Story Adda

Story Adda Hello everyone in
STORY ADDA
Best hindi stories & Novel
New Hindi kahaniyan
Love stories
amazing page
follow page

Rainy day ☔☔🌧️🌧️
07/08/2025

Rainy day ☔☔🌧️🌧️

Best view...
07/08/2025

Best view...

Village (barish)
07/08/2025

Village (barish)

Enjoy (barish)
07/08/2025

Enjoy (barish)

**"दादी, आज बेसन के लड्डू बना दो ना!"** रिद्धि ने आंखें मटकाते हुए कहा तो उर्मिला देवी मुस्कुराईं, "अरे, पहले अपना स्कूल...
29/05/2025

**"दादी, आज बेसन के लड्डू बना दो ना!"** रिद्धि ने आंखें मटकाते हुए कहा तो उर्मिला देवी मुस्कुराईं, "अरे, पहले अपना स्कूल का प्रोजेक्ट खत्म कर लो, फिर तुम्हारे लिए घी वाले लड्डू बनाऊंगी, वो भी काजू-बादाम डालकर।"
**"सच दादी? आप बेस्ट हो!"** रिद्धि ने प्यार से गले लगते हुए कहा।
उर्मिला देवी हँसते हुए बोलीं, **"हां-हां, अब जा, पहले पढ़ाई कर।"** कहकर वो रसोई की ओर चल दीं।
इधर नीहार, रिद्धि का छोटा भाई, टीवी के सामने बैठा कार्टून देख रहा था, तभी मां स्वाति की आवाज आई, **"नीहार! आज क्या खाओगे लंच में?"**
नीहार ने बिना पलक झपकाए जवाब दिया, **"पास्ता! लेकिन व्हाइट सॉस वाला, मम्मा!"**
स्वाति ने हँसते हुए कहा, **"ठीक है, लेकिन सब्जी भी खानी पड़ेगी।"**
**"ठीक है मम्मा, एक शर्त पर—ब्रोकली नहीं!"** नीहार की आंखें डर से फैल गईं।
**"ठीक है बाबा, ब्रोकली नहीं।"** स्वाति ने कहा और किचन में जुट गई।
उधर उर्मिला देवी बेसन भून रही थीं, घर में घी और इलायची की खुशबू फैलने लगी। नीहार किचन में आकर बोल पड़ा, **"दादी, ये खुशबू तो जादू जैसी है!"**
**"बिलकुल! यही तो है प्यार का स्वाद।"** उर्मिला देवी ने मुस्कुरा कर कहा।
स्वाति ने जल्दी-जल्दी पास्ता तैयार किया, बच्चों की थाली सजा दी और फिर पति अर्जुन के लिए चपाती और आलू-पालक की सब्जी थाली में परोस दी।
अर्जुन ऑफिस से लौटे तो बच्चों की आवाजें, हंसी और खाने की महक से घर गूंज उठा।
डाइनिंग टेबल पर सबने साथ बैठकर खाना खाया—किसी ने दिनभर के किस्से सुनाए, किसी ने नए चुटकुले सुनाए, तो किसी ने दादी के बेसन के लड्डुओं की तारीफ की।
**घर की रसोई सिर्फ खाना नहीं बनाती, रिश्तों में मिठास घोलती है।**
स्वाति का ये घर भी एक प्यारी सी दुनिया है—जिसमें है पति अर्जुन, बच्चों रिद्धि और नीहार के साथ सास उर्मिला देवी। अर्जुन के पिता श्रीमान दिनेश शर्मा का निधन कई साल पहले हो चुका है, वो एक स्कूल टीचर थे। अब उर्मिला देवी ही बच्चों को संस्कारों से सींचती हैं और स्वाति उस घर को अपने प्यार और स्वाद से महकाए रखती है।
अगली सुबह…
"रिद्धि! तुम्हारा स्कूल प्रोजेक्ट तैयार है ना?" स्वाति ने आवाज दी।
"मम्मा, सब तैयार है, बस प्रिंट निकलवानी है," रिद्धि ने जल्दी-जल्दी बैग तैयार करते हुए कहा।
उधर नीहार रोज़ की तरह धीरे-धीरे टूथब्रश कर रहा था। स्वाति ने आवाज लगाई, "नीहार! अगर आज भी बस छूटी तो मैं पास्ता बनाना बंद कर दूंगी!"
नीहार फौरन मुंह धोते भागा, "नहीं मम्मा! बस दो मिनट!"
दादी उर्मिला देवी बालकनी में तुलसी को पानी दे रही थीं, फिर मंदिर में बैठकर धीरे-धीरे प्रार्थना करने लगीं। उनकी आंखों में संतोष था, पर दिल में कुछ खालीपन भी।
अर्जुन सुबह की चाय लेकर वहीं आ गए। "मां, आप हमेशा की तरह सुबह-सुबह भगवान से बातें कर रही हैं?"
"हां बेटा," उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, "भगवान ही तो हैं जिनसे अब मन की सारी बातें कहती हूं।"
**"आप मुझसे भी कहा करें मां,"** अर्जुन ने धीरे से कहा।
उर्मिला देवी कुछ पल शांत रहीं, फिर बोलीं, **"कभी वक्त मिले तो मेरी पुरानी डायरी पढ़ लेना... उसमें मेरी पूरी दुनिया है।"**
अर्जुन चौंका, "डायरी?"
"हां, जब तुम्हारे पिताजी का ट्रांसफर हुआ करता था, और तुम बच्चे थे... उस समय की यादें, सपने, कुछ अधूरे वादे… सब लिखा है उसमें।"
स्वाति भी वहीं आ गई थी। "मांजी, अगर आप चाहें तो मैं आपकी डायरी को किताब की तरह तैयार करवा दूं। रिद्धि भी तो कह रही थी कि स्कूल में ‘फैमिली हिस्ट्री प्रोजेक्ट’ बनाना है।"
उर्मिला देवी की आंखें भर आईं। "अगर मेरी यादों से कुछ सीख मिल सके, तो इससे बड़ा क्या सम्मान होगा मेरे लिए?"
उसी शाम जब रिद्धि ने दादी की डायरी पढ़नी शुरू की, तो उसमें एक किस्सा था—
**डायरी का एक पन्ना:**
*"5 जून 1987 —*
आज बद्री का प्रमोशन हो गया है। हम देहरादून जा रहे हैं। अर्जुन छोटा है, उसे बार-बार खांसी आ रही है। लेकिन बद्री कहता है — 'उर्मिला, ये बच्चे हमारी जड़ें हैं, और तुम्हारी मुस्कान हमारे घर की छत। बस सब ठीक हो जाएगा।'
मैंने आज पहली बार किसी सरकारी दफ्तर में घुसकर अकेले काम करवाया। बद्री ने कहा — 'तुम कर सकती हो, और तुम्हें करना चाहिए।'
काश अर्जुन कभी ये जाने कि उसके पापा कितने बड़े सपने देखते थे उसके लिए।\_"
डायरी के उन पन्नों ने घर में एक नई लहर ला दी — यादों की, अपनापन की, और समझदारी की।
अर्जुन ने ठान लिया — वो अब हर रविवार को मां के साथ बैठकर डायरी पढ़ेगा, और बच्चों को अपने बचपन की कहानी सुनाएगा।
स्वाति ने एक रजिस्टर निकाला और लिखना शुरू किया —
**"खुशबू घर की — एक मां की डायरी से…"**
**"दादी, आपकी डायरी तो किसी कहानी की किताब जैसी है!"**
रिद्धि ने आंखों में चमक लिए कहा। वो अपने स्कूल के प्रोजेक्ट के लिए दादी की मदद लेना चाह रही थी।
**"दादी, क्या मैं आपकी कहानी अपने प्रोजेक्ट में लिख सकती हूं?"**
उर्मिला देवी ने मुस्कुराते हुए सिर हिलाया, **"हां बेटा, मगर कुछ किस्से दिल के होते हैं... उन्हें संभाल के कहना होता है।"**
अर्जुन लिविंग रूम में बैठा सब देख रहा था। उसके हाथों में वही डायरी थी, जिसमें उसके बचपन, उसकी मां के संघर्ष, और पिता के सपनों की परतें खुल रही थीं।
"रिद्धि, एक काम करते हैं," अर्जुन ने सुझाव दिया, "हम सब मिलकर इस प्रोजेक्ट को बनाएंगे — तुम, मैं, मम्मा, दादी और नीहार भी!"
**"क्या! मैं भी?"** नीहार ने चौंक कर पूछा, "मुझे तो सिर्फ खाना अच्छा लगता है और वीडियो गेम।"
स्वाति हँस पड़ी, "बिलकुल बेटा, और खाने का ज़िक्र भी तो होना चाहिए, आखिर घर की सबसे अच्छी यादें किचन से ही आती हैं!"
**प्रोजेक्ट का नाम रखा गया:**
**"हमारा घर — यादों की चौखट"**
रिद्धि ने कवर पेज बनाया जिसमें घर की छत पर बैठे एक बुज़ुर्ग, पास खेलते दो बच्चे और रसोई की खिड़की से झांकती एक मां की आकृति थी।
**पहला अध्याय:** *"दादी की आँखों से"* — इसमें उर्मिला देवी के बचपन, उनके विवाह, और बद्रीनाथ जी के साथ उनके संघर्षों का ज़िक्र था। कैसे एक छोटे से गांव की लड़की ने शहर आकर खुद को संभाला और अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दिए।
**दूसरा अध्याय:** *"पापा का बचपन"* — अर्जुन ने अपने पहले स्कूल, पुराने ट्रांजिस्टर पर सुनी गई रामायण, और अपने पिता से पहली बार डांट खाने की बात लिखवाई।
**तीसरा अध्याय:** *"मम्मा का स्वाद"* — इसमें स्वाति ने अपनी शादी, पहली बार खाना बनाते समय की गड़बड़ी और फिर धीरे-धीरे पूरे घर का स्वाद बनने तक की कहानी लिखी।
**चौथा अध्याय:** *"नीहार की नाक में दम"* — नीहार का हिस्सा सबसे मज़ेदार था — कैसे वो ब्रोकली से डरता है, कैसे उसने एक बार चुपके से पास्ता में चॉकलेट डाल दी थी और दादी ने भी बिना बोले खा लिया।
**पांचवां अध्याय:** *"रिद्धि की कलम"* — इसमें रिद्धि ने लिखा:
*"घर सिर्फ दीवारों से नहीं बनता। वो बनता है एक दादी की बातों से, पापा की कहानियों से, मम्मा के हाथों के स्वाद से और नीहार के शरारतों से।
मेरा घर मेरी दुनिया है — और मैं इस कहानी की सबसे छोटी लेखिका हूं।"*
**प्रोजेक्ट सबमिट करने वाले दिन**, जब रिद्धि स्कूल गई, तो उसकी क्लास टीचर की आंखें नम थीं।
"रिद्धि, तुम्हारा प्रोजेक्ट पढ़कर लगा जैसे मैं तुम्हारे घर में बैठी हूं — ऐसा एहसास कम ही आता है," मैडम ने कहा।
रिद्धि मुस्कुरा दी, और बोली,
**"मैडम, मेरी दादी कहती हैं — घर वो होता है जहाँ कहानियाँ सांस लेती हैं।"**
घर लौटकर रिद्धि ने सबको गले लगा लिया।
स्वाति ने कहा, "आज के लिए मिठाई बनानी चाहिए!"
**"गाजर का हलवा?"** नीहार ने खुशी से पूछा।
**"हाँ, लेकिन ब्रोकली की सब्ज़ी भी!"** स्वाति ने आंखें तरेरी।
**"उफ़! फिर से?"** नीहार की चीख सुनकर पूरा घर हँसी से गूंज उठा।

**बरसात की वो शाम**हर शाम की तरह आज भी सुधा जी अपने पुराने पीतल के जग में तुलसी को पानी देकर बरामदे की कुर्सी पर आ बैठीं...
28/05/2025

**बरसात की वो शाम**
हर शाम की तरह आज भी सुधा जी अपने पुराने पीतल के जग में तुलसी को पानी देकर बरामदे की कुर्सी पर आ बैठीं। हल्की हवा बह रही थी और उनके हाथों में था ऊनी धागे से बुनता स्वेटर, जो वो अपने पोते के लिए तैयार कर रही थीं। आँखों पर पतले फ्रेम का चश्मा, माथे पर हलकी सी बिंदी और कानों में गूंजती मंदिर की घंटियों की ध्वनि — यह सब मिलकर उस शाम को बेहद शांत बना रहे थे।
मौसम में कुछ अजीब सी बेचैनी थी। दूर आसमान में काले बादल गहराने लगे थे। मोर की आवाज़ें आने लगी थीं, और पेड़ों की पत्तियाँ तेज़ हवाओं से सरसराने लगी थीं। एकाएक बिजली की तेज़ चमक हुई और उसके साथ ही ज़ोर की गरज।
सुधा जी ने स्वेटर बगल में रखा ही था कि तभी कॉलोनी की गेट से आती एक साइकिल की घंटी सुनाई दी। ये राकेश था — पास वाले मकान में रहने वाला कॉलेज स्टूडेंट, जो हर रोज़ शाम को ट्यूशन पढ़ाने साइकिल से जाता था।
लेकिन आज हालात कुछ और ही थे। बारिश ने आते ही जोर पकड़ लिया था और राकेश की साइकिल फिसलते-फिसलते बाल-बाल बची। हाथ में पकड़ा उसका बैग भीग चुका था और वो पूरी तरह पानी-पानी हो गया था। सुधा जी जल्दी से खड़ी हुईं, बरामदे की ओर इशारा करते हुए बोलीं,
"आ जा बेटा, इधर आ जा! देख कितनी तेज़ बारिश हो गई है, भीग जाएगा पूरा!"
राकेश झटपट साइकिल खड़ी करके सीढ़ियाँ चढ़कर बरामदे में आ गया। बालों से पानी टपक रहा था और चेहरा हल्का सा हँसता हुआ, जैसे खुद पर ही हँस रहा हो।
"अरे सुधा आंटी, आज तो आसमान ने बिना बताए ही हमला बोल दिया!"
सुधा जी मुस्कुराईं, "हम्म... मौसम का क्या है बेटा, कभी भी मूड बदल लेता है... जैसे इंसान।"
दोनों हँस पड़े। अंदर से सुधा जी ने गर्म अदरक वाली चाय मंगवाई और बातों-बातों में शाम यूँ ही बीतने लगी — चाय, बारिश और पुरानी यादों के बीच।
बरसात की वो शाम, कुछ कह के भी बहुत कुछ अनकहा छोड़ गई थी।
चाय की प्याली हाथ में लेकर राकेश बरामदे की रेलिंग से टिक गया, और आँखों से सामने गिरती बारिश की बूँदों को देखने लगा। सुधा जी ने भी स्वेटर के फंदे एक ओर रख दिए और धीरे-धीरे कुर्सी की पीठ से टिकते हुए बोलीं,
"जानता है राकेश, बरसात हमेशा कुछ ना कुछ याद दिला देती है... कभी वो बचपन की कागज़ की नावें, तो कभी कुछ खोए हुए लोग..."
राकेश मुस्कुराया, "सच कहा आंटी, बारिश बस पानी नहीं लाती, कुछ भावनाएं भी साथ ले आती है।"
"तेरे जैसे ही एक लड़का था कभी, नाम था—अनिरुद्ध। बिल्कुल ऐसा ही था... ज़िद्दी, हँसमुख और तेज़ बारिश में भीगने का शौकीन," सुधा जी की आवाज़ अचानक धीमी हो गई थी।
राकेश चौंका, "अनिरुद्ध? कौन थे वो?"
सुधा जी कुछ पल खामोश रहीं, फिर धीमे स्वर में बोलीं,
"मेरी ज़िंदगी का पहला और आख़िरी प्रेम... कॉलेज में मिले थे। वही गुलमोहर वाला रास्ता, वही साइकल की घंटी... सब याद आता है जब बारिश होती है। शादी नहीं हो सकी... हालात, परिवार, समाज — सब कुछ आड़े आ गया। वो शहर छोड़ गया और फिर कभी लौटा नहीं। बस... बरसातें बची हैं, और उसकी यादें।"
बरामदे में अचानक एक सन्नाटा पसर गया था। बाहर बारिश की टप-टप और भीतर दिल की टपकती यादें...
राकेश कुछ देर चुप रहा, फिर बोल पड़ा, "आंटी, आपने इतनी गहराई से किसी को चाहा... वो भी बिना किसी शिकायत के... ये बहुत बड़ी बात है। आप चाहें तो एक दिन मुझे अनिरुद्ध अंकल के बारे में सब विस्तार से बताइए... मैं सुनना चाहूँगा।"
सुधा जी की आँखों में एक हल्की सी नमी तैर गई थी, लेकिन चेहरा मुस्कराने लगा था।
"शायद अब वक़्त आ गया है कि वो कहानी सिर्फ़ मेरे तक सीमित न रहे... कभी तू आ, गुलमोहर वाली डायरी पढ़ाऊँ तुझे।"
राकेश झट से मुस्कुराया, "पक्का आंटी, लेकिन शर्त है — उस दिन भी बारिश होनी चाहिए!"
दोनों हँस पड़े। बारिश अब धीमी पड़ चुकी थी, लेकिन सुधा जी का दिल जैसे कुछ हल्का हो गया था।
बरसात सिर्फ़ धरती को नहीं, दिलों को भी भिगो देती है — कुछ पुराने ज़ख्मों को धोकर नए सिरे से मुस्कराने की वजह दे जाती है।

**"नई हवा"**"अब तो इस घर की हवा ही बदल गई है, कमला... न रंग है, न ढंग है, न रस्में, न रिवाज़... ये बहुएँ भी अब बहुएँ कहा...
27/05/2025

**"नई हवा"**
"अब तो इस घर की हवा ही बदल गई है, कमला... न रंग है, न ढंग है, न रस्में, न रिवाज़... ये बहुएँ भी अब बहुएँ कहाँ रहीं!"
सरोज बुआ अपनी हमराज़ कमला को अपनी नई बहू काव्या के बारे में चाय के कप के साथ शिकायतें सुना रही थीं।
"अरे अभी तो आई है सरोज, थोड़ा वक्त दो... नई पीढ़ी के अपने तरीके होते हैं," कमला ने शांत लहजे में समझाया।
"वो सब ठीक है, पर बहू बनके कोई अपने पहले ही दिन नाक में स्टड और जींस पहन के पूजा में बैठती है क्या? और ऊपर से कहती है, 'दादी माँ, मंदिर थोड़ा मॉडर्न बना दें, तो अच्छा रहेगा…'" सरोज बुआ का गुस्सा फूट पड़ा।
कमला मुस्कुरा दी, "मॉडर्न मंदिर? अब ये भी नया फैशन हो गया है क्या?"
"अरे छोड़, पूछ तो सही, उसने मेरी पुरानी रेशमी साड़ियाँ कहाँ रख दीं? कहती है – ‘दादी माँ, अब क्लटर फ्री होम का ज़माना है, सब डोनेट कर दिया’। डोनेट? मेरी शादी की साड़ियाँ डोनेट कर दीं? ये भी कोई तरीका है?"
"वो तो अच्छा है तेरी बेटी विदेश में है, वरना वो भी बहू से ईर्ष्या कर बैठती," कमला ने मज़ाक में कहा।
"और सबसे बड़ी बात... रसोई से देसी घी गायब! कहती है, ‘मॉम, अब हम एवोकाडो ऑइल यूज़ करेंगे।’ अरे तेल भी विदेशी, खाना भी विदेशी, और घर की रीत भी विदेशी!"
"तो तू क्या करेगी अब?" कमला ने पूछ लिया।
सरोज बुआ ने लंबी साँस ली, "कर क्या सकती हूँ? बेटा तो वैसे ही उसका दीवाना है। अब ये 'नई हवा' जब घर में घुस ही गई है, तो पर्दे क्या, खिड़कियाँ भी बदलनी पड़ेंगी शायद…"
कुछ हफ्तों से सरोज बुआ हर बात पर ताने कसने की आदत छोड़ने लगी थीं। उन्हें समझ आ रहा था कि काव्या बस कुछ अलग तरीके से जीती है, मगर उसकी नीयत गलत नहीं है।
एक दिन जब दोपहर को धूप सी सीढ़ियों पर फैली थी, काव्या चुपचाप सरोज बुआ के पास बैठ गई।
"दादी माँ," वो बोली धीमे से, "आप नाराज़ हैं मुझसे, है ना?"
सरोज बुआ ने थोड़ी देर चुप्पी साधे रखी, फिर बोलीं, "नाराज़गी नहीं, बस तुम्हारी दुनिया समझ नहीं आती हमें।"
काव्या मुस्कुराई, "मुझे पता है... मैंने बहुत कुछ बदला है इस घर में। पर कुछ चीज़ें भी तो संभाली हैं। देखिए ना, आपके फोटो एल्बम्स को मैंने डिजिटाइज़ करवा लिया है, अब कभी भी देख सकते हैं... और वो आपकी पसंदीदा भगवान की मूर्ति, उसे एक शुद्ध लकड़ी के मंदिर में रखा है... नया, पर सच्चा।"
सरोज बुआ चौंकीं, "अरे वो तो बहुत दिन पहले गायब हो गई थी..."
"नहीं दादी माँ, मैंने उसे सुरक्षित रखवाया था, मंदिर पूरा होते ही वहीं रख दी जाएगी।"
उस शाम सरोज बुआ ने पहली बार चुपचाप काव्या के हाथ से बना *क्विनोआ पुलाव* खाया। स्वाद अलग था, पर नीयत में नमक ठीक था।
अगली सुबह सरोज बुआ ने खुद अपनी पुरानी साड़ियों में से एक हल्की रेशमी साड़ी निकाली और काव्या के कमरे के बाहर रख दी — एक छोटी सी पोटली में एक चिट्ठी के साथ:
**"नई हवा की भी ज़रूरत होती है, पर जड़ों की नमी न मिटे — यही दुआ है। ये मेरी पहली पूजा की साड़ी है — अब ये तुम्हारी है।"**
काव्या को ससुराल में आए अब तीन महीने हो चुके थे। घर में धीरे-धीरे उसकी मौजूदगी को स्वीकार कर लिया गया था, पर पूरी तरह अपनाया नहीं गया था। सरोज बुआ तो अब उससे खुलकर बात करने लगी थीं, मगर बाकी परिवार — खासकर काव्या के जेठ-जेठानी — अभी भी दूरी बनाए रखते थे।
एक शाम जब घर में पूजा चल रही थी, तभी काव्या को एक फोन आया। वो चुपचाप कमरे से बाहर निकल गई। सरोज बुआ की नज़र पड़ी, कुछ बेचैनी-सी लगी उसे।
थोड़ी देर बाद काव्या लौटी, चेहरा पीला पड़ा था। हाथ काँप रहे थे।
“क्या हुआ बेटा?” सरोज बुआ ने तुरंत पूछा।
काव्या ने धीमे स्वर में कहा, “पापा की तबीयत बहुत बिगड़ गई है। अस्पताल में भर्ती हैं… मुझे जाना होगा, दादी माँ।”
सरोज बुआ ने एक क्षण को देखा, फिर हाथ पकड़ कर बोलीं, “चलो, मैं तुम्हारे साथ चलती हूँ।”
अस्पताल में काव्या के परिवार को देखकर सरोज बुआ के मन में एक अजीब सी हलचल हुई। छोटे-से घर में तीन बहनें, एक बीमार पिता और एक थकी हुई मां। कोई दिखावा नहीं, कोई बनावट नहीं — सिर्फ सच्चाई और संघर्ष।
काव्या चुपचाप पिता के पास बैठी उनकी हथेली सहला रही थी। “पापा, अब मैं संभाल लूंगी… आप चिंता मत कीजिए।”
सरोज बुआ की आंखें भर आईं।
उन्हें आज समझ आया कि यह लड़की कोई “खाली हाथ” नहीं आई थी। वो अपने साथ त्याग, जिम्मेदारी और प्रेम की थाती लेकर आई थी — जो किसी दहेज से कहीं ज़्यादा अमूल्य था।
**अगले दिन** घर लौटते ही सरोज बुआ ने सबके सामने एलान किया, “अब से ये घर *काव्या का* है। जिसे कोई शिकायत हो, वो मुझसे करे… क्योंकि मैंने इसे बेटी की तरह अपनाया है।”
घर में सन्नाटा था — मगर वो सन्नाटा बदलते वक्त की गवाही दे रहा था।
सरोज बुआ के खुले समर्थन के बाद काव्या को घर में एक नई जगह तो मिली, मगर सबकी नज़र में उसकी अहमियत अब और चुभने लगी थी — खासकर जेठानी उमा को।
उमा शुरू से ही घर की बड़ी बहू थी — हर त्योहार की ज़िम्मेदारी, हर परंपरा की कमान उसी के हाथ में रहती थी। लेकिन अब… सब कुछ बदल रहा था।
काव्या की सजाई रंगोली की तारीफ़ हो रही थी। सरोज बुआ अब पूजा में उसी से सामग्री मंगवाती थीं। यहाँ तक कि किचन में भी काव्या की हेल्दी रेसिपीज़ ने जगह बना ली थी।
**“न जाने क्या जादू कर रखा है इसने,”** उमा बड़बड़ाई, “सरोज माँ भी अब इसे ही अपनी बेटी कहती हैं।"
**एक दिन**, जब घर में रिश्तेदारों की दावत थी, उमा ने किचन में चुपके से काव्या की बनाई खीर में *नमक* डाल दिया। सबको स्वाद अजीब लगा — कोई कुछ कह नहीं रहा था, पर माहौल भारी हो गया।
काव्या उलझन में थी। वो सोच ही रही थी कि क्या ग़लती हुई, तभी सरोज बुआ ने चम्मच रख दिया।
"खीर में नमक?" उन्होंने कहा।
काव्या घबरा गई, "मुझे नहीं पता दादी माँ… मैंने तो—"
"मैं जानती हूँ, तुम ऐसा नहीं कर सकती," सरोज बुआ ने उसकी तरफ देख कर कहा। उनकी आँखों में भरोसा था, शब्दों में दृढ़ता।
"जिसके हाथ में स्नेह हो, वहां स्वाद की चूक माफ़ हो जाती है। लेकिन ईर्ष्या का स्वाद पूरे घर को कड़वा कर देता है…" ये शब्द पूरे हॉल में तैर गए।
उमा चुपचाप उठकर अंदर चली गई।
**रात को**, काव्या उसके पास गई।
"भाभी, आपने जो किया… मैं समझ गई थी। पर मैं नहीं चाहती कि ये घर दो हिस्सों में बँटे — हमारे लिए नहीं, माँ-पापा के लिए।"
उमा की आंखों में आँसू आ गए। उसे पहली बार एहसास हुआ कि काव्या घर छीनने नहीं आई, बल्कि *घर जोड़ने* आई थी।
**अगली सुबह**, पूजा में पहली बार उमा ने काव्या के हाथ से लिया दिया जलाया।
"नई हवा बह रही है," सरोज बुआ ने मन ही मन सोचा, "और इस बार, पूरे घर को ताज़गी मिल रही है…"

**"तनहाई का रिश्ता"**नेहा की शादी को अभी सिर्फ आठ महीने ही हुए थे। उसके पिता ने बड़े अरमानों से उसे अपनी पसंद से नहीं, स...
22/05/2025

**"तनहाई का रिश्ता"**
नेहा की शादी को अभी सिर्फ आठ महीने ही हुए थे। उसके पिता ने बड़े अरमानों से उसे अपनी पसंद से नहीं, समाज की नज़रों से परिपूर्ण रिश्ते में बांधा था — वरुण से, जो एक आईटी कंपनी में मैनेजर था और बैंगलोर में रहता था।
वरुण की प्रोफाइल, तनख्वाह, लाइफस्टाइल – सब कुछ परफेक्ट था। नेहा के घरवालों को लगा कि अब उनकी बेटी की ज़िंदगी में सिर्फ खुशियाँ ही होंगी।
लेकिन नेहा को धीरे-धीरे समझ आने लगा कि वह एक खूबसूरत पिंजरे में कैद है। वरुण दिनभर अपने लैपटॉप में उलझा रहता था। मीटिंग, कॉल्स, प्रोजेक्ट्स – उसकी ज़िंदगी के केंद्र में बस उसका काम था। नेहा से बातचीत भी अक्सर "हाँ", "ठीक है", "बाद में बताता हूँ" जैसी छोटी प्रतिक्रियाओं में सिमटी रहती।
शादी के शुरुआती दिनों में नेहा ने कई बार कोशिश की – खाना साथ खाने की, कहीं बाहर जाने की, पुराने एल्बम दिखाकर बात छेड़ने की… पर वरुण हर बार "अभी टाइम नहीं है" कहकर टाल देता।
नेहा ने बैंगलोर के एक लाइब्रेरी में जाना शुरू किया, जहाँ वह किताबों में अपनी आवाज़ ढूंढने लगी। वहीं उसकी मुलाकात हुई — एक वृद्ध महिला से, मीरा आंटी, जो हर हफ्ते अकेले आकर कविताएँ पढ़ती थीं। धीरे-धीरे दोनों के बीच दोस्ती हो गई।
मीरा आंटी ने एक दिन पूछा, "नेहा, क्या तुम खुश हो?"
नेहा की आंखें नम हो गईं। वह बस मुस्कुराकर रह गई।
मीरा आंटी ने उसका हाथ थामा और कहा, "बेटा, शादी का रिश्ता सिर्फ काग़ज़ का नहीं होता, ये भावनाओं की डोर से बंधा होता है। अगर वो डोर एकतरफा हो, तो वक़्त के साथ टूट भी सकती है… लेकिन खुद से रिश्ता मत तोड़ना। खुद को मत खो देना।"
उस दिन नेहा ने एक फैसला लिया — वह खुद को फिर से जीने देगी। उसने एक ऑनलाइन कोर्स जॉइन किया, पेंटिंग शुरू की, एक ब्लॉग बनाया जिसमें वह अपनी फीलिंग्स लिखती। वरुण को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा, लेकिन नेहा को पड़ा… अब वह हर सुबह खुद के लिए जागती थी, किसी और के लिए नहीं।
नेहा का ब्लॉग धीरे-धीरे लोगों की नज़रों में आने लगा। उसके शब्दों में एक चुप दर्द था, जो पढ़ने वालों के दिल को छूता था। "बंद खिड़कियाँ" नाम के ब्लॉग पर वह रोज़ अपने अनुभव, अकेलेपन और उम्मीद की किरणों को दर्ज करने लगी।
एक दिन, उसे एक ईमेल आया —
**"तुम्हारे लिखे शब्दों ने मुझे खुद से जोड़ दिया। क्या कभी तुम्हारा सच्चा साथ मिला?"**
— *आरव*
नेहा ने जवाब नहीं दिया, लेकिन कुछ दिनों बाद वही नाम दोबारा उसकी पोस्ट पर कमेंट के रूप में आया।
**"तुम्हारी कहानियों में सन्नाटा भी बोलता है, शायद क्योंकि तुमने उसे सुना है।"**
नेहा ने पहली बार किसी अनजान के शब्दों को अपनी रूह में उतरते महसूस किया।
इस बीच वरुण अब भी वही था — व्यस्त, अलग, चुप। एक दिन नेहा ने उसके सामने हिम्मत कर के कहा,
"वरुण, क्या हमारे बीच कुछ भी बचा है?"
वरुण ने बिना नज़र उठाए जवाब दिया, "नेहा, मैं कोशिश कर रहा हूँ… लेकिन मैं ऐसा नहीं हूँ जो रोमांटिक बातें करे या वक़्त निकाले। तुम चाहो तो अपने मन मुताबिक़ जी सकती हो।"
उस रात नेहा बहुत रोई… लेकिन अगली सुबह उसने खुद को आइने में देखा — बिना किसी नक़ाब के। उसने पहली बार अपने लिए चाय बनाई, और खुद को मुस्कुराकर कहा,
**"अब मैं तुम्हारे साथ हूँ, नेहा।"**
आरव के साथ उसकी डिजिटल बातचीत अब सुकून देने लगी थी। वह एक लेखक था, जिसने अपनी पत्नी को कैंसर में खोया था। वह अकेलापन जानता था, लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी थी।
एक दिन आरव ने पूछा —
**"क्या तुम बैंगलोर में हो? क्या कभी मिल सकती हो?"**
नेहा के दिल में झिझक थी, लेकिन डर नहीं था।
"शायद… किसी कॉफी शॉप में, सिर्फ एक बातचीत के लिए।" — उसने लिखा।
कॉफी शॉप की खिड़की के पास बैठी नेहा हर बार दरवाज़े की तरफ़ नज़र उठाकर देखती, फिर चुपचाप अपनी कॉफी के प्याले में नज़रें गड़ा देती। पहली बार किसी अजनबी से मिलने जा रही थी, लेकिन अजीब बात यह थी कि वह डर नहीं रही थी — शायद क्योंकि वह अब खुद को खोने से नहीं डरती थी।
तभी दरवाज़ा खुला। हल्के ग्रे स्वेटर में एक लंबा, शांत चेहरा भीतर दाख़िल हुआ। उसकी आंखों में थकान थी, लेकिन मुस्कान में सुकून।
“आरव?” नेहा ने धीमे से पूछा।
“नेहा?” उसने मुस्कराते हुए हाथ बढ़ाया। “मुझे लगा तुम नहीं आओगी।”
“मैं खुद को फिर से आज़माना चाहती थी,” नेहा ने ईमानदारी से कहा।
कॉफी की चुस्कियों के बीच दोनों की बातें किताबों, अकेलेपन, और उन अधूरे सपनों तक पहुँचीं जिन्हें कभी किसी ने समझा ही नहीं। नेहा ने अपने भीतर एक हल्का उजाला महसूस किया — कोई बिना मांगे सुन रहा है, समझ रहा है।
उधर, वरुण देर रात घर लौटा तो नेहा घर पर नहीं थी। पहली बार उसके चेहरे पर बेचैनी उभरी।
उसने पूरे घर को देखा — नेहा का स्केचबुक, किताबें, और दीवार पर टंगी उनकी शादी की एक तस्वीर… जिसे शायद पहली बार उसने ध्यान से देखा।
अचानक उसने नेहा का ब्लॉग खोला — *"बंद खिड़कियाँ"*
वह पन्ने दर पन्ने पढ़ता गया, और पहली बार उसने महसूस किया कि वह एक खूबसूरत, संवेदनशील लड़की के साथ नहीं, बल्कि एक पूरी दुनिया के साथ रहता रहा जिसे उसने कभी देखा ही नहीं।
अगले दिन, नेहा घर लौटी तो वरुण दरवाज़े पर उसका इंतज़ार कर रहा था।
"तुम्हारा ब्लॉग पढ़ा," वह बोला। "मैंने तुम्हें कभी जाना ही नहीं… शायद अपनी दुनिया में इतना खोया था कि तुम्हारी तन्हाई देख ही नहीं पाया।"
नेहा चुप रही।

"क्या बहुत देर हो गई है?" वरुण की आवाज़ टूट रही थी।
नेहा की आंखों में कोई शिकायत नहीं थी… सिर्फ़ शांति।
"देर कभी भी नहीं होती… अगर इरादा बदलने का हो। लेकिन मुझे अब खुद से रिश्ता तोड़ना नहीं है। मैं तुम्हारा इंतज़ार करते-करते थक गई थी… अब मैं खुद को पा चुकी हूँ।"
आरव और नेहा की कहानी एक नई शुरुआत थी। जबकि वरुण ने भी पहली बार रिश्तों को समझने की कोशिश की।
नेहा की ज़िंदगी अब दो रास्तों पर खड़ी थी — एक रास्ता जो पीछे छूटा था, जिसमें वरुण था, रिश्ते की कोशिशें थीं, और एक अधूरी शादी थी। दूसरा रास्ता आरव की दोस्ती से होकर जाता था — जहाँ अपनापन था, पर भविष्य अनिश्चित।
नेहा ने कुछ दिनों का समय लिया। उसने खुद को किसी फ़ैसले में बाँधने की जगह **ख़ुद से जुड़ना** जारी रखा। अब वह सुबह उठते ही अपनी बालकनी में बैठ जाती, पेड़ों के पत्तों की सरसराहट सुनती और गुनगुनाती — *"ज़िंदगी जब मुस्कराए, तो वक़्त थम जाना चाहिए।"*
एक शाम आरव ने उससे पूछा —
**"क्या हम किसी उम्मीद की तरफ़ बढ़ रहे हैं, या बस एक सुकून की दोस्ती हैं?"**
नेहा ने उसकी आंखों में देखा।
"आरव, तुमने मुझे खुद से मिलवाया। प्यार… शायद मैं उससे अब डरती नहीं। लेकिन मैं अब किसी रिश्ते में खुद को खोना नहीं चाहती। अगर ये साथ ऐसा है जहाँ मैं मैं रह सकूं… तो ये शुरुआत हो सकती है।"
आरव मुस्कराया, “नेहा, मुझे किसी ‘रिलेशनशिप स्टेटस’ की ज़रूरत नहीं… बस तुम जैसे हो वैसे रहो, और मैं जैसा हूँ, वैसा रहूं — यही काफी है।”
उधर, वरुण नेहा को खो देने के एहसास से टूट चुका था। लेकिन उसने पहली बार अपनी ज़िंदगी को पुनः जिया। उसने अपने भीतर झांकना शुरू किया — काउंसलिंग ली, काम के लिए सीमाएं तय कीं और खुद को बदलने का प्रयास किया।
एक दिन उसने नेहा को एक चिट्ठी भेजी —
**"शुक्रिया… क्योंकि तुमने मुझे आईना दिखाया। तुमसे अलग होकर मैंने सीखा कि रिश्ते कमिटमेंट से नहीं, समझ से चलते हैं। अगर कभी हमारी राहें फिर मिलें… तो दो दोस्तों की तरह मिलें।"**
कुछ महीने बीते। नेहा अब एक लेखिका बन चुकी थी। उसकी पहली किताब *"एकांत की आवाज़ें"* प्रकाशित हुई, जिसमें उसकी अपनी यात्रा, उसकी कहानियाँ और उसकी मुक्ति दर्ज थीं।
उसके बुक लॉन्च पर सबसे आगे की पंक्ति में आरव था — तालियाँ बजाते हुए, और मुस्कराता हुआ।
नेहा ने मंच से नीचे झाँका, और धीमे से कहा —
**"कभी-कभी, रिश्ते ख़त्म नहीं होते… वे बस बदल जाते हैं। और कभी-कभी, अकेले चलने से पहले, किसी का हाथ थाम लेना… खुद से प्यार करने जैसा होता है।"**
समाप्त ..........

**अजनबी की परछाई**विक्रम राज का फार्महाउस शहर से लगभग बीस किलोमीटर दूर एक सुनसान इलाके में था। चारों ओर घना जंगल और खेत ...
22/05/2025

**अजनबी की परछाई**
विक्रम राज का फार्महाउस शहर से लगभग बीस किलोमीटर दूर एक सुनसान इलाके में था। चारों ओर घना जंगल और खेत थे। आसपास ना कोई मकान था, ना कोई बस्ती। कुछ साल पहले तक यह जगह वीरान थी, लेकिन विक्रम राज ने इसे अपनी रिटायरमेंट के लिए तैयार करवाया था। वे एक रिटायर्ड कर्नल थे – अनुशासित, सख़्त और नियमों के पक्के।
फार्महाउस में उनके साथ केवल एक बूढ़ा माली और एक चौकीदार रहते थे। उनके बेटे और बहू विदेश में बस चुके थे। कभी कभार ही कोई चिट्ठी या कॉल आता था। विक्रम राज को अब बस अपना सुकून भरा अकेलापन प्रिय था।
एक सुबह, जब कोहरा कुछ कम हुआ और धूप हल्की सी फैली, विक्रम राज हमेशा की तरह अपनी बगिया में टहलने निकले। हवा में मिट्टी की गंध थी, शायद रात को हल्की बारिश हुई थी।
उन्होंने जैसे ही गेट की तरफ़ देखा, तो पाया कि वहां एक आदमी बैठा है – झुका हुआ, काँपता हुआ। वह नंगे पाँव था, और उसके चेहरे पर थकान और डर साफ झलक रहा था।
विक्रम राज ने सख़्त आवाज़ में पूछा, "कौन हो तुम? यहां क्या कर रहे हो?"
आदमी ने सिर उठाया और धीमे से बोला, "साहब... मैं भागा हूं... जान बचाने के लिए।"
"जान? किससे?" विक्रम राज ने हैरानी से पूछा।
"चोर समझकर लोग पीछे पड़ गए... लेकिन मैं चोर नहीं हूं, साहब। मैं एक कारखाने में मजदूरी करता हूं। कल रात बारिश में फँस गया... जंगल में भटक गया... तो यहाँ शरण ले ली।"
उसी वक्त विक्रम राज की नजर गेट के पास रखे एक झोले पर पड़ी, जिसमें एक नन्ही सी बच्ची सिसक रही थी।
"यह किसकी है?" उन्होंने कठोर स्वर में पूछा।
आदमी ने कांपती आवाज़ में कहा, "मेरी बेटी है, साहब। माँ नहीं रही... इसको बचाने के लिए ही भागा हूँ।"
विक्रम राज कुछ देर खामोश रहे। उनकी कठोर आँखों में नमी सी चमकी। उन्होंने अपने माली को आवाज़ दी – "इस आदमी और बच्ची के लिए खाने का इंतज़ाम करो। और सुनो, जब तक मामला साफ़ नहीं होता, ये यहीं रहेंगे... मेरी निगरानी में।"
उस दिन एक अजनबी की परछाई विक्रम राज के जीवन में एक नया उजाला लेकर आई थी।
विक्रम राज की निगरानी में वह आदमी और उसकी बेटी फार्महाउस के एक पुराने स्टोर रूम में ठहरे। माली ने साफ़-सफ़ाई कर दी थी और चौकीदार ने कुछ पुराने बिस्तर वहां डाल दिए थे।
उस रात विक्रम राज को नींद नहीं आई। न जाने क्यों उस अजनबी की थकी आँखें और उसकी मासूम बच्ची का चेहरा उनके मन में उतर गया था। उन्हें अपनी पुरानी यादें सताने लगीं—जब उनकी पत्नी गुज़री थीं और उन्होंने अकेले अपने बेटे को पाला था।
सुबह विक्रम राज ने उस आदमी को बुलाया।
"तुम्हारा नाम क्या है?" उन्होंने सख़्ती से पूछा।
"नाम दीपक है, साहब," वह बोला, "बिहार से आया था काम की तलाश में। एक फैक्ट्री में काम करता था। लेकिन मजदूरी बहुत कम थी और... और मालिक की नीयत ठीक नहीं थी। मेरी बेटी पर बुरी नज़र थी उसकी। उसी से बचाकर भागा हूँ।"
विक्रम राज के चेहरे पर एक गहरी लकीर खिंच गई। वे समझ सकते थे कि ये बातें झूठ नहीं थीं।
"अब क्या करने का इरादा है?" उन्होंने पूछा।
"कोई भी छोटा-मोटा काम मिल जाए तो यहीं रहकर बेटी को पाल लूँगा, साहब," दीपक ने सिर झुकाकर कहा।
कुछ पल चुप रहने के बाद विक्रम राज बोले, "तुम यहाँ रहो। फार्महाउस बड़ा है। माली बूढ़ा हो गया है, उसे मदद की ज़रूरत है। तुम्हें काम मिलेगा, लेकिन नियमों के साथ।"
दीपक की आँखों में चमक आ गई। उसने विक्रम राज के पैरों को छू लिया।
समय बीतता गया। दीपक ने अपने कर्म, सच्चाई और मेहनत से न केवल विक्रम राज का भरोसा जीता, बल्कि फार्महाउस को भी एक नए जीवन से भर दिया। छोटी बच्ची, जिसे सब 'चुटकी' कहने लगे थे, धीरे-धीरे विक्रम राज की आंखों का तारा बन गई।
अब वह फार्महाउस, जो कभी वीरान और खामोश हुआ करता था, चुटकी की हँसी से गूंजने लगा था।
वक़्त जैसे पंख लगाकर उड़ने लगा। देखते ही देखते चुटकी पाँच साल की हो गई थी। उसकी किलकारियों से कभी वीरान पड़ा फार्महाउस अब एक जीवंत आँगन बन चुका था।
विक्रम राज अब पहले जैसे सख़्त नहीं रहे थे। उम्र ने उनके चेहरे पर झुर्रियाँ दी थीं, लेकिन चुटकी ने उनके दिल को एक नई कोमलता दी थी। वह सुबह अखबार के साथ बैठते तो चुटकी आकर उनकी छड़ी छीन लेती, उनकी टोपी पहनकर सलामी देती – “गुड मॉर्निंग, जनरल अंकल!” और विक्रम राज की ठहरी हुई मुस्कान खिल उठती।
दीपक अब फार्महाउस का एक भरोसेमंद सदस्य बन चुका था। माली और चौकीदार उसे ‘छोटे मालिक’ कहने लगे थे। वह खेती-बाड़ी, बगीचे की देखभाल और आसपास के गाँववालों से भी मेलजोल बनाए रखने में माहिर हो गया था।
एक दिन, जब चुटकी स्कूल से लौटी तो उसके हाथ में एक चित्र था — उसमें उसने विक्रम राज, दीपक और खुद को एक घर के भीतर खड़ा बनाया था, और ऊपर लिखा था:
**"मेरा परिवार"**
विक्रम राज की आँखें वह चित्र देखकर भर आईं। उन्होंने कुछ कहे बिना चुटकी को सीने से लगा लिया।
पर कहानी यहीं नहीं थमती।
एक शाम फार्महाउस की शांति को एक विदेशी नंबर से आई कॉल ने तोड़ा। विक्रम राज के बेटे ने कॉल किया था। वर्षों बाद।
"पापा, मैं इंडिया आ रहा हूँ… कुछ ज़रूरी बात करनी है।"
एक हफ़्ते बाद, उनका बेटा और बहू फार्महाउस पहुँचे। बड़े ही आधुनिक, व्यस्त और व्यावसायिक स्वभाव के लोग थे। पहले तो सब सामान्य रहा, लेकिन जब उन्हें दीपक और चुटकी के बारे में पता चला, तो उनके चेहरे पर असंतोष झलकने लगा।
“डैड, आप एक अजनबी और उसकी बच्ची को इतने सालों से यहाँ रखे हुए हैं? आप जानते भी हैं इनका बैकग्राउंड क्या है?”
विक्रम राज चुप रहे। कुछ देर बाद बोले,
“अगर खून का रिश्ता ही सब कुछ होता… तो तुम मुझे अकेले छोड़कर विदेश नहीं जाते। ये अजनबी नहीं हैं… मेरे अपने हैं।”
रात के खाने की मेज़ पर सन्नाटा था। लेकिन चुटकी की नन्ही आवाज़ गूंज रही थी — “दादू, कल आप मुझे बगीचे में स्टोरी सुनाओगे ना?”
विक्रम राज ने उसकी तरफ़ देखा, मुस्कुराए और बोले,
“हाँ बेटा… कल, हर रोज़, हमेशा… जब तक ये दिल धड़कता रहेगा।”
#हिंदीकहानी

**"खामोशी का रिश्ता"**"माँ, मेरा लैपटॉप चार्ज कर देना, मीटिंग में देर हो रही है..." अयान ने जल्दी-जल्दी अपना बैग उठाते ह...
21/05/2025

**"खामोशी का रिश्ता"**
"माँ, मेरा लैपटॉप चार्ज कर देना, मीटिंग में देर हो रही है..." अयान ने जल्दी-जल्दी अपना बैग उठाते हुए कहा।

"अयान... आज भी क्या तुम बिना दादा जी से बात किए चले जाओगे?" माँ सुमेधा की आवाज में हल्की नाराज़गी और चिंता दोनों थी।

अयान ने बिना कुछ बोले सिर झुकाया और दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गया।

दादा जी—यानी विनोद नारायण—दरवाज़े के पास ही बरामदे में बैठे सब सुन रहे थे। उन्होंने अपनी कमज़ोर आँखों से पोते की पीठ को जाते हुए देखा। होंठ कुछ कहने को कांपे, लेकिन आवाज़ गले में ही रह गई। उनके हाथ की छड़ी ज़मीन पर टक-टक करती रही... जैसे हर दिन यही करती आई हो—एक खामोश पुकार।

चार दिन हो चुके थे। अयान ने अपने दादा जी से एक शब्द तक नहीं कहा था। वजह? एक दिन गलती से अयान की ऑनलाइन मीटिंग में शोर हो गया था। विनोद जी को गुस्सा आ गया, उन्होंने ऊंची आवाज़ में कुछ ऐसा कह दिया जो अयान के आत्मसम्मान को चुभ गया।

सुमेधा समझती थीं कि अयान का गुस्सा उसका बचाव है, लेकिन विनोद जी का गुस्सा... उनकी कमजोरी।

रात को सुमेधा जब चाय लेकर बाहर आईं, तो देखा विनोद जी अपनी पुरानी डायरी पलट रहे थे, जिसमें अयान के बचपन की तस्वीरें थीं।

"जब ये छोटा था, तो बिना मुझे 'गुड नाइट' कहे सोता नहीं था... और अब चार दिन हो गए हैं मेरी आवाज़ तक नहीं सुनी उसने," उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा।

सुमेधा के पास कोई जवाब नहीं था।

वक़्त ने दोनों के बीच एक खामोश दीवार खड़ी कर दी थी—जिसे तोड़ने के लिए न तो अयान तैयार था, न विनोद जी। लेकिन प्यार... वह अब भी दोनों के दिलों में था—बस कहने की हिम्मत किसी में नहीं थी।
अगली सुबह—
सुमेधा रोज़ की तरह चाय लेकर बाहर आईं, लेकिन आज विनोद जी अपनी कुर्सी पर नहीं थे। अंदर देखा तो वो पूजा घर में बैठे, आँखें मूंदे भगवान से कुछ बड़बड़ा रहे थे।

“हे नारायण, मुझे ही सद्बुद्धि दे दो… शायद मैं ही गलत हूं जो अपने पोते को समझ नहीं पाया,” वे खुद से कह रहे थे।

सुमेधा ने चुपचाप चाय वहीं रख दी और अपने आँचल से आँखें पोंछते हुए बाहर आ गईं।
दूसरी ओर—
ऑफिस में अयान का दिन ठीक नहीं गया। मीटिंग में क्लाइंट ने डांटा, और उसका ध्यान भी भटका रहा।
शाम को जब वह थका-हारा घर लौटा, तो दरवाज़ा खोलते ही उसकी नजर ड्राइंग रूम की दीवार पर गई, जहाँ एक पुरानी तस्वीर टंगी थी—दादा जी और वो, जब वह सिर्फ़ पाँच साल का था। दोनों के चेहरों पर वही मासूम मुस्कान थी।

कई यादें एक साथ लौट आईं—दादा की गोद में बैठकर रामायण सुनना, उनके साथ पतंग उड़ाना, और वो हर रात की “गुड नाइट कहानी”।

अयान ने चुपचाप बैग रखा और एक लंबा साँस लिया। शायद अब चुप्पी भारी हो गई थी।
रात को—
दादा जी बरामदे में बैठे थे। अचानक अयान उनके पास आकर रुक गया। कुछ पल खामोशी रही... फिर अयान ने धीरे से कहा,
“दादा जी, आपको चोट लगी थी उस दिन... मेरे शब्दों से नहीं, मेरी चुप्पी से। मैं... मैं माफ़ी चाहता हूँ।”

विनोद जी ने हैरानी से सिर उठाया। आँखों में नमी थी, पर होंठों पर वही पुरानी मुस्कान लौट आई।

“बेटा, माफ़ी तो मुझे माँगनी चाहिए। मैंने उम्र की धौंस में तुम्हारी दुनिया की अहमियत को नहीं समझा।”

फिर उन्होंने अयान का हाथ थाम लिया।
“पर एक बात जान लो... जब तक ये साँस चल रही है, मेरा प्यार कभी कम नहीं होगा।”

उस पल दोनों की आँखों से आंसू बह निकले। खामोशी की वो दीवार धीरे-धीरे टूट रही थी।
अयान और दादा जी की उस मुलाक़ात के बाद घर में एक नई रौशनी आ गई थी। कुछ बदला नहीं था, पर अब हर चीज़ में अपनापन था। सुबह की चाय फिर से साथ में होने लगी, शाम की बातें फिर से ज़िंदा हो गईं।
पर शायद जिंदगी सिर्फ ठहरे पानी की तरह नहीं चलती।
**एक शाम...**

अयान ऑफिस से जल्दी लौटा। उसने देखा कि दादा जी कमरे में लेटे हैं, लेकिन चेहरा थोड़ा पीला लग रहा था।

“दादा जी, तबीयत ठीक है न?”
“कुछ नहीं बेटा... बस थोड़ी थकान है,” कहकर उन्होंने आंखें मूंद लीं।

पर अयान को चैन नहीं आया। वह तुरंत माँ को बुलाकर डॉक्टर को फ़ोन करवाता है।
डॉक्टर आते हैं, कुछ जाँच करते हैं, और फिर गंभीर स्वर में कहते हैं—
“उम्र का असर है... लेकिन कुछ और भी है, हमें टेस्ट्स कराने होंगे।”
**अगले दिन – अस्पताल**
रिपोर्ट्स में पता चला कि विनोद जी को *माइल्ड स्ट्रोक* आया था कुछ दिन पहले, और उन्हें आराम की सख्त ज़रूरत है।
अयान को जैसे किसी ने भीतर से झकझोर दिया।

**रात को...**

वह अस्पताल के पास की बेंच पर बैठा था, हाथ में वही पुरानी तस्वीर थी। तस्वीर को देखता रहा... जैसे हर लकीर में कोई बात छुपी हो।

तभी माँ सुमेधा आईं।
“बेटा, जीवन कभी-कभी हमें वक्त रहते चेतावनी देता है। जो रिश्ते आज हैं, वही कल हमारी सबसे बड़ी पूंजी होते हैं।”

अयान ने माँ की तरफ देखा और धीरे से कहा—
“अब कुछ भी अधूरा नहीं छोड़ूंगा, माँ... न कोई बात, न कोई एहसास।”
**अगले हफ्ते**

दादा जी को घर ले आया गया। अब उनका हर दिन अयान के साथ बीतता—कभी शतरंज, कभी किताबें, कभी पुरानी कहानियाँ।

अयान ने ऑफिस का वर्क-फ्रॉम-होम चुन लिया ताकि दादा जी के साथ अधिक समय बिता सके।

एक दिन दादा जी ने मुस्कुराकर कहा—
“पता है अयान, मैंने तुझे बेटे की तरह नहीं, अपने साये की तरह पाला है... और आज लगता है तू ही मेरी सबसे बड़ी सीख है।”

अयान ने उनका हाथ अपने माथे से लगाया और कहा—
“और आप मेरी जड़ें हैं, दादा जी। जिनसे जुड़कर ही मैं मजबूत बना हूँ।”
#हिंदीकहानी

Address

Varanasi

Alerts

Be the first to know and let us send you an email when Story Adda posts news and promotions. Your email address will not be used for any other purpose, and you can unsubscribe at any time.

Share