09/04/2025
*✧"'भक्तिमती शबरी " ✧*
त्रेतायुग का समय है, वर्णाश्रम धर्म की पूर्ण प्रतिष्ठा है, वनों में स्थान- स्थान पर ऋषियों के पवित्र आश्रम बने हुए हैं। तपोधन ऋषियों के यज्ञभूम से दिशाएँ आच्छादित और वेदध्वनि से आकाश मुखरित हो रहा है।
ऐसे समय दण्डकारण्य में पति- पुत्र- विहीना, भक्ति- श्रद्धा सम्पन्ना एक वृद्धा भीलनी रहती थी, जिसका नाम था शबरी।
शबरी ने एक बार मतंग ऋषि के दर्शन किये। संत दर्शन से उसे परम हर्ष हुआ और उसने विचार किया कि यदि मुझसे ऐसे महात्माओं की सेवा बन सके तो मेरा कल्याण होना कोई बड़ी बात नहीं है।
यह सोचकर उसने ऋषियों के आश्रमों से थोड़ी दूर पर अपनी छोटी- सी कुटिया बना ली और कन्द- मूल- फल से अपना उदर पोषण करती हुई अपने को नीच समझकर वह अप्रकट रूप से ऋषियों की सेवा करने लगी।
जिस मार्ग से ऋषिगण स्नान करने जाया करते, उष:काल के पूर्व ही उसको झाड़ बुहार कर साफ कर देती, कहीं भी कंकड़ या काँटा नहीं रहने पाता।
इसके सिवा वह आश्रमों के समीप ही प्रातः काल के पहले- पहले ईधन के सूखे ढेर लगा देती।
कैंकरीले और कैटीले रास्ते को निष्कण्टक और कंकड़ों से रहित देखकर तथा द्वार पर समिधा का संग्रह देखकर ऋषियों को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने अपने शिष्यों को यह पता लगाने की आज्ञा दी कि प्रतिदिन इन काम को कौन कर जाता है।
आज्ञाकारी शिष्य रात को पहरा देने लगे और उसी दिन रात के पिछले पहर शबरी ईंधन का बोझा रखती हुई पकड़ी गयी।
शबरी बहुत ही डर गयी। शिष्यगण उसे मतंग मुनि के सामने ले गये और उन्होंने मुनि से कहा कि 'महाराज ! प्रतिदिन रास्ता साफ करने और ईंधन रख जाने वाले चोर को आज हमने पकड़ लिया है। यह भीलनी ही प्रतिदिन ऐसा किया करती है।'
शिष्यों की बात को सुनकर भय कातरा शबरी से मुनि ने पूछा, 'तू कौन है और किसलिये प्रतिदिन मार्ग बुहारने और ईंधन लाने का काम करती है?'
भक्तिमती शबरी ने काँपते हुए अत्यन्त विनय पूर्वक प्रणाम करके कहा, 'नाथ मेरा नाम शबरी है. मन्दभाग्य से मेरा जन्म नीच कुल में हुआ है, मैं इसी वन में रहती हूँ और आप- जैसे तपोधन मुनियों के दर्शन से अपने को पवित्र करती हूँ।
अन्य किसी प्रकार की सेवा में अपना अनधिकार समझकर मैंने इस प्रकार की सेवा में ही मन लगाया है। भगवन् आपकी सेवा के योग्य नहीं कृपा पूर्वक मेरे अपराध को क्षमा करें।
शबरी के इन दीन और यथार्थ वचनों को सुनकर मुनि मतंग ने दया परवश हो अपने शिष्यों से कहा कि 'यह बड़ी भाग्यवती है, इसे आश्रम के बाहर एक कुटिया में रहने दो और इसके लिये अन्नादि का उचित प्रबन्ध कर दो।'
ऋषि के दयापूर्ण वचन सुनकर शबरी ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा- 'कृपानाथ! मैं तो कन्दमूलादि से ही अपना उदर- पोषण कर लिया करती हूँ।
आपका अन्न प्रसाद तो मुझे इसीलिये इच्छित है कि इससे मुझ पर आपकी वास्तविक कृपा होगी, जिससे मैं कृतार्थ हो सकूँगी।
मुझे न तो वैभव की इच्छा है और न मुझे यह असार संसार ही प्रिय लगता है। दीनबन्धो ! मुझे तो आप ऐसा आशीर्वाद दें कि जिससे मेरी भगवान् में प्रीति हो।'
विनयावनत श्रद्धालु शयरी के ऐसे वचन सुनकर मुनि मतंग ने कुछ देर सोच- विचार कर प्रेमपूर्वक उससे कहा-' कल्याणि तु निर्भय होकर यहाँ रह और तू भगवान् के नाम का जप किया कर
ऋषि की कृपासे शबरी जटा - चीर- धारिणी होकर भगवद्भजन में निरत हो आश्रम में रहने लगी। अन्यान्य ऋषियों को यह बात अच्छी नहीं लगी।
उन्होंने मतंग ऋषिसे कह दिया कि "आपने नीच जाति शबरी को आश्रम में स्थान दिया है, इससे हम लोग आपके साथ भोजन करना तो दूर रहा, सम्भाषण भी करना नहीं चाहते।'
भक्तितत्व के मर्मज्ञ मतंग ने इन शब्दों पर कोई ध्यान नहीं दिया। वे इस बात को जानते थे कि ये सब भ्रम में हैं, शबरी के स्वरूप का इन्हें ज्ञान नहीं है, शबरी केवल नीच जाति की साधारण स्त्री ही नहीं है, वह एक भगवद्भक्ति परायणा उच्च आत्मा है।
उन्होंने इसका कुछ भी विचार नहीं किया और वे अपने उपदेश से शबरी की भक्ति बढ़ाते रहे। इस प्रकार भगवद्गुण- स्मरण और गान करते- करते बहुत समय बीत गया।
मतंग ऋषि ने शरीर छोड़ने की इच्छा की, यह जानकर शिष्यों को बड़ा दुःख हुआ, शबरी अत्यन्त क्लेश के कारण क्रन्दन करने लगी।
गुरुदेव का परमधाम में पधारना उसके लिये असहनीय हो गया। वह बोली- 'नाथ! आप अकेले ही न जायें, यह किङ्करी भी आपके साथ जाने को तैयार है।'
विषण्णवदना कृताञ्जलि दीना शबरी को सम्मुख देखकर मतंग ऋषि ने कहा- 'सुव्रते ! तू यह विषाद छोड़ दे, कोसल किशोर भगवान् श्रीरामचन्द्र इस समय चित्रकूट में हैं। वे यहाँ अवश्य पधारेंगे।
उन्हें तू इन्हीं चर्म चक्षुओं से प्रत्यक्ष देख सकेगी, वे साक्षात् परमात्मा नारायण हैं। उनके दर्शन से तेरा कल्याण हो जायगा।
भक्त वत्सल भगवान् जब तेरे आश्रम में पधारें, तब उनका भली भाँति आतिथ्य करके अपने जीवन को सफल करना। तब तक तू श्रीराम- नाम का जप करती हुई उनकी प्रतीक्षा कर।'
शबरी को इस प्रकार आश्वासन देकर मुनि दिव्यलोक को चले गये। इधर शबरी ने श्रीराम- नाम में ऐसा मन लगाया कि उसे दूसरी किसी बात का ध्यान ही नहीं रहा।
शबरी कन्द- मूल-फलों पर अपना जीवन निर्वाह करती हुई भगवान् श्रीराम के शुभागमन की प्रतीक्षा करने लगी।
ज्यों- ही- ज्यों दिन बीतते हैं, त्यों- ही- त्यों शबरी की राम दर्शन- लालसा प्रबल होती जाती है।
जरा-सा शब्द सुनते ही वह दौड़कर बाहर जाती है और बड़ी आतुरता के साथ प्रत्येक वृक्ष, लता, पत्र, पुष्प और फलों से तथा पशु- पक्षियों से पूछती है कि 'अब श्रीराम कितनी दूर हैं, यहाँ कब पहुँचेंगे?'
प्रातःकाल कहती है कि भगवान् आज सन्ध्या को आयेंगे। सायंकाल फिर कहती है, कल सवेरे तो अवश्य पधारेंगे। कभी घर के बाहर जाती है, कभी भीतर आती है।
कहीं मेरे राम के कोमल चरण कमलों में चोट न लग जाय, इसी चिन्ता से बार- बार रास्ता साफ करती और काँटे कंकड़ों को बुहारती है।
घर को नित्य गोवर - गोमूत्र से लीप- पोत कर ठीक करती है। नित नयी मिट्टी- गोबर की चौकी बनाती है। कभी चमककर उठती है, कभी बाहर जाती है और सोचती है, भगवान् बाहर आ ही गये होंगे।
वन में जिस पेड़ का फल सबसे अधिक सुस्वाद और मीठा लगता है, वही अपने राम के लिये बड़े चाव से रख छोड़ती है। इस प्रकार शबरी उन राजीव लोचन राम के शुभ दर्शन की उत्कण्ठा से रामागमन की शंका में पागल सी हो गयी है।
सूखे पत्ते वृक्षों से झड़कर नीचे गिरते हैं तो उनके शब्द को शबरी अपने प्रिय राम के पैरों की आहट समझकर दौड़ती है।
इस तरह आठों पहर उसका चित्त श्रीराम में रमा रहने लगा, परंतु राम नहीं आये।
एक बार मुनिबालकों ने कहा- 'शबरी! तेरे राम आ रहे हैं।' फिर क्या था। बेर आदि फलों को आँगन में रखकर वह दौड़ी सरोवर से जल लाने के लिये।
प्रेम के उन्माद में उसे शरीर की सुधि नहीं थी एक ऋषि स्नान करके लौट रहे थे।
शबरी ने उन्हें देखा नहीं और उनसे उसका स्पर्श हो गया। मुनि बड़े क्रुद्ध हुए। वे बोले- 'कैसी दुष्टा है! जान-बूझकर हमलोगों का अपमान करती है।
शबरी ने अपनी धुन में कुछ भी नहीं सुना और वह सरोवर पर चली गयी। ऋषि भी पुनः स्नान करने को उसके पीछे-पीछे गये।
ऋषिने ज्यों ही जल में प्रवेश किया, त्यों ही जल में कीड़े पड़ गये और उसका वर्ण रुधिर- सा हो गया।
इतने पर भी उनको यह ज्ञान नहीं हुआ कि यह भगवद्भक्ति परायणा शबरी के तिरस्कार का फल है।
इधर जल लेकर शबरी पहुँचने ही नहीं पायी थी कि दूर से भगवान् श्रीराम 'मेरी शबरी कहाँ है?" पूछते हुए दिखायी दिये।
यद्यपि अन्यान्य मुनियों को भी यह निश्चय था कि भगवान् अवश्य पधारेंगे, फिर भी उनकी ऐसी धारणा थी कि वे सर्वप्रथम हमारे ही आश्रमों में पदार्पण करेंगे।
परंतु दीनवत्सल भगवान् श्रीरामचन्द्र जब पहले उनके यहाँ न जाकर शबरी की मँढ़ेया का पता पूछने लगे, तब उन तपोबल के अभिमानी मुनियों को बड़ा आश्चर्य हुआ।
शवरी के कानों में भी सरल ऋषिबालकों के द्वारा यह बात पहुँची। श्रीराम का अपने प्रति इतना अनुग्रह देखकर शबरी को जो सुख हुआ, उसकी कल्पना कौन कर सकता है।
इतने में ही भगवान् श्रीराम लक्ष्मण सहित शबरी के आश्रम में पहुँचे..
सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जिय भए। सरसिज लोचन बाहु बिसाला जटा मुकुट सिर उर धनमाला ॥ स्याम गौर सुंदर दोउ भाई सबरी परी चरन लपटाई॥ 1 प्रेम मगन मुख वचन न आया। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा (रामचरितमानस)
आज शबरी के आनन्द का पार नहीं है। यह प्रेम में पगली होकर नाचने लगी। हाथ से ताल दे- देकर नृत्य करने में वह इतनी मग्र हुई कि उसे अपने उत्तरीय वस्त्र तक का ध्यान नहीं रहा, शरीर की सारी सुध- बुध जाती रही।
इस तरह शबरी को आनन्द सागर में निमन देखकर भगवान् बड़े ही सुखी हुए और उन्होंने मुसकराते हुए लक्ष्मण की ओर देखा।
तब श्रीलक्ष्मण जी ने हँसते हुए गम्भीर स्वर से कहा कि 'शबरी! क्या तू नाचती ही रहेगी? देख श्रीराम कितनी देर खड़े हैं? क्या इनको बैठा कर तू इनका आतिथ्य नहीं करेगी?"
इन शब्दों से शवरी को चेत हुआ और उस धर्मपरायणा तापसी सिद्धा संन्यासिनी ने धीमान् श्रीराम- लक्ष्मण को देखकर उनके चरणों में हाथ जोड़कर प्रणाम किया और पाद्य, आचमन आदिसे उनका पूजन किया। (वा0 रा0 3।74 6-7)
सादर जल ले चरन पखारे पुनि सुंदर आसन बैठारे॥
भगवान् श्रीराम उस धर्मनिरता शबरी से पूछने लगे तपोधने! तुमने साधन के समस्त विपर तो विजय पायी है? तुम्हारा तप तो बढ़ रहा है? तुमने कोप और आहार का संयम तो किया है?
चारुभाषिणि! तुम्हारे नियम तो सब बराबर पालन हो रहे हैं? तुम्हारे मन में शान्ति तो हैं? तुम्हारी गुरु सेवा सफल तो हो गयी? अब तुम क्या चाहती हो?' (वा0 रा0 3।74 8-9)
श्रीरामके ये वचन सुनकर वह सिद्धपुरुषों में मान्य वृद्धा तापसी बोली- भगवन्! आप मुझे 'सिद्धा' 'सिद्धसम्मता' 'तापसी' आदि कहकर लज्जित न कीजिये।
मैंने तो आज आपके दर्शन से ही जन्म सफल कर लिया है। हे भगवन्! आज आपके दर्शन से मेरे सभी तप सिद्ध हो गये हैं, मेरा जन्म सफल हो गया।
आज मेरी गुरुओं की पूजा सफल हो गयी; मेरा तप सफल हो गया। हे पुरुषोत्तम! आप देवताओं में श्रेष्ठ राम की कृपा से अब मुझे अपने स्वर्गापवर्ग में कोई सन्देह नहीं रहा।
( वा0 रा0 3 । 74 । 11-12 )
शबरी अधिक नहीं बोल सकी। उसका गला प्रेम से रुँध गया। थोड़ी देर चुप रहकर फिर बोली 'प्रभो! आपके लिये संग्रह किये हुए कन्द- मूल फलादि तो अभी रखे ही हैं। भगवन्! मुझ अनाथिनी के फलों को ग्रहण कर मेरा मनोरथ सफल कीजिये।'
यों कह कर शबरी फलों को लाकर भगवान् को देने लगी और भगवान् बड़े प्रेम से पवित्र प्रेम - रस से पूर्ण उन फलों की बार- बार सराहना करते हुए उन्हें खाने लगे।
पद्मपुराण में भगवान् व्यासजी ने कहा है..
फलानि च सुपक्वानि मूलानि मधुराणि च।
स्वयमास्वाद्य माधुर्यं परीक्ष्य परिभक्ष्य च॥
पश्चान्निवेदयामास राघवाभ्यां दृढव्रता।
फलान्यास्वाद्य काकुत्स्थस्तस्यै मुक्तिं परां ददौ॥
शबरी वन के पके हुए मूल और फलों को स्वयं चख चख कर परीक्षा करके भगवान् को देने लगी। जो अत्यन्त मधुर फल होते वही भगवान् के निवेदन करती और भगवान् मानो कई दिनों के भूखे हों, ऐसे चाव और भाव से उनको पाने लगे।
बेर बेर बेर लै सराहें बेर बेर बहु,
'रसिकबिहारी' देत बंधु कहँ फेर फेर।
चाखि चाखि भाखँ यह वाहू तें महान मीठो,
लेहु तो लखन यों बखानत हैं हेर हेर।।
बेर बेर देवेको सबरी सुबेर बेर
तोक रघुबीर बेर बेर ताहि टेर टेर
घेर जनि लाओ बेर बेर जनि लाओ बेर,
थेर जनि लाओ बेर लाओ कहें घेर बेर।।
यही नहीं, भगवान् श्रीराघवेन्द्र शबरी जी के इन प्रेमसुधा रसपूर्ण फलों का स्वाद कभी नहीं भूले घर मै, गुरुजी के यहाँ, मित्रों के घर पर, ससुराल में- जहाँ कहीं इनका स्वागत- सत्कार हुआ, भोजन कराया गया, वहीं ये शबरी के फलों की सराहना करना नहीं भूले-
घर, गुरुगृर्ह, प्रियसदन, सासुरे भइ जब जहँ पहुनाई।
तब त कहि सबरी के फलनि को रुचि माधुरी न पाई ।।
अस्तु, इस तरह भक्तवत्सल भगवान् के परम अनुग्रह से शबरी ने अपनी मनोगत अभिलाषा पूर्ण हुई जानकर परम प्रसन्नता लाभ की।
तदनन्तर वह हाथ जोड़ कर सामने खड़ी हो गयी। प्रभु को देख- देख कर उसकी प्रीति सरिता में अत्यन्त बाढ़ आ गयी। उसने कहा..
केहि विधि अस्तुति करों तुम्हारी।
अधम जाति मैं जड़मति भारी॥
अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह महँ मैं मतिमंद अधारी ॥
(रामचरितमानस) आतंत्राणपरायण
पतितपावन भक्तवत्सल श्रीराम ने उत्तर में कहा, 'भामिनि! तुम मेरी बात सुनो। मैं एकमात्र भक्ति का नाता मानता हूँ। जो मेरी भक्ति करता है, वह मेरा है और मैं उसका हूँ।
जाति- पांति, कुल, धर्म, बड़ाई, द्रव्य, बल, कुटुम्ब, गुण, चतुराई- सब कुछ हो; पर यदि भक्ति न हो तो वह मनुष्य बिना जल के बादलों के समान शोभाहीन और व्यर्थ है।'
अध्यात्मरामायण में भगवान् श्रीराम कहते हैं..
पुंस्त्वे स्त्रीत्वे विशेषो वा जातिनामाश्रमादयः।
न कारणं मद्धजने भक्तिरेव हि कारणम्॥
यज्ञदानतपोभिर्वा वेदाध्ययनकर्मभिः।
नैव द्रष्टुमहं शक्यो मद्भक्तिविमुखैः सदा॥
(3 । 10 । 20-21)
'पुरुष स्त्री या अन्यान्य जाति और आश्रम आदि मेरे भजन में कारण नहीं हैं; केवल भक्ति ही एक कारण है।'
'जो मेरी भक्ति से विमुख हैं, यज्ञ, दान, तप और वेदाध्ययन करके भी वे मुझे नहीं देख सकते।' यही घोषणा भगवान् ने गोता में की है।
इसके बाद भगवान् ने शबरी को नवधा भक्ति का स्वरूप बतलाया और कहा-
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं।
सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4॥
भावार्थ:- मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥4॥
दोहा :
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35॥
भावार्थ:- तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥35॥
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा।
निरत निरंतर सज्जन धरमा॥1॥
भावार्थ:- मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥1॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा।
मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥2॥
भावार्थ:- सातवीं भक्ति है जगत् भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना॥2॥
नवम सरल सब सन छलहीना।
मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई।
नारि पुरुष सचराचर कोई॥3॥
भावार्थ:- नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-॥3॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें।
सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई।
तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥4॥
भावार्थ:- हे भामिनि! मुझे वही अत्यंत प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है॥4॥
उसी समय दण्डकारण्य वासी अनेक ऋषि- मुनि शबरी जी के आश्रम में आ गये।
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम और लक्ष्मण ने खड़े होकर मुनियों का स्वागत किया और उनसे कुशल प्रश्न किया। सबने उत्तर में यही कहा 'रघुश्रेष्ठ! आपके दर्शन से हम सब निर्भय हो गये हैं।'
त्वद्दर्शनाद् रघुश्रेष्ठ जाताः स्मो निर्भया वयम्॥
"प्रभी हम बड़े अपराधी हैं। इस परम भक्तिमती शबरी के कारण हमने मतंग- जैसे महानुभाव का तिरस्कार किया।
योगिराजों के लिये भी जो परम दुर्लभ हैं- ऐसे आप साक्षात् नारायण जिसके घर पर पधारे हैं, वह भक्तिमती शबरी सर्वथा धन्य है। हमने बड़ी भूल की।'
इस प्रकार सब ऋषि- मुनि पश्चात्ताप करते हुए भगवान् से विनय करने लगे। आज दण्डकारण्य वासी ज्ञानाभिमानियों की आँखें खुलीं।
'हमारे तीन जन्मों को (एक गर्भसे, दूसरे उपनयन से और तीसरे यज्ञदीक्षा से), विद्या को, ब्रह्मचर्यव्रत को, बहुत जानने को, उत्तम कुल को, यज्ञादि क्रियाओं में चतुर होने को बार-बार धिक्कार है; क्योंकि हम श्रीहरि के विमुख हैं।
निःसन्देह भगवान् की माया बड़े- बड़े योगियों को मोहित कर देती है। अहो! हम लोगों के गुरु ब्राह्मण कहलाते हैं, परंतु अपने ही सच्चे स्वार्थ से (हरि की भक्ति में) चूक 'गये।' अस्तु ।
ऋषि- मुनियाँ को पश्चात्ताप करते देखकर श्रीलक्ष्मणजी ने उनके तप की प्रशंसा करके उन्हें कुछ सान्त्वना दी।
तदनन्तर एक ऋषि ने कहा- 'शरणागतवत्सल! यहाँ के सुन्दर सरोवर के जल में कीड़े क्यों पड़ रहे हैं तथा वह रुधिर सा क्यों हो गया है?'
लक्ष्मणजीने हँसते हुए कहा- 'मतंग मुनि के साथ द्वेष करने तथा शबरी जैसी रामभक्ता साध्वी का अपमान करने के कारण आपके अभिमान रूपी दुर्गुण से ही यह सरोवर इस दशा को प्राप्त हो गया है।'
मतङ्गमुनिविद्वेषाद् रामभक्तावमानतः l
जलमेतादृशं जातं भवतामभिमानतः ॥
इसके फिर पूर्ववत् होने का एक यही उपाय है कि शबरी एक बार फिर से उसका स्पर्श करे।
भगवान् की आज्ञा से शबरी ने जलाशय में प्रवेश किया और तुरंत ही जल पूर्ववत् निर्मल हो गया। यह है भक्तों की महिमा ! भगवान् ने प्रसन्न होकर फिर शबरी से कहा कि 'तू कुछ वर माँग।' शबरी ने कहा-
यत्त्वां साक्षात्प्रपश्यामि नीचवंशभवाप्यहम् l
तथापि याचे भगवंस्त्वयि भक्तिर्दृढा मम ॥
'मैं अत्यन्त नीच कुल में जन्म लेने पर भी आपका साक्षात् दर्शन कर रही हूँ, यह क्या साधारण अनुग्रह का फल है; तथापि मैं यही चाहती हूँ कि आप में मेरी दृढ़ भक्ति सदा बनी रहे।'
भगवान् ने हँसते हुए कहा- 'यही होगा।'
शबरी ने पार्थिव देह परित्याग करने के लिये भगवान् की आज्ञा चाही, भगवान् ने उसे आज्ञा दे दी।
शबरी मुनिजनों के सामने ही देह छोड़कर परम धाम को प्रयाण कर गयी और सब ओर जय-जयकार की ध्वनि होने लगी।
हरे ......कृष्णा....हरे.....कृष्णा...कृष्णा..
कृष्णा.....हरे ....हरे....हरे....राम..हरे.....
राम......राम.......राम.....हरे.....हरे.....
🌺🌿💮🌺🌿💮🌺🌿💮
━❀꧁𝐻𝑎𝑟𝑒 𝐾𝑟𝑖𝑠ℎ𝑛𝑎꧂❀━