
25/06/2025
राजनय(diplomacy )की असह्य चुप्पी: जब नैतिकता हथियारों के नीचे दब जाए"
रणनीति की राख में जलती मानवता: दोहरे मापदंडों की वैश्विक विरासत"
कुछ दिन पूर्व 'द हिंदू' में प्रकाशित यूपीए चेयरपर्सन श्रीमती सोनिया गांधी के लेख का रूपांतरण ग्राम परिवेश की टीम द्वारा प्रस्तुत किया गया है। यथासंभव मूल भाव और संदर्भ को बनाए रखने का प्रयास किया गया है, फिर भी यदि कहीं कोई त्रुटि रह गई हो तो हम अपने सम्मानित पाठकों तथा लेखिका से क्षमाप्रार्थी हैं
13 जून, 2025 को एकतरफा सैन्य आक्रामकता के खतरनाक परिणामों का दुनिया ने एक बार फिर साक्षात्कार किया, जब इज़राइल ने ईरान की संप्रभुता पर एक अत्यंत चिंताजनक और अवैध हमला कर डाला। यह आक्रमण न केवल अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक मर्यादाओं का उल्लंघन है, बल्कि क्षेत्रीय और वैश्विक स्थिरता के लिए भी एक गंभीर खतरे की घंटी है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ईरानी ज़मीन पर किए गए इन बमबारी अभियानों और लक्षित हत्याओं की तीव्र भर्त्सना की है, जो हालात को और भी उग्र बनाकर टकराव की आग को भड़काने वाले कदम हैं।
इज़राइल की यह कार्रवाई—जैसे कि ग़ज़ा में चलाया गया उसका बर्बर और बेमेल सैन्य अभियान—मानवता और क्षेत्रीय संतुलन की पूरी तरह से उपेक्षा करती है। इस तरह के अग्रेशन (आक्रोशपूर्ण आक्रामकता) केवल अस्थिरता को गहराते हैं और संघर्ष की नई ज़मीन तैयार करते हैं।
यह घटना तब और अधिक पीड़ादायक बन जाती है जब हम देखते हैं कि यह हमला उस समय हुआ जब ईरान और अमेरिका के बीच की कूटनीतिक वार्ताओं में आशाजनक प्रगति हो रही थी। वर्ष 2025 में अब तक पांच दौर की वार्ताएं हो चुकी थीं और जून में छठे दौर की योजना थी। मार्च 2025 में अमेरिका की राष्ट्रीय खुफिया निदेशक तुलसी गैबर्ड ने कांग्रेस के समक्ष स्पष्ट रूप से कहा था कि ईरान कोई परमाणु हथियार कार्यक्रम नहीं चला रहा है और सर्वोच्च नेता अली ख़ामेनई ने 2003 में उसे निलंबित करने के बाद अब तक उसके पुनः प्रारंभ की अनुमति नहीं दी है।
इज़राइल की वर्तमान सत्ता व्यवस्था—प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के नेतृत्व में—शांति प्रयासों को विफल करने और उग्रवाद को पोषित करने के अपने लंबे और दुर्भाग्यपूर्ण इतिहास के लिए जानी जाती है। उनकी सरकार द्वारा अवैध यहूदी बस्तियों के विस्तार, अतिराष्ट्रवादी गुटों से गठजोड़ और दो-राष्ट्र समाधान को बाधित करने जैसी नीतियों ने न केवल फ़िलिस्तीनी जनता की पीड़ा को बढ़ाया है, बल्कि पूरे क्षेत्र को निरंतर संघर्ष की ओर धकेला है।
इतिहास साक्षी है कि नेतन्याहू ने 1995 में तत्कालीन प्रधानमंत्री यित्ज़ाक राबिन की हत्या के पीछे घृणा की जिस लपट को हवा दी थी, उसी ने इज़राइल-फ़िलिस्तीन के बीच चल रही सबसे आशावान शांति प्रक्रिया को खंडित कर दिया।
ऐसे इतिहास को देखते हुए यह कतई चौंकाने वाली बात नहीं कि नेतन्याहू संवाद की बजाय तनाव और उग्रता का मार्ग चुनते आ रहे हैं। परन्तु सबसे अधिक खेदजनक यह है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प—जिन्होंने कभी अमेरिका के अंतहीन युद्धों और सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ की आलोचना की थी—अब उसी विनाशकारी राह पर अग्रसर प्रतीत होते हैं।
उन्होंने स्वयं कई बार यह स्वीकार किया है कि किस प्रकार झूठे और मनगढ़ंत आरोपों—जैसे इराक के पास विनाशकारी हथियार होने का दावा—ने एक महंगा युद्ध छेड़ दिया, जिसने पूरे क्षेत्र को अस्थिर कर दिया। इसलिए, 17 जून को उनका यह बयान अत्यंत निराशाजनक है जिसमें उन्होंने अपनी ही खुफिया प्रमुख की रिपोर्ट को दरकिनार करते हुए दावा किया कि ईरान "परमाणु हथियार प्राप्त करने के बहुत करीब" है।
दुनिया को आज ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जो तथ्यों पर आधारित हो, जो संवाद-प्रधान हो—न कि छल, भय और बल पर टिका हो।
दोहरे मापदंडों के लिए कोई स्थान नहीं
पश्चिम एशिया के तनावग्रस्त इतिहास को देखते हुए, परमाणु हथियारों से लैस ईरान को लेकर इज़राइल की सुरक्षा चिंताओं को पूरी तरह नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। किंतु, यह भी उतना ही अनिवार्य है कि हम किसी प्रकार के दोहरे मानकों के लिए कोई गुंजाइश न छोड़ें। इज़राइल स्वयं एक परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र है, जिसका अपने पड़ोसी देशों के विरुद्ध सैन्य अग्रेशन (आक्रामकता) का लंबा और विद्रूप इतिहास रहा है।
इसके उलट, ईरान आज भी परमाणु अप्रसार संधि (NPT) का हस्ताक्षरकर्ता बना हुआ है, और उसने वर्ष 2015 की संयुक्त व्यापक कार्य योजना (JCPOA) के अंतर्गत प्रतिबंधों में राहत के बदले यूरेनियम संवर्द्धन पर कठोर सीमाएं स्वीकार की थीं। इस समझौते को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्य देशों, जर्मनी और यूरोपीय संघ का समर्थन प्राप्त था, और अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों द्वारा इसकी पुष्टि भी की गई थी—जब तक कि अमेरिका ने 2018 में इसे एकतरफा ढंग से समाप्त नहीं कर दिया। इस निर्णय ने वर्षों की कूटनीतिक तपस्या को निष्फल कर दिया और क्षेत्र की पहले से ही नाजुक स्थिरता पर एक बार फिर घने बादल ला दिए।
भारत ने भी इस विघटन की कीमत चुकाई है। ईरान पर दोबारा लगाए गए प्रतिबंधों ने भारत की सामरिक और आर्थिक परियोजनाओं—जैसे अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारा और चाबहार बंदरगाह के विकास—को बुरी तरह प्रभावित किया, जो मध्य एशिया से बेहतर संपर्क और अफगानिस्तान तक प्रत्यक्ष पहुंच का वायदा रखते थे।
ईरान के विरुद्ध इज़राइल की हालिया कार्रवाइयां एक ऐसे वातावरण में हुई हैं, जहां उसे शक्तिशाली पश्चिमी देशों के लगभग निरंकुश समर्थन ने दंडाभाव का दुस्साहस प्रदान किया है।" भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 7 अक्टूबर 2023 को हमास द्वारा किए गए निर्दय और निंदनीय हमलों की स्पष्ट भर्त्सना की थी, परंतु हम इज़राइल की विनाशकारी और बेमेल प्रतिक्रिया पर भी मौन नहीं रह सकते।
अब तक 55,000 से अधिक फिलिस्तीनी नागरिकों की जान जा चुकी है। पूरे-के-पूरे परिवार, मोहल्ले, यहां तक कि अस्पताल तक नष्ट कर दिए गए हैं। ग़ज़ा भुखमरी के कगार पर खड़ा है और वहां की आम जनता अकथनीय मानवीय संकट झेल रही है।
भारत का चिंताजनक रुख
इस मानवीय त्रासदी के बीच, नरेंद्र मोदी सरकार ने भारत की लंबे समय से चली आ रही शांति और न्याय पर आधारित दो-राष्ट्र समाधान की सैद्धांतिक प्रतिबद्धता को लगभग त्याग दिया है—एक ऐसा समाधान जो एक स्वतंत्र और संप्रभु फिलिस्तीन को इज़राइल के साथ सम्मान और सुरक्षा के साथ सह-अस्तित्व में देखने का सपना संजोता है।
ग़ज़ा में मचे भीषण विनाश पर और अब ईरान के विरुद्ध इस अकारण सैन्य उकसावे पर नई दिल्ली की चुप्पी भारत की नैतिक और कूटनीतिक परंपराओं से चिंताजनक विचलन (departure )का संकेत है। यह केवल स्वर का मौन नहीं, बल्कि मूल्यों का समर्पण भी है।
फिर भी देर नहीं हुई है। भारत को चाहिए कि वह स्पष्ट बोले, जिम्मेदारी से व्यवहार करे और उपलब्ध हर कूटनीतिक माध्यम का उपयोग कर पश्चिम एशिया में संवाद की बहाली और तनावों के शमन की दिशा में सक्रिय भूमिका निभाए।