05/06/2023
मुल्ला नसरुद्दीन और उसका जुड़वां भाई, दोनों का जन्मदिन था। तो दोनों ने सोचा, जायें किसी होटल में, खायें, पीयें, मौज करें। दोनों ने एक से कपड़े पहने, एक सी टाई लगाई, एक से रंग का कोट, एक सा जूता, एक सा रूमाल खोंसा, दोनों पहुंचे। मिठाई खाई, भोजन किया, शराबघर में पहुंचे। एक से ग्लासों में एक सी शराब बुलाई। एक शराबी सामने बैठा आंखें मीड़-मीड़ कर उनको देखने लगा। कई बार आंखें मीड़ के देखा, तो नसरुद्दीन हंसा। उसने कहा, ‘परेशान न होओ। नशे के कारण तुम्हें गलत दिखाई पड़ रहा है, ऐसा मत सोचो। या एक का दो दिखाई पड़ रहा है, ऐसा भी मत सोचो। हम दो जुड़वां भाई हैं।’ उस शराबी ने फिर से आंख मीड़ी और कहा कि ‘तुम चारों!’ उसको चार दिखाई पड़ रहे हैं।
तुम्हारी आंख में अगर मोह है, तुम जहां भी देखोगे वहीं संसार है। संसार नहीं है सवाल, मोह सवाल है। तुम परमात्मा को भी देखोगे, वहां भी संसार दिखाई पड़ेगा। तुम्हारी आंख से मोह खो जाये, तुम जहां भी देखोगे, पाओगे परमात्मा है। असली सवाल बाहर क्या है? यह नहीं है। असली सवाल: कौन है भीतर? किस रास्ते जाते हो, व्यर्थ; हिंदू, कि मुसलमान, कि ईसाई, कि बौद्ध, कि जैन--सब व्यर्थ। रास्ता सवाल नहीं है, यात्री सवाल है।
तुम हो असली सवाल। और तुम्हारी दो स्थितियां हैं। एक तो स्थिति है कि प्रकाश बाहर जाता हुआ--भीतर अंधेरा; और दूसरी स्थिति है, प्रकाश भीतर आता हुआ और भीतर कोई अंधेरा नहीं। जिस दिन तुम भीतर प्रकाश से भर जाते हो, उस दिन तुम जहां भी जाओगे वहीं प्रकाश है। उस दिन तुम जहां भी जाओगे वहीं परमात्मा है। उस दिन तुम जहां देखोगे वहीं ब्रह्म। उस दिन तुम जहां झांकोगे वहीं उसे पाओगे।
जीसस ने कहा है, ‘तोड़ो लकड़ी को और पाओगे तुम मुझे। उठाओ पत्थर को, मैं ही छिपा हूं।’ लेकिन यह किसके लिए कहा है? तुम लकड़ी तोड़ोगे, ईश्वर को पाओगे? कुछ भी न पाओगे। लकड़ी और टूट गई। पत्थर उठाओगे, ईश्वर को दबा हुआ पाओगे? असंभव।
तुम जहां भी जाओगे, जो तुम्हारी दशा है उसी की प्रतिध्वनि पाओगे। संसार दर्पण है। तुम अपने को ही देखोगे और कुछ देखने का उपाय नहीं। और दर्पण को तोड़ने में मत लग जाना। उससे कोई फर्क न पड़ेगा।
मैंने सुना है, एक कुरूप स्त्री थी। वह जहां भी दर्पण देखती, तोड़ देती। लोग उससे पूछते कि ऐसा तू क्यों करती है? तो वह कहती, ‘क्योंकि दर्पण के कारण मैं कुरूप हो जाती हूं।’
दर्पण किसी को कुरूप नहीं करते। दर्पण तो वही झलका देते हैं, जो तुम हो। तुम्हारे सब संबंध--पत्नी, पति, बेटे, पिता, मां, मित्र, शत्रु, समाज, संसार, तुम्हीं को झलकाता है। सभी दर्पण हैं। जहां-जहां तुम देखते हो कुरूपता, वहीं से तुम भागते हो, दर्पण तोड़ते हो। दर्पण तोड़ने से क्या होगा? अपने को बदलो। लेकिन अपने को बदलने का स्मरण ही तब आता है, जब रोशनी भीतर की तरफ जानी शुरू हो जाती है।
दो यात्रायें हैं प्रकाश की; या बाहर की तरफ, या भीतर की तरफ। और जो गहनतम घटना घटती है, वह यह है, कि जैसे ही प्रकाश भीतर आना शुरू होता है, जैसे ही तुम आंख बंद करते हो और ध्यान भीतर आता है...।
कब आयेगा ध्यान भीतर? जब बाहर कोई वासना न हो। वासना ध्यान को आकर्षित करती है। वह ध्यान का ऑबजेक्ट है, विषय-वस्तु बन जाती है। उपवास करो, भोजन पर ध्यान जायेगा। कभी नहीं जाता था भोजन पर। उपवास के दिन भोजन पर जायेगा। मंदिर में बैठो, ध्यान दूकान पर जायेगा। क्यों ऐसा होता है? जिस चीज की भी मन में वासना है, चाह है, जब तुम उसे छोड़ते हो, तो वह सारी प्रगाढ़ता से ध्यान को आकर्षित करती है। आंख बंद करते हो, भीतर ध्यान क्यों नहीं जाता? क्योंकि अभी बाहर चाह कायम है। निर्वासना हुए बिना ध्यान न होगा।
क्या करोगे? साधु-संत समझाते हैं, वासना छोड़ो। काश, इतना आसान होता! यह ऐसे ही है, जैसे किसी को बुखार चढ़ा है, तुम बड़े ज्ञानी हो, उसको कहो, ‘बुखार छोड़ो!’ औषधि बताओ कुछ! यह तो वह भी चाहता है कि बुखार छोड़ दे। लेकिन छोड़े कैसे? तुम कितना ही कहो कि तुम्हीं बुखार को पकड़े हुए हो, बुखार तुम्हें नहीं पकड़े हुए है। फिर भी वह कहेगा कि मैं क्या करूं? कैसे छोड़ दूं? बुखार है, औषधि चाहिए।
क्या है औषधि? इस संसार से चाह टूट जाये। एक ही औषधि मैं अनुभव कर पाता हूं। और वह यह है, कि तुम बहुत सजगता से संसार को भोगो। बेहोशी में भोगोगे, यह संसार कभी भी तुमसे छूटेगा न। तुम सजगता से भोगो। जहां-जहां संसार कहे यहां रस है, वहां-वहां जाओ, वहां-वहां पूरा ध्यान लगा दो।
भूल जाओ परमात्मा को, भूल जाओ आत्मा को, भूल जाओ सदगुरुओं को, शास्त्रों को। पूरा ध्यान वहां लगा दो और पूरे ध्यान से भोग लो।
ओशो