Heart Touching Kahaniya

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हेयर ड्रायर  हम लड़कियाँ जब स्कूल से काॅलेज़ में आते हैं..फ़्राॅक से एकाएक सलवार-सूट परिधान में खुद को बहुत बड़ा और फ़ैश...
27/07/2025

हेयर ड्रायर
हम लड़कियाँ जब स्कूल से काॅलेज़ में आते हैं..फ़्राॅक से एकाएक सलवार-सूट परिधान में खुद को बहुत बड़ा और फ़ैशन की सभी वस्तुओं का उपयोग करने के काबिल समझने लगते हैं।मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था।मेरी अलमारी के रैक पर किताब- कपड़ों के साथ-साथ सेंट और नेलपाॅलिश की शीशियाँ भी नजर आने लगीं थीं।
उन्हीं दिनों मैंने एक फ़िल्म में किसी अभिनेत्री को एक यंत्र से बाल सुखाते देखा।तब समझ में आया कि बाल जैसी तुच्छ चीज को भी सुखाने के लिए कोई उपकरण होता है।जिस केश को कवि- गीतकार काली घटा और बलखाती नागिन की उपमा देते हैं, उसे तो पार्लर वाली सेकेंड भर में अपनी कैंची से कतरकर कचरा बना देती है, तो फिर बाल मूल्यवान तो रहे ही नहीं।
खैर, तो बात हो रही थी बाल सुखाने वाले यंत्र की।फ़िल्म के एक दृश्य के संवाद में अभिनेत्री ने उस यंत्र को हेयर ड्रायर कहा तब हमें इतना ही समझ में आया कि हेयर ड्रायर को हिरोइन लोग ही इस्तेमाल करतीं हैं।
कुछ समय बाद हमारे हाॅस्टल में एक नई लड़की का आगमन हुआ।उसके हाव-भाव से ही स्पष्ट हो गया था कि वो किसी रईस की साहेबज़ादी हैं।एक दिन गलती से मेरी सहेली सुधा उसके कमरे में चली गई।उस वक्त साहेबज़ादी उसी उपकरण से अपने गीले बालों को सुखा रही थी।सुधा मेरे पास आकर अपनी आँखें बड़ी करके बोली," विभाऽऽऽऽऽऽऽ.., उसके पास हेयर ड्रायर है।"
मैंने भी उसी अंदाज़ में कहा," अच्छा...!" उस दिन मेरे दिमाग में बैठ गया कि हेयर ड्रायर को अमीर घराने की बेटियाँ ही इस्तेमाल कर सकतीं हैं,मध्यमवर्गीय परिवार की मुझ जैसी बेटी तो उसकी कल्पना भी नहीं कर सकती।
शिक्षा पूरी हो गई तो मेरा विवाह एक सरकारी कर्मचारी के साथ हो गया।जो मिला..जितना मिला, सबमें खुश।समय के साथ हमने फ़्रिज, गीजर, ओवन, एसी जैसी आधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल किया लेकिन हेयर ड्रायर को अपने घर में न ला सकी।दरअसल वो हमारे दिमाग में ही नहीं था क्योंकि उन दिनों थे हमारे काले-घने लंबे बाल, जिसकी धुलाई होने के बाद सुखाने के लिए तौलिया, पंखे की हवा और सूर्य देवता का ताप पर्याप्त था।
समय बीतता गया।बच्चे बड़े हो गये..पति रिटायर और मैं पचपन पार कर गई।एक दिन खरीदारी करने के लिए मार्ट गई।लिस्ट वाली चीज़ें ट्राॅली में रखकर मैं electronic section की तरफ़ गई तो मेरी निगाह hair dryer के बाॅक्स पर पड़ी।दबी इच्छा जाग्रत हो उठी।सोचा, खरीद नहीं सकती हूँ तो क्या हुआ।देख तो सकती हूँ..छूकर उसके एहसास को महसूस तो कर सकती हूँ।बस मैंने बाॅक्स नीचे उतारा..जिज्ञासावश कीमत देखी तो 499rs मात्र.. देखकर मेरी आँखें फटी की फटी रह गई।सिर्फ़ पाँच सौ रुपये के हेयर ड्रायर के लिए मैंने...।मोदी जी ने 2016 में नोटबंदी करके एक अच्छा काम किया था।अब हमें पर्स में रुपये हैं या नहीं, इसकी चिंता नहीं करनी पड़ती है।एक कार्ड है ना...बस खरीद लो।मैंने भी हेयर ड्रायर खरीद लिया।घर आकर बेटे को दिखाते हुए बोली," अब मैं भी अमीर हो गई।"
विभा गुप्ता
स्वरचित, बैंगलुरु

राज खोलना आज रानी खूब खुश थी कारण अपने श्वसुर को नौकर बना रखा था। अकेला बेटा इसका पति है सो जैसा चाहेगी वही करेगी,मगर दा...
27/07/2025

राज खोलना
आज रानी खूब खुश थी कारण अपने श्वसुर को नौकर बना रखा था। अकेला बेटा इसका पति है सो जैसा चाहेगी वही करेगी,मगर दांव उल्टा पड़ गया।
रानी का पति जवाहर एक दफ्तर में बाबू था और रानी उसके सामने श्वसुर से अच्छा व्यवहार करती थी और जाते ही-
अबे बुढ ऊं, झाड़ू ठीक से लगा जैसे व्यंग्य वाण चलाती थी।
सो रोज की तरह आज भी-आज बुढ ऊं जैसे ही कपड़े पहनकर बाहर निकले की रानी ने टोक दिया।
चल झाड़ू लगा,जूठे बर्तन भी धो दें फिर जाना।
मगर आज वे बिना बताए चले गये और दस मिनट में इसके मम्मी पापा आ गये।
अब क्या करें,वह सकपका गई।
झट उनका स्वागत किया, बर्तन सिंक में पड़े,पानी देने के लिए ग्लास तक सही नहीं,कारण वह बूढ़े को सताने के लिए ज्यादा से ज्यादा बर्तन जूठा करती थी मगर आज--
यह क्या है,रानी-मां ने कहा तो पापा झट बोले -यह सारा काम इसका श्वसुर करता है।आज वह जरूरी काम से बाहर निकल गये तो महारानी बुदबुदा रही है।
नहीं पापा-वह आगे नहीं बोल पायी।
तब तक दफ्तर से जवाहर भी आ गया। फिर एक घंटे बाद मुस्कुराते हुए बुढ ऊं भी आ गये।
पापा -बेटा बोला तो ये बोल उठे-तुझे सबूत चाहिए थे न सो देख ,किचन में बर्तन का ढेर, कहीं भी झाड़ू नहीं लगा।पूरा कमरा कचरे से भरा है।
वो तो मैं -यह समझ नहीं पा रही थी कि क्या बोले।
पापा आप -हां बेटा यह सारी ड्यूटी हमारी है।बहू बस मुझे रोटी तब देगी जब मैं यह काम करूंगा।इतना कहते मोबाइल की रिकार्डिंग दिखा दिया।
अब तो -सभी चुप रह गये।
बेटा जवाहर ,बीबी तुम्हारी,मेरे शरीर में इतनी जान नहीं है कि सारा काम करूं सो तुम अलग व्यवस्था जमा लो। तुम जब चाहो मिलने आना मगर मुझे बहू नहीं चाहिए।ये कभी मेरे घर नहीं आयेगी।मेरी जायदाद या मुझसे मतलब नहीं होगा।
बस पापा अभी टंटा खत्म करते हैं,
(कथा मौलिक और अप्रकाशित है इसे मात्र यहीं प्रेषित कर रहा हूं।)
कुल शब्द -कम से कम 300
#दिनांक-20-7-2025
#रचनाकार-परमा दत्त झा, भोपाल।
#राज खोलना

एक बुरा ख्वाबसब सो रहे हैं, ये, वो, इधर- उधर सब सो रहे हैं,ये क्या हो रहा है ?पूरा जगत सो रहा है ! मैं जगाना चाहता हूं।अ...
27/07/2025

एक बुरा ख्वाब
सब सो रहे हैं, ये, वो, इधर- उधर सब सो रहे हैं,ये क्या हो रहा है ?
पूरा जगत सो रहा है ! मैं जगाना चाहता हूं।अरे बहरो, अंधो,गूंगो उठो। तुम्हें बताना चाहता हूं,वह जिसे तुमने इतनी आसानी से ख़तम कर दिया, उसे बनने में क्या क्या कुर्बान हुआ था।मां ने अरमानों से नौ महीने उसे गर्भ में सहेजा था।अपनी कम उसकी अधिक सुरक्षा की थी।जब नन्हीं परी ने इस दुनिया में आंखें खोली,बाबा ओसारे से अंगना तक नाच रहे थे।
उसकी शिक्षा के लिए मां ने अपने सारे ज़ेवर बेचे दिये थे। पिता ने रात दिन ओवरटाइम किया था। अपनी बीमारी को छुपाया था। सूख कर कांटा हो गए थे। अपने लिए कुछ खरीदा हो ,याद नहीं पड़ता। कभी वह ज़िद्द करती तो कहते, तू डॉक्टर बन जाएगी, तब खरीद कर देना।
उसने भी दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा और मां- बाबा के सपने को पूरा किया।
आज उसकी डिग्रियां भीगी हुई हैं उसके खून से, और यह देश नींद में ग़ुम है! जगाना चाहता हूँ इसे,हां, झिंझोड़ कर जगाना चाहता हूं।उस अकेली पर चार -चार हैवान टूट पड़े हैं।
फूल सा जिस्म राख़ में तब्दील करने जा रहे हैं। क्या तुम्हारे कानों के पर्दों तक उसकी मर्मांतक चीखें नहीं पहुंच रहीं? हवस.... इतनी हावी ?
कसूर क्या है उसका ? यही की वह एक लड़की है? क्या तुम्हारी मां लड़की नहीं , या कि तुम्हारी बहन नहीं ? छोड़ दो, मत करो, तार-तार उसकी अस्मत को,मत फूंको उनके अरमानों को जो उस से बंधे हैं,घर पर उसकी राह तक रहे हैं। !!!
उठो जागो।
ओह! एक बुरा ख्वाब था!
मेरे देश में तो नारी की पूजा की जाती है।
मौलिक
गीता परिहार
अयोध्या (फैजाबाद)

 #राज़ खोलना“आज तो मैं तुम्हारा राज जानकार ही रहूँगा । आख़िर तुम कौन हो जो इस अनाथाश्रम के बच्चों के लिए बिना अपनी पहचान...
27/07/2025

#राज़ खोलना
“आज तो मैं तुम्हारा राज जानकार ही रहूँगा । आख़िर तुम कौन हो जो इस अनाथाश्रम के बच्चों के लिए बिना अपनी पहचान बताए इतना धन दान करते हो कि ये बच्चे अपनी पढ़ाई-लिखाई करने के साथ अच्छा खा-पहन भी पाते हैं ।हम सब तुम्हारे शुक्रगुज़ार हैं बेटा और तुम्हारा दान दुनिया को बताना चाहते हैं पर तुम हो कि अपना नाम तक सामने नहीं आने देना चाहते हो ।” अनाथाश्रम के संचालक राजाराम जी ने उस अनजान युवक से कहा जो उनके सामने पिछले 2 वर्षों से इस अनाथाश्रम के बच्चों के लिए पढ़ाई और अन्य चीज़ों के लिए धन दे रहा था ।
“बाबूजी आप इस अनाथाश्रम में नए आए हैं शायद !” उस युवक ने कहा ।
“हाँ मुझसे पहले इसके संचालक कमलकान्त जी थे।”
“वे अब कहाँ हैं ?” युवक ने पूछा ।
“वे बेचारे तो बरसों इस अनाथाश्रम को सम्भालने के बाद अब ख़ुद वृद्धाश्रम में रह रहे हैं । उनके बेटा बहू ने उन्हें घर से निकाल दिया है ।” राजाराम ने कहा ।
सुनकर वह युवक रोने लगा । “अरे बेटा तुम रो क्यों रहे हो ?” राजाराम ने कहा ।
“बस यही है मेरा राज़ । मेरा नाम विजय है ।मुझ अभागे को जन्म देकर कोई इस अनाथाश्रम की सीढ़ियों पर रख कर छोड़ गया था । कमलकान्त जी की गोद में ही मैं पला-बढ़ा और पढ़ा लिखा । वो मेरे लिए माता पिता,भगवान सब कुछ हैं ।उन्होंने मुझ जन्म लेते ही त्याग दिए गए अनाथ को अपनाया । मेरा जीवन बनाया । आज मैं आईएएस उन्हीं की बदोलत बना हूँ ।उन्होंने मुझे आईएएस की तैयारी करने के लिए दिल्ली भेज दिया था ।आज मैं आईएएस बनने के बाद उनके सामने पहली बार जा रहा हूँ ।मैं भी उनका बेटा हूँ और जा रहा हूँ उन्हें लेने वृद्धाश्रम । उनकी जगह वृद्धाश्रम में नहीं मेरे घर में है । बस यही है मेरा राज जो आपके सामने खुल गया है अब तो !” कह कर वह युवक अपनी गाड़ी लेकर कमलकान्त जी को लेने वृद्धाश्रम चला गया ।
गीता यादवेन्दु,आगरा
#राज खोलना (मुहावरे पर कहानी)

पता है....ऑफिस की सीढियां चढ़ ही रहा था कि पीछे दौड़ती आती पदचापों से थम सा गया मुड़ कर देखा तो अश्विनी था।थोड़ा ठहर तो ...
27/07/2025

पता है....
ऑफिस की सीढियां चढ़ ही रहा था कि पीछे दौड़ती आती पदचापों से थम सा गया मुड़ कर देखा तो अश्विनी था।
थोड़ा ठहर तो अविनाश तेरे पैदल चलने में भी वही रफ्तार है जो तेरे ऑफिस काम करने के तरीके में है अरे इतनी जल्दी है तो लिफ्ट से आया जाया कर तुझे पता भी है ऑफिस में कल हुआ क्या है...अश्विनी ने लगभग हांफते हुए कहा।
मुझे यह पता है सीढियां चढ़ना बेहतरीन व्यवयाम होता है मित्र अश्विनी पर भाई सब कुछ पता होते हुए भी तुम क्यों लिफ्ट छोड़ मेरे पीछे आ रहे हो अविनाश ने चुटकी ली।
पता है कल बॉस ने सुधीर को क्यों बुलाया था।फाइल्स गड़बड़ थीं।लेटेस्ट प्रोजेक्ट की फाइल में ब्लंडर गलतियां पकड़ी और उसे उस प्रोजेक्ट से बाहर करने का प्रस्ताव बना दिया चहकती हुई आवाज में बहुत राजदारी से अश्विनी बता रहा था मानो कोई बेहद संगीन राज खोल रहा हो।
ओह इसीलिए कल सुधीर का चेहरा लटका हुआ था।उसका तो प्रमोशन भी ड्यू था अब ये रोड़ा आ गया लेकिन ये सब हुआ कैसे सुधीर का काम तो परफेक्ट रहता है इतनी गंभीर लापरवाही कैसे हो गई .... अविनाश विस्मित हो रुक ही गया ।
पता है कैसे हो गया जानना चाहते हो बेहद राजदारी से रहस्यमई मुस्कान लिए अश्विनी एकदम सामने आकर खड़ा हो गया।
कहीं तुम्हारा हाथ तो नहीं.....अविनाश ने उसकी छद्म मुस्कान और हावभाव भांपते हुए झटके से पूछा।
और किसका हो सकता है अविनाश जी।अब देखना मेरा प्रमोशन सुधीर के बदले इसी ऑफिस में होगा और वह उसी पोस्ट में सड़ता रहेगा ठहाका लगाते हुए अश्विनी बोल उठा।
बेहद बेबसी और आक्रोश से अविनाश उसे किनारे करता तेजी से बाकी सीढ़ियां चढ़ता ऑफिस में पहुंचा ही था कि ऑफिस प्यून मोहन आ गया "...अश्विनी सर बॉस आपको तुरत बुला रहे हैं " सुनते ही अश्विनी ने विजयी भाव से अविनाश की ओर देखा और फुदकता हुआ बॉस के चैंबर की ओर कदम बढ़ा दिए।
पता है सुधीर सर की फाइल खराब करने की अश्विनी सर की करतूत बॉस को पता चल गई है और बहुत नाराज होते हुए उन्होंने अश्विनी सर को बर्खास्त कर इस ऑफिस से ही हटा दिया है और सुधीर सर को प्रमोट कर दिया है.... थोड़ी ही देर में चपरासी मोहन सनसनीखेज खबर सबको बता रहा था और अश्विनी मुंह लटकाए पस्त कदमों से चैंबर से बाहर आ रहा था।
पता है अश्विनी सुधीर को इसी ऑफिस में प्रमोशन मिल गया है...अविनाश ने तेजी से आगे बढ़ कर कहा तो अश्विनी नजरें नहीं उठा पाया..।

लघुकथा #
लतिका श्रीवास्तव

राज़ खोलनायह कहानी हैं एक छोटे से खुशहाल परिवार की ।सावित्री देवी का परिवार उनका बेटा निर्मल और बहु लता उनके दो बच्चे नी...
26/07/2025

राज़ खोलना
यह कहानी हैं एक छोटे से खुशहाल परिवार की ।सावित्री देवी का परिवार उनका बेटा निर्मल और बहु लता उनके दो बच्चे नीला और नवीन।नीला कॉलेज में ग्रेजुएशन कर रही है और नवीन अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई के आखिरी साल में है।
सावित्री देवी ने अपने पति को एक सड़क दुर्घटना में खो दिया था जब निर्मल जी दस साल के थे।सावित्री देवी ने अपने गहने गिरवी रखकर एक छोटी सी दुकान खोली जहां वो पूजा की सामग्री के साथ अपने हाथों के अचार बड़ी पापड़ भी बेचने लगी ।मकान अपना था तो दोनों मां बेटे का अच्छे से गुजारा होने लगा। निर्मल जी ने कम उम्र से ही अपनी मां के साथ दुकान सम्हालने लगे थे लेकिन सावित्री देवी ने उन्हें ग्रेजुएशन करवाया क्योंकि वो शिक्षा को जरूरी समझती थी ।खुद वो दसवीं पास थी और फिर उनकी शादी करवा दी गई थी।
सावित्री देवी ने खुद चुन कर लता को पसंद कर निर्मल जी से शादी करवाई थी लता भी ग्रेजुएट थी और छोटे बच्चों के स्कूल में वो पढ़ाने जाती हैं क्योंकि सावित्री देवी से उसने कहा था कि उनको पढ़ाना पसंद है तो सास ने बहु का साथ दिया।
सावित्री देवी अनुशासन प्रिय महिला थी।अपने पोती और पोते में कोई भेद नहीं करती है।

नीला और नवीन को हर रविवार अपनी दादी माँ के आदेश से घर की सफाई करना होता था।नीला अपनी दादी के कमरे की सफाई कर रही थी तो अलमारी के कोने में उसे एक पुरानी, धूल से सनी डायरी मिली। उत्सुकता में उसने उसे खोला और पढ़ना शुरू किया। पहला पन्ना ही चौंका देने वाला था – "ये मेरा वो राज है, जो मैंने किसी से नहीं कहा।"

डायरी उसकी दादी की थी, और उसमें उन्होंने अपने पहले प्यार की कहानी लिखी थी। उस ज़माने में जब लड़कियाँ अपनी मर्ज़ी से कुछ नहीं कर सकती थीं, दादी ने एक लड़के से प्यार किया था – राजीव नाम था उसका। दोनों मिलना चाहते थे, शादी करना चाहते थे, लेकिन समाज और परिवार की दीवारें इतनी ऊंचीथीं कि प्यार दबा दिया गया।

एक दिन दादी ने लिखा था, "मैंने राजीव को आखिरी बार स्टेशन पर देखा था। उसकी आँखों में आंसू और मेरे हाथों में चूड़ियां थीं, किसी और के नाम की..."

नीला की आँखों में आंसू थे। इतने सालों से उसने अपनी दादी को सिर्फ़ एक सख़्त और अनुशासनप्रिय महिला के रूप में जाना था, पर आज उसे उनके दिल का दर्द समझ आया।

डायरी के आखिरी पन्ने पर लिखा था – "अगर कोई मेरा ये राज पढ़े, तो बस इतना समझे कि हर इंसान के भीतर एक अधूरी कहानी होती है। किसी को पूरा न कर सको, तो उसे इज़्ज़त से दफना देना सीखो..."।हमेशा राज़ को उजागर करने में ही समझदारी हो ऐसा नहीं है।
नीला ने डायरी को वापस संभालकर रखा और दादी से जाकर गले लग गई। उसने कोई सवाल नहीं किया, क्योंकि कुछ राज़ सवालों के लिए नहीं, समझने के लिए होते हैं।
हर मुस्कुराते चेहरे के पीछे कोई छुपा हुआ राज हो सकता है। समझदारी उसी में है कि हम उस राज को इज़्ज़त से संभालना सीखें।
कुछ राज़ को दफनाने में ही भलाई होती है परिवार के लिए ।
सोमा शर्मा
जमशेदपुर

रिश्तों  की शहादत   शीला दूध का गिलास लेकर जैसे ही पति के कमरे की दहलीज़ पर पहुंची तो उसे पति की फ़ोन पर किसी से बात करने ...
26/07/2025

रिश्तों की शहादत
शीला दूध का गिलास लेकर जैसे ही पति के कमरे की दहलीज़ पर पहुंची तो उसे पति की फ़ोन पर किसी से बात करने की धीमी धीमी आवाज़ सुनाई दी।
उसका पति सुरेंदर कह रहा था ,"रात ठीक दो बजे आ जाना। तब तक सब सो लेंगे।" शीला एकदम बाहर आकर दीवार से लग गयी और सांस रोक कर सब सुनने की कोशिश करने लगी।
सुरेंदर ने दूसरा फ़ोन मिलाया और कहने लगा, " इन्द्र ठीक टाइम पर गाड़ी की टंकी फुल करा कर , एक केनी पेट्रोल और चार काले कम्बल ले आना।" आवाज़ आनी बंन्द हो गयी। शीला अनहोनी को भांप कर ऊपर से नीचे तक कांप गयी। उसने अपने आप को नॉर्मल किया और दूध का गिलास पति को देने अंदर गयी।
थोड़ा रसोई संभाल आऊं कह कर बाहर आ गई।
रात ठीक दो बजे जैसे ही सुरेंदर का साला महेंद्र , भाई इन्द्र और भतीजा देवेंद्र शीला और सुरेंदर की बेटी बबीता का मुँह बांध कर गाड़ी में डालने लगे। शीला ने बाहर की लाइट जला दी। पुलिस सामने थी। सुरेंदर और सब सकते में आ गए। शीला ने भाग कर बेटी को संभाला। सुरेंदर यह देख कर गुस्से से पागल हो गया और बोला ," अच्छा यह सब तेरा करा धरा है पहले तो तेरी छोरी ने नाक कटवा दी। लॉक डाउन में भी यो अपनी हरकतों से बाज ना आ री। रही सही कसर तूने पूरी कर दी। आज से मेरा तेरा कोई संबंध नही।"
"मुझे पता था यही होगा, पर मैने अपने शादीशुदा रिश्ते की शहादत देकर अपनी बेटी की जान और चार घरों को उजड़ने से बचा लिया इसलिए मुझे इसका कोई पछतावा नही। " शीला की आवाज आत्म विश्वास से लवरेज थी।
अंजना गर्ग
म. द. विश्वविद्यालय रोहतक।

ख्वाबसब सो रहे हैं, ये, वो, इधर- उधर सब सो रहे हैं,ये क्या हो रहा है ?पूरा जगत सो रहा है ! मैं जगाना चाहता हूं।अरे बहरो,...
26/07/2025

ख्वाब
सब सो रहे हैं, ये, वो, इधर- उधर सब सो रहे हैं,ये क्या हो रहा है ?
पूरा जगत सो रहा है ! मैं जगाना चाहता हूं।अरे बहरो, अंधो,गूंगो उठो। तुम्हें बताना चाहता हूं,वह जिसे तुमने इतनी आसानी से ख़तम कर दिया, उसे बनने में क्या क्या कुर्बान हुआ था।मां ने अरमानों से नौ महीने उसे गर्भ में सहेजा था।अपनी कम उसकी अधिक सुरक्षा की थी।जब नन्हीं परी ने इस दुनिया में आंखें खोली,बाबा ओसारे से अंगना तक नाच रहे थे।
उसकी शिक्षा के लिए मां ने अपने सारे ज़ेवर बेचे दिये थे। पिता ने रात दिन ओवरटाइम किया था। अपनी बीमारी को छुपाया था। सूख कर कांटा हो गए थे। अपने लिए कुछ खरीदा हो ,याद नहीं पड़ता। कभी वह ज़िद्द करती तो कहते, तू डॉक्टर बन जाएगी, तब खरीद कर देना।
उसने भी दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा और मां- बाबा के सपने को पूरा किया।
आज उसकी डिग्रियां भीगी हुई हैं उसके खून से, और यह देश नींद में ग़ुम है! जगाना चाहता हूँ इसे,हां, झिंझोड़ कर जगाना चाहता हूं।उस अकेली पर चार -चार हैवान टूट पड़े हैं।
फूल सा जिस्म राख़ में तब्दील करने जा रहे हैं। क्या तुम्हारे कानों के पर्दों तक उसकी मर्मांतक चीखें नहीं पहुंच रहीं? हवस.... इतनी हावी ?
कसूर क्या है उसका ? यही की वह एक लड़की है? क्या तुम्हारी मां लड़की नहीं , या कि तुम्हारी बहन नहीं ? छोड़ दो, मत करो, तार-तार उसकी अस्मत को,मत फूंको उनके अरमानों को जो उस से बंधे हैं,घर पर उसकी राह तक रहे हैं। !!!
उठो जागो।
ओह! एक बुरा खराब था!
मेरे देश में तो नारी की पूजा की जाती है।
मौलिक
गीता परिहार
अयोध्या (फैजाबाद)

ये ‘लंगड़ा’ है। बनारस से आया है। वंदे भारत से। ‘टपका’ है, राय साहब के बगीचे का। वैसे भी ‘बनारसी लंगड़े’ की बात ही निराली...
26/07/2025

ये ‘लंगड़ा’ है। बनारस से आया है। वंदे भारत से। ‘टपका’ है, राय साहब के बगीचे का। वैसे भी ‘बनारसी लंगड़े’ की बात ही निराली है। सुस्वादु, इतना कि पूछिए ही मत। जीभ को ही नहीं अंतस्तल को भी रससिक्त कर देता है। सराबोर भी। ‘अथ् परमानंदम्’ की अनुभूति होती है। किसी प्राचीन स्मृति के गहरे कूप में डुबो देता है, ये। मानो यह स्वाद न हो, किसी भूली-बिसरी संस्कृति का साक्षात्कार हो। यादों की ‘टाइम-मशीन’ में बैठ आप चहुँप जाते हैं, अपने गाँव-घर के बगीचे में। उन दिनों में, जब आम का बियाह, महुआ से होता था। धूम-धाम से। पर, अब वह अमराई नहीं रही। न वे आम के ‘पुरनिया’ पेड़ रहे, न बुढ़वा महुआ की गंध। अब उन अमराइयों के अवशेष भी नहीं दिखते। घनी बारी, महुआबारी, बड़की बारी, छोटकी बारी सब कट गई। बाग उजड़ गए। बगीचे खत्म। खेतों की मेढ़ बंध गई है। कहीं-कहीं पक्के मकान भी उग आये हैं। कहीं-कहीं पूरी कॉलोनी भी। हमारे देवरिया में रमा बाबू का बड़ा बगीचा था। सैकड़ों पेड़। अब कट गए हैं। मैरेज हॉल व लॉन बन गया है। जब भी आमों का मौसम आता है, एक कसक ही उठती है। आम ‘बिन’ कर खाने की चीज है, ‘किन’ कर नहीं। पर, समय का चक्र है। काल की अपनी गति। भर बाल्टी दूध पीनेवाले लोग, अब पैकेट बंद दूध पर जी रहे हैं। वह भी चाय के लिए ही लिया जाता है। या फिर घर के छोटे बच्चों के लिए ‘उठवना’ आता है। हम कैसी पुरनी बातों-यादों में खो गए। आम की बात चलती है, तो हम यूँ ही बहक जाते हैं।
खैर, अब लौट के ‘लगड़े’ पर आते हैं। यह आम जब होंठों को छूता है, तो उसकी मिठास में बनारस की गलियों का शोर, गंगा का मंद प्रवाह; और वह अनाम उदासी घुली मिलती है। असल में अगर कोई इसे शब्दों में ढालता, तो संभव है वह इसे एक दर्शन, एक काव्य, एक जीवन-संघर्ष का प्रतीक मानता। बनारसी लंगड़ा कोई ‘आम’, ‘आम’ नहीं है। यह खास है। विशिष्ट है। विशेष भी। अनुभव है। प्रकृति और मानव के बीच की अनकही संधि है। दोनों एक-दूसरे को रचते और गढ़ते हैं।
बनारस, बाबा विश्वनाथ की नगरी है। सप्तपुरी। पौराणिक मान्यता है। भारत में सात ऐसे स्थान हैं, जिन्हें मोक्षदायिनी माना गया है। इनके दरस-परस से सहजे मोक्ष मिलता है। काशी, इन्हीं सप्तपुरियों में से एक है। काल के गाल पर एक तिल-सी सजी है। जहां हर पत्थर, हर घाट, हर गली अपने में एक कथा समेटे है। उसी बनारस की माटी में यह लंगड़ा आम जन्मा। यह बनारस की आत्मा का ही एक अंश है। इसका रंग सुनहरा नहीं, बल्कि उस मद्धिम सूरज की तरह है, जो गंगा के जल में डूबता हो। इसकी बनावट न कोमल है, न सख्त। पर, इसमें एक विचित्र संतुलन है। जैसे जीवन में सुख और दुख का मेल। छिलका पतला। चमकीला। गुठली पतली। खुशबू बेहद खास। गूदा मुलायम और कम रेशेदार होता है। पर, रस से लबालब। कायदे से नहीं काटे, तो सरक सकता है। छटक कर आपके कपड़ों पर अपना रंग छोड़ सकता है। कई लोग तो इसे काटने के बजाय चूसकर खाते हैं. इसके स्वाद में एक तीव्रता है, जो कुछ अर्थों में ‘हेप्नोटाइज’ कर लेती है। तुरंत अपने सम्मोहन में बांध लेती है। यह तीव्रता, बनारस की तरह ही तो है। एक साथ कर्कश और कोमल। उन्मादी और शांत। मृत्यु और जीवन की संधि पर खड़ी प्राचीनतम सभ्यता।
‘लंगड़ा आम’ का नाम ही अपने आप में एक खंडकाव्य है। ‘लंगड़ा’ अपने आप में एक संज्ञा है। इसे विशेषण के तौर पर न देखें। संज्ञा के अर्थों में ही देखें, तो भाव और खुलेगा। यह शब्द सुनते ही मन में एक छवि उभरती है। एक आम की। मूलतः हरा। पर, उसमें पीलापन भी झलकेगा। चित्तीदार। स्थूल। यह, किसी यायावर की तरह है। जीवन यात्रा में थककर, लंगड़ाते, सुसताते, फिर भी मुस्कुराता हुआ चल रहा हो। पर, क्या यह नाम इसकी उत्पत्ति की कहानी कहता है? कुछ लोग कहते हैं कि लंगड़ा की खुशनसीब है, वह शहर बनारस में पैदा हुआ? वरना ‘लंगड़ा’ पर कौन मरता? कौन इसे पसंद करता? पर, बनारस के ही रहनियार, ऐसा नहीं मानते। वह कहते हैं—
‘काशी कबहुँ न छोड़िये, विश्वनाथ का धाम
मरने पर गंगा जल मिले, जियते लंगड़ा आम’
पर, बात इतनी नहीं है। इस लंगड़े की तासीर ऐसी है कि इसे लेकर अनेक क़िस्से गढ़े गए। मुहावरे और कहावतें गढ़ी गईं। एक बड़ा ही मशहूर क़िस्सा है, ‘लंगड़े’ का। ढाई सौ बरस पुरानी बात है। काशी में एक साधू बाबा पधारे। पैरों में हल्की लँगड़ाहट लिए वे चलते थे। उनके पास आम के दो पौधे थे। कहीं से वह, ले आए थे। उन पौधों को उन्होंने रोपा। मंदिर परिसर में। बड़े जतन से। साधू बाबा का मन उन पौधों में रम गया। अपने संतान जैसे उन्हें पाला-पोसा। खाद-पानी, छाँव-धूप, सब का हिसाब रखा। उनकी तपस्या और देखभाल रंग लाई। पौधे दिन-दूनी, रात-चौगुनी गति से बढ़ें। पाँच बरस बाद उन पर मंजर आए, फिर फल लदे। पके आमों की मिठास और सुगंध ऐसी कि मंदिर में आने-जाने वाले भक्तों के नथुने में अपने आप भरने लगी। आम पके। तैयार हुए। साधू महाराज ने उनको पहले भोलेनाथ को भेंट किया। भोग लगाया। शिवलिंग पर चढ़े फल प्रसाद बनकर बँटे। पर, साधू महाराज ने गुठलियाँ किसी को न दीं। उनके मन में डर था कि कहीं कोई गुठली से नया पेड़ न उगा ले जाए। यह खास खजाना, ‘आम’ न हो जाए। भक्तों में प्रसाद की मिठास की चर्चा तो खूब हुई। आम खाने को तो मिलते। पर, गुठलियों का दर्शन दुर्लभ। गुठलियों का रहस्य साधू बाबा के साथ ही रहा।
कुछ दिन बाद साधू बाबा का मन उचटा। रमता जोगी, बहता पानी, एक ठौर ठहरता, कहाँ? वे मंदिर छोड़ कहीं और चले गए। उनके जाने के बाद काशी नरेश की नजर इस अनूठे आम पर पड़ी। महाराज ने हुक्म दिया। इसकी कलम बाँधी जाए। देखते-देखते काशी के आसपास के बाग-बगीचे इस आम से झूमने लगे। देश-विदेश में इसकी ख्याति फैली। गालिब से लेकर टैगौर तक इसके ‘फैन’ रहे। मालवीय जी लेकर मुमताज बेगम तक। लंगड़े के कद्रदानों की कमी नहीं रही। स्वाद में बेमिसाल, सुगंध में बेजोड़, यह आम बाजारों में छा गया। अंग्रेज भी इसके दिवाने थे। धीरे-धीरे लोग इसे ‘लंगड़ा’ कहने लगे, क्योंकि इसके जनक उस लँगड़े साधू की याद दिलाते थे। ये तो हुई कहानी की बात।
पर, मुझे लगता है, शायद किसी पुराने बाग में, किसी पेड़ पर लगा यह आम, इतना रस लिए था कि उसके भार से वह शाखा ही तनिक टेढ़ी हो गई। आम जुबान में ‘लंगड़ी’। शायद यह बनारस की उस लय का प्रतीक है, जो समय की मार से झुकी, पर टूटी नहीं।
असल में, लंगड़ा आम वह फल है, जो अपनी अपूर्णता में पूर्ण है। जैसे बनारस की वे तंग गलियां, जो भूलभुलैया होते हुए भी हर यात्री को मंजिल तक ले जाती हैं।
इस आम की उत्पत्ति की कथा भी बनारस की तरह रहस्यमयी है। कोई कहता है कि यह फल किसी मुगल बादशाह के बाग से आया, कोई इसे महादेव का प्रसाद मानता है। पर, क्या सचमुच इसकी उत्पत्ति का पता लगाना आवश्यक है? बनारस की तरह ही लंगड़ा आम भी अपने होने में ही पूर्ण है; उसका अतीत उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना उसका वर्तमान स्वाद। इस फल को चखते हुए इनसान उस पल में जीता है, जहां अतीत और भविष्य दोनों गंगा के प्रवाह में विलीन हो जाते हैं। यह स्वाद एक तीर्थ है, जहां आत्मा समय के बंधनों से मुक्त होकर केवल रस में डूबती है।
पर, यह ‘लंगड़ा आम’, दूसरे आमों से अलग कैसे है? दरअसल इसके स्वाद में केवल मिठास ही नहीं है। तनिका खट्टुरस। एक अकथ स्वाद है। हापुस या दशहरी की मिठास में जो 'मिसिंग एलिमेंट' है, वह लंगड़ा में मिलता है। जैसे भोजन में नमक, उसकी स्वाद की पूर्णता का आधार। हमारे एक मित्र की माता जी, आयीं थी। कटक (ओडिशा) से। उन्हें पता था कि हम मधुरं प्रियं हैं। पूछा खाने में क्या बनायें? हमने कहा कि कुछ मीठा बना दीजिए। उन्होंने खीर बनाया। पर, हमारा किचन उनके लिए अनजान था। पूछा नमक कहाँ है? मैंने कहा कि नमक क्या करेंगी माता जी? उन्होंने कहा खीर में डालना है। मेरे लिए यह एक झटके जैसा था। पूछा, क्यों। बताया कि मीठे का स्वाद तभी खुलकर आता है, जब कुछ तीखा या नमकीन भी उसके साथ हो। इसलिए हम खीर में नमक डालते हैं, ताकि मीठापन और खिले। बहरहाल खीर खाया। सच में उसका स्वाद अलग था। अब भी यादों में है। दिल्ली में वैसी खीर खाने का मन होता है, तो नीलांचल मंदिर चला जाता हूँ।
लंगड़ा के स्वाद में वही नमक वाली मीठी खीर जैसा कुछ है, जो अनकहा है। यह स्वाद बनारस के जीवन-दर्शन को प्रतिबिंबित करता है। बनारस वह नगरी है, जहां हर सुख में दुख की छाया और हर दुख में सुख की किरण छिपी है। लंगड़ा आम का यह स्वाद उस संतुलन की याद दिलाता है, जो जीवन को अर्थ देता है। इसमें हर रस, हर भाव, हर ध्वनि एक साथ गूंजती है। इसे चखना केवल स्वाद का मसला नहीं है। साँच बात तो यह है कि यह एक साधना है। इसमें मनुष्य प्रकृति के साथ एकाकार हो जाता है।
इस आम का रंग, उसकी बनावट, उसका रस, सब कुछ बनारस की मिट्टी से जुड़ा है। बनारस की माटी खुद ही एक जीवंत सत्ता है। इसमें सदियों की साधना, तप और संस्कृति का रस घुला है। लंगड़ा आम उसी माटी का पैदाइश है, जो अपने स्वाद में उस सांस्कृतिक गहराई को समेटे हुए है। इसे खाते हुए सहसा बनारसी ठाठ का अनुभव होता है। इसमें जीवन को जीने की कला छिपी है। न लालसा में डूबकर, न विरक्ति में खोकर। दोनों के बीच एक मधुर संतुलन बनाकर।
लंगड़ा आम का पेड़ भी अपने आप में एक दर्शन है। बहुत ऊंचा नहीं होता है। पर, छतनार। फैला हुआ। जमीन से जुड़ा हुआ। जैसे बनारस की संस्कृति, जो कभी आकाश की ओर नहीं भागती, बल्कि धरती पर ही अपनी जड़ें फैलाती है। इसकी शाखाएं मानो कहती हैं कि जीवन ऊंचाइयों का पीछा करने में नहीं, बल्कि विस्तार में है। इसके फल वैसे ही लटकते हैं, जैसे कोई साधु अपनी माला लिए ध्यानमग्न हो। और जब यह फल पकता है, तो वह अपने रस से शाखा को भारी कर देता है। मानो कह रहा हो कि सच्चा सुख वही है, जो दूसरों को भी दे सकें। इसकी शाखों के नीचे ‘थुन्ही’ लगानी पड़ती है।
बनारसी लंगड़ा आम का स्वाद केवल जीभ तक सीमित नहीं, वह मन को भी छूता है। यह सीधे बचपन की स्मृतियों में डिपोर्ट कर देता है। जबरिया। हमारे अपने बगीचे में लंगड़ा के कुछ पेड़ थे। हर साल उनमें फल नहीं आता था। दो साल में एक बार। पर, जब आता, तो खूब आता है। गर्मी की छुट्टियों में हम ननिहाल ही चले जाते। मनभर आम खाने। दोपहर में खटिया पर बैठकर आम चूसा जाता था। यह उस दोस्ती की गर्माहट है, जब दोस्तों के साथ आम की गुठलियां बांटी जाती थीं। उन्हें जतन से रोपा जाता था। बरसात बाद उनमें से ‘अमोला’ निकलता। फिर उसे उखाड़ कर, शेष बची अठुलियों को हम ‘ईंटा’ पर घसते थे। पीपीहड़ी बनाते थे। बजाते थे। यह अकेलेपन की उदासी भी है। कोई अकेला परदेसी अपने कमरे में बैठकर इसे चखता है, उसमें बनारस की गलियों की सैर कर आता है। लंगड़ा आम वह काव्य है, जो हर मनुष्य के भीतर की कथा को स्वर देता है।
इसकी महिमा केवल इसके स्वाद में नहीं, बल्कि इसके होने में है। यह बनारस की उस आत्मा का प्रतीक है, जो कभी नष्ट नहीं होती। बनारस, जो बार-बार उजड़ता है, बार-बार बनता है, और हर बार अपने रंग, अपनी गंध, अपने स्वाद को और गहरा करता है। लंगड़ा आम भी उसी तरह है। वह हर गर्मी में लौटता है। अपने रस के साथ, अपनी कहानी के साथ। हर बार वह याद दिलाता है कि जीवन एक रस है। इसे चखना ही उसका उत्सव है।
जब कोई लंगड़ा आम को हाथ में लेता है, तो वह केवल एक फल नहीं, बल्कि बनारस की पूरी सभ्यता को थाम लेता है। उसका रस केवल जीभ को नहीं, बल्कि आत्मा को भी तरावट देता है। वह एक क्षण में मनुष्य को उसकी जड़ों से जोड़ देता है। याद दिलाता है कि वह प्रकृति का हिस्सा है, उस माटी का हिस्सा है, जिसने उसे जन्म दिया। एक ऐसा काव्य, जो न केवल पढ़ा जाता, बल्कि जिया जाता है; एक ऐसा दर्शन, जो न केवल समझा जाता, बल्कि चखा जाता है। बनारसी लंगड़ा आम, महज मौसमी फल नहीं है। यह जीवन उत्सव है। स्मृति है। स्वाद-साधना है।
साभार : डॉ. देवेन्द्र नाथ तिवारी

कबाड़         'फूलवती क्या कर रही है ? खाली हुई तो आना '। रामकली, फूलवती की खोली के आगे से निकलते हुए बोली। रामकली ने चार...
26/07/2025

कबाड़
'फूलवती क्या कर रही है ? खाली हुई तो आना '। रामकली, फूलवती की खोली के आगे से निकलते हुए बोली। रामकली ने चारों थैले रखें ही थे कि फूलवती आ गई। उसे देख रामकली बोली, 'ये सब मैडम ने दिये है । चार थैले कल भी लाई थीं । मैडम रिटायर हो गई है।
' इतना सामान ' फूलवती हैरानी से बड़े बड़े आठ दस थैलो को देखते हुए बोली।
' हा , दस साल से तो मैने अपनी मैडम को थैले भर भर कर लाते ही देखा था, निकालते कभी नही देखा । यहां तक की दिवाली पे भी कभी नही निकाला इतना कबाड़ा ।' रामकली बोलने के साथ साथ थैलो से सामान निकाल निकाल कर रखे भी जा रही थी।
' जो जो कपडे तेरे , तेरे बच्चों या तेरे आदमी के काम आये , वो ले ले '। रामकली ने कपड़ें उस के आगे फैलाते हुए कहा।
' तू रख ले रामकली तेरे आगे काम आ जाएंगे'
' न, न बहन ये काम तो कोठियों वाली मैडमें करती हैं । शायद इसीलिए तो इतनी बडी बडी कोठियां में रहती है ताकि उन्हें ठूस ठूस के भर सके। मैने तो रख लिया जो चाहिए था। ये तो इतने कपड़ें है इस से तो आसपास की सभी खोलियों के परिवारों का तन भी ढक जाएगा।' रामकली की आवाज़ मे संतुष्टि का भाव था।
डॉ अंजना गर्ग
म द वि रोहतक ।

पहले पढ़ाई, फिर शादी        दीपाली की विदाई के महीना भर बाद ही रानी बुआजी ने रामेश्वर जी के कान भरने शुरु कर दिये कि राज...
26/07/2025

पहले पढ़ाई, फिर शादी
दीपाली की विदाई के महीना भर बाद ही रानी बुआजी ने रामेश्वर जी के कान भरने शुरु कर दिये कि राजेश्वर...., अब तो नैना भी सयानी हो गई है।कोई ढ़ंग का लड़का देखकर इसको भी ठिकाने लगा ही दो।कहीं ऊँच-नीच हो गई तो कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रहोगे।रामेश्वर जी ने अपनी जीजी की बात का मान रखते हुए 'हाँ जीजी ' कह दिया।
नैना ने सुना तो अपनी माँ पर बिफ़र पड़ी, बोली," माँ..,दीदी बीएड करके बच्चों को पढ़ाना चाहती थी।वो तो फ़ाॅर्म भी ले आई थीं लेकिन बुआजी बीच में टपक पड़ी।अच्छा रिश्ता है' का लालच देकर उन्होंने आपलोगों का ब्रेनवाॅश कर दिया और आपलोगों ने दीदी का विवाह कराके उनकी इच्छाओं पर पानी फेर दिया।लेकिन मैं अपने साथ ऐसा हर्गिज़ नहीँ होने दूँगी।"
" शांत हो जा , तू जो चाहेगी, वही होगा.." माँ ने उसे शांत कर दिया।कुछ दिनों के बाद फिर से बुआजी एक लड़के की फोटो और उसका बायोडेटा लेकर पहुँच गईं।नैना भी उसी वक्त काॅलेज़ से वापस आई थी।उसे देखते ही बुआजी शुरु हो गई," अरी बचिया...,अब बाहर-भीतर करना छोड़...अपनी महतारी के साथ रसोई में कुछ पकाना सीख....कुछ दिनों में ससुराल जाएगी तो....।"
" कौन ससुराल जा रहा है बुआजी।" हँसते हुए नेहा ने पूछा तो बुआजी तीखे स्वर में बोली," देख ले रामेश्वर...कैसी ज़बान चला रही है तेरी बेटी।आजतक हमारे खानदान में...।"
तभी नैना की माँ दनदनाती हुई आई और बोली," बस कीजिये जीजी..बहुत हो गया।मेरी बेटियों की ज़िंदगी में टाँग अड़ाना बंद कर दीजिये।आपके खानदान में क्या हुआ और क्या नहीं...,इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता।मेरी बेटी पहले अपनी पढ़ाई पूरी करेगी, फिर शादी के बारे में सोचेगी।" कहकर वे रसोई में चली गई।बुआजी कब चुप रहती, बोली," रामेश्वर..देख अब तो...।"
" बस जीजी...नैना की माँ ठीक ही कह रही है।आपकी बातों में आकर दीपाली के साथ तो हम अन्याय कर ही चुके हैं लेकिन अब नहीं।" कहते हुए उन्होंने बुआजी के आगे हाथ जोड़ लिये तो बुआजी ने भी अपना फोटो समेटकर वहाँ से खिसक लेने में ही अपनी भलाई समझी।
विभा गुप्ता
# टाँग अड़ाना स्वरचित

"अरे दीदी, कहाँ हो आप?" अचानक रसोई में काम कर रही सुधा को अपनी देवरानी नीलम की आवाज़ सुनाई दी। सुधा चौंक पड़ी, क्योंकि व...
26/07/2025

"अरे दीदी, कहाँ हो आप?"
अचानक रसोई में काम कर रही सुधा को अपनी देवरानी नीलम की आवाज़ सुनाई दी। सुधा चौंक पड़ी, क्योंकि वह नीलम के स्वभाव से भलीभांति परिचित थी। जब भी नीलम को उसे नीचा दिखाना होता, तभी वह आमतौर पर उसके पास आती थी। लेकिन सुधा ने अपने मन के विचारों को झटका और मुस्कुराते हुए रसोई से बाहर निकलकर बोली,
"अरे नीलम, आज कैसे आना हुआ?"
नीलम थोड़ा बनावटी हँसी के साथ बोली,
"दीदी, कैसी बातें करती हैं? आना तो था ही। आपने मुझे बताया भी नहीं! क्या मुझे खुद ही पता चलता? वो तो बड़ी ननद रेखा दीदी का फोन आया, तभी मुझे पता चला कि आपकी बेटी अन्वी की शादी तय हो गई है।"
सुधा ने मुस्कुराते हुए कहा,
"अरे नहीं नीलम, ऐसी कोई बात नहीं है। अभी तो बस रिश्ता तय करने की बात चल रही है। जब सब कुछ पक्का हो जाता, तो सबसे पहले मैं तुम्हें ही बताती। बैठो ना, ये लो कुर्सी।"
नीलम थोड़ी व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ बोली,
"दीदी, लेकिन एक बात समझ में नहीं आई — दीदी रेखा बता रही थीं कि लड़के वालों के पास न तो कोई खास संपत्ति है और न ही कोई बड़ा कारोबार! बस खाते-पीते घर के ही हैं?"
सुधा ने संयमित स्वर में कहा,
"नीलम, हम लोगों ने धन-दौलत नहीं, बल्कि संस्कार और सादगी को प्राथमिकता दी है। दामाद जी बैंक में मैनेजर हैं और उनके पिता सरकारी शिक्षक। मुझे पूरा विश्वास है कि हमारी अन्वी वहाँ बहुत खुश रहेगी।"
नीलम व्यंग्य से हँसते हुए बोली,
"दिल को बहलाने के लिए अच्छा तर्क है दीदी! लेकिन बेटी तो मैंने भी ब्याही है एक खानदानी घर में — पैसों की तो जैसे बारिश होती है वहाँ। दामाद जी को तो खाने तक की फुर्सत नहीं मिलती! मेरी मानिए तो कोई बड़ा और रईस घर देखिए। पैसों की चिंता मत कीजिए — शादी में मैं और उसके चाचा जी दिल खोलकर खर्च करेंगे।"
सुधा चुपचाप उसकी बात सुनती रही, पर अंदर ही अंदर नीलम के व्यंग्य तीरों से झुलस रही थी। नीलम की आदत थी, हर बार उसे किसी न किसी बहाने ताने मारना और उसकी हैसियत का मज़ाक उड़ाना। जब से नीलम इस घर में बहू बनकर आई थी, अपने साथ सिर्फ धन ही नहीं, बल्कि घमंड भी लाई थी।
एक बार बड़ी ननद के बेटे की शादी में, जब सुधा अपने और अपने पति के लिए अच्छे कपड़े लेकर गई, तो नीलम तपाक से बोल पड़ी,
"दीदी, ये कैसे कपड़े ले आई हैं? मैंने तो ब्रांडेड कपड़े लाए हैं। दीदी और जीजा जी ये पहनेंगे भी नहीं।"
साथ में खड़ी रेखा दीदी भी नीलम का साथ देती हुई बोली,
"सही कह रही हो नीलम, सुधा को तो कुछ समझ ही नहीं आता।"
वो बात सुधा कभी नहीं भूली। नीलम ने न केवल रिश्तेदारों के सामने उसका उपहास उड़ाया था, बल्कि उसे नीचा दिखाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
आज भी नीलम का वही उद्देश्य था — अन्वी की शादी को लेकर अपने धन और ऊँचे संपर्कों का रौब दिखाना।
लेकिन आज सुधा चुप नहीं रही।
"नीलम, मैंने अपनी बेटी के लिए जो रिश्ता चुना है, वह दिल से चुना है। लड़का हीरा है और उसका परिवार बहुत ही शालीन। और रही बात तुम्हारी बेटी रूचि की — उसकी शादी को दो साल हो गए हैं लेकिन दामाद जी को कभी उसके साथ नहीं देखा, और वह भी कभी प्रसन्न नहीं दिखती।"
नीलम एकदम से सकपका गई। उसकी आवाज़ लड़खड़ा गई,
"न... नहीं दीदी, ऐसी कोई बात नहीं है।"
"नीलम," सुधा ने फिर शांत स्वर में कहा,
"हम अपनी हैसियत के अनुसार ही शादी करेंगे। हमारे समधी जी ने साफ़ कहा है कि उन्हें सिर्फ हमारी बेटी चाहिए, और बाकी कुछ नहीं। हमें किसी दिखावे की ज़रूरत नहीं है।"
नीलम अब कुछ नहीं बोल सकी। उसके पास कहने को शब्द नहीं बचे। वह अपनी बनावटी मुस्कान के साथ बोली,
"अच्छा दीदी, मैं चलती हूँ… आज मन नहीं है चाय का।"
सुधा ने विनम्रता से कहा,
"जैसी तुम्हारी इच्छा, नीलम।"
नीलम के जाने के बाद सुधा के चेहरे पर संतोष की मुस्कान थी — यह मुस्कान थी आत्मसम्मान की, यह मुस्कान थी अपने निर्णय पर विश्वास की।

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