24/06/2025
संपादकीय । भारतीय मीडिया का यह सबसे त्रासद समय है। छीजते भरोसे के बीच उम्मीद की लौ फिर भी टिमटिमा रही है। उम्मीद है कि भारतीय मीडिया आजादी के आंदोलन में छिपी अपनी गर्भनाल से एक बार फिर वह रिश्ता जोड़ेगा और उन आवाजों का उत्तर बनेगा जो उसे कभी पेस्टीट्यूट, कभी पेड न्यूज तो कभी गोदी मीडिया के नाम पर लांछित करती है। जिनकी समाज में कोई क्रेडिट नहीं वह आज मीडिया का हिसाब मांग रहे हैं। आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे लोग, वाणी और कृति से अविश्वास के प्रतीक भी मीडिया से शुचिता की मांग कर रहे हैं।
देखा जाए तो यह गलत भी नहीं है। मेरे गलत होने से आपको गलत होने की आजादी नहीं मिल जाती। एक पाठक और एक दर्शक के नाते हमें तो श्रेष्ठ ही चाहिए, मिलावट नहीं। वह मिलावट खबरों की हो या विचारों की। लेकिन आज के दौर में ऐसी परिशुद्धता की अपेक्षा क्या उचित है? क्या बदले हुए समय में मिलावट को युगधर्म नहीं मान लेना चाहिए? आखिर मीडिया के सामने रास्ता क्या है? किन उपायों और रास्तों से वह अपनी शुचिता, पवित्रता, विश्वसनीयता और प्रामाणिकता को कायम रख सकता है, यह सवाल आज सबको मथ रहा है। जो मीडिया के भीतर हैं उन्हें भी, जो बाहर हैं उन्हें भी।
गहरी सांस्कृतिक निरक्षरता से मुक्ति जरूरी
पठनीयता का संकट, सोशल मीडिया का बढ़ता असर, मीडिया के कंटेंट में तेजी से आ रहे बदलाव, निजी नैतिकता और व्यावसायिक नैतिकता के सवाल, मोबाइल संस्कृति से उपजी चुनौतियों के बीच मूल्यों की बहस को देखा जाना चाहिए। इस समूचे परिवेश में आदर्श, मूल्य और सिद्धांतों की बातचीत भी बेमानी लगने लगी है। बावजूद इसके एक सुंदर दुनिया का सपना, एक बेहतर दुनिया का सपना देखने वाले लोग हमेशा एक स्वस्थ और सरोकारी मीडिया की बहस के साथ खड़े रहेंगे। संवेदना, मानवीयता और प्रकृति का साथ ही किसी भी संवाद माध्यम को सार्थक बनाता है। संवेदना और सरोकार समाज जीवन के हर क्षेत्र में आवश्यक है, तो मीडिया उससे अछूता कैसे रह सकता है। सही मायने में यह समय गहरी सांस्कृतिक निरक्षता और संवेदनहीनता का समय है। इसमें सबके बीच मीडिया भी गहरे असमंजस में है। लोक के साथ साहचर्य और समाज में कम होते संवाद ने उसे भ्रमित किया है। चमकती स्क्रीनों, रंगीन अखबारों और स्मार्ट हो चुके मोबाइल उसके मानस और कृतित्व को बदलने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। ऐसे में मूल्यों की बात कई बार नक्कारखाने में तूती की तरह लगती है। किंतु जब मीडिया के विमर्शकार, संचालक यह सोचने बैठेंगे कि मीडिया किसके लिए और क्यों- तब उन्हें इसी समाज के पास आना होगा। रूचि परिष्कार, मत निर्माण की अपनी भूमिका को पुनर्परिभाषित करना होगा। तभी मीडिया की सार्थकता है और तभी उसका मूल्य है। लाख मीडिया क्रांति के बाद भी ‘भरोसा’ वह शब्द है जो आसानी से अर्जित नहीं होता। लाखों का प्रसार आपके प्राणवान और सच के साथ होने की गारंटी नहीं है। ‘विचारों के अनुकूलन’ के समय में भी लोग सच को पकड़ लेते हैं। मीडिया का काम सूचनाओं का सत्यान्वेषण ही है, वरना वे सिर्फ सूचनाएं होंगी- खबर या समाचार नहीं बन पाएंगी।