Osho stories

Osho stories I am inspired by spiritual guru Osho...just want to share some memorable moment which I am getting by listening to him... Let's start

'गुरु एक मानसिक ग़ुलामी है'मैं विद्रोही आत्माएं चाहता हूं।एक विद्रोही को गुरु की कोई आवश्यकता नहीं है।यदि उसे गुरु की आवश...
01/01/2024

'गुरु एक मानसिक ग़ुलामी है'

मैं विद्रोही आत्माएं चाहता हूं।
एक विद्रोही को गुरु की कोई आवश्यकता नहीं है।
यदि उसे गुरु की आवश्यकता है तो वह विद्रोही नहीं है, एक विद्रोही स्वयं में एक गुरु है।
विद्रोहता ही उसका धर्म है, और उसके लिए अन्य कोई धर्म नहीं है।
गुरु का अनुसरण करना, और अपने को विद्रोही समझना, यह अपने में विरोधाभास है।
एक विद्रोही केवल मित्र हो सकता है।
एक विद्रोही प्रत्येक उस जगह से सीख सकता है जो कि उपलब्ध है पर अनुयायी नहीं बन सकता।
वह विश्वासी नहीं बन सकता।
एक विद्रोही एक गुरु को वहन नहीं कर सकता।
उसने अपनी व्यक्तिगतता चुनी है, अपनी स्वतंत्रता, वह किसी भी गुरु के द्वारा गुलाम बनने नहीं जा रहा है।
इसलिए मैं तुम से इस बात पर जोर दे रहा हूं कि मैं गुरु नहीं हूं, क्योकिं मैं किसी भी व्यक्ति को गुलाम नहीं बनाना चाहता हूं।
यह एक मानसिक गुलामी है : जो भी मैं कहता हूं तुम विश्वास कर लेते हो, जो भी मैं करता हूं तुम विश्वास कर लेते हो, और अभी भी तुम समझते हो कि तुम विद्रोही हो ?
विद्रोही होने के लिए साहस चाहिए।
"मैं तुम्हारा मित्र हूँ, गुरु नही। क्योकि गुरु के नाम पर बहुत पाखण्ड हो गया है ! मैं तुम्हें चरणों में नहीं, हृदय में बैठाना चाहता हूँ ! मैं तुम से बड़ा नहीं, जो तुम हो, वही मैं हूँ !
मैं तुम्हारे अंदर भी आनन्द देखना चाहता हूँ। जो मुझे मिल रहा है, मैं तुम्हें भी वह अनुभूति देना चाहता हूँ !
मैं कुछ भी शेष नही रखूंगा। जो मुझे मिला वह सब कुछ बांटना चाहता हूँ !
ऐसा नहीं कि मैं तुम्हारे ऊपर कोई अहसान कर रहा हूं! मैं स्वयं आजाद हूँ और तुम्हें भी आज़ादी देता हूँ ! तुम्हें वह स्वतंत्रता देना चाहता जो किसी धर्म ने तुम्हें नहीं दी है। तुम चाहो तो धन्यवाद भी मत देना।
तुम मेरे मन्दिर मत बनाना ! मेरा कोई धर्म मत बनाना! मेरे प्रवचनों को शास्त्र मत बनाना !
तुम सब अपने-अपने गुरु बन जाना! तुम्हारा गुरु बनने में मेरा कोई रस नही है !
लेकिन तुम्हारी गुरु मानने की यह
आदत जन्मों से जुड़ी हुई है!
हम सब एक ही माला के मोती हैं। जो तुम हो वही मैं हूं, और जो मैं हूँ वही तुम हो।

ओशो

21/09/2023

मैं यहां आया, आते से ही मुझे पता चला, आते से ही मुझे बताया गया कि कुछ लोगों ने कहा है कि अगर मैं बोलूंगा, तो वे मुझे पत्थर मारेंगे। वे इसलिए पत्थर मारेंगे कि मेरी बातें महावीर के विपरीत हैं। मैंने उनसे कहा, अगर वे पत्थर मुझे मारेंगे तो वे साबित करेंगे कि वे महावीर के प्रेमी नहीं हैं। अगर मेरी बातें महावीर के विपरीत हैं, तो भी मुझे पत्थर मारने का कोई कारण पैदा नहीं होता। और जो मुझे पत्थर मारेगा, वह अगर सोचता हो कि वह महावीर का प्रेमी है, तो वह पागल है, वह नासमझ है। महावीर के प्रेम की पहली शर्त यह है कि जब तुम्हें कोई पत्थर मारे तो तुम उसे प्रेम देना। महावीर के प्रेम की पहली शर्त यह है कि जब तुम्हें कोई पत्थर मारे तो तुम उसे प्रेम देना।

मैंने पूछा कि वे मुझे क्यों पत्थर मारेंगे? तो मुझे बताया गया, मुझे कुछ बातें बताई गईं, उनका मैं उल्लेख करूं, उनके माध्यम से महावीर को समझना आसान होगा।
मुझे बताया गया कि मैं जब कहता हूं महावीर, तो मैं भगवान नहीं जोड़ता।

मैंने कहा, मेरा प्रेम भगवान जैसे औपचारिक शब्द को जोड़ने को राजी नहीं होता। जिनको हम प्रेम करते हैं, जितना हम उनको प्रेम करते हैं उतनी ही औपचारिक बातें उनके संबंध में व्यर्थ हो जाती हैं। अगर महावीर को स्मरण करते वक्त इतना प्रेम न भरता हो कि हम उन्हें तू कह कर बुला सकें, तो हममें प्रेम ही नहीं है। इसलिए मैंने कहा, मैं तो उनको भगवान नहीं कहूंगा। भगवान न कहने का मतलब यह है कि मैं उनको भगवान जानता हूं। भगवान न कहने का मतलब यह है कि मैं पहचानता हूं कि वे भगवान हैं। इसे कहने और दोहराने की बात नहीं है, इसे हृदय में समझने और पहचानने की बात है। जो इसे कहेंगे केवल, इसे दोहराते रहेंगे मंत्र की तरह, इनके दोहराने से कुछ होने का नहीं है।
मुझे कहा गया कि मैं जो कहता हूं, वह शास्त्र के विपरीत है।
मैंने कहा, महावीर की आस्था शास्त्र में नहीं है। महावीर की आस्था स्वयं में है। और अगर महावीर की कोई क्रांति है बहुमूल्य, तो वह यह है कि उन्होंने इस मुल्क को शास्त्र से मुक्त करने की कोशिश की। महावीर के समय शास्त्र सब कुछ थे, वेद सब कुछ थे। महावीर ने कहा, वेद नहीं, शास्त्र नहीं, स्वयं का सत्य, स्वयं का अनुभव अर्थपूर्ण है। महावीर ने कहा, हम शब्दों को न मानेंगे, हम तो अनुभूतियों को मानेंगे।

लेकिन हम ऐसे पागल हैं कि जिस महावीर ने यह कहा हो कि शास्त्र नहीं है मूल्यवान, स्वयं का अनुभव और स्वाद मूल्यवान है, हम उनकी ही वाणी का शास्त्र बना लेंगे और उसको पूजेंगे! यह घटना सारी जमीन पर घटी है--महावीर के अनुयायियों में ही नहीं, सारी जमीन पर--कृष्ण के अनुयायियों में, क्राइस्ट के अनुयायियों में या मोहम्मद के अनुयायियों में।
मोहम्मद ने कहा है शांति और मोहम्मद के इस्लाम धर्म का अर्थ भी होता है शांति का धर्म। लेकिन उनके भक्तों ने क्या किया? उनके भक्तों ने जितनी अशांति दुनिया में फैलाई और किसी ने नहीं फैलाई!

क्राइस्ट ने कहा है कि तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, तुम दूसरा उसके सामने कर देना। लेकिन क्राइस्ट के मानने वालों ने जितने गालों पर चांटे मारे हैं, उनका कोई हिसाब नहीं है! और क्राइस्ट के मानने वालों ने जितनी छातियों पर संगीनें कोंची हैं और जितनी छातियों पर पैर रौंदे हैं, उसका कोई मुकाबला नहीं है! बहुत आश्चर्यजनक मालूम होता है।

महावीर ने कहा है, प्रेम! और अगर महावीर का कोई भक्त कहता हो कि हम किसी को पत्थर मारेंगे, तो विचारणीय हो जाएगा। और महावीर ने कहा है, अपरिग्रह! और महावीर के भक्तों के पास परिग्रह ही परिग्रह इकट्ठा हो, तो विचारणीय हो जाएगा। और महावीर ने कहा है, स्वयं का अनुभव! और कोई महावीर की वाणी को ही अगर वेद बना दे तो गलती हो जाएगी, तो विचारणीय हो जाएगा।
मैं आपको कहूं कि दुनिया में इस धर्म के जितने मानने वाले हैं, उनमें से मुश्किल से कोई अनुयायी है। जिनकी आप पूजा करते हैं, उनके ही आप दुश्मन हैं, उनके ही आप शत्रु हैं! नीत्शे ने एक वचन कहा था। उसने कहा था, पहला और अंतिम क्रिश्चियन सूली पर लटका कर मार डाला गया--पहला और अंतिम क्रिश्चियन! उसने कहा था, क्राइस्ट पहला और अंतिम क्रिश्चियन था। उसके बाद कोई क्रिश्चियन नहीं हुआ। मैं आपको स्मरण दिलाऊं, महावीर के बाद भी कोई जैन नहीं हुआ।
तो कृष्ण के बाद या बुद्ध के बाद, सबके साथ वैसी घटना घटी है। और जो उनके पीछे दिखाई पड़ते हैं, वे उनके पीछे नहीं हैं। जो उनके पीछे मालूम पड़ते हैं, वे उनके पीछे नहीं हैं। महावीर के पीछे होना आसान नहीं है। और इस भूल में कोई न पड़ जाए कि मैं जैन घर में पैदा हो गया तो महावीर के पीछे हो गया। पागल, अगर बातें इतनी सस्ती होतीं, अगर मामले इतने आसान होते, तो सब हल हो गया होता।
धार्मिक होना इस जगत में सबसे बड़े दुस्साहस की बात है।

ओशो

मैं पढ़ता था, मैंने सुना, पानी को हम गर्म करते हैं, सौ डिग्री पर पानी भाप हो जाता है। लोहे को अगर गरम करें, पंद्रह सौ डिग...
19/09/2023

मैं पढ़ता था, मैंने सुना, पानी को हम गर्म करते हैं, सौ डिग्री पर पानी भाप हो जाता है। लोहे को अगर गरम करें, पंद्रह सौ डिग्री पर लोहा पिघल कर पानी हो जाता है। पच्चीस सौ डिग्री पर लोहे का जो पानी तरल रूप है, वह भाप बन कर उड़ जाता है। एक हाइड्रोजन बम कितनी गर्मी पैदा करेगा, आपको ज्ञात है? दस करोड़ डिग्री! पच्चीस सौ डिग्री पर लोहा भाप होकर उड़ जाता है। एक हाइड्रोजन बम दस करोड़ डिग्री गर्मी पैदा करेगा! क्या बचेगा उस उष्णता में? उस उत्तप्त में ऐसा प्रतीत होगा, जैसे सूरज जमीन पर उतर आया हो। किसी तरह के जीवन की कोई संभावना न रह जाएगी।

एक हाइड्रोजन बम पैंतालीस हजार वर्गमील क्षेत्र को प्रभावित करता है। इंग्लैंड, फ्रांस या पश्चिमी जर्मनी जैसे देश को नष्ट करने को केवल पंद्रह हाइड्रोजन बम पर्याप्त हैं। और आपको ज्ञात है, सारी दुनिया में इस समय तैयार हाइड्रोजन बम की संख्या पचास हजार है। ये पचास हजार हाइड्रोजन बम इस तरह की तीन जमीनों को नष्ट करने को पर्याप्त हैं।

और प्रति घंटा--मैं घंटे भर बोलूंगा--प्रति घंटा पचास करोड़ रुपया इस तरह के विनाशक अस्त्रों को तैयार करने में सारी दुनिया में खर्च हो रहा है! प्रति घंटा! दो घंटे में एक अरब रुपया! चौबीस घंटे में बारह अरब रुपया! जब कि हर तीन आदमियों में दो आदमी भूखे हैं! जब कि हर तीन आदमियों में पूरी जमीन पर दो आदमी नंगे हैं! तो हम जरूर कुछ पागल हो गए हैं। हम जरूर विक्षिप्त हो गए हैं। ये सभी होश में नहीं हैं। हम कुछ नशे में हैं और जैसे हमें कुछ पता नहीं हम क्या कर रहे हैं! हमारे हाथ हमारी मौत का आयोजन कर रहे हैं, इसमें हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है!

एक छोटी सी कहानी आपसे कहूं--एक बिलकुल काल्पनिक कहानी, कहीं सुना था, फिर बहुत प्रीतिकर लगी।
ईश्वर ने यह देख कर कि मनुष्य को यह क्या हुआ जा रहा है, यह मनुष्य अपने हाथ से अपनी मृत्यु के आयोजन में इतना उत्सुक क्यों हो गया है, दुनिया के तीन बड़े राष्ट्रों के प्रतिनिधियों को अपने पास बुलाया। मैंने कहा, कहानी काल्पनिक है, झूठी; कहीं कोई ईश्वर ऐसा बुलाने को नहीं है, पर कहानी में एक सत्य बहुत उभर कर जाहिर हुआ है। उसमें अमरीका को, ब्रिटेन को, रूस को बुलाया था। इन मुल्कों के प्रतिनिधि उससे मिलने गए थे। ईश्वर ने कहा, मेरे मित्र! बहुत सदियां देखीं। मनुष्य का लंबा इतिहास देखा। इतना विक्षिप्त--इतनी समृद्धि के बीच, इतनी शक्ति के बीच, अपने को ही आत्मघात करने वाला कोई जमाना मैंने नहीं देखा है! मैं हैरान हूं, तुम यह क्या कर रहे हो? तुम्हारे किए का अंतिम परिणति और परिणाम क्या होगा? अगर मैं कुछ सहायक हो सकूं और मनुष्य बच सके, तो मुझसे वरदान मांग लो। मैं अगर मनुष्य के भविष्य के लिए कुछ कर सकूं, तो वरदान देने को तैयार हूं। तुम तीनों मांग लो तीन वरदान। मनुष्य बच जाए, यही मेरी आकांक्षा है।

अमरीका के प्रतिनिधि ने कहा, मेरे मालिक! इससे सुखद और क्या होगा, एक वरदान दे दें। और हमें कुछ भी नहीं चाहिए, एक ही आकांक्षा है हमारी: जमीन तो हो, लेकिन जमीन पर रूस का कोई निशान न रह जाए। ईश्वर ने वरदान दिए होंगे बहुत, बहुत मांगें पूरी की होंगी, ऐसी मांग कभी उसके सामने आई नहीं थी।
उसने उदास घूम कर रूस के प्रतिनिधि की तरफ देखा। वह बोला, महानुभाव! एक तो हमें आप पर कोई विश्वास नहीं है। एक तो हम नहीं मानते कि कहीं कोई ईश्वर है। लेकिन मान लेंगे तुम्हें भी और उन चर्चों में जहां से तुम्हारे सब निशान मिटा दिए गए हैं, वापस तुम्हें प्रतिष्ठित कर देंगे, एक बात, एक आकांक्षा पूरी हो जाए। ईश्वर ने पूछा, कौन सी आकांक्षा? रूस के प्रतिनिधि ने कहा, नक्शे तो हों जमीन पर, नक्शे तो हों दुनिया के, अमरीका के लिए कोई रंग-रेखा न रह जाए।
ईश्वर ने घूम कर ब्रिटेन को देखा। ब्रिटेन के प्रतिनिधि ने कहा, मेरे प्रभु! हमारी अपनी कोई आकांक्षा नहीं, इन दोनों की आकांक्षाएं एक साथ पूरी हो जाएं, हमारी आकांक्षा पूरी हो जाएगी।

ऐसी सदी को होश में कहिएगा? ऐसे मनुष्य को जागा हुआ कहिएगा? ऐसे युग को स्वस्थ कहिएगा? विक्षिप्त है यह युग। और इस सत्य को हम जितना शीघ्र समझ लें, उतना उचित है, अन्यथा अपने ही विक्षिप्त आयोजन हमारी मृत्यु बन जा सकते हैं।
यह विक्षिप्तता कैसे पैदा हो गई है? यह पागलपन कैसे आ गया? और क्या ऊपर का कोई उपचार और अहिंसा पर दिए गए प्रवचन और अहिंसा पर लिखा गया साहित्य और अहिंसा के पक्ष में बोली गई बातें इस विक्षिप्तता को तोड़ सकेंगी?
यह विक्षिप्तता टूट जानी इतनी आसान नहीं है। यह विक्षिप्तता ऊपर से आरोपित नहीं है, यह विक्षिप्तता कहीं भीतर से विकसित हुई है। इस विक्षिप्तता की कहीं मनुष्य के मन में, बुनियाद में जड़ें हैं। मनुष्य की प्रकृति में कुछ है, जहां से यह विक्षिप्तता फैलती और विकसित होती है। जब तक उसकी प्रकृति में परिवर्तन करने का विचार, विवेक, जागृति पैदा न हो, जब तक उसकी प्रकृति में जो पशु है, उसके विनाश का कोई आयोजन न हो, तब तक मनुष्य के भीतर प्रकाश को और प्रभु को पैदा नहीं किया जा सकता।
मनुष्य यूं ही हिंसक नहीं है। उसके पीछे हिंसा में उसके चित्त में जड़ें हैं, उन जड़ों को अलग कर देना जरूरी है, तो हम एक अहिंसक मनुष्य का निर्माण कर सकते हैं। अहिंसक मनुष्य का निर्माण ही इस जगत के लिए एकमात्र त्राण हो सकता है।
महावीर ने कहा था, अहिंसा एकमात्र त्राण है। यह बात इतनी सच कभी भी नहीं थी। यह बात पहली बार परिपूर्ण सत्य हुई है। अहिंसा के अतिरिक्त आज कोई मार्ग नहीं है। मैं अभी कहा एक जगह: महावीर या महाविनाश, दो के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।

ओशो

प्रश्न: भगवान, मैं एक युवती के प्रेम में था। वह मुझे धोखा दे गई और किसी और की हो गई। अब मैं जी तो रहा हूं, किंतु जीने का...
17/06/2023

प्रश्न: भगवान, मैं एक युवती के प्रेम में था। वह मुझे धोखा दे गई और किसी और की हो गई। अब मैं जी तो रहा हूं, किंतु जीने का कोई रस न रहा। मैं क्या करूं?

नगेंद्र!
प्रेम में थे या स्त्री पर कब्जा करने की आकांक्षा में थे? क्योंकि तुम्हारी भाषा कहती है कि वह मुझे धोखा दे गई और किसी और की हो गई! प्रेम को इससे क्या फर्क पड़ता है! अगर वह युवती किसी और के साथ ज्यादा सुखी है, तो तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए। क्योंकि प्रेम तो यही चाहता है कि जिसे हम प्रेम करते हैं, वह ज्यादा सुखी हो, वह आनंदित हो। अगर वह युवती तुम्हारे बजाय किसी और के पास ज्यादा आनंदित है, तो इसमें रस खो देने का कहां कारण है!
मगर हम प्रेम वगैरह नहीं करते। प्रेम के नाम पर हम कुछ और करते हैं--कब्जा--मालकियत। तुम पति होना चाहते थे। पति यानी स्वामी। और वह किसी और की हो गई!
और मजा यह है कि तुम्हें उससे प्रेम था। तुमने अपने प्रश्न में यह तो बताया ही नहीं कि उसे भी तुमसे प्रेम था या नहीं। तुम से होता, तो तुम्हारे साथ होती। तुम्हें प्रेम था, इससे जरूरी तो नहीं कि उसे भी प्रेम हो। प्रेम कोई जबर्दस्ती तो नहीं। तुम्हें था, यह तुम्हारी मर्जी। और उसे नहीं था, तो उसकी भी तो आत्मा है, उसकी भी तो स्वतंत्रता है। अब किसी को किसी से प्रेम हो जाए और दूसरे को प्रत्युत्तर देना न हो, तो कोई जबर्दस्ती तो नहीं है।
तुम प्रेम करने को स्वतंत्र हो, लेकिन किसी के मालिक होने को स्वतंत्र नहीं हो। तुम किसी के जीवन पर छा जाना चाहो, हावी होना चाहो, यह तो अहंकार है--प्रेम नहीं है। प्रेम जानता है--स्वतंत्रता देना।
खुश होओ कि अगर वह कहीं भी है और प्रसन्न है।...यही तो तुम चाहते थे कि वह प्रसन्न हो जाए। लेकिन नहीं। शायद तुम यह नहीं चाहते थे। तुम चाहते थे कि वह तुम्हारी छाया बन कर चले। तुम्हारे अहंकार की तृप्ति हो। वह तुम्हारा आभूषण बने। तुम दुनिया को कह सको कि देखो, मैंने इस युवती को जीत लिया! वह तुम्हारी विजय का प्रतीक बने, पताका बने। यह तुम्हारे अहंकार का ही आयोजन था। और अहंकार जहां है, वहां प्रेम नहीं है।
और शायद इसी अहंकार के कारण वह किसी और की हो गई हो। समझदार रही होगी। अच्छा किया--किसी और की हो गई। तुम्हारी होती, तुम सताते। तुम्हारा अहंकार बता रहा है कि तुम उसकी छाती पर पत्थर बन कर बैठ जाते।
अब तुम कह रहे हो, अब मैं जी तो रहा हूं, किंतु जीने का कोई रस न रहा। युवती को देखा था, उसके पहले जीते थे कि नहीं? तब रस था कि नहीं? तो अब क्या बिगड़ गया! जैसे पहले जीते थे बिना युवती के; युवती को जाना नहीं था, तब भी तो जीते थे न!
मेरे पास लोग आ कर पूछते हैं कि हमें बड़ा डर लगता है कि मरने के बाद क्या होगा? मैं उनसे कहता हूं कि जन्म से पहले का तुम्हें कुछ डर लगता है? तुम थे या नहीं--कुछ पता है? वे कहते हैं, कुछ पता नहीं।
कुछ हर्जा है नहीं थे तो? उन्होंने कहा, क्या हर्जा है! जब पता ही नहीं, तो रहे हों या न रहे हों। मैंने कहा, तो बस यही मौत के बाद होगा, जो जन्म के पहले था। इसलिए घबड़ाहट क्या है!
जन्म के पहले का तुम्हें कुछ पता नहीं है; मौत के बाद का भी तुम्हें कुछ पता नहीं होगा। तो चिंता क्या कर रहे हो!
युवती नहीं मिली थी, उसके पहले भी तुम जिंदा थे--और बड़ा रस था। और युवती को देखकर सारा रस खो गया! ऐसे गुलाम हो? और कल का तो भरोसा रखो--कल कहीं फिर कोई दूसरी युवती मिल जाए--उससे भी सुंदर, उससे भी आकर्षक--तो तुम परमात्मा को धन्यवाद दोगे कि अच्छा हुआ कि उस बाई से छुटकारा हो गया!
मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी के साथ जा रहा था। एक सुंदर स्त्री पास से गुजरी। खटक गई; आंख में अटक गई। पत्नी तो ऐसी चीजें एकदम से पहचान लेती हैं।
पत्नी ने फौरन मुल्ला से कहा कि ऐसी सुंदर स्त्री को देखकर तुम्हें जरूर भूल ही जाता होगा कि तुम विवाहित हो!
मुल्ला ने कहा कि नहीं; नहीं फजूल की मां! ऐसी स्त्रियों को देखकर ही मुझे याद आता है कि अरे, मैं विवाहित हूं! हाय राम, मैं विवाहित हूं! ऐसी स्त्रियों को देखकर ही याद आता है।
कल का भरोसा रखो। अगर बीते कल में धोखा खा गए थे, तो आने वाले कल में भी धोखा फिर खाओगे। ऐसी क्या जल्दी पड़ी है!

और पूछते हो, जीवन में कोई रस नहीं रहा। अब मैं क्या करूं?
अगर इस तरह ही रस आता हो, तो फिर कोई तलाश कर लो। युवतियों की कोई कमी है! पृथ्वी भरी पड़ी है। लेकिन अगर कुछ समझ की बात करनी हो, तो थोड़ा सोचो।
तुमने बच्चों की कहानियां पढ़ी होंगी। बच्चों की कहानियों में यूं कहानियां आती हैं कि कोई राजा है उसके प्राण उसने तोते में रख दिए। इससे उसको कोई मार नहीं सकता। जब तक तोते को न मारे, राजा को नहीं मार सकता। राजा को कितना ही मारो, मरता ही नहीं। उसने प्राण अपने तोते में छिपा रखे हैं। जब तोते को पकड़ कर मार डालोगे, तो राजा मर जाएगा।
ये कहानियां बड़ी ठीक हैं। अब यह तो यूं हुआ कि तुमने अपने प्राण उस लड़की में रख दिए। इतने जल्दी गिरवी रख दिए! हर किसी के हाथ में दे देते हो प्राण!
जीवन का रस ही चला गया। ज्यादा कुछ रहा नहीं होगा रस। भ्रांति में हो तुम कि रस था। ऐसे कहीं रस जाता है? रस को तुम जानते ही नहीं कि रस क्या है। जिन्होंने जाना है, उन्होंने कहा है--रसो वै सः। उन्होंने तो परमात्मा की परिभाषा को है कि वह रस है। उन्होंने तो सिर्फ परमात्मा को ही रस माना है; और किसी चीज का कोई रस नहीं है।
मिल जाती स्त्री, तो भी रस खो जाता। और स्त्री गले से बंध जाती--सो अलग! फिर उससे छूटना मुश्किल हो जाता। जरा तुम उससे भी तो पूछो, जिसके गले बंध गई है! उसकी क्या हालत है! उसका भी तो बेचारे का दुख-दर्द जानो। उसका दुख-दर्द जान कर तुमको बड़ी सांत्वना मिलेगी, बड़ा आश्वासन मिलेगा।
एक पागलखाने में एक राजनेता देखने गया था पागलखाने को। एक आदमी अपने बाल लोंच रहा था। छाती पीट रहा था। और हाथ में एक तस्वीर लिए था। आंखों से आंसू बह रहे थे--झर-झर! छाती से लगाता था तस्वीर को। सींखचों में बंद था। पूछा उसने सुपरिंटेंडेंट को, इस आदमी को क्या हो गया! यह क्या कर रहा है? यह तस्वीर किसकी है?
उसने कहा, यह तस्वीर एक स्त्री की है, जिसको यह पाना चाहता था और नहीं पा सका। जब से नहीं पाया, पागल हो गया है। (रहा होगा नगेंद्र जैसा!) बस, अब तब से यह बस बाल लोंचता है। रोता है। छाती से फोटो लगाता है। चीख-पुकार मचाता है। इसको पागलखाने में रखना पड़ा है। इसके घर के लोग परेशान हो गए। इसने सब का चैन हराम कर दिया है।
राजनेता ने कहा, बेचारा!
आगे बढ़े। दूसरे कटघरे में एक आदमी सींखचों को पकड़-पकड़ कर हिला रहा था। सींखचों से सिर मार रहा था। लहूलुहान हो रहा था उसका सिर। पूछा, इसको क्या हो गया? इस बेचारे को क्या हो गया?
उस सुपरिंटेंडेंट ने कहा कि अब आप न पूछो, तो अच्छा। इसने उस लड़की से शादी कर ली, जिस लड़की की याद में पहला मरा जा रहा है। जब से इसने शादी की है, तब से इसकी यह हालत हो गई! तब से यह सींखचों से सिर मारता है! दीवालों से सिर फोड़ता है। यह आत्महत्या करने को उतारू है। यह आत्महत्या न कर ले, इसलिए इसको पागलखाने में रखना पड़ा है।
किसको बेचारा कहोगे? वह, जिसको नहीं मिली स्त्री--वह। या जिसको मिल गई--वह? किसके जीवन में रस है?
तुम जरा उनको तो देखो, जिसको उनकी प्रेयसियां मिल गई हैं; उनके प्रेमी मिल गए हैं। उन पर तो जरा नजर डालो। वहां कहां रस है? ऊबे बैठे हैं। जब भी तुम किसी जोड़े को उदास देखो, समझना--विवाहित हैं। जब भी तुम किसी स्त्री-पुरुष को लड़ते देखो, समझो विवाहित हैं। एक-दूसरे की गर्दन को दबाते देखो--समझो कि विवाहित हैं!
जरा देखो तो चारों तरफ आंख खोल कर। तुम मुझसे कुछ रहे हो, अब मैं जी तो रहा हूं, किंतु जीने का कोई रस न रहा। इतने जल्दी गंवा दोगे जीवन का रस! जीवन कुछ और बड़े काम के लिए है। जीवन कुछ और विराट आकाश को पाने के लिए है। अभी और भी मंजिलें हैं। अभी और भी आसमान हैं।

ओशो

मुल्ला नसरुद्दीन और उसका जुड़वां भाई, दोनों का जन्मदिन था। तो दोनों ने सोचा, जायें किसी होटल में, खायें, पीयें, मौज करें।...
05/06/2023

मुल्ला नसरुद्दीन और उसका जुड़वां भाई, दोनों का जन्मदिन था। तो दोनों ने सोचा, जायें किसी होटल में, खायें, पीयें, मौज करें। दोनों ने एक से कपड़े पहने, एक सी टाई लगाई, एक से रंग का कोट, एक सा जूता, एक सा रूमाल खोंसा, दोनों पहुंचे। मिठाई खाई, भोजन किया, शराबघर में पहुंचे। एक से ग्लासों में एक सी शराब बुलाई। एक शराबी सामने बैठा आंखें मीड़-मीड़ कर उनको देखने लगा। कई बार आंखें मीड़ के देखा, तो नसरुद्दीन हंसा। उसने कहा, ‘परेशान न होओ। नशे के कारण तुम्हें गलत दिखाई पड़ रहा है, ऐसा मत सोचो। या एक का दो दिखाई पड़ रहा है, ऐसा भी मत सोचो। हम दो जुड़वां भाई हैं।’ उस शराबी ने फिर से आंख मीड़ी और कहा कि ‘तुम चारों!’ उसको चार दिखाई पड़ रहे हैं।

तुम्हारी आंख में अगर मोह है, तुम जहां भी देखोगे वहीं संसार है। संसार नहीं है सवाल, मोह सवाल है। तुम परमात्मा को भी देखोगे, वहां भी संसार दिखाई पड़ेगा। तुम्हारी आंख से मोह खो जाये, तुम जहां भी देखोगे, पाओगे परमात्मा है। असली सवाल बाहर क्या है? यह नहीं है। असली सवाल: कौन है भीतर? किस रास्ते जाते हो, व्यर्थ; हिंदू, कि मुसलमान, कि ईसाई, कि बौद्ध, कि जैन--सब व्यर्थ। रास्ता सवाल नहीं है, यात्री सवाल है।
तुम हो असली सवाल। और तुम्हारी दो स्थितियां हैं। एक तो स्थिति है कि प्रकाश बाहर जाता हुआ--भीतर अंधेरा; और दूसरी स्थिति है, प्रकाश भीतर आता हुआ और भीतर कोई अंधेरा नहीं। जिस दिन तुम भीतर प्रकाश से भर जाते हो, उस दिन तुम जहां भी जाओगे वहीं प्रकाश है। उस दिन तुम जहां भी जाओगे वहीं परमात्मा है। उस दिन तुम जहां देखोगे वहीं ब्रह्म। उस दिन तुम जहां झांकोगे वहीं उसे पाओगे।

जीसस ने कहा है, ‘तोड़ो लकड़ी को और पाओगे तुम मुझे। उठाओ पत्थर को, मैं ही छिपा हूं।’ लेकिन यह किसके लिए कहा है? तुम लकड़ी तोड़ोगे, ईश्वर को पाओगे? कुछ भी न पाओगे। लकड़ी और टूट गई। पत्थर उठाओगे, ईश्वर को दबा हुआ पाओगे? असंभव।
तुम जहां भी जाओगे, जो तुम्हारी दशा है उसी की प्रतिध्वनि पाओगे। संसार दर्पण है। तुम अपने को ही देखोगे और कुछ देखने का उपाय नहीं। और दर्पण को तोड़ने में मत लग जाना। उससे कोई फर्क न पड़ेगा।

मैंने सुना है, एक कुरूप स्त्री थी। वह जहां भी दर्पण देखती, तोड़ देती। लोग उससे पूछते कि ऐसा तू क्यों करती है? तो वह कहती, ‘क्योंकि दर्पण के कारण मैं कुरूप हो जाती हूं।’
दर्पण किसी को कुरूप नहीं करते। दर्पण तो वही झलका देते हैं, जो तुम हो। तुम्हारे सब संबंध--पत्नी, पति, बेटे, पिता, मां, मित्र, शत्रु, समाज, संसार, तुम्हीं को झलकाता है। सभी दर्पण हैं। जहां-जहां तुम देखते हो कुरूपता, वहीं से तुम भागते हो, दर्पण तोड़ते हो। दर्पण तोड़ने से क्या होगा? अपने को बदलो। लेकिन अपने को बदलने का स्मरण ही तब आता है, जब रोशनी भीतर की तरफ जानी शुरू हो जाती है।

दो यात्रायें हैं प्रकाश की; या बाहर की तरफ, या भीतर की तरफ। और जो गहनतम घटना घटती है, वह यह है, कि जैसे ही प्रकाश भीतर आना शुरू होता है, जैसे ही तुम आंख बंद करते हो और ध्यान भीतर आता है...।
कब आयेगा ध्यान भीतर? जब बाहर कोई वासना न हो। वासना ध्यान को आकर्षित करती है। वह ध्यान का ऑबजेक्ट है, विषय-वस्तु बन जाती है। उपवास करो, भोजन पर ध्यान जायेगा। कभी नहीं जाता था भोजन पर। उपवास के दिन भोजन पर जायेगा। मंदिर में बैठो, ध्यान दूकान पर जायेगा। क्यों ऐसा होता है? जिस चीज की भी मन में वासना है, चाह है, जब तुम उसे छोड़ते हो, तो वह सारी प्रगाढ़ता से ध्यान को आकर्षित करती है। आंख बंद करते हो, भीतर ध्यान क्यों नहीं जाता? क्योंकि अभी बाहर चाह कायम है। निर्वासना हुए बिना ध्यान न होगा।

क्या करोगे? साधु-संत समझाते हैं, वासना छोड़ो। काश, इतना आसान होता! यह ऐसे ही है, जैसे किसी को बुखार चढ़ा है, तुम बड़े ज्ञानी हो, उसको कहो, ‘बुखार छोड़ो!’ औषधि बताओ कुछ! यह तो वह भी चाहता है कि बुखार छोड़ दे। लेकिन छोड़े कैसे? तुम कितना ही कहो कि तुम्हीं बुखार को पकड़े हुए हो, बुखार तुम्हें नहीं पकड़े हुए है। फिर भी वह कहेगा कि मैं क्या करूं? कैसे छोड़ दूं? बुखार है, औषधि चाहिए।
क्या है औषधि? इस संसार से चाह टूट जाये। एक ही औषधि मैं अनुभव कर पाता हूं। और वह यह है, कि तुम बहुत सजगता से संसार को भोगो। बेहोशी में भोगोगे, यह संसार कभी भी तुमसे छूटेगा न। तुम सजगता से भोगो। जहां-जहां संसार कहे यहां रस है, वहां-वहां जाओ, वहां-वहां पूरा ध्यान लगा दो।

भूल जाओ परमात्मा को, भूल जाओ आत्मा को, भूल जाओ सदगुरुओं को, शास्त्रों को। पूरा ध्यान वहां लगा दो और पूरे ध्यान से भोग लो।

ओशो

शिव का अर्थ है-शुभ। अच्छा। लेकिन शिव के व्यक्तित्व में, जिसे हम बुरा कहें वह सब भी मौजूद है। जिसे हम बुरा कहें, वह सब मौ...
11/03/2023

शिव का अर्थ है-शुभ। अच्छा। लेकिन शिव के व्यक्तित्व में, जिसे हम बुरा कहें वह सब भी मौजूद है। जिसे हम बुरा कहें, वह सब मौजूद है। शिव का अर्थ ही है शुभ, लेकिन शिव को हमने विध्वंस का देवता माना है। विनाश का। उसी से अंत होगा जगत का। हैरानी की बात मालूम पड़ती है कि जो शुभ है, शिव है, वह विध्वंस का देवता होगा। लेकिन बडी कीमती बात है।

हम कभी यह मान ही न पाए कि इस जगत का अंत अशुभ से हो। इस जगत का अंत उस पूर्णता में हो जहां शुभ का सारा फूल खिल जाए। अंत जो हो, वह अंतहीन हो, पूर्णता भी हो। अंत जो हो, वह सिर्फ मृत्यु हीन हो बल्कि महाजीवन का अतिंम शिखर भी हो।

और हमारी शुभ की जो धारणा है, वह भी बडी अद्भुत है। दुनिया में जहां भी शुभ की धारणा की गयी है, वह अशुभ के विपरीत है। इसलिए भारत को छोड़कर सारे जगत में सभी धर्मों ने, जो भारत के बाहर पैदा हुए, दो ईश्वर मानने की मजबूरी प्रगट की है। दो ईश्वर से मेरा मतलब है, एक को वे ईश्वर कहते है, एक को वे शैतान कहते हैं। बुराई का भी एक ईश्वर है। उसको अलग करना पड़ा है। भलाई का एक ईश्वर है, उसको अलग करना पड़ा है। और जब मैं कहता हूं कि दो ईश्वर, तो कई कारणों से कहता हूं। अंग्रेजी में शब्द है, 'डेविल'। वह संस्कृत के देव शब्द से ही बना है। वह भी देवता है। बुराई का देवता है। बुराई का देवता अलग निर्मित करना पड़ा है। क्योंकि भारत के बाहर कोई भी मनीषा इतनी हिम्मत की नही हो सकी कि बुराई और भलाई को एक ही व्यक्तित्व में निहित कर दें। यह बड़ा साहस का काम है। सोच ही नही पाते हैं। हम भी नहीं सोच पाते है। जब हम कहते है फलां आदमी महात्मा है, तो फिर हम सोच ही नहीं पाते है कि उसमें कुछ भी. जैसे क्रोध महात्मा कर सके, यह हम सोच ही नहीं सकते। लेकिन शिव क्रोध कर सकते हैं। और साधारण क्रोध नहीं, कि भस्म कर दें! और हिंदू-मन कहता है कि शिव से दयालु कोई भी नहीं है, बहुत भोले हैं। जरा-भी कोई मनाले, तो किसी भी बात के लिए राज़ी हो जाते है। ऐसा वरदान भी आदमी माग सकता है कि खुद ही झंझट में पड़े। तोयह आदमी अनूठा मालूम होता है। यह प्रतीक अनूठा मालूम होता है।

बुराई और भलाई को हमने कभी भी दो विपरीत चीजे नहीं माना है। क्योंकि विपरीत मानकर ही जगत दो खंड में बंट जाता है और द्वैत शुरू हो जाता है। और फिर अगर विपरीत है भलाई और बुराई, तो फिर भलाई की जीत शुनिश्रत नहीं है। बुराई भी जीत सकती है। अगर बुराई और भलाई के बीच संघर्ष है, तो फिर भलाई की जीत सुनिश्रित नहीं है। फिर कौन तय करेगा कि अंत में ईश्वर ही जीतेगा और शैतान नहीं जीत जाएगा? जहां तक रोज का सवाल है, शैतान जीतता हुआ दिखायी पड़ता है। क्या पका है कि अंततः भी शैतान नहीं जीतेगा? अगर दो शक्तियां हैं इस जगत में, तो आज तक का जो अनंत इतिहासहै आदमी का, उसमें कोई भी ऐसा क्षण नहीं मालूम पड़ता जब बुराई न रही हो। बुराई और भलाई सदा ही सघर्षरत रही है।

तो अंनत इतिहास कहता है कि वे दोनो सदा ही लड़ती रही है। या तो ऐसा मालूम पड़ता है कि वे समान शक्तिशाली हैं। इसलिए कोई अतिंम जीत तय नहीं हो पाती है। कभी कोई जीतता लगता है, कभी कोई जीतता लगता है। फिर भी अगर गौर से हम देखें तो निव्यानबे मौके पर बुराई जीतती लगती है। एक मौके पर भलाई जीतती लगती है। तो ऐसा डर लगता है कि कहीं बुराई ज्यादा मजबूत तो नहीं है। जैसे ही हम बुराई और भलाई को बांट दें, खतरा शुरू हो जाता है। और इसमें फिर कोई अंत नहीं हो सकता। कोई अंत नहीं हो सकता कि कौन जीतेगा? और अगर यह निश्रित ही न हो कि अंततः शुभ जीतता है, तो शुभ की सारी चेष्टा व्यर्थ हो जाती है। लेकिन भारत और ढंग से सोचता है। भारत बुराई को भलाई के विपरीत नहीं मानता। भारत बुराई को भलाई में आत्मसात कर लेता है। इसे हम ऐसा समझें, भारत क्रोध को अनिवार्य रूप से बुरा नहीं कहता। भारत कहता है किं क्रोध अगर शुभ के लिए हो तो शुभ हो जाता है। क्रोध अगर शुभ के लिए हो तो शुभ हो जाता है।

ओशो

मैंने एक छोटी सी कहानी सुनी है। आपने भी सुनी होगी, लेकिन आधी सुनी होगी, क्योंकि कुछ बेईमान लोग सब अच्छे सत्यों को आधा कर...
08/02/2023

मैंने एक छोटी सी कहानी सुनी है। आपने भी सुनी होगी, लेकिन आधी सुनी होगी, क्योंकि कुछ बेईमान लोग सब अच्छे सत्यों को आधा करके बांट-बांट कर बता रहे हैं! और आधा सत्य जो है वह असत्य से भी खतरनाक होता है। असत्य तो दिखाई पड़ता है कि असत्य है; आधे सत्य में भ्रम होता है कि सत्य है। और आधा सत्य जैसा कोई सत्य हो ही नहीं सकता। सत्य या तो होता है तो पूरा या नहीं होता।
एक आधी कहानी आपने भी सुनी होगी, स्कूल में पढ़ी होगी, बचपन से ही पढ़ाते हैं। एक सौदागर है। टोपियां बेचता है। वह टोपियां बेचने गया है एक मेले में। एक वृक्ष के नीचे रुका है; थक गया है, सो गया है। बंदर उतरे, उसकी टोपियां लगा कर ऊपर चढ़ गए। सौदागर की आंख खुली, वह हंसा। उसने सोचा कि अच्छा, बंदर बहुत अकड़ रहे हैं टोपियां लगा कर! बंदर हमेशा टोपियां लगा कर अकड़ते हैं। और टोपियां अगर खादी की हों, तब तो फिर कहना ही क्या! फिर तो अकड़ बहुत बढ़ जाती है। एक तो बंदर, और फिर खादी की टोपी! फिर बहुत मुश्किल हो जाती है। लेकिन सौदागर ने कहा कि बंदर ही तो ठहरे, इनसे टोपी छीनने में कोई कठिनाई है? उसने अपनी टोपी निकाल कर फेंक दी। बंदरों ने भी अपनी टोपियां निकाल कर फेंक दीं। सौदागर ने टोपियां इकट्ठी कीं और घर चला गया। इतनी कहानी सुनी होगी। यह आधी कहानी है।
सौदागर का बेटा बड़ा हुआ और सौदागर के बेटे ने भी टोपियां बेचनी शुरू कीं। क्योंकि जो बाप करता है, वही बेटे को करना चाहिए, ऐसा नियम है। और जब बाप ने टोपियां बेचीं, तो बेटा भी टोपी बेचेगा। बेटा भी उसी झाड़ के नीचे रुका जब मेले में बेचने गया, जहां बाप रुका था। क्योंकि नियम यह है: बाप जहां रुके, वहीं बेटे को रुकना चाहिए। उसी जगह उसने टोपियों की टोकरी रखी, जहां बाप ने रखी थी। ऊपर बंदर थे; वही बंदर तो नहीं थे, उनके बेटे थे, वे बैठे थे। सौदागर का बेटा सो गया। बंदर उतरे और टोपियां लगा कर ऊपर चढ़ गए।
बंदर हमेशा तलाश में रहते हैं कि कहीं टोपी मिल जाए, तो लगाएं और चढ़ जाएं। बंदर इसी तलाश में रहते हैं कि कहीं टोपी भर मिल जाए, और लगा लें और चढ़ जाएं और बैठ जाएं ऊपर वृक्ष के। वह वृक्ष चाहे दिल्ली का हो और चाहे अहमदाबाद का हो, इससे कोई फर्क नहीं। छोटे वृक्ष हैं, बड़े वृक्ष हैं, कई तरह के वृक्ष हैं। अहमदाबाद के वृक्ष हैं, दिल्ली के वृक्ष हैं। मगर टोपी मिल जाए तो कोई चढ़ जाए। वे बंदर चढ़ गए टोपी लगा कर।
सौदागर का बेटा उठा, उसने कहा, अरे! पर उसे खयाल आया कि बाप ने कहानी बताई थी। और बाप ने कहा था, टोपी फेंक देना। उसने कहा, ठीक है बंदरो, तुम मत समझो; हमको पता है रास्ता तुमसे टोपी छीनने का। उसने टोपी निकाल कर फेंक दी। लेकिन एक चमत्कार हुआ, कोई बंदर ने टोपी न फेंकी, एक बंदर पर टोपी नहीं थी, वह भी उतरा और नीचे की टोपी ले गया।
यह कहानी पूरी हुई। वह टोपी भी जो थी सौदागर के बेटे की, वह भी बंदर ले गया। बंदर अब तक सीख चुके थे, लेकिन वह सौदागर का बेटा अब तक नहीं सीखा। बंदर सीख गए थे, पुरानी तरकीब समझ गए थे। और उन्होंने कहा, अब धोखा नहीं दे सकते! लेकिन सौदागर का बेटा सोच रहा था, पुराना समाधान काम आ जाएगा।
बंदरों के साथ भी पुराना समाधान काम नहीं आ सकता है, तो जिंदगी के साथ तो कैसे आएगा? जिंदगी रोज बदल जाती है। वही जिंदगी नहीं है जो कल थी, वही जिंदगी नहीं है जो परसों थी, जिंदगी रोज बदल जाती है। जो हम आज तय करेंगे, वह कल बेमानी हो जाएगा।
इसलिए सवाल यह नहीं है कि समाधान चाहिए। सवाल यह है कि समाधान करने वाला चित्त चाहिए। बंधे हुए समाधान का सवाल नहीं है। एक ऐसा चित्त चाहिए मुल्क के पास कि उसके सामने कैसी भी समस्या हो, वह उसको एनकाउंटर कर सके, मुकाबला कर सके और समाधान खोज सके।
हमारी क्या आदत है? हम कहते हैं, समाधान रेडीमेड तैयार रखो। और रेडीमेड समाधान जो आदमी सीख जाता है, उसको हम ज्ञानी कहते हैं।
उससे ज्यादा अज्ञानी खोजना मुश्किल है, जिसके पास रेडीमेड समाधान हो। जो कहता है कि ऐसा हुआ था, तो फौरन उठा कर देखो कि गांधी जी ने इसके उत्तर में क्या किया था, बस वही हम करेंगे! गांधी जी ने जो किया, वह उनका, समस्या के सामने उनका मुकाबला था। कृष्ण ने क्या किया, उठा कर देखो जल्दी से गीता में, हम भी वही करेंगे! कृष्ण ने जो किया, वह उनकी समस्या का मुकाबला था। लेकिन तुम्हारी समस्या का मुकाबला तुम करो। और जो कौम गुरुओं से बंध जाती है, वादों से बंध जाती है, सिद्धांतों से बंध जाती है, शास्त्रों से बंध जाती है, उसकी जिद यह होती है कि हम न सोचेंगे। सोचने का काम तो कोई और कर चुके हैं। हम तो बस रेडीमेड हमारे पास जवाब तैयार हैं, हम उन्हीं को दोहरा देंगे और उन्हीं से हल कर लेंगे।

हम सिर्फ बंधी-बंधाई लीकों को दोहरा रहे हैं। हम एकदम उधार कौम हैं, जिसके पास अपना कोई दिमाग ही नहीं। चाहे उधारी पीछे से आती हो, और चाहे अमेरिका से आए, चाहे रूस से आए, चाहे चीन से आए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारा दिमाग उधार है।
हमारा दिमाग उधार है, हिंदुस्तान का कम्युनिस्ट तक भी उधार दिमाग का होता है! वह भी खोजेगा फौरन माक्र्स की किताब खोल कर! वह जैसा कृष्ण की किताब का खोलने वाला है, गांधी की किताब खोलने वाला है, वैसा ही वह माक्र्स की किताब खोलने वाला है। लेकिन वह जो दिमाग है, वह दिमाग यह है कि कहीं समाधान तैयार है, हम उसे निकाल लें। लेकिन हम समाधान को पैदा करें, हम समस्या से जूझें, हम समस्या को जीएं और पहचानें और खोजें कि क्या समाधान हो सकता है--वह हमारी दृष्टि नहीं रह गई है, वह हमारे मन का ढांचा नहीं रह गया है।
इसलिए देश कोई भी हल नहीं कर पाता। उलझनें नई होती चली जाती हैं, सुलझाव पुराने। एक तरफ सुलझाव इकट्ठे होते हैं, एक तरफ उलझनें इकट्ठी होती हैं और हम बेचैन होते चले जाते हैं। कुछ भी हल नहीं होता। कुछ भी हल होने की क्षमता ही हमने खो दी है, ऐसा मालूम पड़ता है।

ओशो

एकनाथ के जीवन में ऐसा उल्लेख है। एक युवक एकनाथ के पास आता था। जब भी आता था तो वह बड़ी ऊंची ज्ञान की बातें करता था। एकनाथ ...
11/01/2023

एकनाथ के जीवन में ऐसा उल्लेख है। एक युवक एकनाथ के पास आता था। जब भी आता था तो वह बड़ी ऊंची ज्ञान की बातें करता था। एकनाथ को दिखाई पड़ता था, वे ज्ञान की बातें सिर्फ अज्ञान को छिपाने के लिए हैं। एक दिन उसने एकनाथ को पूछा सुबह – सुबह कि एक संदेह मेरे मन में सदा आपके प्रति उठता है। आपका जीवन ऐसा ज्योतिर्मय, ऐसा निष्कलुष, ऐसी कमल की पंखडियों जैसा निर्दोष क्वांरा, लेकिन कभी तो आपके जीवन में भी पाप उठे होंगे? कभी तो अंधेरे ने भी आपको घेरा होगा? कभी आपकी जिंदगी में भी कल्मष घटा होगा? आज यही सवाल लेकर आया हूं, ओर चूंकि और कोई मौजूद नहीं है, आज आपको अकेला ही मिल गया हूं, इसलिए निस्संकोच पूछता हूं कि आपके मन में पाप उठता है कभी या नहीं?

एकनाथ ने कहा; यह तो मैं पीछे बताऊं; इससे भी ज्यादा जरूरी बात पहले बतानी है कि कहीं मैं भूल न जाऊं, बातचीत में कहीं अटक न जाऊं! कल अचानक जब तू जा रहा था तेरे हाथ पर मेरी नजर पड़ी तो मैं दंग रह गया; तेरे उम्र की रेखा समाप्त हो गयी है। सात दिन और जिएगा तू। बस, सातवें दिन सूरज के डूबने के साथ तेरा डूब जाना है। अब तू पूछ क्या पूछता था। वह युवक तो उठकर खड़ा हो गया। अब कोई पूछने की बात, अब कोई समस्या समाधान, अब कोई जिज्ञासा, अब कोई दार्शनिक मीमांसा…वह तो उठकर खड़ा हो गया, उसने कहा: मुझे कुछ नहीं पूछना है। मुझे घर जाने दो।

वह जवान आदमी एकदम जैसे बूढ़ा हो गया। अभी आया था मंदिर की सीढ़ियां चढ़कर तो उसके पैरों में बल था, लौटा तो दीवाल का सहारा लेकर उतर रहा था, पैर उसके कंप रहे थे। घर जाकर घर के लोगों को कहा; रोना – धोना शुरू हो गया। पास – पड़ोस के के लोग इकट्ठे हो गये। उस दिन तो घर में फिर चूल्हा ही न जला, पास – पड़ोस के लोगों ने लाकर भोजन करवाया। उसने तो भोजन ही नहीं किया; अब क्या भोजन! वह तो बोला ही नहीं, वह तो आंख बंद करके बिस्तर पर पड़ा रहा। सात दिन में उसकी हालत मरणासन्न जैसी हो गयी। बार—बार सातवें दिन पूछता था – सूरज के डूबने में और कितनी देर है ?

और सूरज डूबने के ठीक पहले एकनाथ ने द्वार पर दस्तक दी। एकनाथ भीतर आये। एकनाथ उसके पास गये। वह तो आंख बंद किये पड़ा था। हाथ से उसकी आंखें खोलीं और कहा कि एक बात तुझे बताने आया हूं। यह तू क्या कर रहा है, ऐसा क्यों पड़ा है?

उसने कहा: और क्या करूँ ? सूरज डूबने में कितनी देर है ? ये सात दिन मैंने इतना नर्क भोगा है जितना कभी नहीं। अब तो ऐसा लगता है मर ही जाऊं तो झंझट कटे।

एकनाथ ने कहा कि मैं तुझे तेरे प्रश्न का उत्तर देने आया हूं। वह तूने मुझसे पूछा था न कि आपके मन में पाप कभी उठता है। मैं पूछने आया हूं तुझसे कि सात दिन में तेरे मन में कोई पाप उठा?

उस आदमी ने कहा: कहां की बातें कर रहे हो! कैसा पाप, कैसा पुण्य ? सात दिन तो कोई विचार ही नहीं उठा, बस एक ही विचार ही था – मौत, मौत, मौत।

एकनाथ ने कहा: तो उठ, अभी तुझे मरना नहीं है। तेरी हाथ की रेखा अभी काफी लंबी है। यह तो मैंने सिर्फ तेरे प्रश्न का उत्तर दिया था। ऐसे ही जिस दिन से मुझे मौत दिखाई पड़ गयी है, पाप नहीं उठा। जिसको मौत दिखाई पड़ जाती है पाप नहीं उठता।

ओशो

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