गौरा ग्रामसभा

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गौरा ग्रामसभा यह मेरे मिट्टी मेरे गांव के नाम से बनाया हुआ पेज है ।

एक बढ़िया सवाल चलो बताओ जवाब?
20/09/2025

एक बढ़िया सवाल चलो बताओ जवाब?

Big shout out to my newest top fans! 💎 Nandlalyadav Yadav, Golu Yadavanshi, Rahul Kumar, Sushma Rai, Jitendrasingh Yadav...
20/09/2025

Big shout out to my newest top fans! 💎 Nandlalyadav Yadav, Golu Yadavanshi, Rahul Kumar, Sushma Rai, Jitendrasingh Yadav, Shikha Shivam Rai, Manojprajapati Prajapati, Prashant Rai, Anand Rai, Lavksh Babu, Shibbu Harvinder, Rajesh Rai, Madhukar Rai, MrRoshan Rai, अरविंद यादव, Raj Gupta, महादेव भक्त सुजीत राय, Omkar Yadav, Anil Gupta, Manish Rai, Satyendra Yadav

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ये फूल मैंने पहली बार देखा है किसी को नाम पता है तो बताइए
20/09/2025

ये फूल मैंने पहली बार देखा है किसी को नाम पता है तो बताइए

सुप्रभात पारिजात की भींगी ख़ुशबुओं के साथ 🌸
20/09/2025

सुप्रभात
पारिजात की भींगी ख़ुशबुओं के साथ 🌸

हमारे जनपद गाजीपुर को केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों की तरफ से एक एक सौगात मिली है, एक ट्रेन ठहराव/ विस्तार और दूसरी ...
19/09/2025

हमारे जनपद गाजीपुर को केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों की तरफ से एक एक सौगात मिली है, एक ट्रेन ठहराव/ विस्तार और दूसरी नई बस के रूप में।
बनारस से लखनऊ होते हुए बरेली तक जाने वाली लोकप्रिय बरेली एक्सप्रेस 14235/36 का विस्तार अब गाजीपुर तक हो गया है।
जिससे लखनऊ, बरेली जाने के लिए एक और सुविधाजनक ट्रेन हो गई है।
दूसरी सुविधा यूपी सरकार में परिवहन मंत्री दयाशंकर सिंह जी ने भारत के सबसे बड़े गांव रेवतीपुर को नई बस के रूप में एक सौगात दी है, ये बस रेवतीपुर से चलकर सैयदराजा, जमानियां, चंदौली पड़ाव होते हुए वाराणसी तक जाएगी और उसी रस्ते वापस आएगी।
जनपदवासी इस ट्रेन और बस दोनों की सौगात मिलने पर प्रसन्नतापूर्वक सरकार को धन्यवाद देते हैं।

ओरवनी चूवत है!जब बारिश थोड़ी होती थी तब आजी कहती थीं कि अरे कुछ नाही बस ओरवनी चुवै भरका बरसा है।जब तेज बरसता था तब घर के...
19/09/2025

ओरवनी चूवत है!
जब बारिश थोड़ी होती थी तब आजी कहती थीं कि अरे कुछ नाही बस ओरवनी चुवै भरका बरसा है।
जब तेज बरसता था तब घर के जूठे बर्तन ओरवनी के तरे रख दिया जाता था। तेज बारिश से वो न सिर्फ गल जाते थे बल्कि आधे बिन मांजे साफ हो जाते थे।
थोड़ा सा पैरा लेकर वहीं से गील माटी खोद कर बुआ बर्तनों को रगड़ देती थी और एक बाल्टी मोटके धारा में बह रहे पानी के नीचे रख देती थीं।
बाल्टी में पानी तनिक देर में भर जाता था जिससे बर्तनों को खंगालती जाती थीं।
चूंकि हमारे जूठे बर्तन घर के अंदर नहीं मांजे जाते हैं तो एकदम सुबह बारिश होने से चौका तो लग जाता था लेकिन बर्तन मांजना मुश्किल हो जाता था तब कुछ यूं ही बर्तन मांज लिए जाते थे।
छाता लेकर एक बाल्टी नल से साफ पानी लाकर बर्तनों को धोकर साफ कर लिया जाता था और फिर से बाल्टी मांज कर एक बाल्टी पानी भरकर भोजन बनना शुरू कर दिया जाता था।
ज्यादा नहीं मेरे बचपन की ही बात है। ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग सबके घर ओसारा पक्का और सारी बखरी खपरैल बन चुके थे।
जो ज्यादा ही निम्न वर्ग के थे सिर्फ उनके ही घर छप्पर के रह गए थे।
हमारे घरों में छप्पर के नाम पर पशुओं की चन्नी घारी ही रह गई थी।
हर दूसरे तीसरे साल खपरैल घर को बारिश होने से पहले अनगवाना (रेनोगेट/मरम्मत) पड़ता था।
अगर किसी साल किसी वजह से न अनगा गया तो बारिश भर डेवढ़ी , रसोई, कमरों में बाल्टी, भगोना, लोटा रखते बीतता था क्योंकि जो खपड़ा टूटे होते थे वहां से तेज बारिश होने से पानी चूने लगता था।
कभी कभी रसोई में भोजन बनाते समय कभी इधर पानी चू रहा तो दौड़ कर बर्तन रखते थे तो कभी चूल्हे पर ही चूने लगता था तो जल्दी से कोई छाता लेकर खड़ा हो जाता था।
छोटे बच्चे कागज की नाव बना कर तैराते और खुश होते थे। घर के बड़े कहीं जा नहीं पाते थे तो कभी पकौड़े, कभी लावा भुजने की फरमाइश करते रहते थे।
गृहस्वामिनी लाकर भुट्टा दे देती थीं लो निकोलो तब लावा भुज जाई।
इधर भुट्टा छीला जाता था उधर इकलिया चूल्हे पर खपरी चढ़ जाती थी। बालू गर्म करके जब मक्की के दाने सिंकते तो थोड़ी ही देर में सारी खपरी लावे से भर जाती थी।
खपरी से लावा लोहे के चलनी में पलटा जाता था। कपड़ा से पकड़ कर चलनी चाल देती थीं जिससे सारा बालू गिर जाता था और लावा फिर सिकौहुली में रखती जाती थीं।
उधर बिट्टी छाता लेकर गृह वाटिका से हरी मिर्च तोड़ लाती। हरी मिर्च, लहसुन संग बढ़िया तीखा चटपटा नमक पीसा जाता और लावा संग आनंद लिया जाता।
लावा चबाते चबाते सबकी फरमाइश होती अब सिखरन मिल जाता तो मजा आ जाता।
गृहस्वामिनी गुस्सा होती सब लोग भूजा रस खा पी लोगे तो खाना कौन खाएगा!
बिट्टी को आवाज लगाती ए बच्ची दुल्हिन को बोलो रोटी न बनाए नाही तो खाना ज्यादा होय जाई।
इस मौसम में रोज खाने पीने वाली राब पानी और हवा लगने से अक्सर मदा जाती थी। उसमें से अजीब सी गंध आने लगती थी। तब दूसरी गगरी खोली जाती और उसी समय गृहस्वामिनी किसी मटकी में जरूरत के मुताबिक राब निकाल कर रख देती और गगरी वाली राब को फिर से कोसा रख कर कपड़े से मजबूती से बांध कर उसका मुंह बंद कर देती और सबको हिदायत देती कि बिन पूछे कोई गगरी की राब नहीं छुएगा मटकी वाली इस्तेमाल करो नाही तो सब मदा जाएगी फिर मदाहिन राब का रस पीना।
उस समय कुछ भी रसोई में खत्म हो जाता था तो बिना गृहस्वामिनी से पूछे कोई भी नया सामान खुद से नहीं निकालता था। गृह स्वामिनी स्वयं निकाल कर देती थीं या फिर गले से कुंजी (चाभी) निकाल कर देती थीं और कहती थीं कि ध्यान से जरूरत भर ही निकालना और ठीक से बंद करके कुंजी लाकर मुझे दे जाना।
गृह स्वामिनी के अधिकार में सब कुछ होने की वजह से घर सुचारू रूप से चलता था। किसी चीज की कमी भी हो जाए तो बात पुरुषों तक नहीं पहुंच पाती थी। उस चीज का विकल्प तैयार कर लिया जाता था या व्यवस्था कर ली जाती थी।
तब सुविधा कम थी लेकिन परिवार संगठित बहुत था और सुख बहुत था।
अब तो इतना परिवर्तन हो गया है कि चीज खत्म हुई तो कुछ ही मिनटों में फोन पर ऑर्डर करके मंगा लिया जाता है। कोई गृह स्वामिनी या गृह स्वामी नहीं रह गया है।
घर के सभी सदस्य अपने अपने मालिक हैं।
खैर परिवर्तन संसार का नियम है।
स्वीकार करने में ही भलाई है।
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अरूणिमा सिंह

पोस्टर स्रोत - Shivan Rai
19/09/2025

पोस्टर स्रोत - Shivan Rai

90s के वक्त गाँव की शादी समारोह में न टेंट हाऊस थे और न कैटरिंग, थी तो बस सामाजिकता। गांव में जब कोई शादी ब्याह होते तो ...
18/09/2025

90s के वक्त गाँव की शादी समारोह में न टेंट हाऊस थे और न कैटरिंग, थी तो बस सामाजिकता। गांव में जब कोई शादी ब्याह होते तो घर घर से चारपाई आ जाती थी, हर घर से थरिया, लोटा, कलछुल, कराही इकट्ठा हो जाता था और गाँव की ही महिलाएं एकत्र हो कर खाना बना देती थीं। औरते ही मिलकर दुलहिन तैयार कर देती थीं और हर रसम का गीत गारी वगैरह भी खुद ही गा लिया करती थी।

तब डीजे रमेश - डीजे राजू जैसी चीज नही होती थी और न ही कोई आरकेस्ट्रा वाले फूहड़ गाने। गांव के सभी चौधरी टाइप के लोग पूरे दिन काम करने के लिए इकट्ठे रहते थे। हंसी ठिठोली चलती रहती और समारोह का कामकाज भी। शादी ब्याह मे गांव के लोग बारातियों के खाने से पहले खाना नहीं खाते थे क्योंकि यह घरातियों की इज्ज़त का सवाल होता था। गांव की महिलाएं गीत गाती जाती और अपना काम करती रहती। सच कहु तो उस समय गांव मे सामाजिकता के साथ समरसता होती थी।

खाना परसने के लिए गाँव के लौंडों का गैंग समय पर इज्जत सम्हाल लेते थे। कोई बड़े घर की शादी होती तो टेप बजा देते जिसमे एक कॉमन गाना बजता था-मैं सेहरा बांधके आऊंगा मेरा वादा है और दूल्हे राजा भी उस दिन खुद को किसी युवराज से कम न समझते। दूल्हे के आसपास नाऊ हमेशा रहता, समय समय पर बाल झारते रहता था और समय समय पर काजर-पाउडर भी पोत देता था ताकि दुलहा सुन्नर लगे। फिर द्वारा चार होता फिर शुरू होती पण्डित जी लोगों की महाभारत जो रातभर चलती। फिर कोहबर होता, ये वो रसम है जिसमे दुलहा दुलहिन को अकेले में दो मिनट बतियाने के लिए दिया जाता था लेकिन इत्ते कम समय में कोई क्या खाक बात कर पाता। सबेरे कलेवा में जमके गारी गाई जाती और यही वो रसम है जिसमे दूल्हे राजा जेम्स बांड बन जाते कि ना, हम नही खाएंगे कलेवा। फिर उनको मनाने कन्यापक्ष के सब जगलर टाइप के लोग आते।

अक्सर दुलहा की सेटिंग अपने चाचा या दादा से पहले ही सेट रहती थी और उसी अनुसार आधा घंटा या पौन घंटा रिसियाने का क्रम चलता और उसी से दूल्हे के छोटे भाई सहबाला की भी भौकाल टाइट रहती लगे हाथ वो भी कुछ न कुछ और लहा लेता...फिर एक जय घोष के साथ रसगुल्ले का कण दूल्हे के होठों तक पहुंच जाता और एक विजयी मुस्कान के साथ वर और वधू पक्ष इसका आनंद लेते।
उसके बाद दूल्हे का साक्षात्कार वधू पक्ष की महिलाओं से करवाया जाता और उस दौरान उसे विभिन्न उपहार प्राप्त होते जो नगद और श्रृंगार की वस्तुओं के रूप में होते.. इस प्रकिया में कुछ अनुभवी महिलाओं द्वारा काजल और पाउडर लगे दूल्हे का कौशल परिक्षण भी किया जाता और उसकी समीक्षा परिचर्चा विवाह बाद आहूत होती थी ।

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