10/07/2025
प्रेम कोई भावुकता या त्याग मात्र नहीं है। यह एक अस्तित्वगत संकट (existential crisis) है। जब हम किसी को प्रेम करते हैं तो हम अक्सर यह चाहते हैं कि वह व्यक्ति हमें अपनी इच्छा से चाहे और सदा वैसा ही बना रहे जैसा हम चाहते हैं। लेकिन यही इच्छा, वही लालसा, दूसरे की स्वतंत्रता को नकारने लगती है।
हम जिसे प्रेम कहते हैं, उसमें अक्सर यह छुपी हुई ख्वाहिश होती है- "तुम मुझे चाहो, लेकिन अपनी इच्छा से।"
यही असंभव मांग प्रेम को संघर्ष बना देती है।
क्योंकि प्रेम में हम जो चाहते हैं वह यह कि सामने वाला हमें हमारे लिए चुने, बार-बार चुने और हमेशा चुने। लेकिन कोई भी व्यक्ति अपनी मुक्त इच्छा से अगर हमें चुनता है, तो वह कल किसी और को भी चुन सकता है। यही प्रेम की अनिश्चितता है और यही हमें असहज करता है।
इसलिए, प्रेम में हम चाहने लगते हैं कि सामने वाला बदल न जाए, स्थिर रहे, हमारे अनुरूप रहे और इसी क्षण हम दूसरे की स्वतंत्रता का हनन करने लगते हैं।
प्रेम एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ स्वतंत्रता और नियंत्रण की टकराहट होती है। यदि हम प्रेम में दूसरे को पूरी तरह स्वतंत्र रहने दें तो उसमें स्थायित्व नहीं बचता। लेकिन यदि हम उसे बाँधने की कोशिश करें तो वह प्रेम नहीं रह जाता, वह स्वामित्व बन जाता है।
इसलिए कहते हैं- "To love is, in essence, to want to be loved by a freedom." यानि प्रेम करना असल में यह चाहना है कि कोई स्वतंत्र व्यक्ति हमें अपनी इच्छा से चुने पर यह चाहना ही एक विडंबना है।
प्रेम अक्सर व्यग्रता, अस्थिरता और अधूरेपन से जुड़ा हुआ है। क्योंकि जब दो स्वतंत्र प्राणी प्रेम करते हैं, तो वे कभी एक-दूसरे को पूरी तरह पा नहीं सकते वे केवल प्रयास कर सकते हैं और यह प्रयास ही प्रेम की सुंदर त्रासदी है।
"प्रेम, स्वतंत्रता की सबसे सुंदर जेल है, जहाँ हम बंधना भी चाहते हैं और खुले रहना भी।" - Prashant Kumar