भक्ति मार्ग

भक्ति मार्ग chant the holy name of lord and be happy.

*✧​“प्रेमी का प्रेम”                       प्रेमराज्य में संकोच नहीं होता है। संकोच वहाँ होता है जहाँ हम कुछ चाहते हैं। ...
07/06/2025

*✧​“प्रेमी का प्रेम”

प्रेमराज्य में संकोच नहीं होता है। संकोच वहाँ होता है जहाँ हम कुछ चाहते हैं। प्रेमी कुछ चाहता नहीं और उसके पास चाहने योग्य मन ही नहीं रहता है।

एक कथा आती है। द्वारिकाजी की बात है। जब राधिका और गोपियों की बात चलती है तो श्रीकृष्ण को रोमांच हो आता, आँसू बहने लगते, वाणी गद्गद हो जाती, कुछ बोल सकते नहीं। ऐसी दशा देख कर पटरानियों, राज-महिषियों ने आश्चर्य प्रकट किया। मन में बड़ा संदेह प्रकट करने लगीं–‘ऐसा क्या हो गया–ऐसी क्या त्रुटि हममें और ऐसा क्या गुण उनमें।

जब कभी गोपियों की बात चलती, उनका नाम आता, तब श्रीकृष्ण की आँखों में आँसू आ जाते। राजराजेश्वर–सब प्रकार से सुखों से सम्पन्न सभी प्रकार के आराम, क्या कमी है यहाँ ! क्या नहीं हैं। यहाँ जो वहाँ था ?

भगवान् सार्वभौमसमर्थ हैं, वे सब कुछ बन सकते हैं। मृत्यु भी वही बन के आते हैं न ! भगवान् को रोग नहीं होता है भगवान् की मौत नहीं होती, पर मौत भी भगवान् बनते, रोग भी भगवान् बनते। वे रोग बन गये और दुखने लगा पेट भगवान् का।

बोले–‘अरे पेट में दर्द हो रहा है दवा लाओ, दवा लाओ। वैद्य आ गये, उन्होंने दवा दीं, पर अच्छे नहीं हुए भगवान्।’

वैद्य बोले–‘महाराज, कभी पहले भी पेट में दर्द होता हो और कोई दवा आपने प्रयोग किया हो तो बतायें।’

भगवान् बोले–‘हाँ, दवा तो जानता हूँ, पर उसका अनुपान नहीं मिलता। यदि हमारा कोई प्रेमी अपने चरण की धूल दे दे तो उस धूल के साथ हम दवा ले लें।’

रुक्मिणीजी पास बैठी थीं, सत्यभामा भी बैठी थीं, दोनों ने सोचा–‘चरण की धूल तो हमारे पास है ही, कोई बात नहीं और प्रेमी भी हम हैं ही, पर शास्त्र कहता है, रोज सुनते हैं, जानते हैं, पति को–स्वामी को, चरण की धूल कैसे दे दें ? पाप लगेगा, नरकों में रहना पड़ेगा। अब यह नरक जाने का सामान कैसे इकट्ठा करें भला, क्या करें ये तो बुरी चीज।

सत्यभामाजी बोलीं–‘आप दे दीजिये न'। तो रुक्मिणीजी ने कहा–‘दे तो देती बहन, पर डर लगता है कहीं पाप लगा–नरक हो गया तो।’

सारी रानियाँ–सोलह हजार रानियाँ सब हट गयीं। पाप का भागी बनने के लिये कोई तैयार नहीं। अब वे हट गयीं, तो कौन दूसरा द्वारकावासी दे। कौन विश्वासी दे ? सब जगह से नाहीं आ गयी।

उसी समय नारदजी भी वहाँ पधारे और बोले–‘पेट दुखता है', महाराज, यह कैसी माया रची ?

भगवान् बोले–‘दुखता तो बहुत है, तुम कुछ उपाय कर दो, किसी प्रेमी की चरणधूलि ला दो।’

नारदजी ने सोचा–‘धूल तो अपने अन्दर ही है, पर हमसे बड़ी प्रेम का दर्जा रखने वाली तो रुक्मिणीजी हैं। जब इन्होंने नहीं दी तो हम कैसे दें ?’ नहीं दी नारदजी ने भी।

श्यामसुन्दर बोले–‘नारद, जरा व्रज में तो हो आओ।’

नारद बोले–‘जब सारे विश्व में नहीं मिली तो व्रज में क्या मिलेगी।’

भगवान् बोले–‘तुम जाओ तो सही।’

वीणा हाथ में बजाते भगवान् का मंगलमय नाम-गान करते हुए जा पहुँचे व्रज में नारद। नाम गान सुना बड़ा मधुर-मीठा। सब गोपाङ्गनाएँ एकत्रित हो गयीं। गोप भी एकत्र हुए और बच्चे भी। सबका समाधान किया-कराया। फिर गोपाङ्गनाओं के बीच में पहुँचे नारद।

सबने घेर लिया, बोलीं–‘महाराज ! कहाँ से पधारे ?’

'द्वारका से।’

अब तो सबके मन में उत्कण्ठा हो गयी समाचार जानने की। 'क्यों सरकार मजे में हैं ? हमारे प्राणनाथ प्रसन्न हैं न ? कुछ हुआ तो नहीं ?’

नारदजी चुप हो गये। जरा मुँह बना लिया। अब तो इनके प्राण निकलने लगे। 'अरे, समाचार पूछा राजी-खुशी का और ये चुप हो गये। लगता है कुछ दाल में काला है। अनिष्ट की आशंका हो गयी।’

बोली–‘महाराज! जल्दी बताइये मामला क्या है ?’

नारदजी बोले–‘श्यामसुन्दर का पेट दुखता है, दवा तो बहुत हुई पर कुछ लाभ न हुआ।’

गोपियों ने पूछा–‘कोई उपाय ?’

नारदजी ने कहा–‘उपाय तो भगवान् ने खुद बताया-किसी प्रेमी की चरणधूलि मिल जाय तो अच्छे हो जायँ। श्रीश्यामसुन्दर कहा करते थे कि गोपियाँ हमारी बड़ी प्रेमिका हैं।’

बोलीं–‘वे प्रेमी मानते हैं हमको ?’ ऐसी ही अनेकानेक पोस्ट पढ़ने के लिये हमारा फेसबुक पेज ‘श्रीजी की चरण सेवा’ को लाईक एवं फॉलो करें। अब आप हमारी पोस्ट व्हाट्सएप चैनल पर भी देख सकते हैं। चैनल लिंक हमारी फेसबुक पोस्टों में देखें। नारदजी बोले–‘वे तो मानते हैं।’

वे बोलीं–‘ले जाइये धूल।’ सब गोपियों ने चरणों को आगे बढ़ा दिया। बोलीं–‘जितनी मरजी हो ले लें जितनी मरजी हो बाँध लें महाराज !'

नारदजी ने कहा–‘अरी पागल हो गयी हो, क्या कर रही हो तुम ! शास्त्र की अवज्ञा कर रही हो, मानती नहीं-जानती नहीं। अरे, किसको धूल दे रही हो ! भगवान् को ! नरक में वास होगा।’

गोपियाँ बोलीं–‘हम भगवान् को तो जानती नहीं, वे तो हमारे प्राणनाथ हैं और यदि उनके पेट का दर्द अच्छा होता हो तो, हमें अनन्तकाल तक नरकों में रहना पड़े तो भी उससे बढ़कर क्या लाभ होगा हमारे लिये ?

अनन्तकाल तक हम नरकों में रहेंगी, कभी शिकायत नहीं करेगी कि आपने हमको नरकों में भिजवा दिया। आप धूल तो ले जाइये और जल्दी जाइये, जिससे उनके पेट का दर्द शीघ्र अच्छा हो जाय।’

नारदजी चकित हो गये। मन-ही-मन सोचने लगे–‘हम तो झूठे ही प्रेमी बन रहे थे अबतक ! बहुत बढ़िया उद्धव ने माँगा था लता, गुल्म, तरु होकर चरणों की धूल। हमें तो प्रत्यक्ष मिल गयी। आज गोपियों ने पैर बढ़ा-बढ़ाकर दे दी। धन्य हो गये हम।’

इसके बाद चरणधूलि से उन्होंने अपना सारा मस्तक अभिषिक्त कर लिया और पोटली बाँधकर सिर पर रखी तथा नाचते-गाते हुए वीणा लेकर पहुँच गये द्वारका के राजमहल में।

बोले–‘महाराज, ले आया, ले आया।’

हँसे भगवान्–‘भला कहाँ से ले आये ?’

बोले महाराज–‘आपने भेजा था न व्रज में।’

अरे, व्रज में दे दिया किसी ने ?’

नारद बोले–‘हाँ, गोपियों ने दे दिया।’

'तो आपने समझाया नहीं, कहा नहीं उनको कि, बड़ा पाप लगेगा।’

नारद बोले–‘कहा तो महाराज ! पर वे ऐसी पगली हैं कि हमारी बात उन्होंने सुनी नहीं, मानी नहीं। कहने लगीं–‘हमारे अघासुर को तो श्यामसुन्दर मार गये पहले ही, हमारे पास 'अघ' कहाँ है और यदि 'पाप-वाप' कोई होगा तो कोई बात नहीं, हम भोगेंगी, नरकों में जायेंगी। आप ले जाइये, प्राणनाथ को जल्दी अच्छा कीजिये।’


भगवान् ने गोपांगनाओं की चरणधूलि लेकर सिर पर लगा ली। पेट तो अच्छा था ही, रुक्मिणीजी तथा सत्यभामाजी सब इकट्ठा थीं ही–सब चकित रह गयीं। वाणी मुखरित न हो सकी उनकी।

श्रीकृष्ण ने मान रखा उनका और बोले–‘रुक्मिणीजी, अब पेट अच्छा हो गया, चिन्ता मत करो। ये गोपियाँ तो पागल हैं, पर कभी-कभी ये पगली भी काम दे देती हैं। देखा न ?’ अवगत करा दिया कि गोपियों के नाम से हमारे आँसू क्यों आते हैं।

𝐇𝐚𝐫𝐞 𝐊𝐫𝐢𝐬𝐡𝐧𝐚 𝐇𝐚𝐫𝐞 𝐊𝐫𝐢𝐬𝐡𝐧𝐚 , 𝐊𝐫𝐢𝐬𝐡𝐧𝐚 𝐊𝐫𝐢𝐬𝐡𝐧𝐚 𝐇𝐚𝐫𝐞 𝐇𝐚𝐫𝐞 , 𝐇𝐚𝐫𝐞 𝐑𝐚𝐦𝐚 𝐇𝐚𝐫𝐞 𝐑𝐚𝐦𝐚 , 𝐑𝐚𝐦𝐚 𝐑𝐚𝐦𝐚 𝐇𝐚𝐫𝐞 𝐇𝐚𝐫𝐞 📿

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

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☺ *✧​ “कल्याण का मार्ग✧​*☺                                                                                              ...
05/06/2025

☺ *✧​ “कल्याण का मार्ग✧​*☺


किसी गाँव में एक उच्चकोटि के महात्मा थे। उनके पास लोग जाया करते थे। उस गाँव के राजा के पास भी यह समाचार पहुँचा। तब लोगों की प्रेरणा से एक दिन वह भी वहाँ गया। महात्मा पहले से ही यह जानते थे कि ‘यह राजा बड़ा कामी और भोगी है। अतः इसका सुधार हो जाय तो इसके साथ प्रजा को भी लाभ हो।’ राजा आया। कुशल पूछने पर राजा ने प्रार्थना की–‘महात्मन् ! कोई ऐसी दवा दीजिये, जिससे कितनी ही स्त्रियों के साथ सहवास करनेपर भी मुझे थकावट न आये।’

महात्मा ने अपनी कुटिया से एक बोतल मँगायी। उसमें से दो बूँद दवा राजा को दी और शेष सारी स्वयं पी गये। राजा घर पर गया तथा रात्रि में काम चेतन होने पर सब रानियों को तृप्त कर दिया; पर स्वयं तृप्त नहीं हुआ। उसका काम वैसे ही जाग्रत् रहा।

तीन दिन बाद महात्मा के पास फिर गया और बोला–‘आपकी दवा बड़ा काम करती है। दो बूँद दवा और दीजिये।’ महात्मा ने और दे दी। इस प्रकार वह दो-तीन महीने तक हर तीसरे दिन दो बूँद दवा ले लेता और खूब विषय भोग करता। महात्मा भी बोतल की शेष बची सारी दवा उसके सामने स्वयं भी पी जाते।

एक दिन राजा ने कहा–‘ऐसी दवा दीजिये, जिससे रोज-रोज न आना पड़े, सदा के लिये काम हो जाय।’ महात्मा ने उसे पूरी बोतल पिला दी। जब राजा ने पी ली, तब महात्मा बोले–‘मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गयी।’ राजा बोला–‘क्या ?’ महात्मा ने कहा–‘क्या बताऊँ, तुम तीन दिन के बाद मर जाओगे।’ राजा बोला–‘क्या मैं मर जाऊँगा ?’ महात्मा बोले–‘हाँ।’

राजा ने पूछा–‘बचने का कोई उपाय भी है ?’ महात्मा ने बहुत सोच विचारकर कहा–‘है, पर बहुत कठिन है।’ तब राजा बोला–‘कितना हो कठिन हो, मैं उसे कर लूँगा, आप बताइये।’ महात्मा ने कहा–‘बस, अब से लेकर मरण तक भगवान्‌ का नाम-रूप न भूलो।’

राजा ने कहा–‘ठीक है। मैं पालन करूँगा। घर पर जाकर वह अलग एकान्त महल में बैठ गया। डुग्गी पिटवा दी कि ‘कोई मेरे पास न आये, जो आयेगा उसे मृत्युदण्ड होगा।’ वह परमात्मा के भजन ध्यान में मस्त हो गया। न खाना याद रहा न पीना, न मल-मूत्र का त्याग हो।

भगवान्‌ के ध्यान से अहंकार का नाश हो गया। समाधि लग गयी। सात दिन हो गये, समाधि नहीं टूटी। इधर बाहर के लोगों ने देखा–तीन दिन के बाद मरने का समय था, सात दिन हो गये, कोई खबर नहीं। कपाट खोलकर भी देखा समाधि लगी हुई है। कुछ हो-हल्ला होने पर राजा की भी समाधि टूटी।

राजा ने कहा–‘तीन दिन के पहले दरवाजा क्यों खोला ?’ कहा गया–‘महाराज! सात दिन हो गये।’ महात्मा ने कहा था कि ‘तीन दिन में मर जाओगे' मैं कैसे नहीं मरा ?–यह सोचकर वह फिर महात्मा के पास गया। सब बातें कहीं।

तब महात्मा ने पूछा–‘क्या अभी तुम्हारे में ‘मैं’ है ?’ कहा–‘नहीं।’ तब महात्मा बोले–‘मैं अर्थात् जो अहंकार था, वह मर गया। शरीर के मरने की तो कोई बात नहीं है।’ फिर राजा ने पूछा–‘आप प्रतिदिन पूरी बोतल दवा पी जाते हैं। आप पर उसका कोई असर नहीं होता। मुझ पर तो दो बूँद से ही इतना असर हो जाता था।’

महात्मा बोले–‘अभी सात दिन पहले तुमने भी तो पूरी बोतल पी ली थी। तुम पर क्यों नहीं असर हुआ ?’ राजा ने कहा–‘महाराज! मुझे तो तीन दिन पर मौत सामने दीखने लगी, इससे स्त्री-पुत्र आदि कुछ भी याद नहीं आये।’ महात्मा बोले–‘बस, यही बात है। मुझे तो प्रतिक्षण मौत दिखायी देती है, फिर मुझपर कैसे असर होता ?’

इस प्रकार हम भी यदि समय को अमूल्य और मृत्यु को अत्यन्त समीप समझें तो थोड़े समय में ही हमारा कल्याण हो सकता है। जैसे राजा इतना बड़ा कामी था, किन्तु लगन लगने से सात दिनों में ही उसका कल्याण हो गया।

लगन लगने का यह कारण था कि उसे विश्वास हो गया था कि ‘मेरी तीन दिनों बाद मृत्यु हो जायगी।’ अतः वह खान-पान को छोड़कर ध्रुवजी की तरह ध्यान में मस्त हो गया। इसी प्रकार हम लोग भी मृत्यु को अत्यन्त समीप और समय को अमूल्य समझकर रात-दिन परमात्मा के ध्यान में लग जायँ तो हमारा कल्याण भी शीघ्र हो सकता है।

समय बहुत अल्प है, उसे बहुत कीमती समझना चाहिये। इस समय हमारा कल्याण नहीं हुआ तो फिर आगे बहुत खतरा है। परमात्मा के सिवा हमारा कोई भी रक्षक नहीं है। हम लोग अनाथ के समान मारे जायँगे; इस प्रकार समझकर मृत्यु को समीप देखकर परमात्मा के ध्यान में मस्त हो जाना चाहिये–यही कल्याण का मार्ग है।

𝐇𝐚𝐫𝐞 𝐊𝐫𝐢𝐬𝐡𝐧𝐚 𝐇𝐚𝐫𝐞 𝐊𝐫𝐢𝐬𝐡𝐧𝐚 , 𝐊𝐫𝐢𝐬𝐡𝐧𝐚 𝐊𝐫𝐢𝐬𝐡𝐧𝐚 𝐇𝐚𝐫𝐞 𝐇𝐚𝐫𝐞 , 𝐇𝐚𝐫𝐞 𝐑𝐚𝐦𝐚 𝐇𝐚𝐫𝐞 𝐑𝐚𝐦𝐚 , 𝐑𝐚𝐦𝐚 𝐑𝐚𝐦𝐚 𝐇𝐚𝐫𝐞 𝐇𝐚𝐫𝐞 📿

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

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Similarly, accept Kṛṣṇa as husband or lover, you'll never be frustrated. That is the whole philosophy. Anything, whateve...
03/06/2025

Similarly, accept Kṛṣṇa as husband or lover, you'll never be frustrated. That is the whole philosophy. Anything, whatever desires you have got, you can establish a relationship with Kṛṣṇa in that desire and you'll be happy, perfectly happy, never to be cheated.

24/05/2025

☺ *✧​ “विष लगा माखन ”✧​*☺

एक दिन माता ने माखन चोरी करने पर श्यामसुन्दर को धमकाया, डांटा-फटकारा। बस, दोनों नेत्रों से आँसूओं की झड़ी लग गयी। कर-कमल से आँखें मलने लगे। ऊँ-ऊँ-ऊँ करके रोने लगे। गला रूँध गया। मुँह से बोला नहीं जाता था।

माता यशोदा का धैर्य टूट गया। अपने आँचल से अपने लाला कन्हैया का मुँह पोंछा और बड़े प्यार से गले लगाकर बोलीं–‘लाला! यह सब तुम्हारा ही है, यह चोरी नहीं है।’

एक दिन की बात है–पूर्ण चन्द्र की चाँदनी से मणिमय आँगन धुल गया था। यशोदा मैया के साथ गोपियों की गोष्ठी जुड़ रही थी।

वहीं खेलते-खेलते कृष्ण चन्द्र की दृष्टि चन्द्रमा पर पड़ी। उन्होंने पीछे से आकर यशोदा मैया का घूँघट उतार लिया। और अपने कोमल करों से उनकी चोटी खोलकर खींचने लगे और बार-बार पीठ थपथपाने लगे।

‘मैं लूँगा, मैं लूँगा’–तोतली बोली से इतना ही कहते। जब मैया की समझ में बात नहीं आयी, तब उसने स्नेहार्द्र दृष्टि से पास बैठी ग्वालिनों की ओर देखा। अब वे विनय से, प्यार से फुसलाकर श्रीकृष्ण को अपने पास ले आयीं और बोलीं–‘लालन! तुम क्या चाहते हो, दूध!’

श्रीकृष्ण–‘ना’।
‘क्या बढ़िया दही ?’
‘ना’।
क्या खुरचन ?’
‘ना’।
‘मलाई ?’
‘ना’।
‘ताजा माखन ?’
‘ना’

ग्वालिनों ने कहा–‘बेटा! रूठो मत, रोओ मत। जो माँगोगे सो देंगी।’

श्रीकृष्ण ने धीरे से कहा–‘घर की वस्तु नहीं चाहिये,’ और अँगुली उठाकर चन्द्रमा की संकेत कर दिया।

गोपियाँ बोलीं–‘ओ मेरे बाप! यह कोई माखन का लौंदा थोड़े ही है ? हाय! हाय! हम यह कैसे देंगी ? यह तो प्यारा-प्यारा हंस आकाश के सरोवर में तैर रहा है।’

श्रीकृष्ण ने कहा–‘मैं भी तो खेलने के लिये इस हँस को माँग रहा हूँ, शीघ्रता करो। पार जाने के पूर्व ही मुझे ला दो।’

अब और भी मचल गये। धरती पर पाँव पीट-पीट कर और हाथों से गला पकड़-पकड़कर ‘दो-दो’ कहने लगे और पहले से भी अधिक रोने लगे।

दूसरी गोपियों ने कहा–‘बेटा! राम-राम। इन्होंने तुमको बहला दिया है। यह राजहंस नहीं है, यह तो आकाश में ही रहने वाला चन्द्रमा है।’

श्रीकृष्ण हठ का बैठे–‘मुझे तो यही दो; मेरे मन में इसके साथ खेलने की बड़ी लालसा है। अभी, अभी दो।’

जब बहुत रोने लगे, तब यशोदा माता ने उन्हें गोद में उठा लिया और प्यार करके बोलीं–‘मेरे प्राण! न यह राजहंस है और न तो चन्द्रमा। है यह माखन ही, परन्तु तुमने देने योग्य नहीं है। देखो, इसमें वह काला-काला विष लगा हुआ है। इससे बढ़िया होने पर भी इसे कोई नहीं खाता है।’

श्रीकृष्ण ने कहा–‘मैया! मैया! इसमें विष कैसे लग गया।’ ऐसी ही अनेकानेक पोस्ट पढ़ने के लिये हमारा फेसबुक पेज ‘श्रीजी की चरण सेवा’ को लाईक एवं फॉलो करें। अब आप हमारी पोस्ट व्हाट्सएप चैनल पर भी देख सकते हैं। चैनल लिंक हमारी फेसबुक पोस्टों में देखें। बस ! अब तो बात बदल गयी।

मैया ने कान्हा को गोद में लेकर मधुर-मधुर स्वर से कथा सुनाना प्रारम्भ किया। माँ-बेटे में प्रश्नोत्तर होने लगे।
यशोदा–‘लाला! एक क्षीरसागर है।’
श्रीकृष्ण- मैया! यह कैसा है।’

यशोदा–‘बेटा! यह जो तुम दूध देख रहे हो, इसी का एक समुद्र है।’

श्रीकृष्ण–‘मैया! कितनी गायों ने दूध दिया होगा जब समुद्र बना होगा।

यशोदा–‘कन्हैया! यह गाय का दूध नहीं है।’
श्रीकृष्ण–‘अरी मैया! तू मुझे बहला रही है, भला बिना गाय के दूध कैसे ?’

यशोदा–‘वत्स! जिसने गायों में दूध बनाया है, वह गाय के बिना भी दूध बना सकता है।’

श्रीकृष्ण–‘मैया! वह कौन है ?’

यशोदा–‘वह भगवान है; परन्तु अग (उसके पास कोई जा नहीं सकता। अथवा ‘ग’ कार रहित) हैं।’

श्रीकृष्ण–‘अच्छा ठीक है, आगे कहो।’

यशोदा–‘एक बार देवता और दैत्यों में लड़ाई हुई। असुरों को मोहित करने के लिये भगवान ने क्षीरसागर को मथा। मंदराचल की रई बनी। वासुकि नाग की रस्सी। एक ओर देवता लगे, दूसरी ओर दानव।’

श्रीकृष्ण–‘जैसे गोपियाँ दही मथती हैं, क्यों मैया ?’

यशोदा–‘हाँ बेटा! उसी से कालकूट नाम का विष पैदा हुआ।’

श्रीकृष्ण–‘मैया! विष तो साँपों में होता है, दूध में कैसे निकला ?’

यशोदा–‘बेटा! जब शंकर भगवान ने वही विष पी लिया, तब उसकी जो फुइयाँ धरती पर गिर पड़ी, उन्हें पीकर साँप विषधर हो गये। सो बेटा! भगवान की ही ऐसी कोई लीला है, जिससे दूध में से विष निकला।’

श्रीकृष्ण–‘अच्छा मैया! यह तो ठीक है।’

यशोदा–‘बेटा! (चन्द्रमा की ओर दिखाकर) यह मक्खन भी उसी से निकला है। इसलिये थोडा-सा विष इसमें भी लग गया। देखो, देखो, इसी को लोग कलंक कहते हैं। सो मेरे प्राण! तुम घर का ही मक्खन खाओ।’

कथा सुनते-सुनते श्यामसुन्दर की आँखों में नींद आ गयी और मैया ने उन्हें पलंग पर सुला दिया।

𝐇𝐚𝐫𝐞 𝐊𝐫𝐢𝐬𝐡𝐧𝐚 𝐇𝐚𝐫𝐞 𝐊𝐫𝐢𝐬𝐡𝐧𝐚 , 𝐊𝐫𝐢𝐬𝐡𝐧𝐚 𝐊𝐫𝐢𝐬𝐡𝐧𝐚 𝐇𝐚𝐫𝐞 𝐇𝐚𝐫𝐞 , 𝐇𝐚𝐫𝐞 𝐑𝐚𝐦𝐚 𝐇𝐚𝐫𝐞 𝐑𝐚𝐦𝐚 , 𝐑𝐚𝐦𝐚 𝐑𝐚𝐦𝐚 𝐇𝐚𝐫𝐞 𝐇𝐚𝐫𝐞 📿

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*✧​" एक सुंदर युगल लीला✧​*   एक दिन श्रीकृष्ण ने एक सखी के मुख पर सुन्दर पत्रावली का निर्माण किया। प्राचीन काल में मुख प...
17/05/2025

*✧​" एक सुंदर युगल लीला✧​*

एक दिन श्रीकृष्ण ने एक सखी के मुख पर सुन्दर पत्रावली का निर्माण किया।
प्राचीन काल में मुख पर श्रृंगार किया जाता था, पत्रावली निर्मित की जाती थी।
जब गोपी के मुख पर पत्रावली बन गयी, तो उसे बड़ा गर्व हुआ कि श्रीकृष्ण मेरे सौन्दर्य के प्रति इतने आकृष्ट हैं कि उन्होंने मेरे मुख पर इतना सुन्दर चित्र बनाया।
उसने सोचा कि इसे राधा को दिखाऊँ।
श्रीराधा के पास जाकर बोली, “देखो, मेरे मुख पर कितनी सुन्दर पत्रावली बनी है।”
राधाजी ने देख कर कहा, हाँ, बड़ी सुन्दर हुई है।” और यह कह कर वे चुप हो गयीं।
सखी ने सोचा था कि राधाजी उससे अवश्य पूछेंगी कि यह किसने बनायी। पर उन्हें कुछ न पूछते देख स्वयं बोल पड़ी”... जानती हो, इसे किसने बनाया है ?”
“नहीं तो ?”
“अच्छा, मैं ही बता देते हूँ। यह कृष्ण ने बनायी है।”
गोपी को विश्वास था कि यह सुनकर राधिका के अन्तःकरण में थोड़ी ईर्ष्या की भावना अवश्य जाग्रत होगी। पर राधा ने केवल यह कहा..
मा गर्वमुद्वह कपोलतले चकास्ति।
कान्तस्वहस्तरचिता मम मंजरीभिः।।
सखी, इस बात का गर्व मत करो कि प्रियतम ने तुम्हारे मुख पर पत्रावली का निर्माण किया।”
”क्यों ना करूँ ?” कृष्ण ने और किसी के मुख पर तो बनायी नहीं। मुझे सर्वश्रेष्ठ माना तभी तो इसे बनाया।”
इस पर राधा बोलीं, “नहीं, ऐसी बात नहीं। ऐसा श्रृंगार उन्होंने किसी और के मुख पर करने का भी प्रयास किया था”..
अन्यापि कापि सखि भाजनमीदृशानाम्।
”किसके ?”
“बस, इतना ही जान लो कि किसी के मुख पर करने की कोशिश की थी, पर वह हो नहीं पाया।”
वास्तव में श्री कृष्ण ने राधाजी के ही मुख पर श्रृंगार करने की चेष्टा की थी।
जब वे रंग ले राधाजी के मुख पर पत्रावली बनाने चले, तो उनके दिव्य सौन्दर्य को देखकर इतने भावविह्वल हो गये कि उनके हाथ से तूलिका गिर पड़ी, रंग बिखर गया और अंततः पत्रावली नहीं बन पायी।
अब वास्तव में भाग्यशाली कौन है ?.. वह, जिसके मुख पर पत्रावली बनी अथवा वह, जिसके मुख पर नहीं बन पायी ?
जहाँ नहीं बन पायी, वहाँ प्रेम इतना था कि मन, बुद्धि और प्राण सब प्रेम में एकाकार हो चुके थे। एकाकार कि उस दिव्य स्थिति में बाह्य क्रिया का लोप हो गया था।
जहाँ पत्रावली बनी, वहाँ तो बुद्धि स्थित और जाग्रत थी।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे*

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*✧​"जब मृत्यु सभी की होनी है"✧​*                                                                                        ...
30/04/2025

*✧​"जब मृत्यु सभी की होनी है"✧​*

जब मृत्यु सभी की होनी है तो हम सत्संग भजन सेवा सिमरन क्यों करे जो इंसान मौज मस्ती करता है मृत्यु तो उसकी भी होगी।
💚💚
बिल्ली जब चूहे को पकड़ती है तो दांतो से पकड़कर उसे मार कर खा जाती है। लेकिन उन्हीं दांतो से जब अपने बच्चे को पकड़ती है तो उसे मारती नहीं बहुत ही नाजुक तरीके से एक जगह से दूसरी जगह पहुँचा देती है। दांत भी वही है मुँह भी वही है पर परिणाम अलग अलग। ठीक उसी प्रकार मृत्यु भी सभी की होगी पर एक प्रभु के धाम में और दूसरा 84 के चक्कर में।

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हरे ......कृष्णा....हरे.....कृष्णा...कृष्णा..
कृष्णा.....हरे ....हरे....हरे....राम..हरे.....
राम......राम.......राम.....हरे.....हरे.....
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━❀꧁𝐻𝑎𝑟𝑒 𝐾𝑟𝑖𝑠ℎ𝑛𝑎꧂❀━

*✧​”भगवान की शरणागति "✧​* 🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂                                                                                     ...
22/04/2025

*✧​”भगवान की शरणागति "✧​*
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जो प्राणी एक बार सर्वभाव से अपने को परमात्मा के चरणों में अर्पण कर देता है, वह सदा के लिए निर्भय, निश्चिन्त और परम सुखी हो जाता है।
उसके योगक्षेम का समस्त भार भगवान स्वयं वहन करते हैं और केवट बन कर उसकी नैया को भीषण संसार-सागर से पार करा कर सुरक्षित अपने धाम में पहुंचा देते हैं।
उसे किसी प्रकार की चिन्ता करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। प्रभु के हाथों में अपने को सौंप देने के बाद भय, चिन्ता और चाह कैसी ?
शरणागत- वत्सल श्रीराम का विभीषण प्रेम...
ब्रह्माजी के मानस पुत्र महर्षि पुलस्त्य हुए, पुलस्त्य के विश्रवा मुनि हुए।
विश्रवा मुनि की एक पत्नी से कुबेर और दूसरी पत्नी कैकसी से रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण हुए।
रावण और कुम्भकर्ण की तरह विभीषण भी कठोर तप करने लगे। ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर विभीषण से वरदान मांगने को कहा तो विभीषण ने कहा.. ‘मुझे तो भगवान की अविचल भक्ति ही चाहिए।’
इसके बाद विभीषण लंका में रह कर भजन-पूजन करते रहते थे।
सीताहरण के बाद जब रावण ने विभीषण को लात मारकर लंका से निकाल दिया तो विभीषण श्रीराम की शरण में आए और चरण पकड़ कर कहा..
श्रवन सुजस सुनि आयहुँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर।।
समुद्र तट पर राजधर्म और युद्ध धर्म की बात कह कर किसी ने भी विभीषण को शरण देने की सम्मति नहीं दी, परन्तु श्रीराम ने शत्रु का भ्राता होने पर भी विभीषण को उठाकर हृदय से लगा लिया।
सागर के जल से विभीषण का राजतिलक कर लंका का राज्य दे दिया और इस तरह संसार को अपनी शरणागत-वत्सलता की पराकाष्ठा बतला दी।
श्रीराम विभीषण से कहते हैं...
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें।
धरउँ देह नहिं आन निहोरें।।
(राचमा ५।४८।८)
अर्थात्.. विभीषण तुम जैसे संत मुझे अतिशय प्रिय हैं, और मैं उनके लिए ही देह धारण करता हूँ।
वाल्मीकीय रामायण में प्रभु श्रीराम ने कहा है.. ‘जो एक बार भी शरणागत होकर कहता है.. ‘प्रभो ! मैं तुम्हारा हूँ, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ। यह मेरा व्रत है।’
लंका युद्ध के दौरान प्रभु श्रीराम ने अपने वचन को सिद्ध भी कर दिया। विभीषण के ऊपर आने वाली अमोघ शक्ति के प्रहार को अपनी छाती पर झेल कर उन्होंने शरण में आए विभीषण की रक्षा की थी।
प्रभु श्रीराम को विभीषण की चिन्ता और उनकी पुन: लंका यात्रा..
लंका विजय के बहुत दिनों बाद एक बार भगवान श्रीराम को विभीषण की याद आई।
उन्होंने सोचा.. ‘मैं विभीषण को लंका का राज्य दे आया हूँ, वह धर्मपूर्वक शासन कर भी रहा है या नहीं। राज्य के मद में कहीं वह कोई अधर्म का आचरण तो नहीं कर रहा है।
मैं स्वयं लंका जाकर उसे देखूंगा और उपदेश करुंगा, जिससे उसका राज्य अनन्तकाल तक स्थायी रहे।’
श्रीराम जब लंका के लिए चलने लगे तो उनके साथ भरतजी भी चल दिए; क्योंकि उन्होंने लंका कभी देखी नहीं थी।
दोनों भाई पुष्पक विमान पर सवार होकर किष्किन्धापुरी पहुंचे। वहां से सुग्रीव भी उनके साथ लंका को चल दिए।
श्रीराम, भरत और सुग्रीव के लंका पहुंचने पर विभीषण ने साष्टांग प्रणाम करते हुए कहा..
‘प्रभो ! आज मेरा जन्म सफल हो गया, क्योंकि आज मैं जगत् के द्वारा वंदनीय आप दोनों के दर्शन कर रहा हूँ। आज मैं अपने-आप को इन्द्र से भी श्रेष्ठ समझ रहा हूँ।’
विभीषण ने अपना समूचा राज्य, सारा परिवार, और स्वयं को प्रभु श्रीराम के चरणों में अर्पित कर दिया।
विभीषण ने अपनी प्रजा को श्रीराम-भरत का दर्शन कराने के लिए अपने राजदरबार के दरवाजे खुलवा दिए। ऐसे ही तीन दिन बीत गए।
चौथे दिन माता कैकसी ने विभीषण से कहा.. ‘श्रीराम साक्षात् महाविष्णु हैं, सीताजी लक्ष्मी हैं। तेरे भाई रावण ने यह रहस्य नहीं जाना। मैं भी राजा राम के दर्शन करुंगी।’
विभीषण ने माता कैकसी को नए वस्त्र पहनाकर हाथ में सोने के थाल में चंदन, मधु, अक्षत, दधि, दूर्वा का अर्घ्य सजाकर पत्नी सरमा के साथ श्रीराम के दर्शन के लिए भेजा।
उन्होंने श्रीराम से प्रार्थना की कि मेरी मां आपके चरणकमलों के दर्शन के लिए आ रही हैं।
श्रीराम ने कहा.. ‘तुम्हारी मां तो मेरी मां ही हैं। मैं ही उनके पास चलता हूँ।’
ऐसा कह कर श्रीराम कैकसी के पास जाकर बोले.. ‘आप मेरी धर्म-माता हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ।’
बदले में कैकसी ने भी प्रभु को मातृभाव से आशीर्वाद दिया और सरमा के साथ श्रीराम की स्तुति की। लंका प्रवास में सरमा सीताजी की प्रिय सखी थी।
श्रीराम ने विभीषण को उपदेश दिया.. ‘राज्यलक्ष्मी मनुष्य के मन में मदिरा की तरह मद उत्पन्न कर देती है। तुम्हें सदैव सभी देवताओं का प्रिय कार्य करना चाहिए, कभी उनका अपराध नहीं करना, जिससे तुम्हारा राज्य सुस्थिर रहे।
लंका में कभी कोई मनुष्य आ जाए तो उनका कोई राक्षस वध न करने पाए। साथ ही मेरे सेतु का उल्लंघन करके राक्षस भारतभूमि में न जाएं।’
श्रीराम द्वारा सेतु को भंग करना..
विभीषण ने कहा—‘प्रभो ! यदि लंका का पुल ज्यों-का-त्यों बना रहेगा तो इस सेतुमार्ग से श्रद्धावश बहुत से मनुष्य यहां आवेंगे...
राक्षसों की जाति अत्यंत क्रूर मानी गई है, यदि कभी उनके मन में मनुष्य को खा जाने की इच्छा पैदा हो जाती है और वह किसी मनुष्य को खा लेता है, तो मेरे द्वारा आपकी आज्ञा का उल्लंघन हो जाएगा।
इसलिए आप कोई ऐसा उपाय सोचें, जिससे मुझे आपकी आज्ञा-भंग होने का दोष न लगे।’
भगवान ने विभीषण की बात सुनकर पुल को बीच से तोड़ दिया और फिर दस योजन के बीच के टुकड़े के फिर तीन टुकड़े कर दिए।
इसके बाद उनको छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ डाला, जिससे वह सेतु पूरी तरह भंग हो गया और भारत और लंका के बीच का मार्ग समाप्त हो गया।
इस कथा से भगवान श्रीराम का विभीषण और उनके परिवार से कितना स्नेह था स्पष्ट हो जाता है।
जानत प्रीति-रीति रघुराई।
नाते सब हाते करि राखत,
राम सनेह-सगाई।।
(विनय पत्रिका १६४)
करुणानिधान भगवान श्रीराम प्रीति की रीति को अच्छी तरह से जानते हैं। वे सब सम्बन्धों को छोड़कर केवल प्रेम और भक्ति का ही सम्बन्ध मानते हैं।
इस कथा से यह भी स्पष्ट है कि भगवान की शरणागति जिसने ले ली है, वह निर्विघ्न और आननंदयुक्त होकर संसार में निवास करता है जैसे अगाध जल में मछली सुखपूर्वक रहती है।

हरे ......कृष्णा....हरे.....कृष्णा...कृष्णा..
कृष्णा.....हरे ....हरे....हरे....राम..हरे.....
राम......राम.......राम.....हरे.....हरे.....
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━❀꧁𝐻𝑎𝑟𝑒 𝐾𝑟𝑖𝑠ℎ𝑛𝑎꧂❀━

*✧​"'भक्तिमती शबरी " ✧​*                                                                                                ...
09/04/2025

*✧​"'भक्तिमती शबरी " ✧​*

त्रेतायुग का समय है, वर्णाश्रम धर्म की पूर्ण प्रतिष्ठा है, वनों में स्थान- स्थान पर ऋषियों के पवित्र आश्रम बने हुए हैं। तपोधन ऋषियों के यज्ञभूम से दिशाएँ आच्छादित और वेदध्वनि से आकाश मुखरित हो रहा है।
ऐसे समय दण्डकारण्य में पति- पुत्र- विहीना, भक्ति- श्रद्धा सम्पन्ना एक वृद्धा भीलनी रहती थी, जिसका नाम था शबरी।
शबरी ने एक बार मतंग ऋषि के दर्शन किये। संत दर्शन से उसे परम हर्ष हुआ और उसने विचार किया कि यदि मुझसे ऐसे महात्माओं की सेवा बन सके तो मेरा कल्याण होना कोई बड़ी बात नहीं है।
यह सोचकर उसने ऋषियों के आश्रमों से थोड़ी दूर पर अपनी छोटी- सी कुटिया बना ली और कन्द- मूल- फल से अपना उदर पोषण करती हुई अपने को नीच समझकर वह अप्रकट रूप से ऋषियों की सेवा करने लगी।
जिस मार्ग से ऋषिगण स्नान करने जाया करते, उष:काल के पूर्व ही उसको झाड़ बुहार कर साफ कर देती, कहीं भी कंकड़ या काँटा नहीं रहने पाता।
इसके सिवा वह आश्रमों के समीप ही प्रातः काल के पहले- पहले ईधन के सूखे ढेर लगा देती।
कैंकरीले और कैटीले रास्ते को निष्कण्टक और कंकड़ों से रहित देखकर तथा द्वार पर समिधा का संग्रह देखकर ऋषियों को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने अपने शिष्यों को यह पता लगाने की आज्ञा दी कि प्रतिदिन इन काम को कौन कर जाता है।
आज्ञाकारी शिष्य रात को पहरा देने लगे और उसी दिन रात के पिछले पहर शबरी ईंधन का बोझा रखती हुई पकड़ी गयी।
शबरी बहुत ही डर गयी। शिष्यगण उसे मतंग मुनि के सामने ले गये और उन्होंने मुनि से कहा कि 'महाराज ! प्रतिदिन रास्ता साफ करने और ईंधन रख जाने वाले चोर को आज हमने पकड़ लिया है। यह भीलनी ही प्रतिदिन ऐसा किया करती है।'
शिष्यों की बात को सुनकर भय कातरा शबरी से मुनि ने पूछा, 'तू कौन है और किसलिये प्रतिदिन मार्ग बुहारने और ईंधन लाने का काम करती है?'
भक्तिमती शबरी ने काँपते हुए अत्यन्त विनय पूर्वक प्रणाम करके कहा, 'नाथ मेरा नाम शबरी है. मन्दभाग्य से मेरा जन्म नीच कुल में हुआ है, मैं इसी वन में रहती हूँ और आप- जैसे तपोधन मुनियों के दर्शन से अपने को पवित्र करती हूँ।
अन्य किसी प्रकार की सेवा में अपना अनधिकार समझकर मैंने इस प्रकार की सेवा में ही मन लगाया है। भगवन् आपकी सेवा के योग्य नहीं कृपा पूर्वक मेरे अपराध को क्षमा करें।
शबरी के इन दीन और यथार्थ वचनों को सुनकर मुनि मतंग ने दया परवश हो अपने शिष्यों से कहा कि 'यह बड़ी भाग्यवती है, इसे आश्रम के बाहर एक कुटिया में रहने दो और इसके लिये अन्नादि का उचित प्रबन्ध कर दो।'
ऋषि के दयापूर्ण वचन सुनकर शबरी ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा- 'कृपानाथ! मैं तो कन्दमूलादि से ही अपना उदर- पोषण कर लिया करती हूँ।
आपका अन्न प्रसाद तो मुझे इसीलिये इच्छित है कि इससे मुझ पर आपकी वास्तविक कृपा होगी, जिससे मैं कृतार्थ हो सकूँगी।
मुझे न तो वैभव की इच्छा है और न मुझे यह असार संसार ही प्रिय लगता है। दीनबन्धो ! मुझे तो आप ऐसा आशीर्वाद दें कि जिससे मेरी भगवान् में प्रीति हो।'
विनयावनत श्रद्धालु शयरी के ऐसे वचन सुनकर मुनि मतंग ने कुछ देर सोच- विचार कर प्रेमपूर्वक उससे कहा-' कल्याणि तु निर्भय होकर यहाँ रह और तू भगवान्‌ के नाम का जप किया कर
ऋषि की कृपासे शबरी जटा - चीर- धारिणी होकर भगवद्भजन में निरत हो आश्रम में रहने लगी। अन्यान्य ऋषियों को यह बात अच्छी नहीं लगी।
उन्होंने मतंग ऋषिसे कह दिया कि "आपने नीच जाति शबरी को आश्रम में स्थान दिया है, इससे हम लोग आपके साथ भोजन करना तो दूर रहा, सम्भाषण भी करना नहीं चाहते।'
भक्तितत्व के मर्मज्ञ मतंग ने इन शब्दों पर कोई ध्यान नहीं दिया। वे इस बात को जानते थे कि ये सब भ्रम में हैं, शबरी के स्वरूप का इन्हें ज्ञान नहीं है, शबरी केवल नीच जाति की साधारण स्त्री ही नहीं है, वह एक भगवद्भक्ति परायणा उच्च आत्मा है।
उन्होंने इसका कुछ भी विचार नहीं किया और वे अपने उपदेश से शबरी की भक्ति बढ़ाते रहे। इस प्रकार भगवद्गुण- स्मरण और गान करते- करते बहुत समय बीत गया।
मतंग ऋषि ने शरीर छोड़ने की इच्छा की, यह जानकर शिष्यों को बड़ा दुःख हुआ, शबरी अत्यन्त क्लेश के कारण क्रन्दन करने लगी।
गुरुदेव का परमधाम में पधारना उसके लिये असहनीय हो गया। वह बोली- 'नाथ! आप अकेले ही न जायें, यह किङ्करी भी आपके साथ जाने को तैयार है।'
विषण्णवदना कृताञ्जलि दीना शबरी को सम्मुख देखकर मतंग ऋषि ने कहा- 'सुव्रते ! तू यह विषाद छोड़ दे, कोसल किशोर भगवान् श्रीरामचन्द्र इस समय चित्रकूट में हैं। वे यहाँ अवश्य पधारेंगे।
उन्हें तू इन्हीं चर्म चक्षुओं से प्रत्यक्ष देख सकेगी, वे साक्षात् परमात्मा नारायण हैं। उनके दर्शन से तेरा कल्याण हो जायगा।
भक्त वत्सल भगवान् जब तेरे आश्रम में पधारें, तब उनका भली भाँति आतिथ्य करके अपने जीवन को सफल करना। तब तक तू श्रीराम- नाम का जप करती हुई उनकी प्रतीक्षा कर।'
शबरी को इस प्रकार आश्वासन देकर मुनि दिव्यलोक को चले गये। इधर शबरी ने श्रीराम- नाम में ऐसा मन लगाया कि उसे दूसरी किसी बात का ध्यान ही नहीं रहा।
शबरी कन्द- मूल-फलों पर अपना जीवन निर्वाह करती हुई भगवान् श्रीराम के शुभागमन की प्रतीक्षा करने लगी।
ज्यों- ही- ज्यों दिन बीतते हैं, त्यों- ही- त्यों शबरी की राम दर्शन- लालसा प्रबल होती जाती है।
जरा-सा शब्द सुनते ही वह दौड़कर बाहर जाती है और बड़ी आतुरता के साथ प्रत्येक वृक्ष, लता, पत्र, पुष्प और फलों से तथा पशु- पक्षियों से पूछती है कि 'अब श्रीराम कितनी दूर हैं, यहाँ कब पहुँचेंगे?'
प्रातःकाल कहती है कि भगवान् आज सन्ध्या को आयेंगे। सायंकाल फिर कहती है, कल सवेरे तो अवश्य पधारेंगे। कभी घर के बाहर जाती है, कभी भीतर आती है।
कहीं मेरे राम के कोमल चरण कमलों में चोट न लग जाय, इसी चिन्ता से बार- बार रास्ता साफ करती और काँटे कंकड़ों को बुहारती है।
घर को नित्य गोवर - गोमूत्र से लीप- पोत कर ठीक करती है। नित नयी मिट्टी- गोबर की चौकी बनाती है। कभी चमककर उठती है, कभी बाहर जाती है और सोचती है, भगवान् बाहर आ ही गये होंगे।
वन में जिस पेड़ का फल सबसे अधिक सुस्वाद और मीठा लगता है, वही अपने राम के लिये बड़े चाव से रख छोड़ती है। इस प्रकार शबरी उन राजीव लोचन राम के शुभ दर्शन की उत्कण्ठा से रामागमन की शंका में पागल सी हो गयी है।
सूखे पत्ते वृक्षों से झड़कर नीचे गिरते हैं तो उनके शब्द को शबरी अपने प्रिय राम के पैरों की आहट समझकर दौड़ती है।
इस तरह आठों पहर उसका चित्त श्रीराम में रमा रहने लगा, परंतु राम नहीं आये।
एक बार मुनिबालकों ने कहा- 'शबरी! तेरे राम आ रहे हैं।' फिर क्या था। बेर आदि फलों को आँगन में रखकर वह दौड़ी सरोवर से जल लाने के लिये।
प्रेम के उन्माद में उसे शरीर की सुधि नहीं थी एक ऋषि स्नान करके लौट रहे थे।
शबरी ने उन्हें देखा नहीं और उनसे उसका स्पर्श हो गया। मुनि बड़े क्रुद्ध हुए। वे बोले- 'कैसी दुष्टा है! जान-बूझकर हमलोगों का अपमान करती है।
शबरी ने अपनी धुन में कुछ भी नहीं सुना और वह सरोवर पर चली गयी। ऋषि भी पुनः स्नान करने को उसके पीछे-पीछे गये।
ऋषिने ज्यों ही जल में प्रवेश किया, त्यों ही जल में कीड़े पड़ गये और उसका वर्ण रुधिर- सा हो गया।
इतने पर भी उनको यह ज्ञान नहीं हुआ कि यह भगवद्भक्ति परायणा शबरी के तिरस्कार का फल है।
इधर जल लेकर शबरी पहुँचने ही नहीं पायी थी कि दूर से भगवान् श्रीराम 'मेरी शबरी कहाँ है?" पूछते हुए दिखायी दिये।
यद्यपि अन्यान्य मुनियों को भी यह निश्चय था कि भगवान् अवश्य पधारेंगे, फिर भी उनकी ऐसी धारणा थी कि वे सर्वप्रथम हमारे ही आश्रमों में पदार्पण करेंगे।
परंतु दीनवत्सल भगवान् श्रीरामचन्द्र जब पहले उनके यहाँ न जाकर शबरी की मँढ़ेया का पता पूछने लगे, तब उन तपोबल के अभिमानी मुनियों को बड़ा आश्चर्य हुआ।
शवरी के कानों में भी सरल ऋषिबालकों के द्वारा यह बात पहुँची। श्रीराम का अपने प्रति इतना अनुग्रह देखकर शबरी को जो सुख हुआ, उसकी कल्पना कौन कर सकता है।
इतने में ही भगवान् श्रीराम लक्ष्मण सहित शबरी के आश्रम में पहुँचे..
सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जिय भए। सरसिज लोचन बाहु बिसाला जटा मुकुट सिर उर धनमाला ॥ स्याम गौर सुंदर दोउ भाई सबरी परी चरन लपटाई॥ 1 प्रेम मगन मुख वचन न आया। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा (रामचरितमानस)
आज शबरी के आनन्द का पार नहीं है। यह प्रेम में पगली होकर नाचने लगी। हाथ से ताल दे- देकर नृत्य करने में वह इतनी मग्र हुई कि उसे अपने उत्तरीय वस्त्र तक का ध्यान नहीं रहा, शरीर की सारी सुध- बुध जाती रही।
इस तरह शबरी को आनन्द सागर में निमन देखकर भगवान् बड़े ही सुखी हुए और उन्होंने मुसकराते हुए लक्ष्मण की ओर देखा।
तब श्रीलक्ष्मण जी ने हँसते हुए गम्भीर स्वर से कहा कि 'शबरी! क्या तू नाचती ही रहेगी? देख श्रीराम कितनी देर खड़े हैं? क्या इनको बैठा कर तू इनका आतिथ्य नहीं करेगी?"
इन शब्दों से शवरी को चेत हुआ और उस धर्मपरायणा तापसी सिद्धा संन्यासिनी ने धीमान् श्रीराम- लक्ष्मण को देखकर उनके चरणों में हाथ जोड़कर प्रणाम किया और पाद्य, आचमन आदिसे उनका पूजन किया। (वा0 रा0 3।74 6-7)
सादर जल ले चरन पखारे पुनि सुंदर आसन बैठारे॥
भगवान् श्रीराम उस धर्मनिरता शबरी से पूछने लगे तपोधने! तुमने साधन के समस्त विपर तो विजय पायी है? तुम्हारा तप तो बढ़ रहा है? तुमने कोप और आहार का संयम तो किया है?
चारुभाषिणि! तुम्हारे नियम तो सब बराबर पालन हो रहे हैं? तुम्हारे मन में शान्ति तो हैं? तुम्हारी गुरु सेवा सफल तो हो गयी? अब तुम क्या चाहती हो?' (वा0 रा0 3।74 8-9)
श्रीरामके ये वचन सुनकर वह सिद्धपुरुषों में मान्य वृद्धा तापसी बोली- भगवन्! आप मुझे 'सिद्धा' 'सिद्धसम्मता' 'तापसी' आदि कहकर लज्जित न कीजिये।
मैंने तो आज आपके दर्शन से ही जन्म सफल कर लिया है। हे भगवन्! आज आपके दर्शन से मेरे सभी तप सिद्ध हो गये हैं, मेरा जन्म सफल हो गया।
आज मेरी गुरुओं की पूजा सफल हो गयी; मेरा तप सफल हो गया। हे पुरुषोत्तम! आप देवताओं में श्रेष्ठ राम की कृपा से अब मुझे अपने स्वर्गापवर्ग में कोई सन्देह नहीं रहा।
( वा0 रा0 3 । 74 । 11-12 )
शबरी अधिक नहीं बोल सकी। उसका गला प्रेम से रुँध गया। थोड़ी देर चुप रहकर फिर बोली 'प्रभो! आपके लिये संग्रह किये हुए कन्द- मूल फलादि तो अभी रखे ही हैं। भगवन्! मुझ अनाथिनी के फलों को ग्रहण कर मेरा मनोरथ सफल कीजिये।'
यों कह कर शबरी फलों को लाकर भगवान्‌ को देने लगी और भगवान् बड़े प्रेम से पवित्र प्रेम - रस से पूर्ण उन फलों की बार- बार सराहना करते हुए उन्हें खाने लगे।
पद्मपुराण में भगवान् व्यासजी ने कहा है..
फलानि च सुपक्वानि मूलानि मधुराणि च।
स्वयमास्वाद्य माधुर्यं परीक्ष्य परिभक्ष्य च॥
पश्चान्निवेदयामास राघवाभ्यां दृढव्रता।
फलान्यास्वाद्य काकुत्स्थस्तस्यै मुक्तिं परां ददौ॥
शबरी वन के पके हुए मूल और फलों को स्वयं चख चख कर परीक्षा करके भगवान्‌ को देने लगी। जो अत्यन्त मधुर फल होते वही भगवान्‌ के निवेदन करती और भगवान् मानो कई दिनों के भूखे हों, ऐसे चाव और भाव से उनको पाने लगे।
बेर बेर बेर लै सराहें बेर बेर बहु,
'रसिकबिहारी' देत बंधु कहँ फेर फेर।
चाखि चाखि भाखँ यह वाहू तें महान मीठो,
लेहु तो लखन यों बखानत हैं हेर हेर।।
बेर बेर देवेको सबरी सुबेर बेर
तोक रघुबीर बेर बेर ताहि टेर टेर
घेर जनि लाओ बेर बेर जनि लाओ बेर,
थेर जनि लाओ बेर लाओ कहें घेर बेर।।
यही नहीं, भगवान् श्रीराघवेन्द्र शबरी जी के इन प्रेमसुधा रसपूर्ण फलों का स्वाद कभी नहीं भूले घर मै, गुरुजी के यहाँ, मित्रों के घर पर, ससुराल में- जहाँ कहीं इनका स्वागत- सत्कार हुआ, भोजन कराया गया, वहीं ये शबरी के फलों की सराहना करना नहीं भूले-
घर, गुरुगृर्ह, प्रियसदन, सासुरे भइ जब जहँ पहुनाई।
तब त कहि सबरी के फलनि को रुचि माधुरी न पाई ।।
अस्तु, इस तरह भक्तवत्सल भगवान् के परम अनुग्रह से शबरी ने अपनी मनोगत अभिलाषा पूर्ण हुई जानकर परम प्रसन्नता लाभ की।
तदनन्तर वह हाथ जोड़ कर सामने खड़ी हो गयी। प्रभु को देख- देख कर उसकी प्रीति सरिता में अत्यन्त बाढ़ आ गयी। उसने कहा..
केहि विधि अस्तुति करों तुम्हारी।
अधम जाति मैं जड़मति भारी॥
अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह महँ मैं मतिमंद अधारी ॥
(रामचरितमानस) आतंत्राणपरायण
पतितपावन भक्तवत्सल श्रीराम ने उत्तर में कहा, 'भामिनि! तुम मेरी बात सुनो। मैं एकमात्र भक्ति का नाता मानता हूँ। जो मेरी भक्ति करता है, वह मेरा है और मैं उसका हूँ।
जाति- पांति, कुल, धर्म, बड़ाई, द्रव्य, बल, कुटुम्ब, गुण, चतुराई- सब कुछ हो; पर यदि भक्ति न हो तो वह मनुष्य बिना जल के बादलों के समान शोभाहीन और व्यर्थ है।'
अध्यात्मरामायण में भगवान् श्रीराम कहते हैं..
पुंस्त्वे स्त्रीत्वे विशेषो वा जातिनामाश्रमादयः।
न कारणं मद्धजने भक्तिरेव हि कारणम्॥
यज्ञदानतपोभिर्वा वेदाध्ययनकर्मभिः।
नैव द्रष्टुमहं शक्यो मद्भक्तिविमुखैः सदा॥
(3 । 10 । 20-21)
'पुरुष स्त्री या अन्यान्य जाति और आश्रम आदि मेरे भजन में कारण नहीं हैं; केवल भक्ति ही एक कारण है।'
'जो मेरी भक्ति से विमुख हैं, यज्ञ, दान, तप और वेदाध्ययन करके भी वे मुझे नहीं देख सकते।' यही घोषणा भगवान् ने गोता में की है।
इसके बाद भगवान् ने शबरी को नवधा भक्ति का स्वरूप बतलाया और कहा-
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं।
सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4॥
भावार्थ:- मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥4॥
दोहा :
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35॥
भावार्थ:- तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥35॥
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा।
निरत निरंतर सज्जन धरमा॥1॥
भावार्थ:- मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥1॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा।
मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥2॥
भावार्थ:- सातवीं भक्ति है जगत् भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना॥2॥
नवम सरल सब सन छलहीना।
मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई।
नारि पुरुष सचराचर कोई॥3॥
भावार्थ:- नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-॥3॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें।
सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई।
तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥4॥
भावार्थ:- हे भामिनि! मुझे वही अत्यंत प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है॥4॥
उसी समय दण्डकारण्य वासी अनेक ऋषि- मुनि शबरी जी के आश्रम में आ गये।
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम और लक्ष्मण ने खड़े होकर मुनियों का स्वागत किया और उनसे कुशल प्रश्न किया। सबने उत्तर में यही कहा 'रघुश्रेष्ठ! आपके दर्शन से हम सब निर्भय हो गये हैं।'
त्वद्दर्शनाद् रघुश्रेष्ठ जाताः स्मो निर्भया वयम्॥
"प्रभी हम बड़े अपराधी हैं। इस परम भक्तिमती शबरी के कारण हमने मतंग- जैसे महानुभाव का तिरस्कार किया।
योगिराजों के लिये भी जो परम दुर्लभ हैं- ऐसे आप साक्षात् नारायण जिसके घर पर पधारे हैं, वह भक्तिमती शबरी सर्वथा धन्य है। हमने बड़ी भूल की।'
इस प्रकार सब ऋषि- मुनि पश्चात्ताप करते हुए भगवान् से विनय करने लगे। आज दण्डकारण्य वासी ज्ञानाभिमानियों की आँखें खुलीं।
'हमारे तीन जन्मों को (एक गर्भसे, दूसरे उपनयन से और तीसरे यज्ञदीक्षा से), विद्या को, ब्रह्मचर्यव्रत को, बहुत जानने को, उत्तम कुल को, यज्ञादि क्रियाओं में चतुर होने को बार-बार धिक्कार है; क्योंकि हम श्रीहरि के विमुख हैं।
निःसन्देह भगवान् की माया बड़े- बड़े योगियों को मोहित कर देती है। अहो! हम लोगों के गुरु ब्राह्मण कहलाते हैं, परंतु अपने ही सच्चे स्वार्थ से (हरि की भक्ति में) चूक 'गये।' अस्तु ।
ऋषि- मुनियाँ को पश्चात्ताप करते देखकर श्रीलक्ष्मणजी ने उनके तप की प्रशंसा करके उन्हें कुछ सान्त्वना दी।
तदनन्तर एक ऋषि ने कहा- 'शरणागतवत्सल! यहाँ के सुन्दर सरोवर के जल में कीड़े क्यों पड़ रहे हैं तथा वह रुधिर सा क्यों हो गया है?'
लक्ष्मणजीने हँसते हुए कहा- 'मतंग मुनि के साथ द्वेष करने तथा शबरी जैसी रामभक्ता साध्वी का अपमान करने के कारण आपके अभिमान रूपी दुर्गुण से ही यह सरोवर इस दशा को प्राप्त हो गया है।'
मतङ्गमुनिविद्वेषाद् रामभक्तावमानतः l
जलमेतादृशं जातं भवतामभिमानतः ॥
इसके फिर पूर्ववत् होने का एक यही उपाय है कि शबरी एक बार फिर से उसका स्पर्श करे।
भगवान्‌ की आज्ञा से शबरी ने जलाशय में प्रवेश किया और तुरंत ही जल पूर्ववत् निर्मल हो गया। यह है भक्तों की महिमा ! भगवान् ने प्रसन्न होकर फिर शबरी से कहा कि 'तू कुछ वर माँग।' शबरी ने कहा-
यत्त्वां साक्षात्प्रपश्यामि नीचवंशभवाप्यहम् l
तथापि याचे भगवंस्त्वयि भक्तिर्दृढा मम ॥
'मैं अत्यन्त नीच कुल में जन्म लेने पर भी आपका साक्षात् दर्शन कर रही हूँ, यह क्या साधारण अनुग्रह का फल है; तथापि मैं यही चाहती हूँ कि आप में मेरी दृढ़ भक्ति सदा बनी रहे।'
भगवान् ने हँसते हुए कहा- 'यही होगा।'
शबरी ने पार्थिव देह परित्याग करने के लिये भगवान् की आज्ञा चाही, भगवान् ने उसे आज्ञा दे दी।
शबरी मुनिजनों के सामने ही देह छोड़कर परम धाम को प्रयाण कर गयी और सब ओर जय-जयकार की ध्वनि होने लगी।

हरे ......कृष्णा....हरे.....कृष्णा...कृष्णा..
कृष्णा.....हरे ....हरे....हरे....राम..हरे.....
राम......राम.......राम.....हरे.....हरे.....
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━❀꧁𝐻𝑎𝑟𝑒 𝐾𝑟𝑖𝑠ℎ𝑛𝑎꧂❀━

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