29/07/2025
चैत्र का महीना था। गर्मियाँ जैसे अपने पूरे जोश में थीं।
पूरा कस्बा दोपहर के वक़्त किसी पुराने रेडियो की तरह सुस्त पड़ गया था।
घरों की खिड़कियाँ बंद, आँगन खाली, और गली के कुत्ते तक छाँव में लेटे हुए थे।
चारों तरफ़ सन्नाटा था — और उस सन्नाटे में एक अकेली छत थी, जिसकी गर्म टाइलों पर एक लड़की अकेले लेटी थी।
उसका नाम था सुपर्णा।
सादा सलवार सूट, आँखों पर एक पुराना दुपट्टा रखे हुए।
नीचे घर में सब सो रहे थे — लेकिन उसकी नींद को छत की गर्म हवा ने कहीं दूर उड़ा दिया था।
सुपर्णा की उम्र कुछ बीस-बाईस रही होगी। पर उसकी आँखें वैसी नहीं थीं, जैसी उस उम्र की होती हैं।
वो आँखें जैसे किसी ऐसे रास्ते से होकर गुज़री थीं, जहाँ रुकावटें कम और सवाल ज़्यादा थे।
वो अक्सर इसी वक़्त छत पर आ जाती थी, जब माँ दोपहर की रोटियाँ बनाकर लेटती थीं, और बुआ अपने पंखे के नीचे पसीना पोंछते हुए लेट जाती थीं।
सुपर्णा को छत से नफ़रत नहीं थी, पर वो छत उसके अंदर कुछ खोल देती थी।
जैसे कोई पुराना जख़्म, जो अब दर्द नहीं करता, पर उसका निशान अब भी जीता है।
उस दोपहर, वो छत कुछ ज़्यादा ख़ामोश थी।
पास की हवेली से रेडियो की धीमी आवाज़ आ रही थी —
"लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है..."
मगर बारिश नहीं थी। सिर्फ़ गर्मी थी, और तन्हाई।
अचानक उसके कानों में एक जानी-पहचानी आवाज़ गूंजी।
"अब भी छत पर सोती हो?"
सुपर्णा ने दुपट्टा हटा कर देखा।
वो खड़ा था —
यश।
दस साल पहले जो लड़का उसके साथ पतंग उड़ाता था, जो हर गर्मियों की छुट्टियों में उसकी छत पर आ जाया करता था।
वो अब कुछ लंबा और थोड़ा थका-सा दिख रहा था।
शर्ट का कॉलर मुड़ा हुआ, और माथे पर पसीने की रेखा।
"तुम?"
सुपर्णा की आवाज़ में हैरानी नहीं थी, बस एक धीमी सी धड़कन थी।
"बगल वाले शर्मा जी का बेटा हूँ मैं अब भी। पर अब बस शहर में रहता हूँ। आज आया था माँ को देखने। सोचा ऊपर से देख लूं कि वो लड़की अब भी धूप में तन्हा लेटती है या नहीं।"
सुपर्णा हल्के से मुस्कराई।
"अब तो सिर्फ़ छत ही रह गई है... बाकी सब बदल गया है।"
यश कुछ पल चुप रहा।
फिर पास आकर दीवार पर टिक गया।
नीचे गली में दूधवाला साइकिल खींचता निकल गया। घंटी की आवाज़ धूप में तैरती रही।
"तुम्हें याद है, एक बार बारिश में हम दोनों ने छत पर ही भीगते हुए चाय पी थी?"
यश की आँखों में एक पुराना बादल तैर गया।
"हां... और उसके बाद मैं बीमार पड़ गई थी। माँ ने कहा था, यश से दोस्ती बंद करो।"
सुपर्णा की हँसी अब भी वैसी ही थी, बस थोड़ी थकी हुई।
"और तुमने सच में बंद कर ली..."
यश की बात जैसे छत पर पड़े किसी पुराने ईंट से टकरा कर वहीं रुक गई।
सुपर्णा ने नज़रे फेर लीं।
"कभी-कभी कुछ रिश्ते छत की तरह होते हैं... खुले हुए, मगर अकेले।"
धूप अब तेज़ हो चली थी।
यश ने पसीना पोंछा।
"तुम अब क्या करती हो?"
"कुछ नहीं। बस... सिलाई-कढ़ाई। माँ को देखकर लगता है, औरतें किचन और छत के बीच ही पूरी ज़िंदगी काट देती हैं। मैं भी वही कर रही हूँ शायद।"
यश ने छत की दीवार पर उँगलियाँ फेरते हुए कहा
"मैं अक्सर सोचता था, तुम कुछ बड़ा करोगी। कहीं दूर जाओगी। सपने पूरे करोगी।"
"हां, मैंने भी यही सोचा था... फिर किसी ने धीरे से कह दिया कि सपने देखना लड़कियों के लिए ठीक नहीं। और मैंने मान लिया।"
छत पर कुछ देर खामोशी छा गई।
सिर्फ़ कपड़ों की तार पर लटकी एक पुरानी साड़ी हवा से हिल रही थी।
"मैं अब भी वही हूँ, यश। बस थोड़ी थकी हुई।"
सुपर्णा की आवाज़ अब धीमी थी, जैसे किसी पुराने गाने की आखिरी पंक्ति।
"और मैं अब भी वही हूँ, जो उस बारिश में तुम्हारे पास बैठा था... बस थोड़ा अकेला।"
यश ने कहा, और फिर कुछ नहीं कहा।
उन दोनों के बीच न कोई वादा था, न कोई शिकायत।
सिर्फ़ कुछ पुराने लम्हे थे, जो धूप में झुलसते हुए अब भी सांस ले रहे थे।
नीचे से माँ की आवाज़ आई
"सुप्पू, खा लो कुछ आकर। गर्मी में मत लेटा कर इतनी देर छत पर।"
सुपर्णा ने बिना जवाब दिए सिर्फ़ आँखें बंद कर लीं।
उसने चाहा कि वक़्त वहीं रुक जाए, उस पुरानी छत पर, उस धूप में, उस दीवार के पास जहाँ यश खड़ा था।
पर वक़्त कहाँ रुकता है।
यश ने धीरे से कहा
"चलता हूँ। शायद फिर कभी, इसी छत पर मिलें।"
सुपर्णा ने कुछ नहीं कहा।
बस दुपट्टा वापस आँखों पर रख लिया।
नीचे से आती थाली की आवाज़, दूर रेडियो पर किसी और गाने की धुन, और छत पर एक बिखरी तन्हाई...
वही सब फिर से बिखर गया था।
कुछ रिश्ते अधूरे नहीं होते।
वो पूरे होते हैं, बस हमारे हिस्से पूरे नहीं होते।
"कुछ छतें तन्हा नहीं होतीं, बस वहाँ कोई ठहरा नहीं होता..."
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