17/08/2025
आज आपको भारतीय सिनेमा के एक भुलाए जा चुके कलाकार की कहानी बताने जा रहा हूं। गारंटी है आपमें से बहुतों ने इनका नाम भी कभी सुना नहीं होगा। मगर 1930-40-50 के दौर तक ये भारतीय सिनेमा का एक जाना-पहचाना चेहरा थे। नाम है इनका भूडो आडवाणी। इनकी कहानी ब्लॉग बीते हुए दिन के एक आर्टिकल के ज़रिए मुझे प्राप्त हुई। जैसा कि मैं पहले भी कई दफा आपसे बता चुका हूं, कि बीते हुए दिन ब्लॉग शिशिर कृष्ण शर्मा जी चलाते हैं। इसी नाम से उनका एक यूट्यूब चैनल भी है। आपको उनका ब्लॉग और यूट्यूब चैनल, दोनों फॉलो करने चाहिए। भारतीय सिनेमा के भूले-बिसरे कलाकारों के बारे में जो जानकारी आपको बीते हुए दिन पर मिलेगी वो और कहीं नहीं मिलेगी। आप किस्सा टीवी के आभारी रहेंगे गारंटी है। चलिए, भूडो आडवाणी जी की कहानी जानते करते हैं।
17 अगस्त 1905 को सिंध के हैदराबाद में भूडो आडवाणी जी का जन्म हुआ था। समझ गए होंगे कि इनकी कहानी आज मैं क्यों बता रहा हूं। इनका जन्मदिवस है आज। खैर, सिंध का हैदराबाद इलाका अब पाकिस्तान कहलाता है। भूडो आडवाणी जी के पिता का नाम था कुंदनमल आडवाणी और वो एक पुलिस इंस्पैक्टर थे। जबकी उनकी मां उत्तमबाई एक गृहणी थी। 10 भाई-बहनों में भूडो आडवाणी सबसे बड़े थे। ये छह भाई और चार बहनें थे। भूडो जी 10 साल के थे जब स्कूल के एक नाटक में उन्होंने पहली दफा अभिनय किया था। इत्तेफाक से वो नाटक हेमनदास गंगादास नामक एक शख्स ने भी देखा जो सिंधी रंगमंच की दुनिया का बहुत बड़ा नाम थे। उन्हें नन्हे भूडो आडवाणी का अभिनय बड़ा पसंद आया था। समय गुज़रा और मैट्रिक में भूडो आडवाणी फेल हो गए। फेल हुए तो उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी। तब हेमनदास गंगादास जी ने उन्हें अपनी नाटक कंपनी में शामिल कर लिया।
हेमनदास गंगादास की नाटक कंपनी से जुड़ने के बाद तो भूडो आडवाणी ने खुद को पूरी तरह से अभिनय को समर्पित कर दिया। वो एक मशहूर कलाकार बन गए। दर्शक उनका अभिनय बहुत पसंद करते थे। तमाम नाटक कंपनियां भूडो आडवाणी को अपने नाटकों में काम करने के लिए बुलाती रहती। उस ज़माने में भूडो आडवाणी महिलाओं के चरित्र निभाते थे। कभी-कभार बूढ़े आदमी का किरदार भी वो निभाते थे। तभी भूडो जी को नवलराम हीराचंद एकेडेमी के एक नाटक में बूढ़े आदमी का किरदार निभाने का मौका मिला। उस नाटक का नाम था हरीफ़। वो नाटक जनता को बहुत पसंद आया। और भूडो आडवाणी के काम से तो लोग इतने प्रभावित हुए कि लोगों ने उन्हें बूड्ढो आडवाणी यानि बूढ़ा आडवाणी कहना शुरू कर दिया। यही बूड्ढो आडवाणी आगे चलकर भूडो आडवाणी बन गया। जबकी इनका असली नाम था दौलतराम आडवाणी।
एक दिन दौलतराम आडवाणी उर्फ भूडो आडवाणी का सारा परिवार हैदराबाद से कराची शिफ्ट हो गया। कराची आकर भी भूडो आडवाणी नाटकों में काम करते रहे। सामाजिक समस्याओं और सामाजिक कुरीतियों पर चोट करते उनके नाटक बहुत पसंद किए जाते। इसी दौरान जे.बी.आडवाणी नामक एक कंपनी में भूडो जी को 40 रुपए महीना तनख्वाह वाली एक नौकरी मिल गई। उस ज़माने में 40 रुपए मासिक सैलरी बहुत अच्छी मानी जाती थी। पर चूंकि भूडो आडवाणी की दुनिया तो नाटकों में बसती थी, इसलिए अधिकतर समय नाटकों के चक्कर में वो नौकरी से गायब रहा करते थे। ऐसे में उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। भूडो जी के एक फैन को जब उनकी नौकरी जाने का पता चला तो उसने भूडो जी को कराची इलैक्ट्रिसिटी सप्लाय कॉर्पोरेशन में नौकरी पर लगवा दिया।
कराची इलैक्ट्रिसिटी सप्लाय कॉर्पोरेशन में नौकरी करते हुए भूडो आडवाणी को बमुश्किल एक महीना ही हुआ था कि एक दोस्त के बुलावे पर नौकरी से इस्तीफा देकर साल 1933 में वो मुंबई चले आए। मुंबई में भूडो आडवाणी की मुलाकात हुई मोहन भवनानी से जो कि खुद भी एक सिंधी थे। हैदराबाद-सिंध के ही रहने वाले थे। और अजन्ता सिनेटोन नामक कंपनी के मालिक थे। मोहन भवनानी उस वक्त के मशहूर डायरेक्टर-प्रोड्यूसर थे। साल 1933 में ही मोहन भवनानी ने भूडो आडवाणी को फिल्मों में पहला ब्रेक दिया। उस फिल्म का नाम था 'अफज़ल उर्फ हूरे हरम।' भूडो आडवाणी को एक छोटा सा रोल उस फिल्म में मिला था। आगे चलकर भूडो आडवाणी ने अजन्ता सिनेटोन की और भी कई फिल्मों जैसे दर्द-ए-दिल, दुख्तर-ए-हिन्द, द मिल, सैर-ए-परिस्तान, शेरदिल औरत व प्यार की मार जैसी कुल 11 फिल्मों में काम किया।
1934 में अजन्ता सिनेटोन बंद हो गया। ऐसे में फिल्म निर्माता चिमनलाल देसाई ने भूडो आडवाणी को अपनी कंपनी सागर मूवीटोन में बुला लिया। सागर मूवीटोन में रहकर भूडो आडवाणी जी को के.पी.घोष, सर्वोत्तम बादामी व महबूब खान जैसे दिग्गज डायरेक्टर्स के साथ काम करने का मौका मिला। फिर तो 1940 तक भूडो आडवाणी ने सागर मूवीटोन की कई फिल्मों में काम किया जैसे डॉक्टर मधूरिका, डेक्कन क्वीन, दो दीवाने, जागीरदार, मनमोहन, हम तुम और वो, पोस्टमैन. महागीत इत्यादि। 1940 में सागर मूवीटोन का विलय यूसुफ फज़लभॉय की कंपनी में हो गया। और इस तरह नेशनल स्टूडियो अस्तित्व में आया। उस समय सागर मूवीटोन के स्टाफ के कई लोगों को नौकरी से हटा दिया गया था। भूडो आडवाणी भी उनमें से एक थे। लेकिन उस समय तक वो इतने मशहूर हो चुके थे कि नौकरी से हटाए जाने के बाद भी उनके पास काम की कमी नहीं थी।
साल 1941 में आई प्रकाश पिक्चर्स की फिल्म दर्शन में भूडो आडवाणी जी ने एक अहम किरदार निभाया था। इस फिल्म का संगीत नौशाद साहब ने दिया था। नौशाद साहब ने इस फिल्म में भूडो आडवाणी जी से भी एक गीत गवा दिया जिसके बोल थे 'कोई कब तक रहे अकेला। मौसम आया अलबेला।' इस गीत में ज्योति व प्रेम अदीब ने भी गायकी की थी। 1943 में जब महबूब खान ने अपनी कंपनी महबूब प्रोडक्शन्स की शुरुआत की तो उन्होंने अपनी फिल्मों, अनमोल घड़ी व अनोखी अदा में भी भूडो आडवाणी को कास्ट किया था। इसी दौरान भूडो आडवाणी जी ने और भी कई बड़ी फिल्मों जैसे मेरी कहानी, बीसवीं सदी, अमानत, इस्मत, पूजा, दुखियारी व शौहर में भी काम किया।
भूडो आडवाणी एक कॉमेडियन थे। लोगों को उनकी कॉमेडी बहुत पसंद आती थी। अधिकतर फिल्मों में वो कॉमेडियन के रोल्स में ही दिखते थे। 1950 के दशक में भूडो आडवाणी ने आदमी, आखिरी दांव, मीना बाज़ार, जागते रहो, बूट पॉलिश, श्री 420, मधुमती, अब दिल्ली दूर नहीं, मिस कोकाकोला, मधुर मिलन, आंखें व कैदी नंबर 911 जैसी फिल्मों में काम किया। बूट पॉलिश फिल्म के गीत 'लपक झपक तू आ रे बदरवा' में भूडो आडवाणी जी के काम की बहुत सरहाना की गई। 1960 के दशक में भूडो आडवाणी सिर्फ पांच फिल्मों में ही नज़र आए। इनमें अनुराधा और खामोशी प्रमुख थी। 44 साल के अपने करियर में भूडो आडवाणी जी ने 102 हिंदी, 2 गुजराती व 4 सिंधी फिल्मों में काम किया। रोचक बात ये है कि 'इंसाफ कित्थे आ' और 'राय दियाच' नामक दो सिंधी फिल्मों में तो भूडो आडवाणी जी की पत्नी ने भी अभिनय किया था। 'राय दियाच' में भूडो आडवाणी व उनकी पत्नी ने हीरो के माता-पिता की भूमिका निभाई थी।
भूडो आडवाणी की निजी ज़िंदगी की बात करें तो साल 1939 में उनकी शादी दिल्ली की रहने वाली सुशीला मीरचंदानी से हुई थी। भूडो जी के सात बच्चे थे। पांच बेडियां और दो बेटे। लेकिन उनके छोटे बेटे की मृत्यु साल 1968 में एक दुखद हादसे में हो गई। वो लोकल ट्रेन से कॉलेज से घर लौट रहा था। ट्रेन से गिरने के कारण उसकी मृत्यु हो गई थी। मृत्यु के समय उसकी उम्र 16 साल थी। भूडो जी की छोटी बेटी भी काफी कम उम्र में गुज़र गई थी। भूडो जी के बड़े बेटे का नाम रमेश आडवाणी है। उन्होंने 40 सालों तक देना जी बैंक में नौकरी की थी। 2001 में वो नौकरी से रिटायर हुए थे। रमेश आडवाणी के बेटे यानि भूडो आडवाणी के पौत्र विनोद आडवाणी एक बड़ी कंस्ट्रक्शन कंपनी में वाईस प्रेज़िडेंट हैं और बैंगलौर में रहते हैं।
दक्षिण मुंबई के ताड़देव इलाके में स्थित सेन्ट्रल स्टूडियो कम्पाउंड के एक विशाल फ्लैट में भूडो आडवाणी रहा करते थे। लेकिन 1977 में वो फ्लैट छोड़कर भूडो आडवाणी अंधेरी पश्चिम के सात बंगला इलाके की शांति निकेतन बिल्डिंग में शिफ्ट हो गए। भूडो आडवाणी जी की आखिरी फिल्म थी 1977 में रिलीज़ हुई सत्यजित रे की 'शतरंज के खिलाड़ी' थी। भूडो जी की पत्नी का निधन 1979 में हो गया था। फिर 25 जुलाई 1985 को 80 साल की उम्र में भूडो आडवाणी जी का भी निधन हो गया था।
भूडो आडवाणी जी के बारे में ये बताना भी ज़रूरी है कि जब फिल्मों में उन्होंने अभिनय की शुरुआत की थी तो तब कई लोगों ने कहा था कि फिल्मों में अभिनय करने के लिए भूडो आडवाणी ने अपने दांत निकलवा दिए हैं। लेकिन ऐसा था नहीं। भूडो जी किसी दुर्लभ बीमारी का शिकार हो गए थे। उस बीमारी की वजह से उनके दांत कभी विकसित ही नहीं हो पाए। बाल भी उड़ गए। शरीर भी दुबला-पतला रह गया था। यानि किशोरावस्था में ही वो किसी बूढ़े जैसे दिखने लगे थे। दांत ना होने की वजह से उन्हें बहुत तकलीफ होती थी। उन्होंने डेंचर लगाने की कोशिश की थी। लेकिन डेंचर से उनकी तकलीफ और बढ़ गई थी। ऐसे में उन्होंने बिना दांतों के ही रहने का फैसला किया।