27/08/2025
इस मुल्क में
दलितों की पार्टी (BSP) मौजूद है और हुकूमत भी कर चुकी है l
यादवों/OBC की पार्टी (SP/RJD) मौजूद है और हुकूमत भी कर चुकी है l
जाटों की पार्टी (RLD) मौजूद है और हुकूमत भी कर चुकी है l
सिखों की पार्टी (अकाली दल) मौजूद है और हुकूमत भी कर चुकी है l
मराठा की पार्टी (ShivSena/NCP) मौजूद है और हुकूमत कर रही/चुकी है l
द्रविड़ों की पार्टी (AIADMK/DMK) मौजूद है और हुकूमत कर रही/चुकी है l
बोडो की पार्टी (AGP) मौजूद है और हुकूमत भी कर चुकी है l
नागा की पार्टी (NPF) मौजूद है और हुकूमत भी कर चुकी है l
आदिवासियों की पार्टी (JMM) मौजूद है और हुकूमत भी कर रही/चुकी है l
बनियों की पार्टी (AAP) मौजूद है और हुकूमत कर रही है l
ब्राह्मणों की पार्टी (Congress/BJP) मौजूद है और हुकूमत कर रही है l
तो फिर मुसलमानों की अलग पार्टी होने में क्या बुराई है ??
असल सवाल यही है। जब हर जाति, हर बिरादरी, हर तबक़ा अपनी सियासी जमात बनाकर सत्ता में हिस्सेदारी ले सकता है, तो मुसलमान अगर अपनी नुमाइंदगी की ख़ातिर अपनी सियासी जमात बनाएँ, तो अचानक "सांप्रदायिकता" का ठप्पा क्यों लगा दिया जाता है?
यह मुल्क एक मोज़ेक की तरह है — जहां का हर हिस्सा अपनी पहचान और अपनी तहज़ीब के साथ जीता है। दलितों ने सदियों की ज़ुल्मत से निकलकर BSP खड़ी की और सत्ता तक पहुँचे। पिछड़े वर्गों ने SP और RJD जैसी पार्टियों से अपनी आवाज़ बुलंद की। द्रविड़ पार्टियाँ तो पूरी की पूरी राजनीति को बदलकर दिल्ली में राज चुनौती देने लगीं। झारखंड के आदिवासी अपनी जड़ों की पहचान बचाने JMM लेकर खड़े हुए। और इसी तरह, बाक़ी तमाम कौमें भी अपनी सियासी ताक़त बनाकर मैदान में आईं।
लेकिन मुसलमान, जो इस मुल्क की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक क़ौम हैं, जो 15–20% आबादी रखते हैं, उनके लिए हमेशा यही दलील दी जाती है कि "आपको अपनी पार्टी नहीं बनानी चाहिए, वरना समाज बंट जाएगा, सांप्रदायिकता बढ़ जाएगी।"
यह दोहरा मापदंड क्यों? double standard क्यों?
क्या दलित जब पार्टी बनाते हैं तो समाज नहीं बंटता?
क्या द्रविड़ जब अपनी पार्टी बनाते हैं तो मुल्क नहीं बंटता?
क्या मराठा, जाट, बोडो, नागा और आदिवासी जब अपनी आवाज़ बुलंद करते हैं तो मुल्क कमज़ोर हो जाता है?
नहीं! बल्कि इससे यह मुल्क मज़बूत होता है, क्योंकि हर तबक़े को यक़ीन होता है कि उनका भी हिस्सा है, उनकी भी आवाज़ है।
तो फिर मुसलमानों को सियासी जमात बनाने से डराना क्यों?
असल में यह डर सिर्फ़ इसलिए पैदा किया जाता है क्योंकि अगर मुसलमान अपनी एकजुट सियासी ताक़त बना लें तो सियासत का "गेम" बदल जाएगा। जो आज "vote bank" बनाकर मुसलमानों को सिर्फ़ इस्तेमाल करते हैं, कल उन्हें उनके सामने जवाबदेह होना पड़ेगा।
समाज के हर तबक़े की सियासी नुमाइन्दगी ज़रूरी है। यही सोशल जस्टिस है। यही असली लोकतंत्र है। और यही पहचान की सियासत (identity politics) का मक़सद भी है — कि किसी की आवाज़ दब न जाए, कोई तबक़ा हाशिए पर न रहे।
जो लोग मुसलमानों की पार्टी बनाने का विरोध करते हैं, वो दो तरह के हैं — या तो वो सियासत की बुनियाद ही नहीं समझते, नासमझ हैं,
या फिर वो बहुत चालाक और मक्कार सोच के लोग हैं, जो चाहते हैं कि मुसलमान हमेशा दूसरों की बैसाखियों पर टिका रहे और अपनी खुद की ताक़त कभी न बनाए।