तर सुनकर तीनों लोकों का कोई भी प्राणी उनकी वंदना किये बिना नहीं रह पाएगा.!!

उर्मिला बोलीं- "
मेरा दीपक संकट में नहीं है, वो बुझ ही नहीं सकता.!!

रही सूर्योदय की बात तो आप चाहें तो कुछ दिन अयोध्या में विश्राम कर लीजिये, क्योंकि आपके वहां पहुंचे बिना सूर्य उदित हो ही नहीं सकता.!!

आपने कहा कि, प्रभु श्रीराम मेरे पति को अपनी गोद में लेकर बैठे हैं..!

जो “योगेश्वर प्रभु श्री राम” की गोदी में लेटा हो, काल उसे छू भी नहीं सकता..!!

यह तो वो दोनों लीला कर रहे हैं..

मेरे पति जब से वन गये हैं, तबसे सोये नहीं हैं..

उन्होंने न सोने का प्रण लिया था..इसलिए वे थोड़ी देर विश्राम कर रहे हैं..और जब भगवान् की गोद मिल गयी तो थोड़ा विश्राम ज्यादा हो गया...वे उठ जायेंगे..!!

और “शक्ति” मेरे पति को लगी ही नहीं, शक्ति तो प्रभु श्री राम जी को लगी है.!!

मेरे पति की हर श्वास में राम हैं, हर धड़कन में राम, उनके रोम रोम में राम हैं, उनके खून की बूंद बूंद में राम हैं, और जब उनके शरीर और आत्मा में ही सिर्फ राम हैं, तो शक्ति राम जी को ही लगी, दर्द राम जी को ही हो रहा.!!

इसलिये हनुमान जी आप निश्चिन्त होके जाएँ..सूर्य उदित नहीं होगा।"

राम राज्य की नींव जनक जी की बेटियां ही थीं...

कभी “सीता” तो कभी “उर्मिला”..!!

भगवान् राम ने तो केवल राम राज्य का कलश स्थापित किया ..परन्तु वास्तव में राम राज्य इन सबके प्रेम, त्याग, समर्पण और बलिदान से ही आया .!!

जिस मनुष्य में प्रेम, त्याग, समर्पण की भावना हो उस मनुष्य में राम हि बसता है...
कभी समय मिले तो अपने वेद, पुराण, गीता, रामायण को पढ़ने और समझने का प्रयास कीजिएगा .,जीवन को एक अलग नज़रिए से देखने और जीने का सऊर मिलेगा .!!

"लक्ष्मण सा भाई हो, कौशल्या माई हो,
स्वामी तुम जैसा, मेरा रघुराइ हो..
नगरी हो अयोध्या सी, रघुकुल सा घराना हो,
चरण हो राघव के, जहाँ मेरा ठिकाना हो..
हो त्याग भरत जैसा, सीता सी नारी हो,
लव कुश के जैसी, संतान हमारी हो..
श्रद्धा हो श्रवण जैसी, सबरी सी भक्ति हो,
हनुमत के जैसी निष्ठा और शक्ति हो... "
ये रामायण न है, पुण्य कथा श्री राम की।

24/01/2024

*सोच और कर्म के अनुरूप ही जीवन है*

समय बड़ा विचित्र है। कहा जाय तो एक भाव है, एक संख्या है, एक विषय है, अब देखिये न, सूर्योदय सबका एक साथ होता है, है न ? किसी का आगे किसी का पीछे तो नहीं होता न ? सूर्यास्त भी सबका एक साथ होता है। अब सोचिये यही समय सबके लिये भिन्न-भिन्न है। किसी के लिये यही समय अच्छा है, तो किसी के लिये यही समय बुरा है। अभी इसी क्षण किसी के मुख पर सफलता का तेज है, तो किसी के मुख पर असफलता की निराशा। भला ऐसा क्यों ? क्यों ये समय किसी के लिये श्रेष्ठ है, क्यों ये समय किसी को निराश कर रहा है ? इसका उत्तर है, आपकी सोच, आपके कर्म। जैसी आपकी सोच, जैसे आपके कर्म। उसी के अनुरूप होगा आपका ये सब।आप के जीवन में सुख तभी मिलेगा जब आप किसी के जीवन में आशा की मुस्कान ला दो। आपको प्रसन्नता तभी मिलेगी, जब जीवन में आप किसी को प्रसन्न कर दो। हाँ ये हर बार नहीं कि आप किसी को प्रसन्नता दे पाओ। किन्तु ये तो आपके वश में है कि किसी को आप दुःख न पहुँचाओ, आप किसी को नाराज न करो ? और आपका ये किसी को दुःख न पहुँचाने का प्रयास भी आपका कर्म ही तो है, और आपको इस शुभकर्म का फल प्रकृति आपको अवश्य देगी। स्मरण रखियेगा अच्छा समय उसी का आता है, जो कभी किसी का बुरा न चाहे।

25/11/2023

🕉️ अपने स्वभाव को चिडचिडा मत करो।🕉️

मानव स्वभाव के दुर्गुणों में आंतरिक मन की दुर्बलता का सूचक है। मनुष्य में सहनशीलता की कमी, बात-बात में, वैज्ञानिक धारणा है, नाक छेदन सिकोड़ता है, लोहड़ी-गर्ल-मानव देता है। मानसिक दुर्बलता के कारण वह बताती है कि दूसरे लोग उस पर व्यंग्य करते हैं और उसके दुर्गुणों को देखते हैं, उनका मजाक उड़ाते हैं। किसी पुरानी कटु भावना के उद्घोष में वह महान संदेशवाहक हो सकता है। और उसकी भावनाएँ गोदामों में दिखाई देती हैं।

चिड़चिड़ेपन के मरीजों में चिंता और शक सेंचुरी की आदत प्रमुख है। कभी-कभी शारीरिक कमजोरी के कारण, कब्ज, परिश्रम से थकान, सिर दर्द, नपुंसकता के कारण आदमी टैनिक संस्थान होता है। अपने सुझावों और पहलुओं को देखते-देखते उसे गहराई में जाना जाता है। चिड़चिड़ापन एक पेचीदा मानसिक रोग है। मूलनिवासी से ही इसके विषय में हमें सावधान रहना चाहिए।

जिस व्यक्ति में चिड़चिड़ेपन की आदत है, वह किताबों के दोषों का पता लगाता है। वह किसी अन्य व्यक्ति की दृष्टि में होता है तो बुरा ही होता है। स्वयं भी एक अव्यक्त मानसिक उद्वेग का शिकार रहता है। उसके मन में एक प्रकार का संघर्ष है। वह गलत कल्पनाओं का शिकार रहता है। उसका संशय ज्ञान-तंतुओं पर तनाव डालते हैं। भ्रम बढ़ता रहता है। और वह मन ही मन प्यास की अग्नि में दग्ध रहता है। वह क्रोधित, क्रोधित, दुःखी सा नज़र आता है। तनिक सी बात में उसकी उद्विग्नता का परिवार नहीं रहता। गुप्तांगों में जैसे संस्कार जम जाते हैं, उनके विस्फोट ऐसे होते हैं। यह प्रथा से आरोपण वाला एक संस्कार है।

रोग से मुक्ति का उपाय -

मन में दृढ़ निश्चय करना चाहिए कि दृढ़ निश्चय बुरा है। हम उसे अपने स्वभाव में से खोजना चाहते हैं। हम शब्दों के बोलेंगे, हँसी-मजाक करेंगे, या काम से नहीं चिल्लाएँगे हम उनकी परवाह न करेंगे। अपने स्वभाव में मृदुत सरससाय, सहिष्णु।

मनुष्य के मन में सत् और असत् दोनों प्रकार के विचारों का क्रम चलता है। अपने डरबल डिजाइन के प्रति बड़ा ध्यान रखना चाहिए। जब कोई चिंता या उदास मन में आवे, तो आप उसकी बात पर प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं। चिड़चिड़ेपन के दमन के लिए मृदुता, निराशा, सहानुभूति की भावना अत्यंत प्रतिकूल है। प्रबलता से मन में शुभ संकल्प जाग्रत करो।

जब कभी आपको गुस्सा आये तो आप मन ही मन कहिए “दूसरों से गलती हो ही जाती है।” मुझे किसी चीज़ पर भरोसा नहीं करना चाहिए। यदि अन्य गलतियाँ करते हैं, तो उसका यह मतलब नहीं है कि मैं और भी गलतियाँ करूँ। मैं शुभ संकल्प वाला साधक हूं। शुभ संकल्प के फलित होने के लिए उद्विग्न मन नहीं होना चाहिए। हम सहिष्णु हैं। दूसरा स्वयं अपनी गलती का अनुभव लेंगे हम दृढ़ता धारण करेंगे।

वास्तव में आपके विचारों को ऊपर लिखित भावनाओं पर एकाग्र करने पर, डिजाइन ही बल आपको मिलेगा। पुनः पुनः स्थापित करने से उनमें स्मरण करने से स्वभाव बदल जाएगा, प्रकृति मधुर बन जाएगी। आवेश को रोक से मन को बल मिलेगा।

अपने दैनिक व्यवहार में प्रेमी, सहानुभूतिपूर्ण, सौम्या और आकर्षकमुद्रा से काम लें। इस मधुर स्वभाव का प्रभाव आपके कुटुंब पर और समाज पर बहुत अच्छा है। सुख शांति से जीवन शैली बनाने के लिए मिष्ट भाषी और मधुर स्वभाव सबसे अच्छा तत्व है। फ़े का प्रवाह − मधुर वातावरण में ख़त्म हो जाएगा। चिड़चिड़ा होना आपकी एक बड़ी कमजोरी है, मधुरता से, सरसता से और शान से उसे ठीक कर तीन। ऐसे वचन बोलिए कि छोटा सा मधुर बच्चा आपके चारों ओर आकर्षित होकर चला आए, पत्नी रुचि हो उठे, नौकर भी पसंद से आपकी आज्ञा वाजा लाएँ। संकल्प की दृढ़ता, आवेश को रोक और मधुर आदर्श को बनाए रखने से ही आप नींद में बने रहने से बच जाते हैं।

अखण्ड ज्योति जून 1951

04/11/2023
03/11/2023

*दरद दबे पांव आता है, पीछे जड़ जमाता है*

भाग 1

दरद बीमारियों का आईना है। डॉक्टरों को बीमारी का चेहरा दरद के आईने में ही दिखता है। दरद का कारण और उससे छुटकारा चिकित्सकों के दो प्रमुख उद्देश्य होते हैं।दुनिया में कुछ बच्चे ऐसी जन्मजात बीमारी से पीड़ित होते हैं, जिसमें वे अपने दरद, घाव एवं जलन की पीड़ा महसूस नहीं कर सकते हैं; यहाँ तक कि वे आग में झुलसकर भी मुस्कुराते रह सकते हैं, भूख लगने पर अपनी उंगलियों को चबा सकते हैं और अपनी जीभ को भी भोजन बना सकते हैं।ऐसे बच्चों का संवेदना तंत्र अविकसित अवस्था में होता है, जिसके कारण वे दरद की अनुभूति नहीं कर सकते।ऐसे बच्चे अधिक दिनों तक जीवित भी नहीं रह पाते।

' फ्रिकिंग पेन ' या चुभने वाला दरद सिर्फ त्वचा के एक खास भाग में थोड़े समय के लिए महसूस होता है, जबकि
' डीप पेन ' साधारणतः त्वचा की गहराई में पाए जाने वाले तन्तुओं से उत्पन्न होता है। फ्रिकिंग पेन की अपेक्षा यह शरीर के काफी बड़े हिस्से में फैला रहता है और धीमे-धीमे बढ़ता है। अगर दरद काफी दिन तक बना रहे तो यह विकृतिजन्य (पैथोलॉजीकल) बन जाता है।विकृतिजन्य दरद चार तरह का हो सकता है - सतही, गहन, तन्त्रिकाजन्य (न्यूरोलॉजिकल) और मनोवैज्ञानिक।हालांकि इन दरदों के अलग-अलग लक्षण होते हैं, पर इनकी एक समानता है कि ये मनुष्य के मूड, उसकी भावनाओं और व्यवहार को अवश्य परिवर्तित करते हैं ।भय, निराशा, चिंता और उत्तेजना ऐसे दरदों के सामान्य लक्षण हैं।

यदि शरीर के विभिन्न भागों में उत्पन्न होने वाले दरदों कि सूची बनाई जाए तो पता चलेगा कि दरद की अनुभूति से कोई भी भाग अछूता नहीं रहा है।सतही दरद मांसपेशियों की हरकतों से तेज या कम हो सकता है और सामान्यतः शरीर के एक विशेष हिस्से में ही उसका असर महसूस होता है।गहरा दरद अपेक्षाकृत बहुत कष्टप्रद और शरीर के बड़े हिस्से में फैला हुआ होता है।मनोवैज्ञानिक दरद उन लोगों को अधिक महसूस होता है, जो मानसिक रूप से टूटे हुए होते है।व्यक्ति जितना भावुक होगा, तनाव से पैदा हुए दरद की संभावनाएं उतनी ही अधिक होंगी। यदि व्यक्ति आशावादी दृष्टिकोण रखने वाला होता है तो वह अपने मामूली दरद को दरद न मानकर ही अच्छा इलाज स्वयं कर सकता है, पर यदि वह निराश और दुःखी है, तो दरद और तनावों में ही उसे जिंदगी गुजारनी होगी।

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