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श्रावण मास महात्म्य (आठवां अध्याय) श्रावण मास में किए जाने वाले बुध-गुरु व्रत का वर्णनईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं...
18/07/2025

श्रावण मास महात्म्य (आठवां अध्याय)

श्रावण मास में किए जाने वाले बुध-गुरु व्रत का वर्णन

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं समस्त पापों का नाश करने वाले बुध-गुरु व्रत का वर्णन करूँगा जिसे श्रद्धापूर्वक करके मनुष्य परम सिद्धि प्राप्त करता है. ब्रह्मा जी ने चन्द्रमा को ब्राह्मणों के राजा के रूप में अभिषिक्त किया. किसी समय उसने रूप तथा यौवन से संपन्न तारा नामक गुरु पत्नी को देखा. उसकी रूप संपदा से मोहित होकर वह काम के वशीभूत हो गया और उसे उसने अपने घर में रख लिया. इस प्रकार बहुत दिन बीतने पर उसे बुध नामक एक पुत्र हुआ जो बुद्धिमान, सौंदर्यशाली तथा सभी शुभ लक्षणों से युक्त था।

गुरु बृहस्पति को ज्ञात हुआ कि तारा, चन्द्रमा के घर में स्थित है तब उन्होंने चन्द्रमा से कहा कि मेरी पत्नी को वापिस कर दो, अनेक तरह से समझाने पर भी जब चन्द्रमा ने तारा को वापिस नहीं दिया तब बृहस्पति ने देवताओं की सभा में जाकर देवराज इंद्र को यह वृत्तांत बतलाया और कहा – हे शक्र ! आप देवताओं के राजा हैं अतः अपनी आज्ञा से आप उसे दिलाएं अन्यथा उस चन्द्रमा के द्वारा किया गया पाप आप को ही निसंदेह लगेगा क्योंकि शास्त्र निर्णय के अनुसार प्रजा के द्वारा किए गए पाप को राजा भोगता है. पुराण में भी ऐसा कहा गया है कि दुर्बल का बल राजा होता है. गुरु का यह वचन सुनकर चन्द्रमा ने कहा – मैं आपकी आज्ञा से तारा को तो दे दूँगा किन्तु इस पुत्र को नहीं दूँगा. शास्त्र के अनुसार विचार करके देवताओं ने उस बुध को चन्द्रमा को दे दिया।

इसके बाद गुरु को उदास देखकर देवताओं ने उन दोनों को वर प्रदान किया – हे चंद्र ! अब तुम घर जाओ, यह तुम्हारा भी पुत्र है और बृहस्पति का भी है. यह तुम्हारा पुत्र ग्रहों में प्रतिष्ठित होगा. हे सुराचार्य ! आप यह दुसरा भी शुभ वर ग्रहण कीजिए कि जो बुद्धिमान व्यक्ति आप दोनों – बुध-गुरु – का व्रत मिलाकर करेगा उसकी संपूर्ण सिद्धि होगी, यह सत्य है, इसमें संदेह नहीं. शंकर जी के लिए अत्यंत प्रिय इस श्रावण मास के आने पर जो लोग बुधवार तथा बृहस्पतिवार को पूजन व्रत करेंगे उन्हें सिद्धि प्राप्त होगी।

इस व्रत में दही तथा भात का नैवेद्य व्रत सिद्धि में मूल हेतु है. स्थान भेद से आप दोनों की मूर्ति लिखकर पूजन करने से भिन्न-भिन्न फल प्राप्त होता है. यदि कोई हिंडोले के ऊपरी स्थान पर आप दोनों कि मूर्ति लिखकर पूजन करे तो वह सर्वगुणसंपन्न तथा दीर्घायु पुत्र प्राप्त करेगा. यदि मनुष्य कोषागार में मूर्ति को लिखकर पूजन करता है तो उसके कोष बढ़ते हैं और वे कभी क्षय को प्राप्त नहीं होते. इसी प्रकार पाकालय में पूजन करने से पाकवृद्धि और देवालय में पूजन करने से उनकी कृपा प्राप्त होती है. शय्यागार में लिखकर पूजन करने से स्त्री का वियोग कभी नहीं होता है. धान्यागार में लिखकर पूजन करने से धान्य की वृद्धि होती है. इस प्रकार मनुष्य उन-उन फलों को प्राप्त करता है।

इस प्रकार सात वर्ष तक करने के बाद उद्यापन करना चाहिए. उद्यापन से पहले दिन अधिवासन करके रात्रि में जागरण करना चाहिए. सुवर्ण कि प्रतिमा बनाकर विधिपूर्वक सोलह उपचारों से पूजन करने के पश्चात् तिल, घृत, चारु और अपामार्ग तथा अश्वत्थ से युक्त समिधाओं से होम करना चाहिए, अंत में पूर्णाहुति देनी चाहिए. उसके बाद मामा व भांजे को प्रयत्नपूर्वक भोजन कराना चाहिए. इसके बाद ब्राह्मणों को तथा अन्य लोगों को भी भोजन कराना चाहिए. स्वयं भी भोजन करना चाहिए. इस विधि से सात वर्ष तक करने पर मनुष्य सभी मनोरथों को प्राप्त कर लेता है. जो इसे विद्या कि कामना से करता है, वह वेद व शास्त्र के अर्थों को जाने वाला हो जाता है. बुध बुद्धि प्रदान करते हैं और गुरु बृहस्पति गुरुता प्रदान करते हैं।

सनत्कुमार बोले – हे भगवन ! आपने जो यह कहा है कि इस अवसर पर मामा तथा भांजे को भोजन करना चाहिए, यदि बताने योग्य हो तो इसका कारण बताइए।

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! पूर्वकाल में अत्यंत दीन तथा दरिद्र कोई दो ब्राह्मण थे, वे दोनों मामा-भानजे थे. उदार पूर्ति हेतु परिश्रमपूर्वक भ्रमण करते हुए वे दोनों किसी नगर में अन्न माँगने के लिए गए थे. उन्होंने घर-घर में श्रावण मास में प्रत्येक वार को उस वार का व्रत होते हुए देखा किन्तु कहीं भी बुध-गुरु का व्रत नहीं देखा तब उन्होंने बहुत देर तक परस्पर विचार किया कि सभी वारों का व्रत तो सर्वत्र दिखाई पड़ रहा है किन्तु बुध-गुरु का कहीं नहीं अतः चूँकि यह व्रत अनुच्छिष्ट है इसलिए हम दोनों को चाहिए कि इस शुभ व्रत का अनुष्ठान आदरपूर्वक करें. किन्तु हे सनत्कुमार ! इसकी विधि ना जानने के कारण वे दोनों संशय में पड़ गए तब रात्रि में उन्हें स्वप्न में इस व्रत की विधि दृष्टोगोचर हो गई. इसके बाद उन्होंने उसकी विधि के अनुसार व्रत को किया जिससे उन्होंने अपार संपदा प्राप्त की। प्रतिदिन उनकी संपत्ति बढ़ने लगी और सभी लोगों को ज्ञात भी हो गयी. इस प्रकार सात वर्ष तक करके वे पुत्र व पौत्र आदि से संपन्न हो गए. उसके बाद उनके ऊपर प्रसन्न होकर बुध व गुरु प्रकट हुए और उन्होंने उन दोनों को यह वर दिया – आप दोनों ने हम दोनों के निमित्त इस व्रत को प्रवर्तित किया है अतः आज से कोई भी इस शुभ व्रत को करे उसे व्रत की समाप्ति पर मामा तथा भानजे को प्रयत्नपूर्वक भोजन कराना चाहिए. इस व्रत के प्रभाव से उसे सभी कामनाओं की परम सिद्धि हो जाती है और अंत में चंद्र सूर्य पर्यन्त उसका हमारे लोक में वास होता है।

|| इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रवण मास माहात्म्य में “बुधगुरुव्रत कथन” नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ||

🌹श्रावण मास महात्म्य 🌹(सातवाँ अध्याय) 🌹🌹मंगलागौरी व्रत का वर्णन तथा व्रत कथा🌹ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं अत्युत्त...
17/07/2025

🌹श्रावण मास महात्म्य 🌹(सातवाँ अध्याय) 🌹

🌹मंगलागौरी व्रत का वर्णन तथा व्रत कथा🌹

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं अत्युत्तम भौम व्रत का वर्णन करूँगा, जिसके अनुष्ठान करने मात्र से वैधव्य नहीं होता है. विवाह होने के पश्चात पाँच वर्षों तक यह व्रत करना चाहिए. इसका नाम मंगला गौरी व्रत है. यह पापों का नाश करने वाला है. विवाह के पश्चात प्रथम श्रावण शुक्ल पक्ष में पहले मंगलवार को यह व्रत आरंभ करना चाहिए. केले के खम्भों से सुशोभित एक पुष्प मंडल बनाना चाहिए और उसे अनेक प्रकार के फलों तथा रेशमी वस्त्रों से सजाना चाहिए. उस मंडप में अपने सामर्थ्य के अनुसार देवी की सुवर्णमयी अथवा अन्य धातु की बनी प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए. उस प्रतिमा को सोलह उपचारों से, सोलह दूर्वा दलों से सोलह चावलों से तथा सोलह चने की दालों से मंगला गौरी नामक देवी की पूजा करनी चाहिए और सोलह बत्तियों से सोलह दीपक जलाने चाहिए. दही तथा भात का नैवेद्य भक्तिपूर्वक अर्पित करना चाहिए. देवी के पास ही पत्थर का सील तथा लोढ़ा स्थापित करना चाहिए. पाँच वर्ष तक इस प्रकार से करने के पश्चात उद्यापन करना चाहिए।

माता को वायन प्रदान करना चाहिए जिसकी विधि आप सुनिए – अपने सामर्थ्य अनुसार एक पल प्रमाण सुवर्ण की अथवा उसके आधे प्रमाण की अथवा उसके भी आधे प्रमाण की मंगला गौरी की प्रतिमा निर्मित करानी चाहिए. अपनी शक्ति के अनुसार स्वर्ण आदि के बने तंडुलपूरित पात्र पर वस्त्र तथा रमणीय कंचु की ओढ़नी रखकर उन दोनों के ऊपर देवी की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए. पास में चाँदी से निर्मित सिल तथा लोढ़ा रखकर माता को वायन प्रदान करना चाहिए. इसके बाद सोलह सुवासिनियों को प्रयत्नपूर्वक भोजन कराना चाहिए. हे विप्र ! इस विधि से व्रत करने पर सात जन्मों तक सौभाग्य बना रहता है और पुत्र, पुत्र आदि के साथ संपदा विद्यमान रहती है।

सनत्कुमार बोले – सर्वप्रथम इस व्रत को किसने किया था और किसको इसका फल प्राप्त हुआ? हे शम्भो ! जिस तरह से मुझे इसके प्रति निष्ठा हो जाए, कृपा करके वैसे ही बताइए।

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! पूर्वकाल में कुरु देश में श्रुतकीर्ति नामक एक विद्वान्, कीर्तिशाली, शत्रुओं का नाश करने वाला, चौसंठ कलाओं का ज्ञाता तथा धनुर्विद्या में कुशल राजा हुआ था. पुत्र के अतिरिक्त अन्य सभी शुभ चीजें उस राजा के पास थी. अतः वह राजा संतान के विषय में अत्यंत चिंतित हुआ और जप-ध्यानपूर्वक देवी की आराधना करने लगा तब उसकी कठोर तपस्या से देवी प्रसन्न हो गई और उस से यह वचन बोली – हे सुव्रत ! वर माँगों।

श्रुतकीर्ति बोला – हे देवी ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे सुन्दर पुत्र दीजिए. हे देवी ! आपकी कृपा से अन्य किसी भी वस्तु का अभाव नहीं है. उसका यह वचन सुनकर पवित्र मुसकान वाली देवी ने कहा – हे राजन ! तुमने अत्यंत दुर्लभ वर माँगा है, फिर भी कृपा वश मैं तुम्हें अवश्य दूंगी. किन्तु हे राजेंद्र ! सुनिए, यदि परम गुणी पुत्र चाहते हो तो वह केवल सोलह वर्ष तक जीवित रहेगा और यदि रूप तथा विद्या से विहीन पुत्र चाहते हो तो दीर्घजीवी होगा. देवी का यह वचन सुनकर राजा चिंतित हो उठा और पुनः अपनी पत्नी से परामर्श कर के उसने गुणवान तथा सभी शुभ लक्षणों से संपन्न सोलह वर्ष की आयु वाला पुत्र माँगा तब देवी ने भक्ति संपन्न राजा से कहा – हे नृपनन्दन ! मेरे मंदिर के द्वार पर आम का वृक्ष है, उसका एक फल लाकर मेरी आज्ञा से अपनी भार्या को उसे भक्षण करने हेतु प्रदान करो. जिससे वह शीघ्र ही गर्भ धारण करेगी, इसमें संदेह नहीं है.
प्रसन्न होकर राजा ने वैसा ही कियाऔर उसकी पत्नी ने गर्भ धारण कर लिया. दसवें महीने में उसने देवतुल्य सुन्दर पुत्र को जन्म दिया तब हर्ष तथा शोक से युक्त राजा ने बालक का जातकर्म आदि संस्कार किया और शिव का स्मरण करते हुए उसका नाम चिरायु रखा. इसके बाद पुत्र के सोलह वर्ष के होने पर पत्नी सहित राजा चिंता में पड़ गए और वे विचार करने लगे कि यह पुत्र बड़े कष्ट से प्राप्त हुआ है और मैं इसकी दुःखद मृत्यु अपने ही सामने कैसे देख सकूंगा, ऐसा विचार कर के राजा ने पुत्र को उसके मामा के साथ काशी भेज दिया. प्रस्थान के समय राजा की पत्नी ने अपने भाई से कहा कि कार्पटिक का वेश धारण कर के आप मेरे पुत्र को काशी ले जाइए. मैंने भगवान् मृत्युंजय से पूर्व में पुत्र के लिए प्रार्थना की थी और कहा था कि – “हे विश्वेश ! आप जगत्पति की यात्रा के लिए मैं उस पुत्र को अवश्य भेजूंगी”. अतः आप मेरे पुत्र को आज ही ले जाइए और सावधानीपूर्वक इसकी रक्षा कीजिएगा. अपनी बहन की यह बात सुनकर भांजे के साथ वह चल पड़ा।

कई दिनों तक चलते-चलते वह ‘आनंद’ नामक नगर में पहुंचा. वहाँ सभी प्रकार की समृद्धियों से संपन्न वीरसेन नाम वाला राजा रहता था. उस राजा की एक सर्वलक्षण संपन्न, युवावस्था प्राप्त, मनोहर तथा रूपलावण्यमयी मंगलागौरी नामक कन्या थी. सभी उपमानों को तुच्छ कर के सौंदर्य-अभिवृद्धि को प्राप्त वह कन्या किसी समय सखियों के साथ नगर के उपवन में क्रीड़ा करने के लिए गई हुई थी. उसी समय वह चिरायु तथा उसका मामा वे दोनों भी वहाँ पहुँच गए और उन कन्याओं को देखने की लालसा से वहीँ विश्राम करने लगे. इसी बीच विनोदपूर्वक क्रीड़ा करती हुई उन कन्याओं में से किसी एक ने कुपित होकर राजकुमारी को रांडा – यह कुवचन कह दिया तब उस अशुभ वचन को सुनकर राजकुमारी ने कहा – “तुम अनुचित बात क्यों बोल रही हो, मेरे कुल में तो इस प्रकार की कोई नहीं है. मंगला गौरी की कृपा से तथा उनके व्रत के प्रभाव से विवाह के समय जिस के सर पर मेरे हाथ से अक्षत पड़ेंगे, हे सखी ! वह यदि अल्प आयु वाला होगा तो भी चिरंजीवी हो जाएगा.” इसके बाद वह सभी कन्याएं अपने-अपने घर चली गई।

उसी दिन राजकुमारी का विवाह था. बाह्लीक देश के दृढ़धर्मा नामक राजा के सुकेतु नाम वाले पुत्र के साथ उसका विवाह निश्चित किया गया था. वह सुकेतु विद्याहीन, कुरूप तथा बहरा था तब सुकेतु के साथ आए हुए उन लोगों ने विचार किया कि इस समय कोई दूसरा श्रेष्ठ वर ले जाना चाहिए और विवाह संपन्न हो जाने के बाद वहाँ सुकेतु पहुँच जाए. उन लोगों ने चिरायु के मामा के पास जाकर याचना की कि आप इस बालक को हमें दे दीजिए, जिस से हमारा कार्य सिद्ध हो जाए. इस पृथ्वी पर परोपकार के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है. उनकी बात सुनकर चिरायु का मामा मन ही मन बहुत प्रसन्न हुआ क्योंकि इसने उपवन में पहले ही कन्या मंगला गौरी की बात सुन ली थी फिर भी उसने एक बार कहा कि आप लोग इसे किसलिए मांग रहे हैं? कार्य की सिद्धि हेतु वस्त्र, अलंकार आदि मांगे जाते हैं, वर तो कहीं भी नहीं माँगा जाता तथापि आप लोगों का सम्मान रखने के लिए मैं इसे दे रहा हूँ।

इसके बाद चिरायु को वहाँ ले जाकर उन लोगों ने विवाह संपन्न कराया. सप्तपदी आदि के हो जाने पर रात्रि में शिव-पार्वती की प्रतिमा के समक्ष उस चिरायु ने हर्षयुक्त होकर मंगलागौरी के साथ शयन किया. उसी दिन चिरायु के सोलह वर्ष पूर्ण हो चुके थे और अर्धरात्रि में साक्षात काल सर्परूप में वहाँ आ गया. इसी बीच संयोगवश राजकुमारी जाग गई. उसने उस महासर्प को वहाँ देखा और वह भय से व्याकुल होकर कांपने लगी तभी उस कन्या ने धैर्य धारण सोलह उपचारों से सर्प की पूजा की और पीने के लिए उसे दूध दिया. उसने दीनता भरी वाणी में उस सर्प की प्रार्थना तथा स्तुति की. मंगलागौरी प्रार्थना करने लगी कि मैं उत्तम व्रत को करुँगी जिससे मेरे पति जीवित रहें, ये जिस तरह से चिरकाल तक जीवित रहें, आप वैसा कीजिए.
इतने में सर्प वहाँ स्थित एक कमण्डलु में प्रवेश कर गया और उस मंगलागौरी ने अपनी कंचुकी से उस कमण्डलु का मुँह बाँध दिया. इसी बीच उसका पति अंगड़ाई लेकर जाग गया और अपनी पत्नी से बोला – हे प्रिये ! मुझे भूख लगी है तब वह अपनी माता के पास जाकर खीर, लड्डू आदि ले आई और उसके द्वारा दिए भोज्य पदार्थ को उसने प्रसन्न मन होकर खाया. भोजन के पश्चात् हाथ धोते समय उसके हाथ से अँगूठी गिर पड़ी. ताम्बूल खाकर वह पुनः सो गया. इसके बाद मंगलागौरी कमण्डलु को फेंकने के लिए जाने लगी. विधि की कैसी गति है कि उस कमण्डलु में से बाहर की ओर जगमग करती हुई हारकान्ति को देखकर वह आश्चर्यचकित हो गई. घट में स्थित उस हार को उसने अपने कंठ में धारण कर लिया. इसके बाद कुछ रात शेष रहते ही चिरायु का मामा आकर उसे ले गया. इसके बाद वर पक्ष के लोग सुकेतु को वहाँ ले आए. उसे देख मंगलागौरी ने कहा कि यह मेरा पति नहीं है तब उन सभी ने उससे कहा – हे शुभे ! तुम यह क्या बोल रही हो? यहाँ तुम्हारा कोई परिचायक हो तो उसे हम लोगों को बताओ।

मंगलागौरी बोली – जिसने रात्रि में नौ रत्नों से बानी अँगूठी दी है, उसकी अंगुली में इसे डालकर परिचायक निशानी देख लें. मेरे पति ने रात्रि में मुझे जो हार दिया था, उसके रत्नों का समुदाय कैसा है, इस बात को यह बताए, यह तो कोई अन्य ही है. इसके अतिरिक्त रात्रि में आम सींचते समय उनका पैर कुमकुम से लिप्त हो गया था, वह मेरी जांघ पर अब भी विद्यमान है, उसे आप लोग शीघ्र देख लें. साथ ही रात में परस्पर भाषण तथा भोजन आदि जो कुछ किया गया था, उसे भी यह बता दें तब यह निश्चय ही मेरा पति है।

इस प्रकार उसका वचन सुनकर सभी ठीक है-ठीक है कहने लगे किन्तु जब एक भी बात न मिली तब सभी ने सुकेतु को उसका पति होने से निषिद्ध कर दिया और वर पक्ष वाले जिस तरह से आए थे उसी तरह से चले गए. उसके बाद अपने वंश को बढ़ाने वाले, महान यश से संपन्न तथा परम मनस्वी मंगलागौरी के पिता ने अन्न, पान आदि का सत्र चलाया. उन्होंने वर पक्ष का वृत्तांत कानों-कान सुन लिया कि स्वरुप से कुरूप होने के कारण लोगों के द्वारा किसी अन्य को वर के रूप में आदरपूर्वक लाया गया था तब उन्होंने अपनी कन्या को परदे के भीतर बिठा दिया. उसके बाद एक वर्ष बीतने पर यात्रा करके चिरायु अपने मामा के साथ यह देखने आया कि विवाह के बाद वहाँ क्या हुआ? तब उसे गवाक्ष के भीतर से देखकर वह मंगलागौरी अत्यंत प्रसन्न हुई और माता-पिता से बोली कि मेरे पति आ गए हैं।

राजा ने अपने सुहृज्जनों को बुलाकर पूर्व में कहे गए सभी परिचायकों को निशानी को देखकर मंद मुस्कान वाली अपनी कन्या चिरायु को सौंप दी. राजा ने शिष्टजनों को साथ लेकर विवाह का उत्सव कराया. इसके बाद राजा वीरसेन ने वस्त्र, आभूषण आदि, सेना, घोड़े, रथ और अन्य भी बहुत-सी सामग्रियां देकर उन्हें विदा किया।

उसके बाद कुल को आनंदित करने वाला वह चिरायु पत्नी तथा मामा को साथ लेकर सेना के साथ अपने नगर पहुँचा. लोगों के मुख से उसे आया हुआ सुनकर उसके माता-पिता को विशवास नहीं हुआ, उन्होंने सोचा कि प्रारब्ध अन्यथा कैसे हो सकता है! इतने में वह अपने माता-पिता के पास आ गया और स्नेह से परिपूर्ण वह चिरायु भक्तिपूर्वक उनके चरणों में गिर पड़ा, तब अपने पुत्र का मस्तक सूंघ कर उन दोनों ने परम आनंद प्राप्त किया. पुत्रवधु मंगलागौरी ने भी सास-ससुर को प्रणाम किया. तब सास उसे अपनी गोद में बिठाकर सारा वृत्तांत शीघ्रतापूर्वक पूछने लगी।

हे महामुने ! तब पुत्रवधु ने भी मंगलागौरी के उत्तम व्रत माहात्म्य तथा जो कुछ घटित हुआ था वह सब वृत्तांत बताया. हे सनत्कुमार ! मैंने आपसे इस मंगलागौरी व्रत का वर्णन कर दिया. जो कोई भी इसका श्रवण करता है अथवा जो इसे कहता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं, इसमें संदेह नहीं है.
सूतजी बोले – हे ऋषियों ! इस प्रकार शिवजी ने सनत्कुमार को यह मंगलागौरी व्रत बताया और उन्होंने सभी कार्यों को पूर्ण करने वाले इस व्रत को सुनकर महान आनंद प्राप्त किया।

||इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में
श्रावण मास माहात्म्य में “मंगलागौरी व्रत कथन” नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ||

उज्जैन में स्थित महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग!!यह परम पवित्र ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश के उज्जैन नगर में है। पुण्यसलिला क्षिप्...
16/07/2025

उज्जैन में स्थित महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग!!

यह परम पवित्र ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश के उज्जैन नगर में है। पुण्यसलिला क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित उज्जैन प्राचीनकाल में उज्जयिनी के नाम से विख्यात था, इसे अवन्तिकापुरी भी कहते थे। यह भारत की परम पवित्र सप्तपुरियों में से एक है। महाभारत, शिवपुराण एवं स्कन्दपुराण में महाकाल ज्योतिर्लिंग की महिमा का पूरे विस्तार के साथ वर्णन किया गया है।

इस ज्योतिर्लिंग की कथा पुराणों में इस प्रकार वर्णित है- प्राचीनकाल में उज्जयिनी में राजा चंद्रसेन राज्य करते थे। वह परम शिव-भक्त थे। एक दिन श्रीकर नामक एक पाँच वर्ष का गोप-बालक अपनी मां के साथ उधर से गुजर रहा था। राजा का शिवपूजन देखकर उसे बहुत विस्मय और कौतूहल हुआ। वह स्वयं उसी प्रकार की सामग्रियों से शिवपूजन करने के लिए लालायित हो उठा।

सामग्री का साधन न जुट पाने पर लौटते समय उसने रास्ते से एक पत्थर का टुकड़ा उठा लिया। घर आकर उसी पत्थर को शिव रूप में स्थापित कर पुष्प, चंदन आदि से परम श्रद्धापूर्वक उसकी पूजा करने लगा। माता भोजन करने के लिए बुलाने आई, किंतु वह पूजा छोड़कर उठने के लिए किसी भी प्रकार तैयार नहीं हुआ। अंत में माता ने झल्लाकर पत्थर का वह टुकड़ा उठाकर दूर फेंक दिया। इससे बहुत ही दुःखी होकर वह बालक जोर-जोर से भगवान्‌ शिव को पुकारता हुआ रोने लगा। रोते-रोते अंत में बेहोश होकर वह वहीं गिर पड़ा।

बालक की अपने प्रति यह भक्ति और प्रेम देखक भोलेनाथ भगवान्‌ शिव अत्यंत प्रसन्न हो गए। बालक ने जैसे ही होश में आकर अपने नेत्र खोले तो उसने देखा कि उसके सामने एक बहुत ही भव्य और अतिविशाल स्वर्ण और रत्नों से बना हुआ मंदिर खड़ा है। उस मंदिर के अंदर एक बहुत ही प्रकाशपूर्ण, भास्वर, तेजस्वी ज्योतिर्लिंग खड़ा है। बच्चा प्रसन्नता और आनंद से विभोर होकर भगवान्‌ शिव की स्तुति करने लगा।

माता को जब यह समाचार मिला तब दौड़कर उसने अपने प्यारे लाल को गले से लगा लिया। पीछे राजा चंद्रसेन ने भी वहां पहुंचकर उस बच्चे की भक्ति और सिद्धि की बड़ी सराहना की। धीरे-धीरे वहां बड़ी भीड़ जुट गई। इतने में उस स्थान पर हनुमानजी प्रकट हो गए। उन्होंने कहा- 'मनुष्यों! भगवान शंकर शीघ्र फल देने वाले देवताओं में सर्वप्रथम हैं। इस बालक की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्होंने इसे ऐसा फल प्रदान किया है, जो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि करोड़ों जन्मों की तपस्या से भी प्राप्त नहीं कर पाते।

इस गोप-बालक की आठवीं पीढ़ी में धर्मात्मा नंदगोप का जन्म होगा। द्वापरयुग में भगवान्‌ विष्णु कृष्णावतार लेकर उनके वहां तरह-तरह की लीलाएं करेंगे।' हनुमान्‌जी इतना कहकर अंतर्धान हो गए। उस स्थान पर नियम से भगवान शिव की आराधना करते हुए अंत में श्रीकर गोप और राजा चंद्रसेन शिवधाम को चले गए।

इस ज्योतिर्लिंग के विषय में एक दूसरी कथा इस प्रकार कही जाती है- किसी समय अवन्तिकापुरी में वेदपाठी तपोनिष्ठ एक अत्यंत तेजस्वी ब्राह्मण रहते थे। एक दिन दूषण नामक एक अत्याचारी असुर उनकी तपस्या में विघ्न डालने के लिए वहां आया। ब्रह्माजी से वर प्राप्तकर वह बहुत शक्तिशाली हो गया था। उसके अत्याचार से चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी।

ब्राह्मण को कष्ट में पड़ा देखकर प्राणिमात्र का कल्याण करने वाले भगवान शंकर वहां प्रकट हो गए। उन्होंने एक हुंकार मात्र से उस दारुण अत्याचारी दानव को वहीं जलाकर भस्म कर दिया। भगवान्‌ वहां हुंकार सहित प्रकट हुए इसीलिए उनका नाम महाकाल पड़ गया। इसीलिए परम पवित्र ज्योतिर्लिंग को 'महाकाल' के नाम से जाना जाता है।

🙏   काशी बनारस के रहस्य  🙏 क्यों है काशी ‘अविमुक्त क्षेत्र’.  काशी में निराकर महेश्वर ही यहाँ भोलानाथ श्री विश्वनाथ के र...
16/07/2025

🙏 काशी बनारस के रहस्य 🙏

क्यों है काशी ‘अविमुक्त क्षेत्र’.

काशी में निराकर महेश्वर ही यहाँ भोलानाथ श्री विश्वनाथ के रूप में साक्षात अवस्थित हैं। इस काशी क्षेत्र में स्थित 1. श्री दशाश्वमेध 2. श्री लोलार्क 3. श्री बिन्दुमाधव 4. श्री केशव और
5. श्री मणिकर्णिक l ये हैं, जिनके कारण इसे‘अविमुक्त क्षेत्र’ कहा जाता है।काशी के उत्तर मेंओंकारखण्ड दक्षिण में केदारखण्ड और मध्य में विश्वेश्वरखण्ड में ही बाबा विश्वनाथ प्रसिद्ध है। ऐसा सुना जाता है कि मन्दिर की पुन स्थापना आदि जगत गुरु शंकरचार्य जी ने अपने हाथों से की थी।

श्री काशी में अनेक विशिष्ट तीर्थ हैं, जिनके विषय मे कहा गया है कि ‘विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग बिन्दुमाधव ढुण्ढिराज गणेश, दण्डपाणि कालभैरव, गुहा गंगा (उत्तरवाहिनी गंगा), माता अन्नपूर्णा तथा मणिकर्णिक आदि मुख्य तीर्थ हैं। काशी क्षेत्र में मरने वाले किसी भी प्राणी को निश्चित ही मुक्ति प्राप्त होती है। जब कोई मर रहा होता है, उस समय भगवान.श्री विश्वनाथ उसके कानों में तारक मन्त्र का उपदेश करते हैं, जिससे वह आवगमन के चक्कर से छूट जाता है, अर्थात इस संसार से.मुक्त हो जाता है।

काशी उत्पत्ति के विषय में अगस्त्य जी ने श्रीस्कन्द (कुमार कार्तिकेय) से पूछा था,
जिसका उत्तर देते हुए श्री स्कन्द ने उन्हें बताया कि इस प्रश्न का उत्तर हमारे पिता महादेव जी ने माता पार्वती जी को दिया था। उन्होंने कहा था कि ‘महाप्रलय के समय जगत के सम्पूर्ण प्राणी नष्ट हो चुके थे सर्वत्र घोर अन्धकार छाया हुआ था। उस समय 'सत्' स्वरूप ब्रह्म के अतिरिक्त सूर्य, नक्षत्र, ग्रह,तारे आदि कुछ भी नहीं थे। केवल एक ब्रह्म का अस्तित्त्व था, जिसे शास्त्रों में ‘एकमेवाद्वितीयम्’ कहा गया है।

ब्रह्म’ का ना तो कोई नाम है और न रूप, इसलिए वह मन, वाणी आदि इन्द्रियों का विषय नहीं बनता है। वह तो सत्य है, ज्ञानमय है, अनन्त है, आनन्दस्वरूप और परम प्रकाशमान है। वह निर्विकार, निराकार, निर्गुण, निर्विकल्प तथा सर्वव्यापी, माया से परे तथा उपद्रव से रहित परमात्मा ..कल्प के अन्त में अकेला ही था।कल्प के आदि में उस परमात्मा के मन में ऐसा संकल्प उठा कि ‘मैं एक से दो हो जाऊँ’। यद्यपि वह निराकार है, किन्तु अपनी लीला शक्ति का विस्तार करने के उद्देश्य से उसने साकार रूप धारण कर लिया। परमेश्वर के संकल्प से प्रकट हुई वह ऐश्वर्य गुणों से भरपूर,सर्वज्ञानमयी,सर्वस्वरूप द्वितीय मूर्ति सबके लिए वन्दनीय थी।

महादेव ने पार्वती जी से कहा–‘प्रिये! निराकार परब्रह्म की वह द्वितीय मूर्ति मैं ही हूँ। सभी शास्त्र और विद्वान मुझे ही ‘ईश्वर ’ कहते हैं। साकार रूप में प्रकट होने पर भी मैं अकेला ही अपनी इच्छा के अनुसार विचरण करता हूँ। मैंने ही अपने शरीर से कभी अलग न होने वाली 'तुम' प्रकृति को प्रकट.किया है। तुम ही गुणवती माया और प्रधान प्रकृति हो। तुम प्रकृति को ही बुद्धि तत्त्व को जन्म देने वाली तथा विकार रहित कहा जाता है। काल स्वरूप
आदि पुरुष मैंने ही एक साथ तुम शक्ति को और इस काशी क्षेत्र को प्रकट किया है।’

पाँच कोस के क्षेत्रफल वाले काशी क्षेत्र को शिव और पार्वती ने प्रलयकाल में भी कभी त्याग नहीं किया है। इसी कारण उस क्षेत्र को ‘अविमुक्त’ क्षेत्र कहा गया है। जिस समय इस भूमण्डल की जल की तथा अन्य प्राकृतिक पदार्थों की सत्ता (अस्तित्त्व) नहीं रह जाती है,
उस समय में अपने विहार के लिए भगवान जगदीश्वर शिव ने इस काशी क्षेत्र का निर्माण किया था। कार्तिकेय ने अगस्त्य जी को बताया कि यह काशी क्षेत्र भगवान शिव के आनन्द का कारण है, इसीलिए पहले उन्होंने इसका नाम ‘आनन्दवन’ रखा था। काशी क्षेत्र के रहस्य को ठीक-ठीक कोई नहीं जान पाता है।श्रीस्कन्द ने कहा कि उस आनन्दकानन में जो यत्र-तत्र (इधर-उधर) सम्पूर्ण शिवलिंग हैं, उन्हें ऐसा समझना चाहिए कि वे सभी लिंग आनन्दकन्द रूपी बीजो से अंकुरित (उगे) हुए हैं।

भगवान विश्वनाथ काशी में स्थित होते हुए भी सर्वव्यापी होने के कारण सूर्य की
तरह सर्वत्र उपस्थित रहते हैं। जो कोई उस क्षेत्र की महिमा से अनजान है अथवा उसमें श्रद्धा नहीं है, फिर भी वह जब काशीक्षेत्र में प्रवेश करता है या उसकी मृत्यु हो जाती है, तो वह निष्पाप होकर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। यदि कोई मनुष्य काशी में रहते हुए पापकर्म
करता है, तो मरने के बाद वह पहले 'रुद्र पिशाच' बनता है, 'उसके बाद उसकी मुक्ति
होती है’ lजो कोई संयमपूर्वक काशी में बहुत दिनों तक निवास करता है, किन्तु संयोगवश उसकी मृत्यु काशी से बाहर हो जाती है, तो वह भी स्वर्गीय सुख को प्राप्त करता है और अन्त में पुन: काशी में जन्म लेकर मोक्ष पद को प्राप्त करता है।

स्कन्द पुराण के इस आख्यान से स्पष्ट होता है कि श्री विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग किसी मनुष्य की पूजा तपस्या आदि से प्रकट नहीं हुआ, बल्कि यहाँ निराकार परब्रह्म परमेश्वर महेश्वर ही शिव बनकर विश्वनाथ के रूप में साक्षात प्रकट हुए। उन्होंने दूसरी बार महाविष्णु की तपस्या के फलस्वरूप उपस्थित होकर आदेश दिया। महाविष्णु के आग्रह पर ही भगवान शिव ने काशी क्षेत्र को अविमुक्त कर दिया। उनकी लीलाओं पर ध्यान देने से काशी के साथ
उनकी अतिशय प्रियशीलता स्पष्ट मालूम होती है। भगवान शिव ने माँ पार्वती को बताया कि बालक, वृद्ध या जवान हो, वह किसी भी वर्ण, जाति या आश्रम का हो, यदि अविमुक्त क्षेत्र में मृत्यु होती है, तो उसे अवश्य ही मुक्ति मिल जाती है।

काशी के रहस्य
काशी के अन्य मंदिर

गुरू दत्तात्रेय भगवान का मंदिर(यहां मिलती है सफेद दाग से निजात);-

काशी का प्राचीन मोहल्ला है ब्रह्माघाट। यहीं पर के. 18/48 में स्थित है गुरू दत्तात्रेय भगवान का मंदिर। भगवान दत्तात्रेय के इस मंदिर का इतिहास दो सौ साल से भी ज्यादा पुराना है। वेद, पुराण, उपनिषद और शास्त्र बताते हैं कि फकीरों के देवता भगवान दत्तात्रेय का प्रादुर्भाव सतयुग में हुआ था।

वैसे तो दक्षिण और पश्चिम भारत में भगवान दत्तात्रेय के ढेर सारे मंदिर हैं लेकिन इन मंदिरों में विग्रह कम उनकी पादुका ही ज्यादा है। काशी स्थित यह देवस्थान उत्तर भारत का अकेला है। भगवान दत्तात्रेय के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अब तक देह त्याग नहीं किया है। वो पूरे दिन भारत के अलग अलग क्षेत्रों में विचरते रहते हैं। इसी क्रम में वो हर रोज गंगा स्नान के लिए प्रात:काल काशी में मणिकर्णिका तट पर आते हैं। मणिकर्णिका घाट स्थित भगवान दत्तात्रेय की चरण पादुका इस बात का प्रमाण है। कहते हैं कि ब्रह्माघाट स्थित मंदिर में भगवान दत्तात्रेय के दर्शन मात्र से मनुष्य को सफेद दाग जैसे असाध्य रोग से मुक्ति मिलती है।

देश का अकेला मंदिर जहां मिलता है भगवान का एकमुख स्‍वरूप...दत्तात्रेय का विग्रह हर जगह तीन मुखों वाला मिलता है लेकिन काशी अकेला ऐसा स्थान है जहां एक मुख वाला विग्रह विराजमान है। दत्तात्रेय भगवान ने ही बाबा कीनाराम को अघोर मंत्र की दीक्षा दी थी। आप गुरु गोरक्षनाथ के भी गुरु थे।

कहते हैं कि सच्चे मन से स्मरण किया जाए तो दत्तात्रेय भगवान भक्त के सामने आज भी हाजिर हो जाते हैं। महर्षि परशुराम ने मां त्रिपुर सुंदरी की साधना इन्हीं से हासिल की। अवधूत दर्शन और अद्वैत दर्शन के जरिये भगवान दत्तात्रेय ने मनुष्य को खुद की तलाश का रास्ता दिखाया। आपका वास होने के कारण गूलर के वृक्ष की पूजा की जाती है।

काशी के रहस्य
काशी के कोतवाल - काल भैरव

द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख काशी विश्वनाथ मंदिर अनादिकाल से काशी में है। यह स्थान शिव और पार्वती का आदि स्थान है इसीलिए आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है। इसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है। ईसा पूर्व 11वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने जिस विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था उसका सम्राट विक्रमादित्य ने जीर्णोद्धार करवाया था। उसे ही 1194 में मुहम्मद गौरी ने लूटने के बाद तुड़वा दिया था। बाद में 1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था।



हिंदू देवताओं में भैरव का बहुत ही महत्व है। इन्हें काशी का कोतवाल कहा जाता है। कहा जाता है कि बाबा विश्वनाथ काशी के राजा हैं और काल भैरव उनके कोतवाल, जो लोगों को आशीर्वाद भी देते हैं और सजा भी। काशी विश्‍वनाथ में दर्शन से पहले भैरव के दर्शन करना होते हैं तभी दर्शन का महत्व माना जाता है। यहां काल भैरव को काशी के कोतवाल की संज्ञा से विभूषित किया गया है।


भैरव का कार्य है शिव की नगरी काशी की सुरक्षा करना और समाज के अपराधियों को पकड़कर दंड के लिए प्रस्तुत करना। जैसे एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, जिसके पास जासूसी कुत्ता होता है। उक्त अधिकारी का जो कार्य होता है वही भगवान भैरव का कार्य है।


काल भैरव के दर्शन मात्र से शनि की साढ़े साती, अढ़ैया और शनि दंड से बचा जा सकता है। ऐसा कहा जाता है कि खुद यमराज भी बिना इजाजत के यहां किसी के प्राण नहीं हर सकते और दंड देने के अधिकार भी शिव एवं काल भैरव को ही है। यमराज को भी यहां के इंसानों को दंड देने का अधिकार नहीं है।


पौराणिक कथा के अनुसार एक बार ब्रह्मा जी और विष्णु जी में श्रेष्ठता को लेकर विवाद हुआ। ब्रह्मा ने झूठ बोला तो शिवजी को क्रोध आ गया। भगवान शिव के क्रोध से ही काल भैरव जी प्रकट हुए और उन्होंने ब्रह्मा जी का सिर काट दिया था। काल भैरव पर ब्रह्म हत्या का दोष लगने के बाद वह तीनों लोकों में घूमे। परंतु उनको मुक्ति नहीं मिली। इसके बाद भगवान शिव ने आदेश दिया कि तुम काशी जाओ, वहीं मुक्ति मिलेगी। इसके बाद वह काल भैरव के रूप में काशी में स्वयं भू प्रकट हुए और वहीं गंगा स्नान किया और फिर शिव की नगरी के कोलवाल बन वहीं रहने लगे।


काशी में जब भी कोई अधिकारी पदस्थ होता है तो सबसे पहले उसे काल भैरव के यहां हाजरी लगानी होती है तभी वह अपना कामकाज प्रारंभ करता है। इतना ही नहीं यहां के लोगों के बीच यह मान्‍यता है कि यहां मंदिर के पास एक कोतवाली भी है, और काल भैरव स्‍वयं उस कोतवाली का निरीक्षण करते हैं।

काशी के रहस्य
काशी के घाट


पुराणों के मुताबिक, सप्त पुरियों को मोक्ष स्थल कहा गया है अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, कांची, अवंतिका और द्वारका। काशी में पांच नदियों का संगम पंच गंगा घाट पर है गंगा ,जमुना ,सरस्वती ,किरणा और धूतपापा। काशी में 7 किलोमीटर लंबी घाटों की श्रृंखला है और 90 से ऊपर गंगा घाट है, जो और कहीं नहीं है। सबसे खास बात है कि आसमान से देखने पर अर्ध चंद्राकर दिखाई पड़ते हैं। बाबा विश्वनाथ के माथे गंगा का चंद्र दि‍खता है।

प्रसिद्ध घाटों में दशाश्वमेध, मणिकार्णिंका, हरिश्चंद्र और तुलसीघाट की
गिनती की जा सकती है।वाराणसी के घाटों का दृश्य बड़ा ही मनोरम है। भागीरथी के धनुषाकार तट पर इन घाटों की पंक्तियाँ दूर तक चली गई हैं।

प्रात: काल तो इनकीछटा अपूर्व ही होती है। काशी में लगभग 84 घाट हैं, जिनमें चुनिंदा पांच पावन घाटों को पंचतीर्थों के एक सूत्र में पिरोया गया है। ये वो घाट हैं, जो पौराणिक काल से मनुष्यों को उनके पापों से मुक्त कर, जीवन जीने की नई दिशा धारा प्रदान करते आ रहे हैं। इन घाटों से होती हुई गंगा नदी के दिव्य स्पर्श का अनुभव पाने के लिए, देश-विदेश से श्रद्धालु भौगोलिक सीमा लांघ, खिंचे चले आते हैं।

विश्व प्रसिद्ध अस्सी घाट

पौराणिक महत्व रखने वाले काशी के पांच तीर्थों में से एक, अस्सी घाट, का हिंदू धर्म में विशेष स्थान है। यह घाट शाम के वक्त होनी वाली गंगा आरती के लिए विश्व विख्यात है। यहां पर्यटकों को शाम की गंगा आरती का आनंद लेते हुए देखा जा सकता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार इस घाट का नामकरण अस्सी नामक प्राचीन नदी का गंगा के साथ संगम के कारण हुआ। कहा जाता है इसी स्थल पर मां दुर्गा ने दुर्गाकुंड तट पर विश्राम किया था और अपनी तलवार यहीं छोड़ दी थी, जिस के गिरने से यहां असी नदी प्रकट हुई। इस घाट पर विशेषकर विदेशी पर्यटक आना ज्यादा पसंद करते हैं।

पावन तीर्थ, दशाश्वमेध घाट

पंचतीर्थों के नाम से विख्यात काशी के पांच घाटों में दशाश्वमेध घाट का अपना विशेष स्थान है। यह घाट गोदौलिया से गंगा जाने वाले मार्ग पर स्थित है। धार्मिक मान्यता के अनुसार राजा दिवोदास ने यहां दस अश्वमेध यज्ञ करवाए थे जिसके बाद इस स्थान को दशाश्वमेध घाट का नाम प्राप्त हुआ।दशाश्वमेध घाट पर ही जयपुर नरेश जयसिंह द्वितीय का बनवाया हुआ मानमंदिर या वेधशाला है।
दशाश्वमेध घाट तीसरी सदी के भारशिव नागों के पराक्रम का स्मारक है। उन्होंने जब-जब अपने शत्रुओं को पराजित किया तब-तब यहीं अपने यज्ञ का अवभृथ स्नान किया।

महाश्मशान, मणिकर्णिका घाट

बनारस के सभी गंगा घाट किसी न किसी धार्मिक मान्यता व कथाओं की माला से गूंथे गए हैं।माना जाता है कि जब शिव विनाशक बनकर सृष्टि का विनाश कर रहे थे तब काशी नगरी को बचाने के लिए विष्णु ने शिव को शांत करने के लिए तप प्रारंभ किया।भगवान शिव और पार्वती जब इस स्थान पर आए तब शिव ने अपने चक्र से गंगा नदी के किनारे एक कुंड का निर्माण किया।कहा जाता है एक बार माता पार्वती का कर्ण फूल यहां के कुंड में गिर गया था, जिसे ढूंढने का काम भगवान शिव ने किया। इस घटना के बाद, इस स्थल को मणिकर्णिका का नाम मिला। इस घाट को महाश्मशान भी कहा जाता है।

जीवन के सबसे अंतिम पड़ाव के दौरान, मोक्ष प्राप्ति की लालसा लिए यहां व्यक्ति आने की कामना करते हैं ।मणिकर्णिका घाट के विषय में कहा जाता है कि यहां जलाया गया शव सीधे मोक्ष को प्राप्त होता है, उसकी आत्मा को जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है। यही वजह है कि अधिकांश लोग यही चाहते हैं कि उनकी मृत्यु के बाद उनका दाह-संस्कार बनारस के मणिकर्णिका घाट पर ही हो।

प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार मणिकर्णिका घाट का स्वामी वही चाण्डाल था, जिसने सत्यवादी राजा हरिशचंद्र को खरीदा था। उसने राजा को अपना दास बना कर उस घाट पर अन्त्येष्टि करने आने वाले लोगों से कर वसूलने का काम दे दिया था। इस घाट की विशेषता ये हैं, कि यहां लगातार हिन्दू अन्त्येष्टि होती रहती हैं व घाट पर चिता की अग्नि लगातार जलती ही रहती है, कभी भी बुझने नहीं पाती। इसी कारण इसको महाश्मशान नाम से भी जाना जाता है।

प्रथम विष्णु तीर्थ आदिकेशव घाट

काशी के प्रमुख पौराणिक मंदिरों में, अपनी दिव्य छवि के लिए प्रसिद्ध, आदिकेशव मंदिर, धार्मिक पर्यटकों के बीच, काफी प्रसिद्ध है। इस मंदिर की निर्माण कहानी, भगवान विष्णु के काशी आगमन से जुड़ी है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, भगवान विष्णु यहां स्थित घाट पर सबसे पहले पधारे थे, जिसके बाद उन्होंने स्वयं अपनी प्रतिमा यहां स्थापित की। वर्तमान में यह स्थल आदिकेशव घाट के नाम से जाना जाता है।इस घाट को गंगा-वरूणा संगम घाट भी कहा जाता है, क्योंकि इसी स्थान पर दैविक नदी गंगा और वरूणा का मिलन होता है।

पंच नदियों का मिलन स्थल पंचगंगा घाट

काशी के 84 घाटों में, इस घाट की भी गिनती, पंचतीर्थों में होती है। पौराणिक मान्यता के अनुसार इस घाट पर गंगा, यमुना, सरस्वती, किरण और धूतपापा नदी का मिलन होता है। इसी वजह से इस घाट को 'पंचगंगा' कहा गया है। इसी पावन घाट के सानिध्य में आकर संत कबीर ने गुरू रामानंद से दीक्षा प्राप्त की थी । घाट के उपरी भाग की सीढ़ियां ...आज भी अपनी प्रारंभिक सरंचना के द्वारा घाट की सुंदरता पर चार-चांद लगा रही हैं।

अन्य घाट

पंचतीर्थों के नाम से प्रसिद्ध इन घाटों के बाद अन्य घाट हैं ... हरिश्चंद्र घाट, केदार घाट, तुलसीघाट , राजेन्द्र घाट , चेतसिंह घाट और राज घाट आदि । पंचतीर्थ घाटों की भांति इन घाटों का भी अपना अलग धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व है।मानसिक व आत्मिक शांति के लिए इन घाटों से अच्छा स्थान और कोई नहीं

काशी के रहस्य
: काशी और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का इतिहास

1916 में महामना मदन मोहन मालवीय ने देश के कल्याण के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का संकल्प विदेशी शासन होने के बावजूद भी पूरा किया। 1360 एकड़ में 11 गांव, 70 हजार वृक्ष, 100 पक्के कुएं, 20 कच्चे कुएं, 40 पक्के मकान, 860 कच्चे मकान, एक मंदिर और एक धर्मशाला उस समय महामना को दान में मिली थी।

मालवीय मूल्य अनुशीलन केन्द्र की रिसर्च ऑफिसर उषा त्रिपाठी ने मालवीय जी पर शोध के बाद काफी दिलचस्प तथ्यों को इकठ्ठा किया है।
पांच लाख मंत्रों का हुआ था जाप
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय कि पहली कल्पना दरभंगा नरेश कामेश्वर सिंह ने की थी। उषा त्रिपाठी ने बताया कि 1896 में एनी बेसेंट ने सेंट्रल हिन्दू स्कूल बना दिया था। बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी का सपना महामना के साथ इन दोनों लोगों का भी था। 1905 में कुंभ मेले के दौरान यह प्रस्ताव लोगों के सामने लाया गया। उस समय सरकार को एक करोड़ रूपये जमा करने थे।

1915 में पूरा पैसा जमा कर लिया गया। भूमि पूजन पर पांच लाख गायत्री मंत्रों का जाप महामना द्वारा कराया गया था। उषा बताती हैं कि मालवीय जी जब 1919 में तीसरे कुलपति बनने जा रहे थे तो कुछ लोगों ने विरोध जताया था। वहीं बीएचयू आईटी के पहले प्रोफ़ेसर चार्ल्स ए किंग को बनाया गया, जो एक इतिहास है।
शिमला में भी बीएचयू बनना था
मालवीय जी का सपना था कि शिमला में बीएचयू की तरह यूनिवर्सिटी खोली जाए। आज भी उनका यह सपना पूरा नहीं हुआ। दरभंगा नरेश उस समय चाहते थे कि यह संस्कृत यूनिवर्सिटी शारदा विद्यापीठ के नाम से बने। एनी बेसेंट चाहती थी इसे यूनिवर्सिटी ऑफ इंडिया नाम दिया जाए

काशी के रहस्य
काशी का श्री विश्वनाथ मंदिर

काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर पिछले कई हजारों वर्षों से वाराणसी में स्थित है। काशी विश्‍वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्‍ट स्‍थान है। ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्‍नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य, सन्त एकनाथ रामकृष्ण परमहंस, स्‍वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, गोस्‍वामी तुलसीदास सभी का आगमन हुआ हैं।

ऐसी मान्यता है कि एक भक्त को भगवान शिव ने सपने में दर्शन देकर कहा था कि गंगा स्नान के बाद उसे दो शिवलिंग मिलेंगे और जब वो उन दोनों शिवलिंगों को जोड़कर उन्हें स्थापित करेगा तो शिव और शक्ति के दिव्य शिवलिंग की स्थापना होगी और तभी से भगवान शिव यहां मां पार्वती के साथ विराजमान हैं|

वाराणसी का श्री विश्वनाथ मंदिर कब अस्तित्व में आया, यह कहना मुश्किल है। इतिहासकारों का कहना है कि यहाँ पहला विश्वनाथ मंदिर ईसा से १९४० वर्ष पूर्व बना था। पिछले दो हजार वर्षों में इसके स्थल में कई बार परिवर्तन हुए। अकबर के शासन काल में पण्डित नारायण टोडरमल की सहायता से ज्ञानवापी में ही, जो भव्य मंदिर बनवाया था, उसे औरंगजेब ने ध्वस्त कर उसके स्थान पर मस्जिद बनवा दी थी। औरंगजेब के आक्रमण के समय पण्डितों ने शिवलिंग को ज्ञानवापी के एक कुँए में डाल दिया था।

औरंगजेब के जाने के बाद उसे वर्तमान विश्वनाथ गली में स्थापित किया गया। बाद में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने उसी शिवलिंग के ऊपर कीमती लाल पत्थरों से 51 फुट ऊँचा भव्य मंदिर बनवाया और इसके बाद ही सन् १८३९ ई. में सिख जाति के मुकुटमणि पंजाब केशरी स्वर्गीय महाराजा रणजीत सिंह ने मंदिर के ऊपरी हिस्से को स्वर्ण मण्डित ( लगभग 875 सेर शुद्ध सोना ) कराके मंदिर की शोभा बढ़ा दी।

इसके बाद जिन मुसलमान शासकों ने प्राचीन मंदिर को तोड़ा था, उन्हीं ने वर्तमान मंदिर के सिंहद्वार के सामने नौबतखाना बनवा दिया, जहाँ अब मंदिर की सुरक्षा हेतु पुलिस चौकी स्थापित कर दी गयी है। लगभग 50 वर्ष पूर्व तक यहाँ नौबत बजने के अलावा विजातीय लोग दर्शन किया करते थे। इस स्थान से काफी बड़ी संख्या में अंग्रेज दर्शन किया करते थे और उपहार तथा दक्षिणा दिया करते थे। सम्राट जार्ज पंचम से लेकर, प्रत्येक वायसराय ने विश्वनाथ का दर्शन किया था।लार्ड इरविन ने भी चाँदी के पूजापात्र भेंट किये थे।

ज्योतिर्मय शिवलिंग काशी विश्वनाथ मंदिर के गर्भ द्वार के भीतर जाते ही चाँदी के ठोस हौदे के बीच सोने की गोरी पीठ पर ज्योतिर्मय काशी विश्वेश्वर लिंग का अलभ्य दर्शन मिलता है।श्री काशी विश्वनाथ मंदिर के भीतर और बाहर और भी अनेक देव- मूर्तियाँ हैं। विश्वनाथ मंदिर के पश्चिम जो मण्डप है, उसके बीचो- बीच वेंकटेश्वर की लिंग मूर्ति है। दक्षिण ओर के मंदिर में अविमुक्तेश्वर लिंग है। सिंह द्वार के पश्चिम ...सत्यनारायणादि देव विग्रह हैं। सत्यनारायण मंदिर के उत्तर.. शनेश्वर लिंग है। इनके समीप दण्डपाणीश्वर पश्चिम के मण्डप में ही हैं। इसके उत्तर एक कोठी में जगत्माता पार्वती देवी की दिव्य मूर्ति है। इसी दालान के अंतिम कोने में श्री विश्वनाथ जी के ठीक सामने माँ अन्नपूर्णा विराजमान हैं।

एक अन्य कथा के अनुसार महाराज सुदेव के पुत्र राजा दिवोदासने गंगा-तट पर वाराणसी नगर बसाया था। एक बार भगवान शंकर ने देखा कि पार्वती जी को अपने मायके (हिमालय-क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है, तो उन्होंने किसी दूसरे सिद्धक्षेत्रमें रहने का विचार बनाया। उन्हें काशी अतिप्रिय लगी। वे यहां आ गए। भगवान शिव के सान्निध्य में रहने की इच्छा से देवता भी काशी में आ कर रहने लगे।राजा दिवोदास अपनी राजधानी काशी का आधिपत्य खो जाने से बडे दु:खी हुए।

उन्होंने कठोर तपस्या करके ब्रह्माजी से वरदान मांगा- देवता देवलोक में रहें, भूलोक (पृथ्वी) मनुष्यों के लिए रहे। सृष्टिकर्ता ने एवमस्तु कह दिया। इसके फलस्वरूप भगवान शंकर और देवगणों को काशी छोड़ने के लिए विवश होना पडा।शिवजी मन्दराचलपर्वत पर चले तो गए परंतु काशी से उनका मोह कम नहीं हुआ। महादेव को उनकी प्रिय काशी में पुन: बसाने के उद्देश्य से चौसठ योगनियों, सूर्यदेव, ब्रह्माजी और नारायण ने बड़ा प्रयास किया।

गणेशजी के सहयोग से अन्ततोगत्वा यह अभियान सफल हुआ। ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदास विरक्त हो गए। उन्होंने स्वयं एक शिवलिंग की स्थापना करके उस की अर्चना की और बाद में वे दिव्य विमान पर बैठकर शिवलोक चले गए। महादेव काशी वापस आ गए

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