भक्ति मार्ग

भक्ति मार्ग chant the holy name of lord and be happy.

*✧​"जब मृत्यु सभी की होनी है"✧​* 🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂                                                                              ...
13/09/2025

*✧​"जब मृत्यु सभी की होनी है"✧​*
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जब मृत्यु सभी की होनी है तो हम सत्संग भजन सेवा सिमरन क्यों करे जो इंसान मौज मस्ती करता है मृत्यु तो उसकी भी होगी।
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बिल्ली जब चूहे को पकड़ती है तो दांतो से पकड़कर उसे मार कर खा जाती है। लेकिन उन्हीं दांतो से जब अपने बच्चे को पकड़ती है तो उसे मारती नहीं बहुत ही नाजुक तरीके से एक जगह से दूसरी जगह पहुँचा देती है। दांत भी वही है मुँह भी वही है पर परिणाम अलग अलग। ठीक उसी प्रकार मृत्यु भी सभी की होगी पर एक प्रभु के धाम में और दूसरा 84 के चक्कर में।

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हरे ......कृष्णा....हरे.....कृष्णा...कृष्णा..
कृष्णा.....हरे ....हरे....हरे....राम..हरे.....
राम......राम.......राम.....हरे.....हरे.....
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━❀꧁𝐻𝑎𝑟𝑒 𝐾𝑟𝑖𝑠ℎ𝑛𝑎꧂❀━

*✧"आर्य आर्यावर्त हिन्दू और सनातन                                                                                       ...
02/09/2025

*✧"आर्य आर्यावर्त हिन्दू और सनातन

आर्यों को कुछ विद्वान विदेशी मानते हैं और कुछ देशी। जो विदेशी मानते हैं उनमें अंग्रेज और वामपंथी इतिहाकारों के अलावा इनका अनुसरण करने वाले भी शामिल हैं और जो लोग देशी मानते हैं उनमें भी मतभेद हैं।

किसी भी दूसरे मत या धर्म को स्थापित करने के लिए पहले धर्म को गलत साबित करना जरूरी होता है। उसकी प्रथा, रीति-रिवाज, दर्शन, नीति-नियम आदि को तर्क द्वारा यह सिद्ध करना की यह अब प्रासंगिक नहीं रहा, यह कि यह पुराना नियम हो चुका है या यह कि यह असल में धर्म नहीं है। धर्म तो वह है तो हम बता रहे हैं। खैर...

आओ हम जानते हैं कि आर्य कौन थे, आर्य और आर्यावर्त शब्द का अर्थ क्या है और क्या आर्य विदेशी थे या कि भारतीय। इसके अलावा हिन्दू शब्द की उत्पत्ति और उसका अर्थ क्या है। क्या है सनातन धर्म।

*आर्य का अर्थ* :
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आर्य का अर्थ श्रेष्ठ होता है। कौन श्रेष्ठ?
वे लोग खुद को श्रेष्ठ मानते थे जो वैदिक धर्म और नीति-नियम अनुसार जीवन यापन करते थे। इसके विपरित जो भी व्यक्ति वेद विरूद्ध जीवन यापन करता था और ब्रह्म को छोड़कर अन्य शक्तियों को मानता था उसे अनार्य मान लिया जाता था। आर्य किसी जाति का नहीं बल्कि एक विशेष विचारधारा को मानने वाले का समूह था जिसमें श्‍वेत, पित, रक्त, श्याम और अश्‍वेत रंग के सभी लोग शामिल थे।

महाकुलकुलीनार्यसभ्यसज्जनसाधव:। -अमरकोष 7।3

अर्थात : आर्य शब्द का प्रयोग महाकुल, कुलीन, सभ्य, सज्जन, साधु आदि के लिए पाया जाता है।

आर्य कोई जाति नहीं बल्कि यह उन लोगों का समूह था जो खुद को आर्य कहते थे और जिनसे जुड़े थे भिन्न-भिन्न जाति समूह के लोग। इस प्रकार आर्य धर्म का अर्थ श्रेष्ठ समाज का धर्म ही होता है।... सायणाचार्य ने अपने ऋग्भाष्य में 'आर्य' का अर्थ विज्ञ, यज्ञ का अनुष्ठाता, विज्ञ स्तोता, विद्वान् आदरणीय अथवा सर्वत्र गंतव्य, उत्तमवर्ण, मनु, कर्मयुक्त और कर्मानुष्ठान से श्रेष्ठ आदि किया है।

आदरणीय के अर्थ में तो संस्कृत साहित्य में आर्य का बहुत प्रयोग हुआ है। पत्नी पति को आर्यपुत्र कहती थी। पितामह को आर्य (हिन्दी- आजा) और पितामही को आर्या (हिंदी- आजी, ऐया, अइया) कहने की प्रथा रही है। नैतिक रूप से प्रकृत आचरण करने वाले को आर्य कहा गया है।

कर्तव्यमाचनरन् कार्यमकर्तव्यमनाचरन्।
तिष्ठति प्रकृताचारे स आर्य इति उच्यते।।

प्रारंभ में 'आर्य' का प्रयोग प्रजाति अथवा वर्ण के अर्थ नहीं बल्कि इसका नैतिक अर्थ ही अधिक प्रचलित था जिसके अनुसार किसी भी वर्ण अथवा जाति का व्यक्ति अपनी श्रेष्ठता अथवा सज्जनता के कारण आर्य कहे जाने का अधिकारी होता था।

वाल्मीकी रामायण में समदृष्टि रखने वाले और सज्जनता से पूर्ण श्रीरामचन्द्रजी को स्थान-स्थान पर ‘आर्य’ व 'आर्यपुत्र' कहा गया है। विदुरनीति में धार्मिक को, चाणक्यनीति में गुणीजन को, महाभारत में श्रेष्ठबुद्धि वाले को तथा गीता में वीर को ‘आर्य’ कहा गया है। महर्षि दयानन्द सरस्वतीजी ने आर्य शब्द की व्याख्या में कहा है कि 'जो श्रेष्ठ स्वभाव, धर्मात्मा, परोपकारी, सत्य-विद्या आदि गुणयुक्त और आर्यावर्त देश में सब दिन से रहने वाले हैं उनको आर्य कहते हैं।'

*आर्य कौन* :
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पशु, पक्षी, वृक्ष आदि भिन्न-भिन्न जातियां है उसी तरह मनुष्य भी एक जाति है जिसकी उत्पत्ति का मूल एक ही है। जाति रूप से तो मनुष्यों में कोई भेद नहीं है परंतु गुण, कर्म, स्वभाव व व्यवहार आदि में भिन्नता होती है। कर्म के भेद से मनुष्य जाति में दो भेद किए जा सकते हैं:- 1.आर्य और 3.दस्यु। एक ही परिवार में यह दोनों हो सकते हैं।

वेद कहता है 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम' अर्थात सारे संसार को आर्य बनाओं। वेद में आर्य (श्रेष्ठ मनुष्यों) को ही पदार्थ दिये जाने का विधान किया गया है:' 'अहं भूमिमददामार्याय' अर्थात मैं आर्यों को यह भूमि देता हूं। इसका अर्थ यह हुआ कि आर्य परिश्रम से अपना कल्याण करता हुआ, परोपकार वृत्ति से दूसरों को लाभ ही पहुंचाएगा जबकि दस्यु दुष्ट स्वार्थी सब प्राणियों को हानि ही पहुंचाएगा। अत: दुष्ट को अपनी भूमि आदि संपत्ति नहीं दी जानी चाहिए चाहे वह आपका पुत्र ही क्यों न हो। रावण के पिता आर्य थे लेकिन रावण एक दस्यु था।

वेद में कहा है, 'विजानह्याय्यान्ये च दस्यव:' अर्थात आर्य और दस्युओं का विशेष ज्ञान रखना चाहिए। निरुक्त आर्य को सच्चा ईश्वर पुत्र से संबोधित करता है। वेद मंत्रों में सत्य, अहिंसा, पवित्रता आदि गुणों को धारण करने वाले को आर्य कहा गया है और सारे संसार को आर्य बनाने का संदेश दिया गया है।

*आर्यावर्त* :
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आर्यावर्त का अर्थ होता है श्रेष्ठ जनों का निवास स्थान। भारतवर्ष की इस संपूर्ण धरती के मध्य में आर्यावर्त था जिसकी सीमाएं वक्त के साथ बदलती रही। यह मध्यभूमि सरस्वती के इस किनारे से लेकर सिंधु के उस किनारे तक फैली थी जिसके चलते सिंधु और सरस्वती सभ्यता का जन्म हुआ। वेदों में खासकर सिंधु और सरस्वती और इनकी सहायक नदियों का अधिक उल्लेख मिलता है। आर्यभूमि का विस्तार काबुल की कुंभा नदी से भारत की गंगा नदी तक और कश्मीर की की वादियों से नर्मादा के उस पार तक था। हालांकि हर काल में आर्यावर्त का क्षेत्रफल अलग-अलग रहा। प्राचीन काल में दक्षिण भारत में बहुत कभी ही भूमि रहने लायक थी बाकी संपूर्ण भूमि जंगल और जलाशय से पटी हुई थी।

सिन्धु की पश्चिम की ओर की सहायक नदियों- कुभा सुवास्तु, कुमु और गोमती का उल्लेख भी ऋग्वेद में है। इस नदी की सहायक नदियां- वितस्ता, चन्द्रभागा, ईरावती, विपासा और शुतुद्री है। इसमें शुतुद्री सबसे बड़ी उपनदी है। शुतुद्री नदी पर ही एशिया का सबसे बड़ा भागड़ा-नांगल बांध बना है। झेलम, चिनाब, रावी, व्यास एवं सतलुज सिन्ध नदी की प्रमुख सहायक नदियां हैं। इनके अतिरिक्त गिलगिट, काबुल, स्वात, कुर्रम, टोची, गोमल, संगर आदि अन्य सहायक नदियां हैं। प्राचीनकाल में अफगानिस्तान को आर्याना, आर्यानुम्र वीजू नाम से पुकारा जाता था बाद में यह पख्तिया, खुरासान, पश्तूनख्वाह और रोह आदि नामों से जाने लगा। फिर इसका नाम उपगण स्थान हो गया, जिसमें गांधार, कम्बोज, कुंभा, वर्णु, सुवास्तु आदि क्षेत्र थे।

सिन्धु के तट पर ही भारतीयों के पूर्वजों ने प्राचीन सभ्यता और धर्म की नींव रखी थी। सिन्धु घाटी में कई प्राचीन नगरों को खोद निकाला गया है। इसमें मोहनजोदड़ो और हड़प्पा प्रमुख हैं। सिन्धु घाटी की सभ्यता 3000 हजार ईसा पूर्व थी। ऋग्वेद में उल्लेख है की प्रथम मानव की उत्पत्ति वितस्ता नदी के किनारे हुई थी।

ऋग्वेद में सरस्वती का अन्नवती तथा उदकवती के रूप में वर्णन आया है। महाभारत में सरस्वती नदी के प्लक्षवती नदी, वेदस्मृति, वेदवती आदि कई नाम हैं। ऋग्वेद में सरस्वती नदी को 'यमुना के पूर्व' और 'सतलुज के पश्चिम' में बहती हुई बताया गया है। ताण्डय और जैमिनीय ब्राह्मण में सरस्वती नदी को मरुस्थल में सूखा हुआ बताया गया है। महाभारत में सरस्वती नदी के मरुस्थल में 'विनाशन' नामक जगह पर विलुप्त होने का वर्णन है। इसी नदी के किनारे ब्रह्मावर्त था, कुरुक्षेत्र था, लेकिन आज वहां जलाशय है।

नदी का तल पूर्व हड़प्पाकालीन था और यह 4 हजार ईसा पूर्व के मध्य में सूखने लगी थी। अन्य बहुत से बड़े पैमाने पर भौगोलिक परिवर्तन हुए और 2 हजार ईसा पूर्व होने वाले इन परिवर्तनों के चलते उत्तर-पश्चिम की ओर बहने वाली ‍नदियों में से एक नदी गायब हो गई और यह नदी सरस्वती थी।

ऋग्वेद में आर्यों के निवास स्थान को 'सप्तसिंधु' प्रदेश कहा गया है। ऋग्वेद के नदीसूक्त (10/75) में आर्यनिवास में प्रवाहित होने वाली नदियों का वर्णन मिलता है, जो मुख्‍य हैं:- कुभा (काबुल नदी), क्रुगु (कुर्रम), गोमती (गोमल), सिंधु, परुष्णी (रावी), शुतुद्री (सतलज), वितस्ता (झेलम), सरस्वती, यमुना तथा गंगा। उक्त संपूर्ण नदियों के आसपास और इसके विस्तार क्षेत्र तक आर्य रहते थे।

*आर्यों की जातियां* :
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जो व्यक्ति वैदिक नियमों का पालन नहीं करता था उसे अनार्य माना जाता था। अनार्यों में कोल, चर्वाक और नास्तिक संप्रदाय का उल्लेख ज्यादा मिलता है। खैर...

दरअसल, प्रारंभिक सभ्यताएं हिमालय से निकलने वाली नदियों के पास ही निवास करती थी। हिमालय के दक्षिण में बहने वाली नदियों में प्रमुख सिंधु, सरस्वती, गंगा, यमुना और ब्रह्मपुत्र को प्रमुख माना गया है जिनकी हजारों सहायक नदियां हैं। इसके अलावा भारतवर्ष में नर्मदा, गोदावरी और महानदी को प्रमुख स्थान प्राप्त है। फिर गोमती, कृष्णा, कावेरी और ताप्ती आदि का उल्लेख मिलता है।

इन नदियों के तटों पर कुरु, पांचाल, पुण्ड्र, कलिंग, मगध, दक्षिणात्य, अपरान्तदेशवासी, सौराष्ट्रगण, तहा शूर, आभीर एवं अर्बुदगण, कारूष, मालव, पारियात्र, सौवीर, सन्धव, हूण, शाल्व, कोशल, मद्र, आराम, अम्बष्ठ, शाक्य और पारसी गण रहते हैं। इसके पूर्वी भाग में किरात और पश्चिमी भाग में यवन बसे हुए हैं। अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कार्कोटक और पिंगला- उक्त पांच नागों के कुल के लोगों का भारत में वर्चस्व था। यह सभी कश्यप वंशी थे और इन्ही से नागवंश चला। यह सभी आर्य थे।

महाभारत अनुसार में प्राग्ज्योतिष (असम), किंपुरुष (नेपाल), त्रिविष्टप (तिब्बत), हरिवर्ष (चीन), कश्मीर, अभिसार (राजौरी), दार्द, हूण हुंजा, अम्बिस्ट आम्ब, पख्तू, कैकेय, गंधार, कम्बोज, वाल्हीक बलख, शिवि शिवस्थान-सीस्टान-सारा बलूच क्षेत्र, सिंध, सौवीर सौराष्ट्र समेत सिंध का निचला क्षेत्र दंडक महाराष्ट्र सुरभिपट्टन मैसूर, चोल, आंध्र, कलिंग तथा सिंहल सहित लगभग 200 जनपद महाभारत में वर्णित हैं, जो कि पूर्णतया आर्य थे या आर्य संस्कृति व भाषा से प्रभावित थे। इनमें से आभीर अहीर, तंवर, कंबोज, यवन, शिना, काक, पणि, चुलूक चालुक्य, सरोस्ट सरोटे, कक्कड़, खोखर, चिन्धा चिन्धड़, समेरा, कोकन, जांगल, शक, पुण्ड्र, ओड्र, मालव, क्षुद्रक, योधेय जोहिया, शूर, तक्षक व लोहड़ आदि आर्य खापें विशेष उल्लेखनीय हैं।

मलेच्छ और यवन लगातार आर्यों पर आक्रमण करते रहते थे। हालांकि ये दोनों ही आर्यों के कुल से ही थे। आर्यों में भरत, दास, दस्यु और अन्य जाति के लोग थे। वेदों में उल्लेखित पंचनंद अर्थात पांच कुल के लोग ही यदु, कुरु, पुरु, द्रुहु और अनु थे। इन्हीं में से द्रहु और अनु के कुल के लोग ही आगे चलकर मलेच्छ और यवन कहलाए।

*16 महाजनपद* :
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बाद में महाभारत के अनुसार भारत को मुख्‍यत: 16 महाजनपदों में स्थापित किया गया। जैन 'हरिवंश पुराण' में प्राचीन भारत में 18 महाराज्य थे। पालि साहित्य के प्राचीनतम ग्रंथ 'अंगुत्तरनिकाय' में भगवान बुद्ध से पहले 16 महाजनपदों का नामोल्लेख मिलता है। इन 16 जनपदों में से एक जनपद का नाम कंबोज था। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार कंबोज जनपद सम्राट अशोक महान का सीमावर्ती प्रांत था। भारतीय जनपदों में राज्याणि, दोरज्जाणि और गणरायाणि शासन था अर्थात राजा का, दो राजाओं का और जनता का शासन था।

*राम के काल 5114 ईसा पूर्व में नौ प्रमुख महाजनपद थे जिसके अंतर्गत उप जनपद होते थे। ये नौ इस प्रकार हैं-

1.मगध,
2.अंग (बिहार)
3.अवन्ति (उज्जैन)
4.अनूप (नर्मदा तट पर महिष्मती)
5.सूरसेन (मथुरा)
6.धनीप (राजस्थान)
7.पांडय (तमिल)
8. विन्ध्य (मध्यप्रदेश)
9.मलय (मलावार)


*16 महाजनपदों के नाम* :
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1.कुरु
2. पंचाल
3. शूरसेन
4.वत्स
5. कोशल
6. मल्ल
7. काशी
8. अं
9. मगध
10. वृज्जि
11. चे‍दि
12. मत्स्य
13.अश्मक
14.अवंति
15.गांधार
16. कंबोज

उक्त 16 महाजनपदों के अंतर्गत छोटे छोटे अनेक जनपद होते थे। इन जनपदों में अनेक जा‍ति के लोग कहते थे जिनमें से अधिकतर खुद को आर्य ही कहते थे आर्यों के विपरित को कोल संप्रदाय का माना जाता था।

*आर्य और द्रविड़ एक ही हैं* :
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भारत में आर्य और द्रविड़ विवाद व्यर्थ है। उत्तर और दक्षिण भारतीय एक ही पूर्वजों की संतानें हैं। भारत और अमेरिका के वैज्ञानिकों के एक साझे आनुवांशिक अध्ययन के परिणाम इतिहास को नए सिरे से लिखने का कारण बन सकते हैं।

उत्तर और दक्षिण भारतीयों के बीच बताई जाने वाली आर्य-अनार्य असमानता अब नए शोध के अनुसार कोई सच्ची आनुवांशिक असमानता नहीं है। अमेरिका में हार्वर्ड के विशेषज्ञों और भारत के विश्लेषकों ने भारत की प्राचीन जनसंख्या के जीनों के अध्ययन के बाद पाया कि सभी भारतीयों के बीच एक अनुवांशिक संबंध है।

इस शोध से जुड़े सीसीएमबी अर्थात सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मोलेक्यूलर बायोलॉजी (कोशिका और आणविक जीवविज्ञान केंद्र) के पूर्व निदेशक और इस अध्ययन के सह-लेखक लालजी सिंह ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बताया कि शोध के नतीजे के बाद इतिहास को दोबारा लिखने की जरूरत पड़ सकती है। उत्तर और दक्षिण भारतीयों के बीच कोई अंतर नहीं रहा है।

सीसीएमबी के वरिष्ठ विश्लेषक कुमारसमय थंगरंजन का मानना है कि आर्य और द्रविड़ सिद्धांतों के पीछे कोई सचाई नहीं है। वे प्राचीन भारतीयों के उत्तर और दक्षिण में बसने के सैकड़ों या हजारों साल बाद भारत आए थे। इस शोध में भारत के 13 राज्यों के 25 विभिन्न जाति-समूहों से लिए गए 132 व्यक्तियों के जीनों में मिले 500,000 आनुवांशिक मार्करों का विश्लेषण किया गया।

इन सभी लोगों को पारंपरिक रूप से छह अलग-अलग भाषा-परिवार, ऊँची-नीची जाति और आदिवासी समूहों से लिया गया था। उनके बीच साझे आनुवांशिक संबंधों से साबित होता है कि भारतीय समाज की संरचना में जातियाँ अपने पहले के कबीलों जैसे समुदायों से बनी थीं। उस दौरान जातियों की उत्पत्ति जनजातियों और आदिवासी समूहों से हुई थी। जातियों और कबीलों अथवा आदिवासियों के बीच अंतर नहीं किया जा सकता क्योंकि उनके बीच के जीनों की समानता यह बताती है कि दोनों अलग नहीं थे।

इस शोध में सीसीएमबी सहित हार्वर्ड मेडिकल स्कूल, हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ तथा एमआईटी के विशेषज्ञों ने भाग लिया। इस अध्ययन के अनुसार वर्तमान भारतीय जनसंख्या असल में प्राचीनकालीन उत्तरी और दक्षिणी भारत का मिश्रण है। इस मिश्रण में उत्तर भारतीय पूर्वजों (एन्सेंस्ट्रल नॉर्थ इंडियन) और दक्षिण भारतीय पूर्वजों (एन्सेंस्ट्रल साउथ इंडियन) का योगदान रहा है।

पहली बस्तियाँ आज से 65,000 साल पहले अंडमान द्वीप और दक्षिण भारत में लगभग एक ही समय बसी थीं। बाद में 40,000 साल पहले प्राचीन उत्तर भारतीयों के आने से उनकी जनसंख्या बढ़ गई। कालान्तर में प्राचीन उत्तर और दक्षिण भारतीयों के आपस में मेल से एक मिश्रित आबादी बनी। आनुवांशिक दृष्टि से वर्तमान भारतीय इसी आबादी के वंशज हैं।

अध्ययन यह भी बताने में मदद करता है कि भारतीयों में जो आनुवांशिक बीमारियाँ मिलती हैं वे दुनिया के अन्य लोगों से अलग क्यों हैं।

लालजी सिंह कहते हैं कि 70 प्रतिशत भारतीयों में जो आनुवांशिक विकार हैं, इस शोध से यह जानने में मदद मिल सकती है कि ऐसे विकार जनसंख्या विशेष तक ही क्यों सीमित हैं। उदाहरण के लिए पारसी महिलाओं में स्तन कैंसर, तिरुपति और चित्तूर के निवासियों में स्नायविक दोष और मध्य भारत की जनजातियों में रक्ताल्पता की बीमारी ज्यादा क्यों होती है। उनके कारणों को इस शोध के जरियए बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।

शोधकर्ता अब इस बात की खोज कर रहे हैं कि यूरेशियाई अर्थात यूरोपीय-एशियाई निवासियों की उत्पत्ति क्या प्राचीन उत्तर भारतीयों से हुई है। उनके अनुसार प्राचीन उत्तर भारतीय पश्चिमी यूरेशियाइयों से जुड़े हैं। लेकिन प्राचीन दक्षिण भारतीयों में दुनियाभर में किसी भी जनसंख्या से समानता नहीं पाई गई। हालाँकि शोधकर्ताओं ने यह भी कहा कि अभी तक इस बात के पक्के सबूत नहीं हैं कि भारतीय पहले यूरोप की ओर गए थे या फिर यूरोप के लोग पहले भारत आए थे।


*'सिन्धु' से बना 'हिन्दू*' :
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सवाल यह कि 'हिन्दू' शब्द 'सिन्धु' से कैसे बना?

भारत में बहती थी एक नदी जिसे सिन्धु कहा जाता है। भारत विभाजन के बाद अब वह पाकिस्तान का हिस्सा है। ऋग्वेद में सप्त सिन्धु का उल्लेख मिलता है। वह भूमि जहां आर्य रहते थे। भाषाविदों के अनुसार हिन्द-आर्य भाषाओं की 'स्' ध्वनि (संस्कृत का व्यंजन 'स्') ईरानी भाषाओं की 'ह्' ध्वनि में बदल जाती है इसलिए सप्त सिन्धु अवेस्तन भाषा (पारसियों की धर्मभाषा) में जाकर हफ्त हिन्दू में परिवर्तित हो गया (अवेस्ता : वेंदीदाद, फर्गर्द 1.18)। इसके बाद ईरानियों ने सिन्धु नदी के पूर्व में रहने वालों को 'हिन्दू' नाम दिया। ईरान के पतन के बाद जब अरब से मुस्लिम हमलावर भारत में आए तो उन्होंने भारत के मूल धर्मावलंबियों को हिन्दू कहना शुरू कर दिया। इस तरह हिन्दुओं को 'हिन्दू' शब्द मिला।

*लेकिन क्या यह सही है कि हिन्दुओं को हिन्दू नाम दिया ईरानियों और अरबों ने?

पारसी धर्म की स्थापना आर्यों की एक शाखा ने 700 ईसा पूर्व की थी। मात्र 700 ईसापूर्व? बाद में इस धर्म को संगठित रूप दिया जरथुस्त्र ने। इस धर्म के संस्थापक थे अत्रि कुल के लोग। यदि पारसियों को 'स्' के उच्चारण में दिक्कत होती तो वे सिन्धु नदी को भी हिन्दू नदी ही कहते और पाकिस्तान के सिंध प्रांत को भी हिन्द कहते और सि‍न्धियों को भी हिन्दू कहते। आज भी सिन्धु है और सिन्धी भी। दूसरी बात यह कि उनके अनुसार फिर तो संस्कृत का नाम भी हंस्कृत होना चाहिए। सबसे बड़ा प्रमाण यह कि 'हिन्दू' शब्द का जिक्र पारसियों की किताब से पूर्व की किताबों में भी मिलता है। उस किताब का नाम है विशालाक्ष शिव द्वारा लिखित बार्हस्पत्य शास्त्र जिसका संक्षेप बृहस्पतिजी ने किया। बाद में वराहमिहिर रचित 'बृहत्संहिता' में भी इसका उल्लेख मिलता है। बृहस्पति आगम ने भी इसका उल्लेख किया।

*इन्दु से बना हिन्दू* :
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चीनी यात्री ह्वेनसांग के समय में 'हिन्दू' शब्द प्रचलित था। यह माना जा सकता है कि 'हिन्दू' शब्द 'इन्दु' जो चन्द्रमा का पर्यायवाची है, से बना है। चीन में भी 'इन्दु' को 'इंतु' कहा जाता है। भारतीय ज्योतिष चन्द्रमा को बहुत महत्व देता है। राशि का निर्धारण चन्द्रमा के आधार पर ही होता है। चन्द्रमास के आधार पर तिथियों और पर्वों की गणना होती है। अत: चीन के लोग भारतीयों को 'इंतु' या 'हिन्दू' कहने लगे। मुस्लिम आक्रमण के पूर्व ही 'हिन्दू' शब्द के प्रचलित होने से यह स्पष्ट है कि यह नाम पारसियों या मुसलमानों की देन नहीं है।

*बृहस्पति आगम* :
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विशालाक्ष शिव द्वारा रचित राजनीति के महान शास्त्र का संक्षित महर्षि बृहस्पतिजी ने बार्हस्पत्य शात्र नाम से किया। फिर वराहमिहिर ने एक शास्त्र लिखा जिसका नाम बृहत्संहिता है। इसके बाद बृहस्पति-आगम की रचना हुई। 'बृहस्पति आगम' सहित अन्य आगम ईरानी या अरबी सभ्यताओं से बहुत प्राचीनकाल में लिखा जा चुके थे। अतः उसमें 'हिन्दुस्थान' का उल्लेख होने से स्पष्ट है कि हिन्दू (या हिन्दुस्थान) नाम प्राचीन ऋषियों द्वारा दिया गया था न कि अरबों/ईरानियों द्वारा। यह नाम बाद में अरबों/ईरानियों द्वारा प्रयुक्त होने लगा। हालांकि इस आगम को आधुनिक काल में लिखा गया माना जाता है।

इसके एक श्लोक में कहा गया है:-

ॐकार मूलमंत्राढ्य: पुनर्जन्म दृढ़ाशय:
गोभक्तो भारतगुरु: हिन्दुर्हिंसनदूषक:।
हिंसया दूयते चित्तं तेन हिन्दुरितीरित:।

'ॐकार' जिसका मूल मंत्र है, पुनर्जन्म में जिसकी दृढ़ आस्था है, भारत ने जिसका प्रवर्तन किया है तथा हिंसा की जो निंदा करता है, वह हिन्दू है।

श्लोक : 'हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥'- (बृहस्पति आगम)

अर्थात : हिमालय से प्रारंभ होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।

*हिमालय से हिन्दू* :
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कुछ कहते हैं कि हिंदू शब्द इसकी भौगोलिक पहचान के चलते सामने आया। जो भूमि हिमालय और हिंद महासागर के बीच में पड़ती थी, उसे हिन्दू कहा गया।

एक अन्य विचार के अनुसार हिमालय के प्रथम अक्षर 'हि' एवं 'इन्दु' का अंतिम अक्षर 'न्दु'। इन दोनों अक्षरों को मिलाकर शब्द बना 'हिन्दू' और यह भू-भाग हिन्दुस्थान कहलाया। 'हिन्दू' शब्द उस समय धर्म की बजाय राष्ट्रीयता के रूप में प्रयुक्त होता था। चूंकि उस समय भारत में केवल वैदिक धर्म को ही मानने वाले लोग थे और तब तक अन्य किसी धर्म का उदय नहीं हुआ था इसलिए 'हिन्दू' शब्द सभी भारतीयों के लिए प्रयुक्त होता था। भारत में हिन्दुओं के बसने के कारण कालांतर में विदेशियों ने इस शब्द को धर्म के संदर्भ में प्रयोग करना शुरू कर दिया।

दरअसल, 'हिन्दू' नाम तुर्क, फारसी, अरबों आदि के प्रभाव काल के दौर से भी पहले से चला आ रहा है जिसका एक उदाहरण हिन्दूकुश पर्वतमाला का इतिहास है। इस शब्द के संस्कृत व लौकिक साहित्य में व्यापक प्रमाण मिलते हैं। वस्तुतः यह नाम हमें विदेशियों ने नहीं दिया है। हिन्दू नाम पूर्णतया भारतीय है और हर भारतीय को इस पर गर्व होना चाहिए।

'हिन्दू' शब्द का मूल निश्चित रूप से वेदादि प्राचीन ग्रंथों में विद्यमान है। उपनिषदों के काल के प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत एवं मध्यकालीन साहित्य में 'हिन्दू' शब्द पर्याप्त मात्रा में मिलता है। अनेक विद्वानों का मत है कि 'हिन्दू' शब्द प्राचीनकाल से सामान्यजनों की व्यावहारिक भाषा में प्रयुक्त होता रहा है।

जब प्राकृत एवं अपभ्रंश शब्दों का प्रयोग साहित्यिक भाषा के रूप में होने लगा, उस समय सर्वत्र प्रचलित 'हिन्दू' शब्द का प्रयोग संस्कृत ग्रंथों में होने लगा। ब्राहिस्पत्य, कालिका पुराण, कवि कोश, राम कोश, कोश, मेदिनी कोश, शब्द कल्पद्रुम, मेरूतंत्र, पारिजात हरण नाटक, भविष्य पुराण, अग्निपुराण और वायु पुराणादि संस्कृत ग्रंथों में 'हिन्दू' शब्द जाति अर्थ में सुस्पष्ट मिलता है।

इससे यह स्पष्ट होता है कि इन संस्कृत ग्रंथों के रचना काल से पहले भी 'हिन्दू' शब्द का जन समुदाय में प्रयोग होता था।

''यह पथ सनातन है। समस्त देवता और मनुष्य इसी मार्ग से पैदा हुए हैं तथा प्रगति की है। हे मनुष्यों आप अपने उत्पन्न होने की आधाररूपा अपनी माता को विनष्ट न करें।''- (ऋग्वेद-3-18-1)

सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, सदा के लिए सत्य हो। जिन बातों का शाश्वत महत्व हो वही सनातन कही गई है। जैसे सत्य सनातन है। ईश्वर ही सत्य है, आत्मा ही सत्य है, मोक्ष ही सत्य है और इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म ही सनातन धर्म भी सत्य है। वह सत्य जो अनादि काल से चला आ रहा है और जिसका कभी भी अंत नहीं होगा वह ही सनातन या शाश्वत है। जिनका न प्रारंभ है और जिनका न अंत है उस सत्य को ही सनातन कहते हैं। यही सनातन धर्म का सत्य है।

वैदिक या हिंदू धर्म को इसलिए सनातन धर्म कहा जाता है, क्योंकि यही एकमात्र धर्म है जो ईश्वर, आत्मा और मोक्ष को तत्व और ध्यान से जानने का मार्ग बताता है। मोक्ष का कांसेप्ट इसी धर्म की देन है। एकनिष्ठता, ध्यान, मौन और तप सहित यम-नियम के अभ्यास और जागरण का मोक्ष मार्ग है अन्य कोई मोक्ष का मार्ग नहीं है। मोक्ष से ही आत्मज्ञान और ईश्वर का ज्ञान होता है। यही सनातन धर्म का सत्य है।

सनातन धर्म के मूल तत्व सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, दान, जप, तप, यम-नियम आदि हैं जिनका शाश्वत महत्व है। अन्य प्रमुख धर्मों के उदय के पूर्व वेदों में इन सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर दिया गया था।

।।ॐ।।असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्योर्तिगमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय।।- वृहदारण्य उपनिषद

श्रीकृष्ण’ को अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है।*01. उत्तर प्रदेश में कृष्ण या गोपाल गोविन्द इत्यादि नाम...
01/09/2025

श्रीकृष्ण’ को अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है।*

01. उत्तर प्रदेश में कृष्ण या गोपाल गोविन्द इत्यादि नामों से जानते है।

02. राजस्थान में श्रीनाथजी या ठाकुरजी के नाम से जानते है।

03. महाराष्ट्र में विट्ठल के नाम से भगवान् जाने जाते है।
04. उड़ीसा में जगन्नाथ के नाम से जाने जाते है।
05. बंगाल में गोपालजी के नाम से जाने जाते है।
06. दक्षिण भारत में वेंकटेश या गोविन्दा के नाम से जाने जाते है।
07. गुजरात में द्वारिकाधीश के नाम से जाने जाते है।
08. असम, त्रिपुरा, नेपाल इत्यादि पूर्वोत्तर क्षेत्रो में कृष्ण नाम से ही पूजा होती है।
09. मलेशिया, इंडोनेशिया, अमेरिका, इंग्लैंड, फ़्रांस इत्यादि देशो में कृष्ण नाम ही विख्यात है।
10. गोविन्द या गोपाल में “गो” शब्द का अर्थ गाय एवं इन्द्रियों, दोनों से है। गो एक संस्कृत शब्द है और ऋग्वेद में गो का अर्थ होता है–‘मनुष्य की इन्द्रियाँ’...जो इन्द्रियों का विजेता हो जिसके वश में इन्द्रियाँ हो वही गोविन्द है गोपाल है
11. ‘श्रीकृष्ण’ के पिता का नाम वसुदेव था इसलिए इन्हें आजीवन ‘वासुदेव’ के नाम से जाना गया। ‘श्रीकृष्ण’ के दादा का नाम शूरसेन था..
12. ‘श्रीकृष्ण’ का जन्म उत्तर प्रदेश के मथुरा जनपद के राजा कंस की जेल में हुआ था।
13. ‘श्रीकृष्ण’ के भाई बलराम थे लेकिन उद्धव और अंगिरस उनके चचेरे भाई थे, अंगिरस ने बाद में तपस्या की थी और जैन धर्म के तीर्थंकर नेमिनाथ के नाम से विख्यात हुए थे।
14. ‘श्रीकृष्ण’ ने 16000 राजकुमारियों को असम के राजा नरकासुर की कारागार से मुक्त कराया था और उन राजकुमारियों को आत्महत्या से रोकने के लिए मजबूरी में उनके सम्मान हेतु उनसे विवाह किया था। क्योंकि उस युग में हरण की गयी स्त्री अछूत समझी जाती थी और समाज उन स्त्रियों को अपनाता नहीं था।
15. ‘श्रीकृष्ण’ की मूल पटरानी एक ही थी जिनका नाम रुक्मणी था जो महाराष्ट्र के विदर्भ राज्य के राजा रुक्मी की बहन थी।। रुक्मी शिशुपाल का मित्र था और ‘श्रीकृष्ण’ का शत्रु।
16. दुर्योधन ‘श्रीकृष्ण’ का समधी था और उसकी बेटी लक्ष्मणा का विवाह ‘श्रीकृष्ण’ के पुत्र साम्ब के साथ हुआ था।

18. ‘श्रीकृष्ण’ विद्या अर्जित करने हेतु मथुरा से उज्जैन मध्य प्रदेश आये थे। और यहाँ उन्होंने उच्च कोटि के ब्राह्मण महर्षि सान्दीपनि से अलौकिक विद्याओ का ज्ञान अर्जित किया था।।
19. ‘श्रीकृष्ण’ कुल 125 वर्ष धरती पर रहे। उनके शरीर का रंग गहरा काला था और उनके शरीर से 24 घण्टे पवित्र अष्टगन्ध महकता था। उनके वस्त्र रेशम के पीले रंग के होते थे और मस्तक पर मोरमुकुट शोभा देता था। उनके सारथि का नाम दारुक था और उनके रथ में चार घोड़े जुते होते थे। उनकी दोनो आँखों में प्रचण्ड सम्मोहन था।
20. ‘श्रीकृष्ण’ के कुलगुरु महर्षि शाण्डिल्य थे।
21. ‘श्रीकृष्ण’ का नामकरण महर्षि गर्ग ने किया था।
22. ‘श्रीकृष्ण’ के बड़े पोते का नाम अनिरुद्ध था जिसके लिए ‘श्रीकृष्ण’ ने बाणासुर और भगवान् शिव से युद्ध करके उन्हें पराजित किया था।
23. ‘श्रीकृष्ण’ ने गुजरात के समुद्र के बीचों-बीच द्वारिका नाम की राजधानी बसाई थी। द्वारिका पूरी सोने की थी और उसका निर्माण देवशिल्पी विश्वकर्मा ने किया था।
24. ‘श्रीकृष्ण’ को ज़रा नाम के शिकारी का बाण उनके पैर के अंगूठे मे लगा वो शिकारी पूर्व जन्म का बाली था, बाण लगने के पश्चात भगवान स्वलोक धाम को गमन कर गए।
25. ‘श्रीकृष्ण’ ने हरियाणा के कुरुक्षेत्र में अर्जुन को पवित्र गीता का ज्ञान रविवार शुक्ल पक्ष एकादशी के दिन मात्र 45 मिनट में दे दिया था।
26. ‘श्रीकृष्ण’ ने सिर्फ एक बार बाल्यावस्था में नदी में नग्न स्नान कर रही स्त्रियों के वस्त्र चुराए थे और उन्हें अगली बार यूँ खुले में नग्न स्नान न करने की नसीहत दी थी।
27. ‘श्रीकृष्ण’ के अनुसार गौ हत्या करने वाला असुर है और उसको जीने का कोई अधिकार नहीं।
28. ‘श्रीकृष्ण’ अवतार नहीं थे बल्कि अवतारी थे.... जिसका अर्थ होता है–‘पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्।’ न ही उनका जन्म साधारण मनुष्य की तरह हुआ था और न ही उनकी मृत्यु हुई थी।

*सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज।*
*अहम् त्वाम् सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:*।।
(भगवद् गीता, अध्याय 18 - श्लोक 66)

श्रीकृष्ण कहते हैं–‘सभी धर्मो का परित्याग करके एकमात्र मेरी शरण ग्रहण करो, मैं सभी पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा चिन्ता मत करो।

*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे*

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🌸✨ Heartfelt Greetings on the Auspicious Occasion of Radhastami ✨🌸May the divine grace of Radharani always illuminate yo...
31/08/2025

🌸✨ Heartfelt Greetings on the Auspicious Occasion of Radhastami ✨🌸

May the divine grace of Radharani always illuminate your life with love, devotion, and peace.
May the eternal bliss of Shri Krishna and Radharani forever fill your heart with joy.

🙏 Jai Shri Radhe 🙏

*"भगवान की बड़ी कृपा है।"*                                                                     ⭐ *बारंबार निश्चय कीजिए क...
14/08/2025

*"भगवान की बड़ी कृपा है।"*

⭐ *बारंबार निश्चय कीजिए कि मुझ पर भगवान की बड़ी कृपा है।*⭐

आज ही मन में निश्चय कीजिए। बारंबार निश्चय कीजिए कि मुझ पर भगवान की बड़ी कृपा है। क्षण- क्षण में कृपा हो रही है। *ऐसा दृढ़ निश्चय होने पर हमें क्षण- क्षण में भगवत्कृपा का अनुभव होने लगेगा।* यह कल्पना नहीं है।यह तो सत्य में सत्य का दर्शन है ।यह कृपा आपकी अपनी निजी संपत्ति है ।जैसे माता का वात्सल्य बच्चे की अपनी निजी संपत्ति है , वैसे ही इस *भगवत्कृपा को न जानने और न मानने के कारण हम दीन और दुखी हो रहे हैं। वस्तुतः हमारे पास प्रभु कृपा की अमोघ संपत्ति है।* उस भगवत्कृपा का आश्रय लेकर यदि हम मन को वश में करना चाहेंगे तो मन वश में हो जाएगा। विघ्न- बाधाओं से बचना चाहेंगे तो उससे रक्षा हो जाएगी। दोषों और पापों से छूटना चाहेंगे तो दोष और पाप छूट जाएंगे। *यदि हम इस बात को जान लें, मान लें तो अभी सुखी हो जाएं, निहाल हो जाएं।*

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हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे।
हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे ।।
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31/07/2025

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☺ *"राधा की सेवा... ”* ☺
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राधा की सेवा करने के लिए, आप निम्नलिखित तरीकों का पालन कर सकते हैं:

1. *भक्ति और पूजा*: राधा जी की पूजा और भक्ति करना उनकी सेवा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। आप उनकी मूर्ति या तस्वीर की पूजा कर सकते हैं, उन्हें फूल, फल, और अन्य प्रसाद चढ़ा सकते हैं।

2. *जाप और मंत्र*: राधा जी के मंत्रों का जाप करना भी उनकी सेवा का एक तरीका है। आप "राधे राधे" या "ओम राधायै नमः" जैसे मंत्रों का जाप कर सकते हैं।

3. *कीर्तन और भजन*: राधा जी की स्तुति में कीर्तन और भजन करना भी उनकी सेवा का एक तरीका है। आप उनके भक्तों के साथ मिलकर कीर्तन और भजन कर सकते हैं।

4. *सेवा और दान*: राधा जी की सेवा करने के लिए आप गरीबों और जरूरतमंदों की मदद कर सकते हैं। दान देना और सेवा कार्य करना भी उनकी सेवा का एक तरीका है।

5. *ध्यान और एकाग्रता*: राधा जी की सेवा करने के लिए आप ध्यान और एकाग्रता का अभ्यास कर सकते हैं। इससे आपको आध्यात्मिक शांति और आनंद मिल सकता है।

6. *श्री राधा जी के मंदिर में जाना*: यदि संभव हो तो, आप श्री राधा जी के मंदिर में जा सकते हैं और उनकी पूजा और दर्शन कर सकते हैं।

इन तरीकों से आप राधा जी की सेवा कर सकते हैं और उनके आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं।

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हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे।
हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे ।।
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❀꧁𝐻𝑎𝑟𝑒 𝐾𝑟𝑖𝑠ℎ𝑛𝑎꧂❀

☺ *"तुलसीदल की महिमा ”* ☺      🌱🍂🌱🍂🌱🍂🌱🍂                                          *‘राम’ नाम लिखे तुलसीदल की महिमा*एक बार...
17/07/2025

☺ *"तुलसीदल की महिमा ”* ☺
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*‘राम’ नाम लिखे तुलसीदल की महिमा*

एक बार पण्ढरपुर ने एक सेठ ने ‘तुलादान’ का भव्य उत्सव किया। सेठ ने अपने को सोने में तौल कर नगर के सभी लोगों को सोना बाँटा।
सेठ ने अपने नौकरों से पूछा—‘कोई दान लेने से रह तो नहीं गया है ?’
तब नौकरों ने कहा—‘नामदेव जी भगवान विट्ठल के बड़े भक्त हैं, वे रह गए हैं ?’
सेठ ने मुनीम को नामदेव जी को बुला लाने के लिए भेजा; परंतु नामदेव जी ने आने से इंकार करते हुए कहा—‘दान ब्राह्मणों को दो, मुझे कुछ नहीं चाहिए।’
सेठ का मुनीम दो बार नामदेव जी को बुलाने गया; परंतु दोनों बार उन्होंने आने से इंकार कर दिया। तीसरी बार जब सेठ के आदमी नामदेव जी की बहुत मनुहार करने लगे, तब नामदेव जी सेठ के पास आए और पूछा—‘मुझे क्यों बुलाया है ?’
सेठ ने कहा—‘मेरे द्वारा दिए गए इस स्वर्ण के दान को स्वीकार करो, जिससे मेरा कल्याण हो।’
नामदेव जी ने कहा—‘देने वाला तो केवल एक भगवान है, उसी से हमें मांगना चाहिए। बाकी सारा संसार तो भिखारी है। संसार के दु:ख दूर करने वाली औषधि केवल राम का नाम है।’
दाता एक राम, भिखारी सारी दुनिया।
नाम एक औषधि, दुखारी सारी दुनिया।।
लेकिन धन के मद में सेठ को नामदेव जी की बात समझ नहीं आई और वह नामदेव जी से सोने का दान लेने की जिद करने लगा। तब नामदेव जी ने सोचा इसका धन का मद दूर करना चाहिए।
नामदेव जी ने कहा—‘तुलादान से तुम्हारा कल्याण तो हो गया; अब मैं जो मांगू वह मुझे दीजिए।’
नामदेव जी ने अपने आराध्य भगवान श्रीकृष्ण (विट्ठलनाथ, पण्ढरीनाथ) को अत्यंत प्रिय तुलसी के एक पत्ते पर ‘राम’ नाम का आधा केवल ‘रा’ अक्षर लिख कर सेठ को दिया और कहा..
‘इसके वजन के बराबर तौल कर मुझे सोना दे दीजिए।’
सेठ ने अहंकारपूर्वक कहा—‘नामदेव जी ! क्यों हंसी करते हो, इतने थोड़े से सोने से क्या होगा ? कृपा करके थोड़ा ज्यादा सोना लीजिए, जिससे मुझ दाता की हँसी न हो।’
नामदेव जी ने कहा—‘इस तुलसीपत्र के बराबर सोना तौल कर देखो तो सही, फिर देखो क्या विचित्र खेल होता है। यदि तुमने इसके वजन के बराबर सोना तौल दिया, तो मैं तुम पर प्रसन्न हो जाऊंगा।’
यह सुन कर सेठ ने एक तराजू मंगवाया और उसके एक पलड़े पर ‘रा’ लिखा हुआ तुलसीपत्र और दूसरे पलड़े पर सोना रख कर तुलवाया।
आश्चर्य ! सोने का ढेला तुलसीपत्र के वजन के बराबर नहीं हुआ। सेठ जी ने और सोना पलड़े पर चढ़ाया पर तुलसीपत्र का वजन ज्यादा ही रहा।
तब सेठ ने एक बड़ा तराजू मंगवाया। उसके एक पलड़े पर तुलसीपत्र और दूसरे पर घर-भर का सोना-चांदी रख दिया। फिर भी सोने का वजन तुलसीपत्र के बराबर न हो सका।
सेठ ने अपने नाते-रिश्तेदारों, पड़ौसियों से मांग कर सोना-चांदी पलड़े पर रखा; परंतु फिर भी तुलसीपत्र का वजन ही भारी रहा।
राम-नाम लिखे तुलसीपत्र की महिमा देख कर सेठ और उसका परिवार अचम्भित रह गए और दान देने का वचन पूरा न हो पाने के कारण शोक में डूब गए।
नामदेव जी ने सोचा—अभी इन्हें राम-नाम लिखे तुलसीपत्र की महिमा का पूरा ज्ञान नहीं हुआ है; इसलिए उन्होंने सेठ से कहा...
‘आप लोगों ने आज तक जितने दान-पुण्य किए हैं, उनका संकल्प करके जल इस सोने वाले पलड़े में डाल दीजिए।’
सभी लोगों ने अपने पुण्यकर्मों का स्मरण करके संकल्प किया और जल तराजू के सोने वाले पलड़े में डाल दिया। परंतु अभी भी तुलसीपत्र वाला पलड़ा ही भारी रहा और वह अपने वजन से भूमि में गड़ा जा रहा था।
यह देख कर सेठ और उसका परिवार अत्यंत लज्जित हो गया। अब सेठ नामदेव जी से क्षमा मांगते हुए इतना ही सोना स्वीकार करने की गुहार करने लगा।
नामदेव जी ने कहा—‘हम इस तुच्छ धन को लेकर क्या करेंगे ? हमारे पास तो ‘राम’ नाम रूपी धन है। यह धन (सोना) उसकी बराबरी नहीं कर सकता है। न ही इस धन से कल्याण हो सकता है।
नाम की और तुलसी की महिमा जान कर आज से तुम लोग गले में तुलसी की कंठी धारण करो और मुख से राम-नाम जपो।’
यह कह कर नामदेव जी हरि-गुन गाते अपने घर चले गए।
सबका पालनहार वह एक ‘राम’ ही है। संसारी प्राणी तो दान ही दे सकते हैं; परन्तु मनुष्य की जन्म-जन्म की भूख-प्यास नहीं मिटा सकते हैं। वह तो उस दाता के देने से ही मिटेगी।
इसलिए मांगना है तो मनुष्य को भगवान से ही मांगना चाहिए। अन्य किसी से मांगने पर संसार के अभाव मिटने वाले नहीं हैं। लेकिन मनुष्य सोचता है कि मैं कमाता हूँ, मैं ही सारे परिवार का पेट भरता हूँ। यह सोचना गलत है।
इसलिए देने वाले के नेत्र सदैव नीचे और लेने वाले के ऊपर होते हैं। यही बात रहीम जी ने कही है–
देनहार कोउ और है देत रहत दिन रैन।
लोग भरम मो पै करें या ते नीचे नैन।।

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हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे।
हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे ।।
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