16/07/2025
🙏 काशी बनारस के रहस्य 🙏
क्यों है काशी ‘अविमुक्त क्षेत्र’.
काशी में निराकर महेश्वर ही यहाँ भोलानाथ श्री विश्वनाथ के रूप में साक्षात अवस्थित हैं। इस काशी क्षेत्र में स्थित 1. श्री दशाश्वमेध 2. श्री लोलार्क 3. श्री बिन्दुमाधव 4. श्री केशव और
5. श्री मणिकर्णिक l ये हैं, जिनके कारण इसे‘अविमुक्त क्षेत्र’ कहा जाता है।काशी के उत्तर मेंओंकारखण्ड दक्षिण में केदारखण्ड और मध्य में विश्वेश्वरखण्ड में ही बाबा विश्वनाथ प्रसिद्ध है। ऐसा सुना जाता है कि मन्दिर की पुन स्थापना आदि जगत गुरु शंकरचार्य जी ने अपने हाथों से की थी।
श्री काशी में अनेक विशिष्ट तीर्थ हैं, जिनके विषय मे कहा गया है कि ‘विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग बिन्दुमाधव ढुण्ढिराज गणेश, दण्डपाणि कालभैरव, गुहा गंगा (उत्तरवाहिनी गंगा), माता अन्नपूर्णा तथा मणिकर्णिक आदि मुख्य तीर्थ हैं। काशी क्षेत्र में मरने वाले किसी भी प्राणी को निश्चित ही मुक्ति प्राप्त होती है। जब कोई मर रहा होता है, उस समय भगवान.श्री विश्वनाथ उसके कानों में तारक मन्त्र का उपदेश करते हैं, जिससे वह आवगमन के चक्कर से छूट जाता है, अर्थात इस संसार से.मुक्त हो जाता है।
काशी उत्पत्ति के विषय में अगस्त्य जी ने श्रीस्कन्द (कुमार कार्तिकेय) से पूछा था,
जिसका उत्तर देते हुए श्री स्कन्द ने उन्हें बताया कि इस प्रश्न का उत्तर हमारे पिता महादेव जी ने माता पार्वती जी को दिया था। उन्होंने कहा था कि ‘महाप्रलय के समय जगत के सम्पूर्ण प्राणी नष्ट हो चुके थे सर्वत्र घोर अन्धकार छाया हुआ था। उस समय 'सत्' स्वरूप ब्रह्म के अतिरिक्त सूर्य, नक्षत्र, ग्रह,तारे आदि कुछ भी नहीं थे। केवल एक ब्रह्म का अस्तित्त्व था, जिसे शास्त्रों में ‘एकमेवाद्वितीयम्’ कहा गया है।
ब्रह्म’ का ना तो कोई नाम है और न रूप, इसलिए वह मन, वाणी आदि इन्द्रियों का विषय नहीं बनता है। वह तो सत्य है, ज्ञानमय है, अनन्त है, आनन्दस्वरूप और परम प्रकाशमान है। वह निर्विकार, निराकार, निर्गुण, निर्विकल्प तथा सर्वव्यापी, माया से परे तथा उपद्रव से रहित परमात्मा ..कल्प के अन्त में अकेला ही था।कल्प के आदि में उस परमात्मा के मन में ऐसा संकल्प उठा कि ‘मैं एक से दो हो जाऊँ’। यद्यपि वह निराकार है, किन्तु अपनी लीला शक्ति का विस्तार करने के उद्देश्य से उसने साकार रूप धारण कर लिया। परमेश्वर के संकल्प से प्रकट हुई वह ऐश्वर्य गुणों से भरपूर,सर्वज्ञानमयी,सर्वस्वरूप द्वितीय मूर्ति सबके लिए वन्दनीय थी।
महादेव ने पार्वती जी से कहा–‘प्रिये! निराकार परब्रह्म की वह द्वितीय मूर्ति मैं ही हूँ। सभी शास्त्र और विद्वान मुझे ही ‘ईश्वर ’ कहते हैं। साकार रूप में प्रकट होने पर भी मैं अकेला ही अपनी इच्छा के अनुसार विचरण करता हूँ। मैंने ही अपने शरीर से कभी अलग न होने वाली 'तुम' प्रकृति को प्रकट.किया है। तुम ही गुणवती माया और प्रधान प्रकृति हो। तुम प्रकृति को ही बुद्धि तत्त्व को जन्म देने वाली तथा विकार रहित कहा जाता है। काल स्वरूप
आदि पुरुष मैंने ही एक साथ तुम शक्ति को और इस काशी क्षेत्र को प्रकट किया है।’
पाँच कोस के क्षेत्रफल वाले काशी क्षेत्र को शिव और पार्वती ने प्रलयकाल में भी कभी त्याग नहीं किया है। इसी कारण उस क्षेत्र को ‘अविमुक्त’ क्षेत्र कहा गया है। जिस समय इस भूमण्डल की जल की तथा अन्य प्राकृतिक पदार्थों की सत्ता (अस्तित्त्व) नहीं रह जाती है,
उस समय में अपने विहार के लिए भगवान जगदीश्वर शिव ने इस काशी क्षेत्र का निर्माण किया था। कार्तिकेय ने अगस्त्य जी को बताया कि यह काशी क्षेत्र भगवान शिव के आनन्द का कारण है, इसीलिए पहले उन्होंने इसका नाम ‘आनन्दवन’ रखा था। काशी क्षेत्र के रहस्य को ठीक-ठीक कोई नहीं जान पाता है।श्रीस्कन्द ने कहा कि उस आनन्दकानन में जो यत्र-तत्र (इधर-उधर) सम्पूर्ण शिवलिंग हैं, उन्हें ऐसा समझना चाहिए कि वे सभी लिंग आनन्दकन्द रूपी बीजो से अंकुरित (उगे) हुए हैं।
भगवान विश्वनाथ काशी में स्थित होते हुए भी सर्वव्यापी होने के कारण सूर्य की
तरह सर्वत्र उपस्थित रहते हैं। जो कोई उस क्षेत्र की महिमा से अनजान है अथवा उसमें श्रद्धा नहीं है, फिर भी वह जब काशीक्षेत्र में प्रवेश करता है या उसकी मृत्यु हो जाती है, तो वह निष्पाप होकर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। यदि कोई मनुष्य काशी में रहते हुए पापकर्म
करता है, तो मरने के बाद वह पहले 'रुद्र पिशाच' बनता है, 'उसके बाद उसकी मुक्ति
होती है’ lजो कोई संयमपूर्वक काशी में बहुत दिनों तक निवास करता है, किन्तु संयोगवश उसकी मृत्यु काशी से बाहर हो जाती है, तो वह भी स्वर्गीय सुख को प्राप्त करता है और अन्त में पुन: काशी में जन्म लेकर मोक्ष पद को प्राप्त करता है।
स्कन्द पुराण के इस आख्यान से स्पष्ट होता है कि श्री विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग किसी मनुष्य की पूजा तपस्या आदि से प्रकट नहीं हुआ, बल्कि यहाँ निराकार परब्रह्म परमेश्वर महेश्वर ही शिव बनकर विश्वनाथ के रूप में साक्षात प्रकट हुए। उन्होंने दूसरी बार महाविष्णु की तपस्या के फलस्वरूप उपस्थित होकर आदेश दिया। महाविष्णु के आग्रह पर ही भगवान शिव ने काशी क्षेत्र को अविमुक्त कर दिया। उनकी लीलाओं पर ध्यान देने से काशी के साथ
उनकी अतिशय प्रियशीलता स्पष्ट मालूम होती है। भगवान शिव ने माँ पार्वती को बताया कि बालक, वृद्ध या जवान हो, वह किसी भी वर्ण, जाति या आश्रम का हो, यदि अविमुक्त क्षेत्र में मृत्यु होती है, तो उसे अवश्य ही मुक्ति मिल जाती है।
काशी के रहस्य
काशी के अन्य मंदिर
गुरू दत्तात्रेय भगवान का मंदिर(यहां मिलती है सफेद दाग से निजात);-
काशी का प्राचीन मोहल्ला है ब्रह्माघाट। यहीं पर के. 18/48 में स्थित है गुरू दत्तात्रेय भगवान का मंदिर। भगवान दत्तात्रेय के इस मंदिर का इतिहास दो सौ साल से भी ज्यादा पुराना है। वेद, पुराण, उपनिषद और शास्त्र बताते हैं कि फकीरों के देवता भगवान दत्तात्रेय का प्रादुर्भाव सतयुग में हुआ था।
वैसे तो दक्षिण और पश्चिम भारत में भगवान दत्तात्रेय के ढेर सारे मंदिर हैं लेकिन इन मंदिरों में विग्रह कम उनकी पादुका ही ज्यादा है। काशी स्थित यह देवस्थान उत्तर भारत का अकेला है। भगवान दत्तात्रेय के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अब तक देह त्याग नहीं किया है। वो पूरे दिन भारत के अलग अलग क्षेत्रों में विचरते रहते हैं। इसी क्रम में वो हर रोज गंगा स्नान के लिए प्रात:काल काशी में मणिकर्णिका तट पर आते हैं। मणिकर्णिका घाट स्थित भगवान दत्तात्रेय की चरण पादुका इस बात का प्रमाण है। कहते हैं कि ब्रह्माघाट स्थित मंदिर में भगवान दत्तात्रेय के दर्शन मात्र से मनुष्य को सफेद दाग जैसे असाध्य रोग से मुक्ति मिलती है।
देश का अकेला मंदिर जहां मिलता है भगवान का एकमुख स्वरूप...दत्तात्रेय का विग्रह हर जगह तीन मुखों वाला मिलता है लेकिन काशी अकेला ऐसा स्थान है जहां एक मुख वाला विग्रह विराजमान है। दत्तात्रेय भगवान ने ही बाबा कीनाराम को अघोर मंत्र की दीक्षा दी थी। आप गुरु गोरक्षनाथ के भी गुरु थे।
कहते हैं कि सच्चे मन से स्मरण किया जाए तो दत्तात्रेय भगवान भक्त के सामने आज भी हाजिर हो जाते हैं। महर्षि परशुराम ने मां त्रिपुर सुंदरी की साधना इन्हीं से हासिल की। अवधूत दर्शन और अद्वैत दर्शन के जरिये भगवान दत्तात्रेय ने मनुष्य को खुद की तलाश का रास्ता दिखाया। आपका वास होने के कारण गूलर के वृक्ष की पूजा की जाती है।
काशी के रहस्य
काशी के कोतवाल - काल भैरव
द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख काशी विश्वनाथ मंदिर अनादिकाल से काशी में है। यह स्थान शिव और पार्वती का आदि स्थान है इसीलिए आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है। इसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है। ईसा पूर्व 11वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने जिस विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था उसका सम्राट विक्रमादित्य ने जीर्णोद्धार करवाया था। उसे ही 1194 में मुहम्मद गौरी ने लूटने के बाद तुड़वा दिया था। बाद में 1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था।
हिंदू देवताओं में भैरव का बहुत ही महत्व है। इन्हें काशी का कोतवाल कहा जाता है। कहा जाता है कि बाबा विश्वनाथ काशी के राजा हैं और काल भैरव उनके कोतवाल, जो लोगों को आशीर्वाद भी देते हैं और सजा भी। काशी विश्वनाथ में दर्शन से पहले भैरव के दर्शन करना होते हैं तभी दर्शन का महत्व माना जाता है। यहां काल भैरव को काशी के कोतवाल की संज्ञा से विभूषित किया गया है।
भैरव का कार्य है शिव की नगरी काशी की सुरक्षा करना और समाज के अपराधियों को पकड़कर दंड के लिए प्रस्तुत करना। जैसे एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, जिसके पास जासूसी कुत्ता होता है। उक्त अधिकारी का जो कार्य होता है वही भगवान भैरव का कार्य है।
काल भैरव के दर्शन मात्र से शनि की साढ़े साती, अढ़ैया और शनि दंड से बचा जा सकता है। ऐसा कहा जाता है कि खुद यमराज भी बिना इजाजत के यहां किसी के प्राण नहीं हर सकते और दंड देने के अधिकार भी शिव एवं काल भैरव को ही है। यमराज को भी यहां के इंसानों को दंड देने का अधिकार नहीं है।
पौराणिक कथा के अनुसार एक बार ब्रह्मा जी और विष्णु जी में श्रेष्ठता को लेकर विवाद हुआ। ब्रह्मा ने झूठ बोला तो शिवजी को क्रोध आ गया। भगवान शिव के क्रोध से ही काल भैरव जी प्रकट हुए और उन्होंने ब्रह्मा जी का सिर काट दिया था। काल भैरव पर ब्रह्म हत्या का दोष लगने के बाद वह तीनों लोकों में घूमे। परंतु उनको मुक्ति नहीं मिली। इसके बाद भगवान शिव ने आदेश दिया कि तुम काशी जाओ, वहीं मुक्ति मिलेगी। इसके बाद वह काल भैरव के रूप में काशी में स्वयं भू प्रकट हुए और वहीं गंगा स्नान किया और फिर शिव की नगरी के कोलवाल बन वहीं रहने लगे।
काशी में जब भी कोई अधिकारी पदस्थ होता है तो सबसे पहले उसे काल भैरव के यहां हाजरी लगानी होती है तभी वह अपना कामकाज प्रारंभ करता है। इतना ही नहीं यहां के लोगों के बीच यह मान्यता है कि यहां मंदिर के पास एक कोतवाली भी है, और काल भैरव स्वयं उस कोतवाली का निरीक्षण करते हैं।
काशी के रहस्य
काशी के घाट
पुराणों के मुताबिक, सप्त पुरियों को मोक्ष स्थल कहा गया है अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, कांची, अवंतिका और द्वारका। काशी में पांच नदियों का संगम पंच गंगा घाट पर है गंगा ,जमुना ,सरस्वती ,किरणा और धूतपापा। काशी में 7 किलोमीटर लंबी घाटों की श्रृंखला है और 90 से ऊपर गंगा घाट है, जो और कहीं नहीं है। सबसे खास बात है कि आसमान से देखने पर अर्ध चंद्राकर दिखाई पड़ते हैं। बाबा विश्वनाथ के माथे गंगा का चंद्र दिखता है।
प्रसिद्ध घाटों में दशाश्वमेध, मणिकार्णिंका, हरिश्चंद्र और तुलसीघाट की
गिनती की जा सकती है।वाराणसी के घाटों का दृश्य बड़ा ही मनोरम है। भागीरथी के धनुषाकार तट पर इन घाटों की पंक्तियाँ दूर तक चली गई हैं।
प्रात: काल तो इनकीछटा अपूर्व ही होती है। काशी में लगभग 84 घाट हैं, जिनमें चुनिंदा पांच पावन घाटों को पंचतीर्थों के एक सूत्र में पिरोया गया है। ये वो घाट हैं, जो पौराणिक काल से मनुष्यों को उनके पापों से मुक्त कर, जीवन जीने की नई दिशा धारा प्रदान करते आ रहे हैं। इन घाटों से होती हुई गंगा नदी के दिव्य स्पर्श का अनुभव पाने के लिए, देश-विदेश से श्रद्धालु भौगोलिक सीमा लांघ, खिंचे चले आते हैं।
विश्व प्रसिद्ध अस्सी घाट
पौराणिक महत्व रखने वाले काशी के पांच तीर्थों में से एक, अस्सी घाट, का हिंदू धर्म में विशेष स्थान है। यह घाट शाम के वक्त होनी वाली गंगा आरती के लिए विश्व विख्यात है। यहां पर्यटकों को शाम की गंगा आरती का आनंद लेते हुए देखा जा सकता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार इस घाट का नामकरण अस्सी नामक प्राचीन नदी का गंगा के साथ संगम के कारण हुआ। कहा जाता है इसी स्थल पर मां दुर्गा ने दुर्गाकुंड तट पर विश्राम किया था और अपनी तलवार यहीं छोड़ दी थी, जिस के गिरने से यहां असी नदी प्रकट हुई। इस घाट पर विशेषकर विदेशी पर्यटक आना ज्यादा पसंद करते हैं।
पावन तीर्थ, दशाश्वमेध घाट
पंचतीर्थों के नाम से विख्यात काशी के पांच घाटों में दशाश्वमेध घाट का अपना विशेष स्थान है। यह घाट गोदौलिया से गंगा जाने वाले मार्ग पर स्थित है। धार्मिक मान्यता के अनुसार राजा दिवोदास ने यहां दस अश्वमेध यज्ञ करवाए थे जिसके बाद इस स्थान को दशाश्वमेध घाट का नाम प्राप्त हुआ।दशाश्वमेध घाट पर ही जयपुर नरेश जयसिंह द्वितीय का बनवाया हुआ मानमंदिर या वेधशाला है।
दशाश्वमेध घाट तीसरी सदी के भारशिव नागों के पराक्रम का स्मारक है। उन्होंने जब-जब अपने शत्रुओं को पराजित किया तब-तब यहीं अपने यज्ञ का अवभृथ स्नान किया।
महाश्मशान, मणिकर्णिका घाट
बनारस के सभी गंगा घाट किसी न किसी धार्मिक मान्यता व कथाओं की माला से गूंथे गए हैं।माना जाता है कि जब शिव विनाशक बनकर सृष्टि का विनाश कर रहे थे तब काशी नगरी को बचाने के लिए विष्णु ने शिव को शांत करने के लिए तप प्रारंभ किया।भगवान शिव और पार्वती जब इस स्थान पर आए तब शिव ने अपने चक्र से गंगा नदी के किनारे एक कुंड का निर्माण किया।कहा जाता है एक बार माता पार्वती का कर्ण फूल यहां के कुंड में गिर गया था, जिसे ढूंढने का काम भगवान शिव ने किया। इस घटना के बाद, इस स्थल को मणिकर्णिका का नाम मिला। इस घाट को महाश्मशान भी कहा जाता है।
जीवन के सबसे अंतिम पड़ाव के दौरान, मोक्ष प्राप्ति की लालसा लिए यहां व्यक्ति आने की कामना करते हैं ।मणिकर्णिका घाट के विषय में कहा जाता है कि यहां जलाया गया शव सीधे मोक्ष को प्राप्त होता है, उसकी आत्मा को जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है। यही वजह है कि अधिकांश लोग यही चाहते हैं कि उनकी मृत्यु के बाद उनका दाह-संस्कार बनारस के मणिकर्णिका घाट पर ही हो।
प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार मणिकर्णिका घाट का स्वामी वही चाण्डाल था, जिसने सत्यवादी राजा हरिशचंद्र को खरीदा था। उसने राजा को अपना दास बना कर उस घाट पर अन्त्येष्टि करने आने वाले लोगों से कर वसूलने का काम दे दिया था। इस घाट की विशेषता ये हैं, कि यहां लगातार हिन्दू अन्त्येष्टि होती रहती हैं व घाट पर चिता की अग्नि लगातार जलती ही रहती है, कभी भी बुझने नहीं पाती। इसी कारण इसको महाश्मशान नाम से भी जाना जाता है।
प्रथम विष्णु तीर्थ आदिकेशव घाट
काशी के प्रमुख पौराणिक मंदिरों में, अपनी दिव्य छवि के लिए प्रसिद्ध, आदिकेशव मंदिर, धार्मिक पर्यटकों के बीच, काफी प्रसिद्ध है। इस मंदिर की निर्माण कहानी, भगवान विष्णु के काशी आगमन से जुड़ी है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, भगवान विष्णु यहां स्थित घाट पर सबसे पहले पधारे थे, जिसके बाद उन्होंने स्वयं अपनी प्रतिमा यहां स्थापित की। वर्तमान में यह स्थल आदिकेशव घाट के नाम से जाना जाता है।इस घाट को गंगा-वरूणा संगम घाट भी कहा जाता है, क्योंकि इसी स्थान पर दैविक नदी गंगा और वरूणा का मिलन होता है।
पंच नदियों का मिलन स्थल पंचगंगा घाट
काशी के 84 घाटों में, इस घाट की भी गिनती, पंचतीर्थों में होती है। पौराणिक मान्यता के अनुसार इस घाट पर गंगा, यमुना, सरस्वती, किरण और धूतपापा नदी का मिलन होता है। इसी वजह से इस घाट को 'पंचगंगा' कहा गया है। इसी पावन घाट के सानिध्य में आकर संत कबीर ने गुरू रामानंद से दीक्षा प्राप्त की थी । घाट के उपरी भाग की सीढ़ियां ...आज भी अपनी प्रारंभिक सरंचना के द्वारा घाट की सुंदरता पर चार-चांद लगा रही हैं।
अन्य घाट
पंचतीर्थों के नाम से प्रसिद्ध इन घाटों के बाद अन्य घाट हैं ... हरिश्चंद्र घाट, केदार घाट, तुलसीघाट , राजेन्द्र घाट , चेतसिंह घाट और राज घाट आदि । पंचतीर्थ घाटों की भांति इन घाटों का भी अपना अलग धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व है।मानसिक व आत्मिक शांति के लिए इन घाटों से अच्छा स्थान और कोई नहीं
काशी के रहस्य
: काशी और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का इतिहास
1916 में महामना मदन मोहन मालवीय ने देश के कल्याण के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का संकल्प विदेशी शासन होने के बावजूद भी पूरा किया। 1360 एकड़ में 11 गांव, 70 हजार वृक्ष, 100 पक्के कुएं, 20 कच्चे कुएं, 40 पक्के मकान, 860 कच्चे मकान, एक मंदिर और एक धर्मशाला उस समय महामना को दान में मिली थी।
मालवीय मूल्य अनुशीलन केन्द्र की रिसर्च ऑफिसर उषा त्रिपाठी ने मालवीय जी पर शोध के बाद काफी दिलचस्प तथ्यों को इकठ्ठा किया है।
पांच लाख मंत्रों का हुआ था जाप
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय कि पहली कल्पना दरभंगा नरेश कामेश्वर सिंह ने की थी। उषा त्रिपाठी ने बताया कि 1896 में एनी बेसेंट ने सेंट्रल हिन्दू स्कूल बना दिया था। बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी का सपना महामना के साथ इन दोनों लोगों का भी था। 1905 में कुंभ मेले के दौरान यह प्रस्ताव लोगों के सामने लाया गया। उस समय सरकार को एक करोड़ रूपये जमा करने थे।
1915 में पूरा पैसा जमा कर लिया गया। भूमि पूजन पर पांच लाख गायत्री मंत्रों का जाप महामना द्वारा कराया गया था। उषा बताती हैं कि मालवीय जी जब 1919 में तीसरे कुलपति बनने जा रहे थे तो कुछ लोगों ने विरोध जताया था। वहीं बीएचयू आईटी के पहले प्रोफ़ेसर चार्ल्स ए किंग को बनाया गया, जो एक इतिहास है।
शिमला में भी बीएचयू बनना था
मालवीय जी का सपना था कि शिमला में बीएचयू की तरह यूनिवर्सिटी खोली जाए। आज भी उनका यह सपना पूरा नहीं हुआ। दरभंगा नरेश उस समय चाहते थे कि यह संस्कृत यूनिवर्सिटी शारदा विद्यापीठ के नाम से बने। एनी बेसेंट चाहती थी इसे यूनिवर्सिटी ऑफ इंडिया नाम दिया जाए
काशी के रहस्य
काशी का श्री विश्वनाथ मंदिर
काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर पिछले कई हजारों वर्षों से वाराणसी में स्थित है। काशी विश्वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्ट स्थान है। ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य, सन्त एकनाथ रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, गोस्वामी तुलसीदास सभी का आगमन हुआ हैं।
ऐसी मान्यता है कि एक भक्त को भगवान शिव ने सपने में दर्शन देकर कहा था कि गंगा स्नान के बाद उसे दो शिवलिंग मिलेंगे और जब वो उन दोनों शिवलिंगों को जोड़कर उन्हें स्थापित करेगा तो शिव और शक्ति के दिव्य शिवलिंग की स्थापना होगी और तभी से भगवान शिव यहां मां पार्वती के साथ विराजमान हैं|
वाराणसी का श्री विश्वनाथ मंदिर कब अस्तित्व में आया, यह कहना मुश्किल है। इतिहासकारों का कहना है कि यहाँ पहला विश्वनाथ मंदिर ईसा से १९४० वर्ष पूर्व बना था। पिछले दो हजार वर्षों में इसके स्थल में कई बार परिवर्तन हुए। अकबर के शासन काल में पण्डित नारायण टोडरमल की सहायता से ज्ञानवापी में ही, जो भव्य मंदिर बनवाया था, उसे औरंगजेब ने ध्वस्त कर उसके स्थान पर मस्जिद बनवा दी थी। औरंगजेब के आक्रमण के समय पण्डितों ने शिवलिंग को ज्ञानवापी के एक कुँए में डाल दिया था।
औरंगजेब के जाने के बाद उसे वर्तमान विश्वनाथ गली में स्थापित किया गया। बाद में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने उसी शिवलिंग के ऊपर कीमती लाल पत्थरों से 51 फुट ऊँचा भव्य मंदिर बनवाया और इसके बाद ही सन् १८३९ ई. में सिख जाति के मुकुटमणि पंजाब केशरी स्वर्गीय महाराजा रणजीत सिंह ने मंदिर के ऊपरी हिस्से को स्वर्ण मण्डित ( लगभग 875 सेर शुद्ध सोना ) कराके मंदिर की शोभा बढ़ा दी।
इसके बाद जिन मुसलमान शासकों ने प्राचीन मंदिर को तोड़ा था, उन्हीं ने वर्तमान मंदिर के सिंहद्वार के सामने नौबतखाना बनवा दिया, जहाँ अब मंदिर की सुरक्षा हेतु पुलिस चौकी स्थापित कर दी गयी है। लगभग 50 वर्ष पूर्व तक यहाँ नौबत बजने के अलावा विजातीय लोग दर्शन किया करते थे। इस स्थान से काफी बड़ी संख्या में अंग्रेज दर्शन किया करते थे और उपहार तथा दक्षिणा दिया करते थे। सम्राट जार्ज पंचम से लेकर, प्रत्येक वायसराय ने विश्वनाथ का दर्शन किया था।लार्ड इरविन ने भी चाँदी के पूजापात्र भेंट किये थे।
ज्योतिर्मय शिवलिंग काशी विश्वनाथ मंदिर के गर्भ द्वार के भीतर जाते ही चाँदी के ठोस हौदे के बीच सोने की गोरी पीठ पर ज्योतिर्मय काशी विश्वेश्वर लिंग का अलभ्य दर्शन मिलता है।श्री काशी विश्वनाथ मंदिर के भीतर और बाहर और भी अनेक देव- मूर्तियाँ हैं। विश्वनाथ मंदिर के पश्चिम जो मण्डप है, उसके बीचो- बीच वेंकटेश्वर की लिंग मूर्ति है। दक्षिण ओर के मंदिर में अविमुक्तेश्वर लिंग है। सिंह द्वार के पश्चिम ...सत्यनारायणादि देव विग्रह हैं। सत्यनारायण मंदिर के उत्तर.. शनेश्वर लिंग है। इनके समीप दण्डपाणीश्वर पश्चिम के मण्डप में ही हैं। इसके उत्तर एक कोठी में जगत्माता पार्वती देवी की दिव्य मूर्ति है। इसी दालान के अंतिम कोने में श्री विश्वनाथ जी के ठीक सामने माँ अन्नपूर्णा विराजमान हैं।
एक अन्य कथा के अनुसार महाराज सुदेव के पुत्र राजा दिवोदासने गंगा-तट पर वाराणसी नगर बसाया था। एक बार भगवान शंकर ने देखा कि पार्वती जी को अपने मायके (हिमालय-क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है, तो उन्होंने किसी दूसरे सिद्धक्षेत्रमें रहने का विचार बनाया। उन्हें काशी अतिप्रिय लगी। वे यहां आ गए। भगवान शिव के सान्निध्य में रहने की इच्छा से देवता भी काशी में आ कर रहने लगे।राजा दिवोदास अपनी राजधानी काशी का आधिपत्य खो जाने से बडे दु:खी हुए।
उन्होंने कठोर तपस्या करके ब्रह्माजी से वरदान मांगा- देवता देवलोक में रहें, भूलोक (पृथ्वी) मनुष्यों के लिए रहे। सृष्टिकर्ता ने एवमस्तु कह दिया। इसके फलस्वरूप भगवान शंकर और देवगणों को काशी छोड़ने के लिए विवश होना पडा।शिवजी मन्दराचलपर्वत पर चले तो गए परंतु काशी से उनका मोह कम नहीं हुआ। महादेव को उनकी प्रिय काशी में पुन: बसाने के उद्देश्य से चौसठ योगनियों, सूर्यदेव, ब्रह्माजी और नारायण ने बड़ा प्रयास किया।
गणेशजी के सहयोग से अन्ततोगत्वा यह अभियान सफल हुआ। ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदास विरक्त हो गए। उन्होंने स्वयं एक शिवलिंग की स्थापना करके उस की अर्चना की और बाद में वे दिव्य विमान पर बैठकर शिवलोक चले गए। महादेव काशी वापस आ गए