08/05/2025
सीमा पर नहीं, पूँजीवाद के खिलाफ़ लड़ाई लड़ने की जरूरत है।
इन दिनों टीवी और सोशल मीडिया पर जो कुछ भी चल रहा है, वो किसी थ्रिलर शो या वीडियो गेम से कम नहीं लगता।
हर तरफ़ बम, मिसाइल, ‘ब्लैकआउट ड्रिल’ की गूँज है।
लेकिन हमें समझना होगा कि यह कोई वीडियो गेम नहीं। यह असली ज़िंदगी है, और अगर युद्ध हुआ—तो मरेगा हमारा पड़ोसी, हमारा दोस्त, मेहनतकश का बेटा… और मुनाफ़ा कमाएगा कोई और, वोटों की फसल काटेगा कोई और।
जब दोनों देशों—भारत और पाकिस्तान—में बेरोज़गारी सिर पर चढ़कर बोल रही हो, जब शिक्षा और स्वास्थ्य के बजट साल दर साल काटे जा रहे हों, जब किसान कर्ज़ से परेशान होकर आत्महत्या कर रहे हों, तब हम देख रहे हैं कि कैसे हुक्मरान युद्ध की तरफ़ क़दम बढ़ा रहे हैं।
लेकिन क्यों?
युद्ध के शुरुआत का बहाना कुछ भी हो, लेकिन इतिहास गवाह है कि युद्ध के शोर में जनता के जिंदगी के असल सवालों की आवाज़ दब जाती है।
ऐसे वक्त में हमें याद आता है रूसी क्रान्ति के नेता कॉमरेड लेनिन का वो ऐतिहासिक बयान, जो उन्होंने पहली विश्वयुद्ध के समय कहा था:
“यह युद्ध हमारा नहीं है, यह पूंजीपतियों का युद्ध है—मुनाफ़े के लिए।
मज़दूर, मज़दूर का खून क्यों बहाए?
असली दुश्मन सीमा पार नहीं, संसद और फैक्टरी के अंदर है।”
वो बात आज भी उतनी ही सटीक बैठती है—चाहे भारत-पाकिस्तान हो, या यूक्रेन-रूस युद्ध।
हर युद्ध की क़ीमत जनता चुकाती है, युद्ध में विध्वंस करने के लिये इस्तेमाल होने वाली युद्ध सामग्री-हथियारों से होने वाला मुनाफ़ा पूंजीपतियों की जेब में जाता है, वोट नेताओं की झोली में।
जब युद्ध होता है, तो—
• लड़ते हैं बेरोज़गार नौजवान
• लड़ते हैं किसानों के बेटे
• मरते हैं मिसाइलों-बमों की जद में आये आम लोग
और जो नहीं लड़ते, न मरते—
• जो न्यूज़ चैनलों पर बैठकर ‘देशभक्ति’ की बाढ़ लाते हैं
• वो नेता जो युद्धोन्माद फैलाते हैं
• जिनके बच्चे विदेशों में पढ़ रहे हैं
• जो हर टैंक और मिसाइल सौदे से करोड़ों कमाते हैं
असली दुश्मन कौन है?
क्या पाकिस्तान की अवाम हमारी दुश्मन है?
क्या उनके मज़दूर, किसान, छात्र हमसे अलग हैं?
नहीं!
उनका भी वही हाल है जो हमारा है—महंगाई, बेरोज़गारी, धर्म के नाम पर झगड़े, और नेताओं की लूट।
तो फिर सवाल उठता है—हमें युद्ध नहीं, एक साझा दुश्मन के खिलाफ़ लड़ाई चाहिए:
ब्राह्मणवाद-पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के खिलाफ़।
अगर मानवता को युद्धों से मुक्त करना है तो हमें युद्ध को पैदा करने वाली पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था को खत्म करना होगा।ये व्यवस्था केवल संकट, लालच और युद्ध पैदा करती है।
जबकि समाजवाद—शांति और न्याय का एक क्रांतिकारी रास्ता दिखाता है।
समाजवाद कोई डरपोक शांति की बात नहीं करता है, बल्कि न्याय और बराबरी पर टिकी एक भविष्योन्मुखी व्यवस्था है।
एक ऐसी व्यवस्था—
• जहां मज़दूर हथियार नहीं, औज़ार उठाता है;
• छात्र बमों से नहीं, किताबों से भविष्य गढ़ते हैं;
• किसान बंकर में नहीं, खेत में फसल लहलहाते हैं;
• सैनिक सीमा की चौकी नहीं, समाज निर्माण की पहली कतार में होते हैं।
जहां सरकारें युद्ध के नकली खतरे नहीं गढ़तीं, बल्कि जनता के साथ मिलकर एक ऐसी दुनिया बनाने में लगी होती हैं—
जिसमें न भूख हो, न बेरोज़गारी;
न जात-पात न साम्प्रदायिकता का ज़हर हो, न मुनाफ़े की होड़;
न हिंसा की राजनीति हो, न संस्कृति का बाज़ारीकरण।
समाजवाद हमें सिर्फ़ युद्ध से नहीं बचाता, बल्कि युद्ध को जन्म देने वाली हर बीमारी—पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, नस्लवाद, ब्राह्मणवाद, सांप्रदायिकता—का इलाज करता है।
यह वही व्यवस्था है जहां हर हाथ को काम, हर बच्चे को किताब, हर नागरिक को इज़्ज़त और हर इंसान को इंसानियत मिलती है।
और इसी रास्ते पर चलकर ही हम वो दुनिया बना सकते हैं—
जहां ‘युद्ध नहीं, इंसाफ़’ महज़ नारा नहीं, हकीकत हो।