07/06/2025
ओशो, कुरान की जो प्रार्थना है उसके तीन हिस्से हैं: पनाह, अलफातिहा और सूरत-इ-इखलास (मैत्री)। सूरत-इ-इखलास इस प्रकार है:
बिस्मिल्लाहिर् रहमानिर् रहीम।
कुल हुवल्लाहु अहद। अल्लाहुस्समद।
लम् यलिद, वलम् यूलद;
व लम् यकुल्लहू कुफवन् अहद्।।
अर्थ ऐसा है:
पहले ही पहल नाम लेता हूं अल्लाह का, जो निहायत रहमवाला मेहरबान है।
(ए पैगंबर, लोग तुम्हें खुदा का बेटा कहते हैं और तुमसे हाल खुदा का पूछते हैं, तो तुम उनसे)
कहो कि वह अल्लाह एक है, और अल्लाह बेनिया़ज है (उसे किसी की भी गरज नहीं), न उसका कोई बेटा है और न वह किसी से पैदा हुआ है। और न कोई उसकी बराबरी का है।
इसे हमारे लिए बोधगम्य बनाने की अनुकंपा करें।
आनंद मैत्रेय! कुरान अत्यंत सीधे-सादे हृदय का वक्तव्य है। उपनिषद, धम्मपद, गीता, ताओ-तेह-किंग, इन सब में एक परिष्कार है। क्योंकि बुद्ध परम सुशिक्षित, सुसंस्कृत राजघर से आए थे। मोहम्मद बेपढ़े-लिखे थे। कृष्ण जब कुछ कहते हैं, तो उस कहने में तर्क होता है, विचार की प्रक्रिया होती है, एक गणित होता है। मोहम्मद के वक्तव्य अत्यंत सरल हैं। जैसे खदान से निकाला गया ताजा-ताजा हीरा। अभी उस पर जौहरी की छैनी नहीं चली। अभी उस पर पालिश नहीं किया गया। अभी उस पर पहलू नहीं निखारे गए।
इससे एक तो लाभ है और एक हानि भी। और इस्लाम को दोनों ही बातें अनुभव करनी पड़ी हैं। लाभ तो यह है कि जैसे ग्रामीण व्यक्ति की भाषा में एक बल होता है, ताजगी होती है, धार होती है, क्योंकि बात सीधी-साफ होती है, समझाने की कोई जरूरत नहीं होती। इसलिए कुरान पर टीकाएं नहीं लिखी गईं। बात सीधी-साफ है। टीका करने का कोई उपाय नहीं है। गीता पर हजारों टीकाएं हैं।--तो हजारों अर्थ हो गए--क्योंकि बात दुरूह है। अभिव्यक्ति का ढंग ऐसा है कि उससे बहुत अर्थ अभिव्यंजित हो सकते हैं। एक-एक शब्द से अनेक-अनेक अर्थों की संभावना है। तो बाल की खाल खींची जा सकती है।
तर्कशास्त्री के हाथ में पड़ कर गीता का सत्य खो जाएगा, बुद्ध का सत्य खो जाएगा, कुरान का सत्य नहीं खोएगा। क्योंकि कुरान के साथ तर्क का कोई संबंध नहीं बैठता। कुरान को जिन्हें समझना है, उन्हें तर्क से नहीं, अत्यंत सरलता से कुरान के पास पहुंचना होगा। यह तो लाभ है।
लेकिन हानि भी है। हानि यह है, कि चूंकि वक्तव्य बहुत सीधे-सादे हैं, उनमें गहराई दिखाई न पड़ेगी, उनमें ऊंचाई दिखाई न पड़ेगी, उनमें बहुत आयाम दिखाई न पड़ेंगे, साधारण मालूम होंगे। इसलिए उपनिषद की तुलना में कुरान के वचन साधारण मालूम होंगे। कहां उपनिषद, उपनिषद के ऋषि की प्रार्थना: असतो मा सदगमय, असत्य से मुझे सत्य की ओर ले चल, हे प्रभु; तमसो मा ज्योतिर्गमय, अंधकार से उठा मुझे प्रकाश के लोक में; मृत्योर्मा अमृतं गमय, और कब तक मृत्यु में जीऊं, अमृत के द्वार खोल! हटा दे यह स्वर्ण के पात्र से सारे ढक्कन! उठा दे घूंघट कि मैं देख लूं अमृत को! इसमें गहराई खोजी जा सकती है। बहुत गहराई खोजी जा सकती है!
कुरान में भी गहराई इतनी ही है, जरा भी कम नहीं, मगर वक्तव्य मोहम्मद के सीधे-सादे हैं। मोहम्मद गैर पढ़े-लिखे आदमी हैं। न लिख सकते थे, न पढ़ सकते थे। इसलिए जब कुरान की आयतें पहली बार उन पर उतरनी शुरू हुईं तो वे बहुत घबड़ा गए। भीतर कोई हृदय में जोर से कहने लगा: लिख! और मोहम्मद ने कहा कि मैं लिखना जानता नहीं, लिखूं कैसे? गा, भीतर से कोई आवाज आने लगी। और मोहम्मद ने कहा, मैं क्या गाऊंगा! न मेरे पास कंठ है, न गीत की कोई कला है, मैं बिलकुल बेपढ़ा-लिखा आदमी हूं, क्या गाऊं, क्या लिखूं? कैसे लिखूं? कैसे गाऊं? वे इतने घबड़ा गए कि घर भागे आ गए; पहाड़ पर बैठे थे मौन में--मौन में ही यह परम घटना घटती है कि सत्य अवतरित होता है। और जब सत्य अवतरित होता है तो सत्य अभिव्यक्त होना चाहता है। जैसे फूल खिलेगा तो गंध उड़ेगी; और दीया जलेगा तो प्रकाश झरेगा; और सूरज निकलेगा तो वृक्ष जागेंगे, पक्षी गीत गाएंगे; बस वैसे ही जब सत्य का सूर्य भीतर ऊगता है तो तुम उसे छिपा न सकोगे। उसकी अभिव्यक्ति होगी। वह पुकारेगा: अभिव्यक्त करो!
वही पुकार थी मोहम्मद के भीतर: कहो, लिखो, बोलो, बांटो! मगर मोहम्मद के लिए यह बात अपनी सीमा के बहुत पार मालूम पड़ी।
यही उदघोषणा बुद्ध के जीवन में है, और बुद्ध ने भी इनकार किया कि नहीं बोलूंगा, मगर कारण और थे। मोहम्मद ने इनकार किया इसलिए कि कैसे बोलूं? शब्द नहीं, भाषा का धनी नहीं, तर्क नहीं--कौन मेरी सुनेगा? लिखूं तो कैसे लिखूं? मुझे लिखना भी नहीं आता। पढूं तो क्या पढूं? मुझे पढ़ना भी नहीं आता। ये कारण थे मोहम्मद के।
बुद्ध को भी जब सत्य की अभिव्यक्ति हुई, तो कथा है--वह कथा तो प्रतीकात्मक है, जैसे यह मोहम्मद की बात प्रतीकात्मक है--कि कोई भीतर बोला कि बोल, गा, गुनगुना--ऐसे ही बुद्ध से देवताओं ने अवतरित होकर स्वर्ग से कहा: अभिव्यक्ति दो, बांटो, कहो, चुप न रह जाओ! बुद्ध ने भी कारण बताए कि क्यों चुप हूं। लेकिन कारण बड़े अलग थे। उससे दो व्यक्तित्वों का भेद पता चलता है। बुद्ध ने कहा: बोलूंगा; कौन समझेगा?
फर्क समझना।
मोहम्मद ने कहा: कैसे बोलूं, मेरी समझ क्या? बुद्ध ने कहा: कहूंगा, मगर कौन समझेगा? यह बात इतनी गहरी है! किससे कहूं? मोहम्मद ने कहा: कैसे कहूं? बुद्ध ने कहा: किससे कहूं? जिससे कहूंगा वही कुछ का कुछ समझेगा। गलत समझेगा। सौ आदमियों से कहूंगा, निन्यानबे तो समझेंगे ही नहीं, सुनेंगे ही नहीं, सुन भी लिया तो गलत समझेंगे, लाभ के बजाय हानि होगी। और सौवां आदमी, एक आदमी सौ में अगर ठीक भी समझा तो उसके लिए मुझे कहने की जरूरत नहीं है।
देवताओं ने पूछा: क्यों? तो बुद्ध ने कहा: इसलिए कि जो मेरी बात को सुनते ही ठीक समझ लेगा, वह मेरे बिना भी जान लेगा। आखिर मैंने भी बिना किसी के कहे जान लिया! जिसकी इतनी प्रतिभा होगी, जिसके पास ऐसी मेधा होगी--क्योंकि यह तो प्रतिभा और ध्यान की ही संभावना होगी कि मैं जो कहूं उसको वैसा ही समझ ले जैसा मैंने कहा है--जिसके पास ऐसा निखार होगा, ऐसी तीक्ष्णता होगी, वह क्या मेरे लिए रुका रहेगा! मेरे बिना भी पहुंच जाएगा--दिन दो दिन की देर हो सकती है। लेकिन उस एक के लिए बोल कर निन्यानबे के जीवन में मैं व्यर्थ का उपद्रव खड़ा नहीं करना चाहता। इसलिए नहीं बोलूंगा।
मैं तुम्हें भेद दिखाना चाहता हूं। बुद्ध और मोहम्मद, दोनों को एक ही सत्य का अनुभव हुआ है। मगर बुद्ध भलीभांति जानते हैं कि मैं बोल सकता हूं, लेकिन समझेगा कौन? मोहम्मद यह कहते ही नहीं कि समझेगा कौन? मोहम्मद कहते हैं कि मैं बोल सकूं तो शायद कोई समझ ले, मगर मैं बोलूंगा कैसे? मैं ठहरा अत्यंत ग्रामीण, दीन-हीन; न पढ़ा, न लिखा, न मेरे कोई संस्कार, न मेरी कोई संस्कृति।
बुद्ध को राजी कर लिया देवताओं ने, क्योंकि वे तर्क खोज लाए--बुद्ध के लिए तर्क खोजना पड़ा। वे तर्क खोज लाए; उन्होंने सोच-विचार किया, मंत्रणा की, फिर लौटे और उन्होंने कहा, आप ठीक कहते हैं, कि जो समझ सकता है वह आपके बिना भी समझ लेगा; हम राजी। और जो नहीं समझ सकते, उनको आप लाख समझाओ वे नहीं समझेंगे; इससे भी हम राजी। मगर क्या आप मानते हैं कि इन दोनों के बीच में भी कुछ लोग न होंगे? इन दोनों के मध्य में; जो आप समझाओ तो समझ लेंगे और आप न समझाओ तो शायद सदा के लिए भटकते रह जाएंगे। क्या आप कह सकते हैं कि इन दोनों के बीच में कोई व्यक्ति होगा ही नहीं? क्या हम मनुष्यों को इस तरह दो कोटियों में बिलकुल बांट सकते हैं कि बीच में कोई भी न होगा? यह तर्क बुद्ध को स्पष्ट समझ में आया कि जरूर कुछ लोग बीच में हो सकते हैं। हजार में एक होगा, मगर कोई तो बीच में होगा ही। श्रृंखला है मनुष्यों की। ऐसा तो नहीं हो सकता कि ये दो कोटियों में बिलकुल खंडित कर दी जाए मनुष्यता को। इन दोनों के बीच में भी कोई होगा, मध्य में भी कोई होगा। तभी तो एक कोटि में से कोई दूसरी कोटि में जाता है।
बच्चा जवान होगा, तभी तो बूढ़ा होता है। ऐसा नहीं हो सकता कि जवान हो ही न, बच्चे हों और बूढ़े हों। बीच की सीढ़ी तो पार करनी ही होगी। वह जो एक आदमी सौवां हो गया है, वह कभी निन्यानबे का हिस्सा था, पार करके गया है उस सीमा को जो दोनों के बीच में है। कभी तो ऐसा रहा होगा जब बीच की सीमा पर रहा होगा। और जरूर बहुत लोग होंगे जो बीच की सीमा पर होंगे। जो अपने से नहीं जाग सकेंगे; जिन्हें कोई जगाने वाला मिल जाए, इशारा देने वाला मिल जाए, तो शायद चल पड़ें।
बुद्ध राजी हो गए।
मोहम्मद भी राजी हुए। लेकिन मोहम्मद को राजी करने का ढंग यह नहीं हो सकता था, मोहम्मद को तर्क नहीं दिए जा सकते थे। भीतर की आवाज कहती गई कि मोहम्मद, मैं तुझसे कहता हूं: बोल! तू बोल, फिकर छोड़! जब मैं कहता हूं तो तू बोल! तुझे बोलना ही होगा। कोई तर्क नहीं है, सीधा आदेश है।
बुद्ध को देवताओं को कुछ कहना पड़ा तो बुद्ध की बुद्धि से ही संबंध जोड़ना पड़ा। एक विकसित बुद्धि है। मोहम्मद के पास हृदय है, बुद्धि नहीं। हृदय आदेश मानता है, तर्क नहीं, विचार नहीं। तर्क और विचार व्यर्थ चले जाते हैं।
और जब आवाज इतने जोर से आई कि तुझे करना ही होगा, तो वे कंप गए। उन्हें बुखार चढ़ आया। वे भागे घर आए। उन्हें डर लगा कि जरूर मैं पागल हो गया हूं। घर आकर उन्होंने जो बात कही, वह बड़ी प्यारी है।
अपनी पत्नी से उन्होंने कहा कि जल्दी से मेरे ऊपर दुलाइयां ओढ़ा दे, मुझे बहुत बुखार आ रहा है। पत्नी ने कहा, अभी-अभी आप ठीक-ठीक गए थे सुबह-सुबह इतनी जल्दी इतनी तीव्रता से बुखार! और शरीर उनका जल रहा है। तप्त है। और उनकी आंखें ऐसी हैं जैसी उसने कभी नहीं देखी थीं। ये बुखारवाली आंखें नहीं हैं! उसने दुलाइयां ओढ़ा दीं, पूछा कि मुझे कहो तो कि हुआ क्या? तो मोहम्मद ने कहा कि दो में से कुछ एक बात हुई है: या तो मैं पागल हो गया हूं, या कवि।
और ये दो शब्द बड़े विचारणीय हैं।
मोहम्मद ने कहा: या तो मैं पागल हो गया हूं या कवि। साफ नहीं है कि क्या हो गया है। विक्षिप्त हो गया हूं, लगता है। भीतर से कुछ आवाज आ रही है, जो कभी नहीं आई थी। और या हो सकता है कि मैं कवि हो गया हूं। क्योंकि सुना है कि कवियों को भीतर से आवाज आती है, अंतर्वाणी उठती है। पत्नी ने कहा कि तुम्हारी आंख देख कर मैं कह सकती हूं कि कुछ अभूतपूर्व घटा है। तुम्हारी आंखों में ऐसी चमक कभी न थी। और तुम्हारे चेहरे पर ऐसी आभा कभी न थी। तुम घबड़ा गए हो, बेचैन हो, इसलिए बुखार है अन्यथा तुम आविष्ट हुए हो, तुम्हारे ऊपर कोई विराट ऊर्जा उतरी है। तुम उसे पचा नहीं पा रहे हो। तुम विश्राम करो, सब ठहर जाएगा। इस कारण मोहम्मद की पत्नी ही उनकी पहली शिष्या थी। वही पहली मुसलमान थी। क्योंकि उसने ही पहले संदेश सुना।
फिर धीरे-धीरे उसने पूछा कि क्या तुम्हारे भीतर हो रहा है, मुझे कहो। जो उन्होंने कहा, वह सीधा-साफ था, लेकिन उसमें गहराइयां भी थीं।
ये वचन भी सीधे-साफ हैं। यूं ऊपर से देखोगे तो तुम प्रभावित न होओगे, लेकिन जरा इनकी गहराइयों में उतरोगे--इन हीरों पर थोड़ी धार रखनी होगी, थोड़े पहलू निखारने होंगे; इन हीरों की थोड़ी सफाई करनी होगी और तब कुरान में भी वही गरिमा है, जो उपनिषदों में है; वही सुगंध है, जो धम्मपद में है।
बिस्मिल्लाहिर्...
पहले ही पहल नाम लेता हूं अल्लाह का।
अल्लाह का एक नाम है: अव्वल। जो सबसे पहले है, वही अल्लाह है। और जो सबसे बाद में बच रहेगा, वही अल्लाह है। अल्लाह का दूसरा नाम है: आखिरी। यह सीधी-सादी बात है। पहला नाम: अव्वल; जो प्रथम है, सर्वप्रथम है; और दूसरा नाम: आखिरी; जो सबसे अंत में है। शेष बीच में नाटक है, अभिनय है। जैसे मंच पर कोई अभिनेता राम बन कर आ जाता है। पर्दे के पीछे असलियत थी, पर्दे पर राम बन कर आ गया है; खेलेगा राम का पार्ट, अभिनय अदा करेगा, धनुषबाण लेकर चलेगा, युद्ध करेगा, और जैसे ही पर्दा गिरेगा, फिर वही हो जाएगा जो था--राम नहीं रह जाएगा।
पर्दे के पहले और पर्दे के बाद असलियत है, पर्दे के उठने और पर्दे के गिरने के बीच नाटक है।
परमात्मा ही प्रथम है और परमात्मा ही अंतिम--और जो प्रथम है और जो अंतिम है, वही सत्य है। बीच में सब मन का खेल है। सब तरंगें हैं विचारों की। अलग-अलग अभिनय है। कोई स्त्री बना है, कोई पुरुष बना है। कोई मस्जिद में बैठा है, कोई मंदिर में बैठा है। कोई इस तरह से जी रहा है, कोई उस तरह से जी रहा है। कोई संत हो गया है; कोई साधु है, कोई असाधु। लेकिन ये सब पर्दा उठने और पर्दा गिरने के बीच का खेल है। पर्दे के पीछे न कोई साधु है, न कोई असाधु। न कोई संत, न कोई असंत। सिर्फ परमात्मा है। वही अव्वल है, वही आखिरी है। तो पहले-पहले उसी का नाम लेता हूं--अल्लाह का। और किसका नाम लो? क्योंकि पहले-पहले उसी का स्मरण करो, जो है। प्रार्थना उसी से शुरू हो सकती है।
बिस्मिल्लाहिर्...
पहले-पहल नाम लेता हूं अल्लाह का।
इस्लाम में परमात्मा के सौ नाम हैं। निन्यानबे व्यक्त और सौवां अव्यक्त। जब तुम इस्लाम की फेहरिस्त देखोगे नामों की, तो ऊपर लिखा होता है: अल्लाह के सौ नाम; और जब तुम फेहरिस्त में गिनती करोगे तो तुम बहुत हैरान होओगे, हमेशा निन्यानबे नाम होते हैं, सौ नहीं होते। सौवां छोड़ा होता है। वही असली नाम है। उसे कहा ही नहीं जा सकता। मगर कुछ तो कहना होगा। इसलिए अल्लाह कहते हैं।
अल्लाह पहला नाम है निन्यानबे की श्रृंखला में। और जो आखिरी नाम है, असली नाम है, उसे तो नाम भी नहीं दिया जा सकता, वह तो अनाम है, वह तो शून्य है। बुद्ध की भाषा में वही निर्वाण है, शून्य है, अनत्ता है। उपनिषद उसे ब्रह्म कहते हैं।
मगर, यह प्यारी बात समझते हो! शून्य भी तुमने कहा--हालांकि कहा: शून्य--मगर शून्य भी नाम हो गया। ज्यादा प्यारी बात है इस्लाम की: कहा ही नहीं कुछ। खाली जगह छोड़ दी।
इस्लाम में सूफी फकीरों की परंपरा है। उनके पास एक किताब है, जिसे वे ‘किताबों की किताब’ कहते हैं। वह खाली किताब है, उसमें कुछ लिखा हुआ नहीं है। तो गुरु शिष्य को देता रहा है उस किताब को। परंपरा से वह किताब मिलती रही है, बचाई गई है। सैकड़ों वर्ष पुरानी है। कुछ भी लिखा नहीं है, खाली पन्ने हैं, कोरे पन्ने हैं!
और वैसा ही कोरा हो जाना है। वैसा ही खाली हो जाना है। जब तुम भी रिक्त हो जाओ, तुम्हारे भीतर भी कोई विचार की लिखावट न रह जाए, तभी जानना सौवां नाम, असली नाम उपलब्ध हुआ।
मगर शुरुआत करने के लिए--कामचलाऊ--निन्यानबे नाम हैं। निन्यानबे इसलिए कि तुम्हें जो प्रीतिकर लगे! दुनिया में बहुत तरह के लोग हैं, तरह-तरह के लोग हैं। हर एक की अपनी-अपनी प्रीति है, अपना-अपना ढंग है। इसलिए एक ही नाम सबको शायद प्यारा भी न लगे। तो सब तरह की रुचियों के लोगों के लिए निन्यानबे नाम हैं। लेकिन याद सबको दिलाए रखनी है कि तुम्हारा नाम कामचलाऊ है। असली नाम तो बोला नहीं जा सकता, सुना नहीं जा सकता। असली नाम तो अनुभव में आता है। और वह अनुभव ध्वनि नहीं है, नाद नहीं है--अनाहत है। परम शून्य का संगीत है। मौन संगीत है।
इसलिए शास्त्रों को ठीक से पढ़ना हो तो पंक्तियों के बीच में पढ़ना, पंक्तियों में मत पढ़ना। पंक्तियों के बीच में जहां खाली जगह होती है, वहां शास्त्र हैं। पंक्तियों में तो शब्द हैं। शब्दों के बीच में पढ़ना, जहां रिक्त स्थान होते हैं, क्योंकि वहीं सत्य है।
और यही अवस्था तुम्हारे अंतर की भी है। एक विचार गया, दूसरा विचार आया, दोनों के बीच में थोड़ी जगह होती है। उस जगह में ही झांक लो तो ध्यान हो जाए। मगर हम एक शब्द से दूसरे शब्द पर छलांग लगाते रहते हैं, एक विचार से दूसरे विचार पर छलांग लगाते रहते हैं, हम बीच में वह जो खाली जगह है उसको देखते ही नहीं। उसको हम यूं ही गुजर जाने देते हैं। हम उस पर ध्यान ही नहीं देते। वह हमारा गेस्टाल्ट नहीं है।
गेस्टाल्ट शब्द जर्मन भाषा का है। और मनोविज्ञान ने उसे स्वीकार किया है, क्योंकि किसी दूसरी भाषा में वैसा शब्द नहीं है। गेस्टाल्ट का अर्थ होता है: देखने का एक खास रवैया। तुमने मनोविज्ञान की किताबों में या कभी-कभी बच्चों की किताबों में एक तस्वीर देखी होगी। एक तस्वीर बनी होती है, जिसको दो ढंग से देखा जा सकता है। एक ढंग से देखो तो तस्वीर में बूढ़ी स्त्री दिखाई पड़ती है। और अगर तुम देखते ही रहो, देखते ही रहो बूढ़ी स्त्री को, तो तुम चकित होते हो कि थोड़ी देर में बूढ़ी स्त्री तो विदा हो गई और उसकी जगह एक सुंदर युवा स्त्री दिखाई पड़ने लगी। अगर तुम उस युवा स्त्री को देखते रहो, देखते रहो, तो थोड़ी देर में वह भी विलीन हो जाएगी, फिर बूढ़ी स्त्री प्रकट हो जाएगी।
और मजा यह है कि जब तुमने दोनों को भी देख लिया तस्वीर में, तब भी तुम दोनों को साथ-साथ न देख सकोगे। क्योंकि उन दोनों को बनाने वाली जो पंक्तियां हैं, जो लकीरें हैं, वे एक ही हैं। उन्हीं लकीरों से बूढ़ी बनी है, उन्हीं लकीरों से जवान स्त्री बनी है। तो जब जवान स्त्री को देखोगे, बूढ़ी नहीं देख पाओगे। अगर बूढ़ी को देखोगे, जवान को नहीं देख पाओगे। जानते हो भलीभांति कि इन्हीं लकीरों में जवान स्त्री भी छिपी है, कई बार देख भी चुके हो, लेकिन जब फिर बूढ़ी स्त्री का गेस्टाल्ट तुम्हें पकड़ लेगा, तो तुम लाख उपाय करो, जवान स्त्री दिखाई न पड़ेगी। और तुम्हें मालूम है, तुमने देखा है, तुम जानते हो भलीभांति कि यहीं कहीं है। मगर तुम कोशिश करो तो नहीं देख पाओगे। लेकिन अगर तुम बूढ़ी को गौर से देखते रहो, देखते रहो, तो अचानक गेस्टाल्ट बदलता है। बदलाहट इसलिए होती है कि मन थिर नहीं हो सकता। मन अथिर है, भागा हुआ है। तुम अगर बूढ़ी को ही देखते रहोगे, देखते रहोगे, वह जल्दी ही बूढ़ी से भागने लगेगा, इधर-उधर भागेगा। उसी भाग-दौड़ में वह जवान को खोज लेगा। अगर तुम जवान को ही देखते रहोगे, उसी भाग-दौड़ में वह फिर बूढ़ी को खोज लेगा। वे दोनों ही स्त्रियां उस एक ही तस्वीर में हैं। इस बदलते हुए ढांचे को गेस्टाल्ट कहते हैं।
अब तुम जब अपने भीतर जाते हो और विचारों को देखते हो, तो तुम्हारा गेस्टाल्ट एक है। एक विचार गया कि तुम बीच में जो थोड़ा सा अंतराल आता है, उसे नहीं देखते; दूसरा विचार आया, उसको देखते हो। तुमने ध्यान ही नहीं दिया होगा जब तुम किताब पढ़ते हो कि दो शब्दों के बीच में खाली जगह भी है, या दो पंक्तियों के बीच में भी खाली कागज है। तुम तो बस शब्दों से छलांग लगाते चले जाते हो।
एक छोटा बच्चा रास्ते के किनारे खड़ा है। उसे रास्ता पार करना है। बड़ी देर से खड़ा है। एक आदमी जो उसे देख रहा है--एक दुकानदार--उसने पूछा कि बेटा, बात क्या है, तू बहुत देर से यहां खड़ा हुआ है! तुझे उस तरफ जाना है तो मैं पहुंचा दूं। उसने कहा, उस तरफ मुझे जाना है, लेकिन मैं देख रहा हूं कि जब, खाली स्थान आए, तो मैं निकल जाऊं। जब खाली स्थान मेरे सामने से गुजरे, तो मैं निकल जाऊं।
तुमने इस तरह नहीं सोचा होगा। कार गुजरी, बस गुजरी, ट्रक गुजरा--यह तुम देखते हो; खाली स्थान गुजरता है, ऐसा तुम नहीं देखते। जब बस नहीं गुजरती तो जो रह जाता है खाली स्थान, तुम उसमें से गुजर जाते हो। मगर उस बच्चे ने कहा कि जब खाली स्थान आए...! कभी तो कार आ रही है, कभी ट्रक आ रहा है, कभी बस आ रही है, खाली स्थान आ ही नहीं रहा! जैसे ही खाली स्थान आएगा, मैं निकल जाऊंगा। और बिना खाली स्थान के कैसे निकल सकता हूं?
तुम्हारे भीतर विचारों की श्रृंखला में खाली स्थान आ रहे हैं, प्रतिपल आ रहे हैं, मगर उन पर तुम्हारा ध्यान नहीं। तुम्हारा गेस्टाल्ट बंध गया है।
और इसीलिए साक्षी का अदभुत सूत्र है ध्यान के लिए। तुम सिर्फ साक्षी हो कर खड़े हो जाओ किनारे और देखते रहो, देखते रहो आंख गड़ा कर--विचारों को गुजरते हुए--और तुम चकित होओगे, देखते-देखते ही जैसे बूढ़ी स्त्री जवान में बदल जाती है, ऐसा ही तुम्हारे भीतर का गेस्टाल्ट बदलेगा। तुम अगर देखते रहो विचारों को साक्षी होकर, तो धीरे से तुमको एक क्षण पता चलेगा कि हर दो विचार के बीच खाली जगह आती है। और जैसे ही तुम्हें खाली जगह दिखाई पड़ गई, तुम दूसरा काम भी कर सकते हो--एक खाली स्थान से दूसरे खाली स्थान में छलांग; दूसरे से तीसरे खाली स्थान में छलांग। विचारों को छोड़ कर छलांग लगने लगती है। अभी खाली स्थान को छोड़ कर तुम छलांग लगाते हो, फिर विचारों को छोड़ कर खाली स्थान में छलांग लगाने लगते हो। वही ध्यान की प्रक्रिया है। खाली स्थानों को जोड़ लेना अपने भीतर ध्यान है। विचार तिरस्कृत हो गया, अनादृत हो गया। तुम विचार के प्रति उदासीन हो गए।
ध्यान है खाली अंतरालों को देखने की क्षमता। और जैसे ही यह क्षमता आती है, पर्दा गिर गया। अब तुम्हें वह दिखाई पड़ने लगेगा, जो अव्वल है और आखिरी है।
पहले ही पहल नाम लेता हूं अल्लाह का, जो निहायत रहमवाला मेहरबान है।
सीधी-सादी बात है कि परमात्मा करुणा है। बुद्ध भी इस बात को कहते हैं। लेकिन बुद्ध के कहने का ढंग बहुत और है। वह एक सुसंस्कृत दार्शनिक का ढंग है। बुद्ध कहते हैं: जब ध्यान का कमल खिलता है, तब करुणा की सुगंध उड़ती है। करुणा अंतिम उपलब्धि है समाधि की--और समाधि की कसौटी भी। जिसके जीवन में करुणा प्रकट हो, समझना कि उसे समाधि मिली। भीतर मिलती है समाधि, बाहर करुणा की गंध उड़ती है। भीतर जलता है समाधि का दीया और बाहर करुणा की रोशनी फैलती है।
यही बात मोहम्मद अपने सीधे-सादे ढंग से कह रहे हैं कि वह जो परमात्मा है, वह जो अव्वल है, वह जो पहले है और आखिरी; जिसका कोई नाम नहीं, लेकिन फिर भी जिसको नाम देना होगा, नहीं तो हम कैसे उसका स्मरण करें, वह निहायत रहमवाला मेहरबान है। वह महाकरुणा है।
और इसमें इस बात की भी उदघोषणा है कि भयभीत न होओ अपनी गलतियों से, उसकी करुणा तुम्हारी गलतियों से बहुत बड़ी है! डरो न अपने पापों से, नाहक के पश्र्चात्ताप में मत पड़ो तुम आदमी हो, भूलचूक स्वाभाविक है, लेकिन भूल-चूक को तूल मत दो, तिल का ताड़ न बनाओ!
अक्सर तथाकथित धार्मिक व्यक्ति तिल के ताड़ बना लेते हैं। छोटी सी भूल को भी बहुत गुब्बारे की तरह फुलाते चले जाते हैं। छोटी सी भूल को भी बड़ा कर के दिखाने लगते हैं। उसमें भी अहंकार है।
अगस्तीन की प्रसिद्ध किताब है: कन्फेशंस। अपने पापों का प्रायश्र्चित्त है। अगस्तीन की इस किताब के बाद एक सिलसिला शुरू हुआ कि लोगों ने अपने पापों के प्रायश्र्चित्त लिखने शुरू कर दिए। टालस्टाय ने लिखे, महात्मा गांधी ने लिखे। और मेरी प्रतीति है कि इन सबने बहुत बढ़ा-चढ़ा कर लिखे। छोटे-छोटे पापों को भी खूब बढ़ा-चढ़ा कर लिखा। पीछे कारण हैं।
तुमने अकबर और बीरबल की कहानी सुनी है। अकबर ने एक दिन दरबार में आकर दीवाल पर एक लकीर खींच दी और अपने दरबारियों से कहा कि एक लाख स्वर्ण-अशर्फियां उसे भेंट करूंगा जो इस लकीर को बिना छुए छोटा कर दे। अब बिना छुए कौन लकीर छोटा करे, कैसे करे? बहुत सिर पचाया लोगों ने, बड़ा सोचा-विचारा, पसीना-पसीना हो गए! एक लाख स्वर्ण-अशर्फियां तो सभी चाहते थे, मगर बिना छुए छोटी कर दो! और तब बीरबल उठा और उसने उस लकीर के नीचे एक बड़ी लकीर खींच दी। उस लकीर को छुआ भी नहीं और लकीर छोटी हो गई। एक लाख स्वर्ण-अशर्फियां उसने अपने बस्ते में बंद कीं और घर की तरफ चल पड़ा, उसने धन्यवाद भी नहीं दिया अकबर को। धन्यवाद देने की जरूरत भी नहीं थी। उसने काम कर के दिखा दिया था। लकीर को छुआ नहीं और छोटा कर दिया।
यही राज है इन तथाकथित प्रायश्र्चित्त के नाम पर बढ़ा-चढ़ा कर लिखे गए पापों में। पहले पाप को बड़ा कर के दिखाओ, तो फिर तुम्हारा पुण्य भी उसी अनुपात में बड़ा हो जाता है। फिर पुण्य की लकीर खींचो। तो छोटा पाप होगा तो पुण्य भी छोटा ही होगा। अगर बड़ा पाप होगा तो पुण्य भी बड़ा होगा।
इस गणित को समझ लेना।
तुमने अगर दो पैसे की चोरी की और चोरी का त्याग कर दिया, तो लोग कहेंगे, क्या खाक त्याग किया! अरे, दो पैसे की चोरी की--पहले तो चोरी भी की तो कुछ ढंग की न की--और त्याग भी दिया तो क्या त्याग दिया, दो ही पैसे न! दो अरब की चोरी करते, तो दो अरब का त्याग होता। फिर त्याग बड़ा होता, क्योंकि चोरी बड़ी होती!
इसीलिए तो जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजपुत्र हैं। कोई गरीब तीर्थंकर नहीं हो सका। कैसे हो? क्योंकि त्याग कसौटी है। राजपुत्रों के पास त्यागने को कुछ है, गरीबों के पास त्यागने को क्या है? गरीब छोड़ेगा भी तो क्या छोड़ेगा! था ही क्या? लोग पूछेंगे, एक झोपड़ा था घास-फूस का, उसे छोड़ भी दिया तो क्या खाक छोड़ दिया! राजमहल चाहिए, स्वर्ण-महल चाहिए, तब त्याग का कोई मूल्य है!
बुद्ध भी राजपुत्र हैं। कृष्ण और राम भी राजपुत्र हैं। हिंदुओं के अवतार, जैनों के तीर्थंकर, बौद्धों के बुद्ध, सब राजपुत्र हैं।
इस दृष्टि से इस्लाम ने और ईसाइयत ने एक बहुत बड़ी क्रांति की। उस क्रांति का ठीक-ठीक मूल्यांकन नहीं हुआ है। इस्लाम और ईसाइयत ने पहली बार दो साधारणजनों को ईश्र्वर का पैगंबर घोषित किया। जीसस एक बढ़ई के बेटे थे। अत्यंत दीन-हीन वर्ग से। मोहम्मद भी गरीब घर से आए थे, भेड़-बकरियां चराते रहे थे, चरवाहे थे।
इस्लाम ने और ईसाइयत ने दुनिया को एक तो बहुत बड़ा दान दिया है। इन्होंने पहली बार धर्म को राजाओं के घेरे से मुक्त किया। इन्होंने पहली बार कहा कि धर्म पर कोई बपौती नहीं है धन वालों की। गरीब भी चाहे, अभीप्सा करे, तो परमात्मा उसका भी हो सकता है। इस्लाम और ईसाइयत का इतना व्यापक प्रचार जो दुनिया में हुआ, उसके पीछे यही कारण है। सर्वहारा को, दीन-हीन को यह बात रुचिकर लगी, उसके निकट की लगी।
हिंदू धारणा राजाओं से बंधी धारणा है। जैन धारणा भी राजाओं से बंधी धारणा है। उसमें एक तरह का आभिजात्य है, अरिस्ट्रोक्रेसी है। और अरिस्ट्रोक्रेसी के दिन लद गए, आभिजात्य के दिन लद गए! यह तो सर्वहारा का युग है। तो अगर सारी दुनिया में आधी दुनिया ईसाई हो गई तो कुछ आश्र्चर्य नहीं है। और ईसाइयत के बाद नंबर आता है इस्लाम का। यह कोई आश्र्चर्य नहीं है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। फिर, इनकी भाषा गरीब की भाषा है। इनकी भाषा अत्यंत दीन-हीन की भाषा है।
पश्र्चात्ताप को भी लोग बढ़ा-चढ़ा कर बताते हैं। अहंकार बड़ा अदभुत है! अहंकार पाप भी करे तो बड़ा करता है, छोटा नहीं करता। छोटा पाप अहंकार को जंचता नहीं। और न भी किया हो बड़ा पाप, तो कम से कम अपनी आत्म-कथा में तो बड़ा पाप लिख ही सकते हो। पहले महापापी अपने को सिद्ध करो और फिर त्याग, व्रत, उपवास...तो महात्मा हो जाओगे। लेकिन अगर महापापी नहीं हो, तो महात्मा कैसे होओगे?
इसलिए मेरे देखे अगस्तीन, टालस्टाय, गांधी, इन तीनों की आत्म-कथाओं में बहुत सी बातें झूठ हैं। यद्यपि महात्मा गांधी कहते हैं कि ये सत्य के प्रयोग हैं, मगर इसमें बहुत झूठ है। यह पापों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर लिखा गया है। जिन पापों में कोई मुद्दा नहीं है, उनको यूं बढ़ाया है जिसका हिसाब नहीं। उनको इतना बड़ा कर दिया है! क्योंकि फिर उन्हीं के अनुपात में पुण्य भी बड़े होंगे। इतने बड़े पाप त्यागे! इस्लाम की घोषणा है: तुम्हारे पाप कितने ही बड़े हों, परमात्मा की करुणा उससे बहुत ज्यादा बड़ी है! ..रहमानिर् रहीम।
वह निहायत रहमवाला है; रहीम है, मेहरबान है, रहमान है।
तुम अपने पश्र्चात्तापों में न उलझो। तुम अपने घावों को नाहक न कुरेदो! इसलिए इस्लाम पश्र्चात्ताप नहीं सिखाता। ईसाइयत में पश्र्चात्ताप का मूल्य है, मगर इस्लाम में पश्र्चात्ताप का कोई मूल्य नहीं है।
और मैं इस बात को कीमत देता हूं।
पश्र्चात्ताप एक तरह की रुग्ण अवस्था है। यह अपने घावों को कुरेदना है। और जो अपने घावों को कुरेदते रहता है, वह घावों को भरने नहीं देता। वह उनको हरे रखता है, लहूलुहान रखता है। फिर-फिर कुरेद लेता है। यह एक तरह की रुग्ण दशा है। अपने घाव को भरने दो! क्या पीछे लौट-लौट कर देखना है!
इस्लाम कहता है: परमात्मा की करुणा अनंत है। तुम उसकी करुणा का भरोसा करो।
लेकिन इस्लाम के कहने का ढंग बहुत सीधा-सादा है।
‘(ए पैगंबर, लोग तुम्हें खुदा का बेटा कहते हैं, और तुमसे हाल खुदा का पूछते हैं, तो तुम उनसे) कहो कि वह अल्लाह एक है।’
हिंदुओं के तैंतीस करोड़ देवी-देवता हैं। यूं समझो कि जितने आदमी थे, उतने ही देवी-देवता। हर आदमी की अपनी देवी, अपना देवता। और इसलिए कभी भी यह देश इकट्ठा नहीं हो सका। खंडित होना इसकी किस्मत हो गई। क्योंकि इसका ईश्र्वर तक इकट्ठा नहीं हो सका, आदमियों की तो बात छोड़ दो! इसके ईश्र्वर की धारणा भी इकट्ठी नहीं हो सकी, तो यहां हर चीज खंडित हो गई है।
बुद्ध मरे और उनके मरने के बाद बत्तीस संप्रदाय हो गए।
जैनों के महावीर गए कि तत्क्षण जैन खंडों में टूट गए, छोटे-छोटे संप्रदाय बन गए। पहले दो संप्रदाय बने, फिर दो में से बीस खड़े हो गए।
और हिंदुओं का तो कुछ हिसाब ही करना मुश्किल है! हिंदुओं को तो एक धर्म कहना भी ठीक नहीं। यह तो जमघट है। कुंभ का का मेला समझो। कोई गणेश को पूज रहा है, कोई हनुमानजी को पूज रहा है, कोई शिवजी को, कोई राम को, कोई कृष्ण को--और जिसकी जो मर्जी! कोई झाड़ों को, कोई पत्थरों को, कोई नदियों को।
इस्लाम ने एक सीधी-साफ बात कही: परमात्मा एक है। इस विचार का परिणाम महत्वपूर्ण हुआ। अगर परमात्मा एक है, तो उसके मानने वालों को भी एक होने की सुविधा हो गई, खंडित होने की वृत्ति छूट गई।
इस देश में तो खंडित होने की इतनी वृत्ति है कि जो धर्मों के साथ हुआ, वही अब राजनीति के साथ हो रहा है। एक-एक पार्टी खंडित होती जाती है, छोटे-छोटे टुकड़ों में टूटती जाती है। देश प्रदेशों में टूटा हुआ है, प्रदेश भी अपने जिलों में टूटे हुए हैं। और हर एक की अपनी जिद है, अपना आग्रह है। यह हमारी जो धार्मिक चिंतना रही है, उस चिंतना में कहीं दोषपूर्ण बात है। यूं तो हम कहते रहे ऊंची बातें, लेकिन उन ऊंची बातों के लिए हमने कोई बुनियादी ठोस आधार न दिए।
इस्लाम ने एक तो अनुदान दिया जगत को कि परमात्मा एक है। इसलिए बहुत प्रतिमाओं की जरूरत नहीं है, प्रतिमाओं की ही जरूरत नहीं है, क्योंकि तुम प्रतिमा बनाओगे तो अनेक हो जाएंगी। फिर लोग अपने-अपने ढंग से प्रतिमा बनाएंगे। किसी का चेहरा ऐसा होगा, किसी का चेहरा वैसा होगा। किसी के दो हाथ होंगे, किसी के चार हाथ होंगे। प्रतिमा बनी, परमात्मा को तुमने रूप दिया कि तुमने खंडन शुरू कर दिया। परमात्मा निराकार है। तुम पुकारो! परमात्मा एक भाव की दशा है। तुम उस भाव की दशा में एक हो जाओ, तल्लीन हो जाओ। परमात्मा सागर है। तुम उसमें विलीन हो जाओ।
‘(ए पैगंबर, लोग तुम्हें खुदा का बेटा कहते हैं और तुमसे हाल खुदा का पूछते हैं, तो तुम उनसे) कहो कि वह अल्लाह एक है और अल्लाह बेनिया़ज है (उसे किसी की भी गरज नहीं)।’
उसे किसी की भी जरूरत नहीं है। वह स्वयंभू है। तुम उसे मानते हो या नहीं मानते हो, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। तुम उसके साथ हो या उससे विपरीत हो, कुछ भेद नहीं पड़ता। तुम आस्तिक हो या नास्तिक हो, कुछ भेद नहीं पड़ता। वह बेनिया़ज है। उसकी करुणा तुम पर बरसती ही रहेगी। तुम साधु हो, असाधु हो, कुछ भेद नहीं पड़ता। उसकी करुणा में कोई कंजूसी नहीं होगी। वह तुम पर निर्भर नहीं है। वह तुम्हारी पात्रता की भी पूछताछ नहीं करता। वह तुम्हारी योग्यता का भी हिसाब नहीं रखता। अगर तुम उसे लेने को राजी हो तो वह हमेशा तुम्हारे भीतर प्रवेश करने को तैयार है। वह तुम्हारे द्वार पर खड़ा द्वार खटखटा रहा है। तुम्हीं उसे भीतर न बुलाओ तो तुम्हारी मर्जी अन्यथा वह हर घर में आने को राजी है।
एक सूफी फकीर को हमेशा की आदत थी कि अकेला भोजन नहीं करता था। किसी को निमंत्रण दे देता था, बुला लाता था। मगर एक दिन ऐसा हुआ कि बहुत खोजा लेकिन कोई मिला ही नहीं। या तो लोग भोजन कर चुके थे या लोग