30/03/2024
आइए, जानें चूरू लोकसभा सीट की कहानी
वे ज़रूरी बातें जिन्हें मीडिया भी दरकिनार कर देता है
1977 में पहली बार बना लोकसभा क्षेत्र, इससे पहले पांच चुनावों तक बीकानेर, झुंझुनूं, सीकर और गंगानगर सीटों में जुड़ता-टूटता रहा
1952 के पहले चुनाव में पूरे जिले की साक्षरता महज 10 प्रतिशत थी, महिलाएं महज 4.5 प्रतिशत ही पढ़ी-लिखी थीं, गांवों में महिला निरक्षता का आलम यह था कि 99.2 प्रतिशत महिलाओं को अक्षर ज्ञान तक न था यानी 100 में एक महिला को भी बमुश्किल अक्षर-ज्ञान न था।
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एक ज़रूरी बात : चुरू देश का वह क्षेत्र है, जिसने स्कॉटिश स्टेट्समैन और बॉम्बे प्रेसीडेंसी के गवर्नर माउंटस्टुअर्ट एल्फ़िंस्टन जैसे इतिहासवेत्ता को अपने अप्रतिम रेतीले वैभव से अवाक् कर दिया था। एल्फ़िंस्टन क़ाबुल जा रहे थे तो उन्हें बीकानेर महाराजा ने आमंत्रित किया। वे चूरू होते हुए निकले तो इलाके के सौंदर्य ने उन्हें मोहित कर लिया। वे रुक गए और क़रीब कई मील पैदल चले। उन्होंने लिखा है, “ख़ूबसूरत रेतीले टीलों का यह मनमोहक दृश्य अवर्णनीय है। इस क्षेत्र के घर सीढ़ियों वाले हैं। दिलकश दीवारों को क्या ही नफ़ासत से बनाया गया है। सफेद रंग के चूने की पुताई एक अलग ही भव्यता रचती है।”
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यह जानना ज़रूरी है कि 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में चूरू सीट नहीं थी। इसका नाम तब था बीकानेर-चूरू। इसमें आने वाले इलाक़े थे : चूरू जिला (चूरू, राजगढ़ और तारानगर तहसीलों को छोड़कर), बीकानेर जिला, नागौर तहसील (नागौर, मूंडवा और खाटू कलाँ पुलिस स्टेशनों को छोड़कर) और नागौर जिले की डीडवाना तहसील के लाडनूं और बरदवा पुलिस स्टेशनों का इलाक़ा। उस समय यह बहुत ऊटपटांग से बना लोकसभा क्षेत्र था।
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चूरू शुरू से ही आर्यसमाज के सुधारवादी आंदोलनों और प्रजा परिषद की सक्रियता वाला इलाक़ा रहा था। लेकिन ज़मीनी हालात बहुत बदतर थे।
काँग्रेस थी, कम्युनिस्ट थे, जनसंघ के लोग थे और स्वतंत्र पार्टी की सक्रियता थी। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी थी। कृषिकार लोक पार्टी थी। राम राज्य परिषद थी। उस समय कम्युनिस्ट दो खेमों में थे। कम्युनिस्ट आर और कम्युनिस्ट एम।
पहले चुनाव के समय हालात की कल्पना करना भी संभव नहीं।
1951 की जनगणना बताती है कि उस समय चूरू जिले में साक्षरता 10.1 प्रतिशत थी। पुरुष 15.3 और महिलाएं 4.5 प्रतिशत। चूरू के शहरी और कस्बाई इलाके में साक्षरता 22.3 प्रतिशत थी। पुरुष 33.6 और महिलाएं 11.0 प्रतिशत। लेकिन गांवों का परिदृश्य बहुत दयनीय था। साक्षरता सिर्फ़ 3.2 प्रतिशत थी। पुरुष 5.7 और महिलाएं 0.8 प्रतिशत। आज के हालात को देखते हुए यह अकल्पनीय है। हम कहाँ से चले हैं और आज किस जगह पहुँच चुके हैं।
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चूरू के इन इलाकों में 1960 से पहले महिलाएं अधिक थीं, पुरुष ज़्यादा
1961 की जनगणना में यह तस्वीर खुली कि रतननगर, राजलदेसर, श्रीडूंगरगढ़, बीदासर, छापर और सुजानगढ़ इलाकों में पुरुषों की तुलना में महिलाएं कहीं अधिक है। शायद इसकी वजह ये थी कि इन इलाकों के पुरुष बड़ी तादाद में असम और पश्चिम बंगाल जैसे इलाकों में कमाई के लिए प्रवास पर चले जाते थे।
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ऐसे सितारे और कहाँ होंगे?
यह दुनिया के मशहूर पूंजीपति और औद्योगिक घराने लक्ष्मी मित्तल, साहित्य के क्षेत्र में प्रसिद्ध भँवरसिंह सामौर और फिल्म-साहित्य और संगीत के मामले में भरत व्यास जैसे सितारों का इलाका है।
यह आरबीआई के गवर्नर रहे विमल जालान, गायिका रेशमा, मुबारक़ बेग़म, गुरु हनुमान, कन्हैयालाल सेठिया, गोवा मुक्ति आंदोलन के सूत्रधार लेफ़्टिनेंट सगतसिंह जैसे लोगों को जन्म देने वाला इलाक़ा है।
यह परमवीर चक्र विजेता पीरूसिंह राठौड़ की सरज़मीं है।
1952 : पहला चुनाव
पहले चुनाव में 3,77,481 मतदाता थे, जिनमें से महज 1,87,557 लोगों ने वोट डाले। निर्दलीय महाराजा करणीसिंह काँग्रेस के राजा कौसल सिंह को हराकर जीते थे।
पहले चुनाव में चूरू जिले की चूरू, राजगढ़ और तारानगर तहसीलें गंगानगर-झुंझुनूं सीट के साथ जोड़ दी गई थीं। उस समय गंगानगर, झुंझुनूं, सीकर और जयपुर को मिलाकर एक डबल मेंबर कंस्टीट्वेंसी बनाई गई थी। इसमें एक एससी आरक्षित सदस्य होता था और दूसरा गैरएससी-एसटी वर्ग से। ये दोनोंं सीटें काँग्रेस ने जीतीं। एससी सांसद चुने गए पन्नालाल बारूपाल और गैरआरक्षित में निर्वाचित हुए राधेश्याम मुरारका।
1957 : दूसरा चुनाव
दूसरे लोकसभा चुनाव (1957) में गंगानगर और बीकानेर के साथ चूरू जिले (सुजानगढ़ तहसील और 11 गाँवों को छोड़कर) को मिलाते हुए एक नई डबल मेंबर कंस्टीट्वेंसी तैयार की गई।
इस बार बीकानेर से निर्दलीय करणीसिंह और एससी प्रतिनिधि के रूप में पन्नालाल बारूपाल काँग्रेस से जीते।
सुजानगढ़ तहसील (कुछ गांवों को छोड़कर) को नागौर लोकसभा में मिला दिया गया।
1962 : तीसरा चुनाव
तीसरे चुनाव यानी 1962 में चूरू जिले को गंगानगर, बीकानेर और नागौर सीटों में बांट दिया गया। लेकिन इसका आधा हिस्सा चूरू, सरदारशहर, डूंगरगढ़ और रतनगढ़ विधानसभा क्षेत्रों वाला इलाका बीकानेर में रहा। सुजानगढ़ क्षेत्र को नागौर के साथ रखा गया।
महाराजा करणीसिंह निर्दलीय जीते। उन्होंने एक निर्दलीय और एक भाकपा के उम्मीदवार को हराया। काँग्रेस मुक़ाबले में ही नहीं आ सकी थी।
1967 : चौथा चुनाव
चाैथे आम चुनाव (1967) में चूरू को बीकानेर, झुंझुनूं और सीकर के लोकसभा क्षेत्रों के साथ मिला दिया गया।
छापर, डूंगरगढ़, सरदारशहर और चूरू को बीकानेर में, सादुलपुर झुंझुनूं में और सुजानगढ़ एसेंबली सीट को सीकर में शामिल किया गया।
इस तरह इस चुनाव में बीकानेर से निर्दलीय करणीसिंह ही जीते। उन्होंने निर्दलीय एसी गोदारा को हराया।
1971 : पांचवां चुनाव
1971 में बीकानेर से महाराजा करणीसिंह निर्दलीय जीते। उनके सामने काँग्रेस-जे के भीमसेन थे।
और 1977 में चूरू बना लोकसभा क्षेत्र
1977 में संसदीय क्षेत्रों का परिसीमन हुआ तो चूरू संसदीय सीट अस्तित्व में आई और इसी के साथ चूरू सीट का पहला चुनाव हुआ 1977 में। चूरू के पहले सांसद बने चौधरी दौलतराम सहारण। वे 1957 और 1962 में श्रीडूंगरगढ़ से काँग्रेस विधायक रह चुके थे। वे 11 अप्रैल, 1957 को सुखाड़िया सरकार में उपमंत्री बने। लेकिन 27 दिसंबर, 1966 को मुख्यमंत्री से भेदभाव होने पर कुंभाराम आर्य जैसे नेताओं के साथ सरकार छोड़ दी। हालात ऐसे बने कि 1967 में काँग्रेस ही छोड़ दी। इसके बाद वे श्रीडूंगरगढ़ से निर्दलीय विधायक बने और ताकतवर विरोधी नेता के रूप में उभरे। 1972 में वे चुनाव हार गए। आपातकाल लगा तो 19 महीने जेल में रहे। इसके बाद चूरू सीट बनते ही वे स्वाभाविक उम्मीदवार बने और जीते।
चूरू से लोकसभा सदस्य रहे नेता
1977 : दौलतराम सहारण JP
1980 : दौलतराम सहारण JP Secular
1984 : मोहरसिंह राठौड़ INC
1985 : नरेंद्र बुडानिया उपचुनाव INC
1989 : दाैलतराम सहारण JD
1991 : रामसिंह कस्वां BJP
1996 : नरेंद्र बुडानिया INC
1998 : नरेंद्र बुडानिया INC
1999: रामसिंह कस्वां BJP
2004 : रामसिंह कस्वां BJP
2009 : रामसिंह कस्वां BJP
2014 : राहुल कस्वां BJP
2019 : राहुल कस्वां BJP
2024 : ? ( मुक़ाबला भाजपा से काँग्रेस में गए राहुल कस्वां और भाजपा के देवेंद्र झाझड़िया के बीच)
कुछ ख़ास बातें
सहारण और शायर उस्मान
-1977 में दौलतराम सहारण बीएलडी से लड़े; क्योंकि जनता पार्टी बन गई थी। लेकिन उसे चुनाव आयोग में मान्यता नहीं थी। वे उम्मीदवार जनता पार्टी के थे और टिकट था भारतीय लोक दल का। ऐसा ही पूरे देश में हुआ था। विरोधी दलों के नेता आपातकाल के बाद जेलों से छूटे थे और आननफानन में यही व्यवस्था बैठी। सहारण का मुक़ाबला काँग्रेस नेता और शायर मोहम्मद उस्मान आरिफ़ से था। वे इंदिरा-भक्त थे। बीकानेर के थे। बाद में राज्यसभा भेजे गए, केंद्र में मंत्री और उत्तरप्रदेश राज्यपाल भी बने। अक़ीदत के फूल, क़लम की काश्त और नज़र-ए- वतन उनकी पुस्तकें हैं।
जनता पार्टी एस बनाम जनता पार्टी
1980 में जनता पार्टी अनगिनत टुकड़ों में टूट गई। दौलतराम सहारण जनता पार्टी सेक्युलर वाले हिस्से में रहे। इसी की टिकट पर सांसद चुने गए। मुक़ाबला आलम अली खान से था। ये जनता पार्टी के उम्मीदवार थे। काँग्रेसी नेता चंदनमल बैद तीसरे स्थान पर रहे। आलम अली खान स्वतंत्र पार्टी के नेता थे। वे 1967 में फतेहपुर से इसी पार्टी के विधायक चुने गए थे। लेकिन 1977 में वे जनता पार्टी की टिकट पर इसी सीट से विधायक बने। वे निहायत भले इन्सान थे। इनके पिता फतेहपुर के नवाब भी थे और सेनानायक भी रहे थे।
एक नए सितारे का उदय
-1984 में इलाके के प्रसिद्ध समाजसुधारक और आर्यसमाज तथा भूदान आंदोलनों के नेता मोहरसिंह राठौड़ ने चुनाव जीता; लेकिन उनका निधन हो गया। इसके बाद उपचुनाव में काँग्रेस की राजनीति का एक नया सितारा चूरू से उभरा जिसका नाम था : नरेंद्र बुडानिया। वे चुनाव जीते और संसद पहुंचे। मोहरसिंह ने लोकदल के दौलतराम सहारण को हराया था। इस चुनाव की खास बात ये थी कि यहाँ से पहली बार भाजपा ने दावेदारी की। उम्मीदवार थे बहादुरसिंह। वे तीसरे नंबर पर रहे।
काम आई अतीत की दौलत
-1989 : दाैलतराम सहारण JD से जीते। बुडानिया हार गए। दौलतराम केंद्र में मंत्री बने और उनके पास यूडीएच जैसा महकमा रहा।
भाजपा की नींव बने कस्वां
-1991 : रामसिंह कस्वां BJP के टिकट पर जीते। उन्होंने काँग्रेस के जयसिंह राठौड़ को हराया। इस चुनाव में दौलतराम सहारण झारखंड पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े और बुरी तरह हारे। इस चुनाव में मोहम्मद माहिर आज़ाद जनता दल के उम्मीदवार थे।
और बुडानिया ताकतवर होते गए
-1996 : नरेंद्र बुडानिया INC जीते। भाजपा के रामसिंह कस्वां हारे।
-1998 : नरेंद्र बुडानिया INC जीते और भाजपा के रामसिंह कस्वां हारे। इस चुनाव में जनता दल के राधेराम गोदारा भी खड़े हुए थे। वे तीसरे स्थापन पर रहे।
कस्वां ने बनाई अभूतपूर्व पैठ
-1999: रामसिंह कस्वां BJP जीते और बुडानिया को हराया।
-2004 : रामसिंह कस्वां BJP जीते और बलराम जाखड़ को हराया। इसके बाद जाखड़ ने कभी इधर नहीं देखा।
-2009 : रामसिंह कस्वां BJP जीते और काँग्रेस के रफ़ीक मंडेलिया हारे।
पिता को पीछे किया, बेटे को आगे लाए
-2014 : राहुल कस्वां BJP जीते। रामसिंह कस्वां का टिकट काट कर पुत्र को दिया गया, क्योंकि रामसिंह जीतते तो वे चौथी बार लगातार जीते वरिष्ठ सांसद होते। जानकारों का कहना है कि उनकी वरिष्ठता को तोड़ने के लिए भाजपा में यह खेल हुआ। वरिष्ठ होते तो केंद्र में मंत्री बनते और मंत्री बनते तो चूरू की राजनीति ही नहीं, प्रदेश की राजनीति पर उनका वर्चस्व बढ़ता। लेकिन उनका मुकाबला काँग्रेस से न होकर काँग्रेस से बसपा में गए अभिनेष महर्षि से हुआ। काँग्रेस उम्मीदवार प्रतापसिंह तीसरे नंबर पर रहे।
-2019 : राहुल कस्वां BJP मोदी लहर में फिर जीते। इनके ख़िलाफ़ काँग्रेस ने रफ़ीक मंडेलिया को उतारा था। माकपा के बलवान पूनिया ने भी चुनाव लड़ा।
अब उलट गए सब पासे
अब सारे पासे उलट गए। भाजपा ने राहुल कस्वां का टिकट काटकर नए चेहरे देवेंद्र झाझड़िया को दे दिया। कुछ प्रमुख नेताओं का कहना है कि यह आधारहीन बात है कि पार्टी ने कस्वां का टिकट अंदरूनी बैरभाव से काटा। यह टिकट उसी तरह कटा है, जैसे जयपुर, गंगानगर, धौलपुर-करौली या अन्य जगहों के निर्विवाद सांसदों के कटे हैं। अगर शिकायत करने वालों की वजह से टिकट कटता तो फिर उनके कहे से टिकट मिलता भी। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। चूरू में बड़ी वजह पार्टी को परिवार की जकड़न से निकलना रहा है। लिहाजा, अब राहुल कस्वां कांग्रेस से उम्मीदवार हैं तो भाजपा से देवेंद्र झाझड़िया हैं। कस्वां के साथ अब माकपाई भी हैं और काँग्रेसी भी। झाझड़िया खेल संसार के सितारे हैं।
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और अंत में
कहते हैं, अपने किले की रक्षा के लिए चूरू वाले चाँदी के गोले दागने से भी नहीं चूकते। ऐसा 1814 में हुआ और उसके बाद 2023 में।
देखते हैं, 2024 में भी तोपों से चाँदी के गोले दागे जाते हैं या नहीं?
1814 में बीकानेर के राजा सूरतसिंह ने चूरू पर हमला किया तो राजा शिवजी सिंह ने सामान्य गोला-बारूद खत्म होने से पर अपने सैनिकों को आदेश दे दिया था कि चाँदी के बहुमूल्य गोले दाग़ दो। संयोग रहा कि इन गोलों का हमला ठाकुर सूरतसिंह और उनकी सेना नहीं झेल पाए और बिना अपनी सूरत दिखाए ही भाग गए।
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लेख साभार: दैनिक नवज्योति से त्रिभुवन जी
#चूरू