27/10/2025
‘पनवा कहेले हम पसरबि, अपने रवें पसरबि…’
भोर का उजास अभी पूरी तरह फैला भी नहीं था कि नींद खुल गई। आज छठ का तीसरा दिन है। संझा अर्घ्य का दिन। घाटों की हलचल, घरों की चहल-पहल और हवा में घुली कातिक की नमी। सबमें एक अद्भुत शांति थी। ऐसे ही क्षणों में यह गीत मन में तैर आया। ‘पनवा कहेले हम पसरबि, अपने रवें पसरबि ए ललना…’। न जाने यह गीत कब से लोक-कंठ में बसा है। पर, इसकी धुन में समय ठहर जाता है। इसे सुनते-सुनते मन उसी लोक में उतर गया जहाँ भक्ति और जीवन एक-दूसरे से मिलने आते हैं। पान, पुरइन, बालक, बाजन, सब संवाद करते हैं। सहज भाव में। बिना किसी अलंकार के। बगैर किसी औपचारिकता के। गीत में जीवन का यह सम्मोहन है, जो हर भाव को पूजा बना देता है। हर शब्द को मनुष्य की आत्मा में बदल देता है।
भक्ति नहीं, आत्मीयता है, यह। देवता के नाम पर लोक की अपनी बोली में कही गई सरल जीवन-गाथा। यहाँ आराधना नहीं, परिजनों का संवाद है। देवता भी उस घर के सदस्य हैं। इसमें गऊरा देवी का आँगन है। महादेव का दूअरा। यह वही धरातल है, जहाँ पूजा, प्रेम और परिवार एक हो जाते हैं। गीत में कोई विस्मय नहीं, बस सहज भाव का प्रवाह है। यही लोकगीतों का उत्स है। ‘पनवा कहेले हम पसरबि’ से लेकर ‘बालका कहेला हम लोटब’ तक रचना एक छोटे लेकिन पूर्ण संसार को समेटे हुए है। देव, देवी, घर, आँगन, रसोई और जीवन के उल्लास का।
गीत में जो आत्मीयता है, वह भारतीय स्त्री के घरेलूपन से उपजती है। ‘गऊरा देई का आँगन’। ‘महादेव का दूअरा’। यह जीवन के दो छोरों का संकेत है। एक ओर शिव हैं, जो तत्त्व हैं, सनातन हैं, निर्गुण हैं। दूसरी ओर गौरा हैं, जो गृह हैं, सगुण हैं, स्नेह हैं। गीत में जब पान कहता है ‘अपने रवें पसरबि’, तब यह पान किसी भौतिक वस्तु का नहीं, अपितु व्यक्ति की अपनी सहज गति का प्रतीक है। वह फैलता है। पसरता है। पर, अपनी मर्यादा में रहकर। जिस लोक में यह गीत जन्मा है, वहाँ पान सगाई, प्रेम, पूजन, सौंदर्य—सबका दूत है। उसका ‘पसरना’ एक सहज अनुग्रह है। वह बलपूर्वक नहीं, सहज स्वभाव से फैलता है। जैसे भक्ति बिना उपदेश के फैलती है, जैसे वात्सल्य बिना आग्रह के फैलता है।
फिर ‘बाजन कहेले हम बाजब’ आता है। यह ‘बाजन’ भी प्रतीक है, जीवन के उत्सव का। लय का। ताल का। यह वही लोक है, जहाँ हर अनुष्ठान संगीत से शुरू होता है। हर संगीत जीवन से लौटता है। बाजन कहता है ‘अपने रवें बाजब’, यानी अपनी लय में रहकर ही गूँजूँगा। जीवन भी तो तब तक सुरीला है, जब तक अपनी लय में है। यह बालसुलभ कथन किसी गहरी दार्शनिकता से उत्पन्न नहीं, पर जीवन की सच्ची पहचान से उपजा है। महादेव के द्वार पर, गौरा के आँगन में, रसोइया के दुआर पर। हर स्थल यहाँ प्रतीक है, जीवन के विभिन्न रंगों का। द्वार—सामाजिकता का, आँगन—गृह की पवित्रता का, और रसोई—जीवन की दैनिक परंपरा का। गीत बताता है कि भक्ति केवल मंदिर या घाट तक सीमित नहीं; वह आँगन, द्वार और रसोई तक फैली संवेदना है।
‘पुरइन कहेले हम पसरब’—यह एक ऐसा बिंब है, जो लोकसंसार की सबसे कोमल कल्पनाओं में से एक है। पुरइन जल का वस्त्र है। कीचड़ में जन्मी। पर निथरा हुआ शीतल हरापन, जो अपने ऊपर ठहरे जल बूँदों को मोती सदृश बना देती है। सूर्य की किरणें भी कोमल हो जाती हैं। वह गहराई को ढक नहीं लेती, उसे निहाल कर देती है। पुरइन का फैलना धरती पर नहीं, जल पर है। वही पानी जो सूर्य को अर्घ्य के समय लोक की आँखों में उतरता है। जब गीत में पुरइन कहती है कि ‘पसरब महादेव का दूअरा, गऊरा देई का आँगन ए ललना’, तो वह गहराई में यह कह रही है कि मैं सौंदर्य का आच्छादन नहीं, शीतलता का विस्तार हूँ। जीवन के जल में जो भी ऊष्मा है, मैं उसे शीतल करती हूँ। वैसे ही जैसे भक्ति जीवन के ताप को शांत करती है।
और फिर गीत का अंतिम प्रसंग—‘बालका कहेला हम लोटब’। यही इस गीत का चरम है, उसका मूल। बालक यहाँ मासूम जीव नहीं, ‘जीवन-स्रोत’ है, जो सबके स्नेह से पला है। वह कहता है, ‘लोटब महादेव का दूअरा, गऊरा देई का आँगन, गऊरादेई का आँचर’। कितना भावुक, कितना सूक्ष्म चित्र है, यह! बालक लोटना चाहता है। माटी में। आँचल में। उस आँगन में, जहाँ से जीवन का आरंभ होता है। वह संसार के बड़े अर्थ नहीं जानता। पर, वह सहजता जानता है। उसका लोटना, वस्तुतः अपनेपन का आस्वाद है। गऊरा के आँचल में लोटना मातृत्व में समर्पण है, और महादेव के द्वार पर लोटना जीवन की दिव्यता में खेलना है। यह लोक की सृजनशीलता का महान क्षण है॥ जहाँ धर्म और जीवन एक ही कण में समा जाते हैं।
पूरे गीत में एक अद्भुत समरसता है—यह समरसता ही भारतीय लोकजीवन का सूत्र है। यहाँ कोई विभाजन नहीं, न देह और देव में, न गृह और मंदिर में, न पूजा और प्रवृत्ति में। सब एक-दूसरे में धीरे-धीरे घुलते हैं। यही भारतीय जीवन की ‘संलयात्मक’ दृष्टि है जिसे आधुनिक शब्दों में ‘होलिस्टिक’ कहा जा सकता है। जो पान फैलता है, वही बाजा बजता है, वही पुरइन पसरती है, वही बालक लोटता है—और सबकी गति एक है: ‘अपने रवें’। यह ‘अपने रवे’ जीवन का मूल है। यहाँ कोई बाहरी अनुशासन नहीं, कोई घोष नहीं। जो कुछ है, वह अपनी सहजता में है। अपने संस्कार में है। यही लोकधर्म है। यही ऋत।
गीत में उल्लिखित ‘महादेव का द्वार’, ‘गऊरा देई का आँगन’ और ‘रसोइया का द्वार’ वस्तुतः एक जीवन-परिसर के तीन आयाम हैं। आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और घरेलू। शिव का द्वार, ‘तप की मर्यादा’ का प्रतीक है। गौरा का आँगन, ‘प्रेम और गृहस्थ के विस्तार’ का। वहीं रसोई का द्वार ‘सृजन और अन्न-संस्कार’ का। लोक इन तीनों को अलग नहीं मानता। छठ का पर्व स्वयं इन्हीं तीनों की संगति है। सूर्य का तप, प्रकृति की स्नेहिल छाया, और घर की आत्मीयता। ऐसा गीत केवल पूजा का नहीं, जीवन का गान है।
दरअसल यह गीत लोक की आत्मा का ‘स्वर-चित्र’ है, जो धर्म को मानव के सुख-दुःख में पिरो देता है। जिस लोक में बालक, पान, पुरइन, बाजा, सभी अपनी ‘गति’ में हैं, वहाँ जीवन की कोई वस्तु निष्प्राण नहीं होती। सबका अर्थ है। सबका आनंद है। यही ‘छठ’ का सौंदर्य है। यह केवल सूर्य की उपासना नहीं, बल्कि जीवन की गति, लय और संतुलन का उत्सव है। जो अर्घ्य दिया जाता है, वह सूर्य को ही नहीं, उस आत्मा को भी जिसे धरती ने जन्म दिया है।
इस गीत को सुनते हुए लगता है जैसे कोई ग्राम्य माँ अपने बच्चे से संवाद कर रही है, देवता भी उसके घर के सदस्य हैं। और उसके सांसारिक व्यवहार में भी उसी पवित्रता का विस्तार है। यही भारतीय संस्कृति की सबसे विलक्षण विशेषता है। यह धर्म को जीवन से बाहर रखकर नहीं देखती, बल्कि जीवन को ही धर्म का विस्तार मानती है।
लोक की भाषा में न कहीं कौशल है, न व्याकरण। पर उसमें वह सुगंध है, जो केवल सहजता से आती है। वही सुवास इस गीत में है। पान की हरी पत्तियों की, पुरइन की ताजगी की, रसोई की रोटी की, और बालक की हँसी की। यह गीत सुनते हुए लगता है कि जीवन किसी सिद्धांत पर नहीं, एक गंध पर टिका है। माँ की, माटी की। देवता की।
गीत का यह भाव-संसार अनंत है। इसमें घर है। देव हैं। जल है, अन्न है। बालक है। और इन सबके बीच एक अदृश्य रस है, जो सबको बाँधता है। यह रस ही ‘लोक’ है। और यही भारतीय भक्ति के हृदय का सबसे गूढ़ सत्य—कि जहाँ जीवन है, वहीं देवता हैं। जहाँ आँगन है, वहीं अर्घ्य है। जहाँ बालक हँसता है, वहीं लोक की आत्मा गाती है।
आलेख : डा० देवेन्द्र नाथ तिवारी