Hindi Stories Diary

Hindi Stories Diary धीमी, भावनाओं से भरी यादगार रसीली कहानियाँ 💤... जिन्हें बंद आँखों से महसूस कीजिए और खुद को बहने दीजिए उन रिश्तों में, जो कहे नहीं जाते - बस महसूस किए जाते हैं।

Read Hindi Romantic, Emotional, Motivational, Friendship and Dramatic Stories.

साँझ की हल्की रोशनी प्लेटफॉर्म के पीले बल्बों में घुल रही थी। बारिश कुछ देर पहले थमी थी और हवा में मिट्टी की ताज़ी खुशबू...
07/22/2025

साँझ की हल्की रोशनी प्लेटफॉर्म के पीले बल्बों में घुल रही थी। बारिश कुछ देर पहले थमी थी और हवा में मिट्टी की ताज़ी खुशबू तैर रही थी। रेलवे स्टेशन के पुराने बेंचों पर पानी की बूँदें अब भी ठहरी हुई थीं। दूर किसी खोखले से रेडियो पर पुराना गाना बज रहा था — “कोई लौट दे मेरे बीते हुए दिन” — और हवा उसके सुर को थामे-थामे घूम रही थी।

विनय प्लेटफॉर्म नंबर दो पर एक कोना पकड़कर बैठा था। उसके पास एक थैला था, जिसमें कुछ कपड़े और एक पुरानी किताब रखी थी। वह किताब कभी नेहा ने उसे दी थी। वही नेहा जो कभी उसकी थी, और फिर न जाने कब, बिना कुछ कहे, किसी और की हो गई।

बारह साल हो गए थे। ज़िंदगी अपनी रफ्तार से चली, और विनय ने भी खुद को समझा लिया। लेकिन कुछ जख्म ऐसे होते हैं जो वक्त के साथ भरते नहीं, बस थोड़े गहरे हो जाते हैं। आज जब वह इस शहर में आया था, तो कुछ नहीं सोचा था कि उसका सामना अतीत से हो जाएगा।

ट्रेन लेट थी। सामने एक बूढ़ा चायवाला धीरे-धीरे कपों में चाय उड़ेल रहा था। हवा में अदरक और पत्तियों की मिली-जुली महक थी। विनय ने एक चाय ली और खामोशी से सिप लेने लगा। तभी उसकी नज़र प्लेटफॉर्म के उस हिस्से पर पड़ी जहाँ से लोग आते हैं। वहाँ एक साड़ी में लिपटी महिला खड़ी थी — नीले रंग की सूती साड़ी, बालों को ढीला बाँधा हुआ, और आँखों में कुछ थकी-सी पर शांत रेखाएँ।

विनय की आँखें उसे देखती रह गईं। कुछ पल बीते और फिर उस औरत की नज़र भी विनय पर पड़ी। नज़रों ने जैसे वक़्त का पर्दा चीर दिया।

नेहा थी।

वही नेहा जिसकी हँसी कभी उसकी जेबों में रखे रहने वाले हाथों को खोल देती थी। वही नेहा जिसके लिए कॉलेज की हर शाम उसके पास एक कविता बन जाती थी।

नेहा ने एक पल के लिए अपनी आँखें झुका लीं, फिर हल्की मुस्कान के साथ उसकी ओर चली आई।

“तुम…?” उसकी आवाज़ धीमी थी, जैसे किसी पुराने गाने की धुन जो बरसों बाद कहीं से लौट आई हो।

विनय ने गर्दन हिलाई। उसकी मुस्कान अधूरी थी, जैसे कुछ कहने की कोशिश कर रही हो, पर शब्द कहीं गले में अटके हों।

“इतने सालों बाद… कैसे हो?” नेहा ने पूछा।

“जैसे तुमने छोड़ दिया था… वैसे ही,” विनय ने जवाब दिया, बिना शिकवे के।

नेहा चुप रही। उनके बीच बारिश से भीगी हुई ज़मीन की तरह एक चुप्पी पसरी रही।

“बैठो,” विनय ने अपने बगल की सीट की ओर इशारा किया।

नेहा बैठ गई। कुछ देर तक दोनों बस प्लेटफॉर्म की ओर देखते रहे। ट्रेन का शोर अब भी दूर था। जैसे वक़्त ने खुद को थोड़ा थाम लिया हो।

“शादी हुई तुम्हारी?” नेहा ने पूछा।

विनय ने सिर हिलाया — नहीं।

“क्यों?”

विनय ने आँखें मूँद लीं। “शायद इसलिए कि जहाँ दिल था, वहाँ कोई और ही नाम लिखा था।”

नेहा की आँखें भीग गईं, पर उसने उन्हें पोंछा नहीं। कुछ आँसू ऐसे होते हैं जो चेहरों पर नहीं, दिल की ज़मीन पर गिरते हैं।

“तुम कैसी हो?” विनय ने पूछा।

“सब कुछ है… पर कुछ भी नहीं,” नेहा ने हल्के से कहा।

“बच्चे?”

“एक बेटा है। अब बड़ा हो गया है। मुझे माँ नहीं कहता… बस 'मम्मी' कहता है, जैसे कोई फ़र्ज़ पूरा कर रहा हो,” नेहा की आवाज़ में एक हल्की सी काँप थी।

विनय ने उसकी ओर देखा। चेहरा वही था, पर आँखों में वो हँसी नहीं थी जिसे वह जानता था। वहाँ अब थकान थी, समझौते थे, और वो सब कुछ जो किसी रिश्ते को निभाने के लिए औरतें खुद में समेट लेती हैं।

हवा ने एक बार फिर चाय की महक बिखेरी। चायवाला अब पास आया और बोला, “एक और चाय दूँ साहब?”

विनय ने दो चाय लीं। कप नेहा को थमाया। उसने कप थामते हुए विनय की उंगलियों को हल्के से छुआ। जैसे किसी भूले हुए मोड़ की पहचान दोबारा हो गई हो।

“याद है… कॉलेज के दिन?” नेहा ने पूछा।

“हर दिन। हर बात। उस छत को भी जहाँ हम दोनों बैठते थे… और चुपचाप सिर्फ चाय पीते थे।”

“कभी समझ नहीं आया कि तुमने कहा क्यों नहीं…”

“क्योंकि तुम्हारी आँखों में पहले से कोई और था।”

“नहीं था।”

विनय चौंका।

“वो रिश्ता पापा ने तय कर दिया था। मैं बस उस चुप्पी में उलझ गई जहाँ ना हाँ थी, ना ना। और फिर… जाने कब सब छूटता चला गया,” नेहा की आवाज़ अब और भी धीमी थी।

एक बूंद फिर से गिरी। शायद आसमान से नहीं, किसी दिल की कोर से।

ट्रेन आने की घोषणा हुई। दोनों ने चाय खत्म की। विनय ने कप नीचे रखा और नेहा की ओर देखा।

“शायद अब कुछ कहना बचा नहीं…”

“शायद अब सुनने की हिम्मत भी नहीं,” नेहा ने धीमे से कहा।

ट्रेन पास आई। नेहा उठी। उसके हाथ में एक किताब थी — वही जो कॉलेज के दिनों में विनय को दी थी।

“ये अब तुम्हें लौटा रही हूँ। मैं जानती हूँ तुम इसे सँभाल कर रखोगे,” उसने वो किताब विनय के हाथ में रख दी।

“और तुम?” विनय ने पूछा।

“मैं बस… फिर कभी नहीं मिलूँगी शायद,” नेहा ने मुस्कुरा कर कहा।

वह चली गई। ट्रेन में बैठ गई। खिड़की से हाथ हिलाया। और फिर वही पुराना गीत — “कुछ तो लोग कहेंगे…” — किसी सीट से बहकर स्टेशन की हवा में घुल गया।

विनय खड़ा रहा। ट्रेन चली गई। प्लेटफॉर्म पर अब भीगी हुई चाय की खुशबू बची थी। दूर रेडियो का गाना अब भी चल रहा था।

विनय ने किताब खोली। पहले पन्ने पर नेहा की लिखी वही पंक्ति थी —
“कुछ लम्हे अधूरे ही अच्छे लगते हैं…”

कुछ लम्हे अधूरे रह जाएँ तो वो ज़िंदगी भर याद रहते हैं। कभी-कभी जो कहानी मुकम्मल नहीं होती, वही सबसे गहरी होती है।

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मोहल्ले के आख़िरी कोने पर एक पुराना सा घर था। लाल ईंटों से बना, ऊपर खपरैल की छत, दीवारों पर सीलन की पुरानी लकीरें जो बरस...
07/21/2025

मोहल्ले के आख़िरी कोने पर एक पुराना सा घर था। लाल ईंटों से बना, ऊपर खपरैल की छत, दीवारों पर सीलन की पुरानी लकीरें जो बरसों से किसी ने मिटाने की कोशिश नहीं की। उस घर की पहली मंज़िल पर रहती थी मीरा। मैं उसी के नीचे वाले हिस्से में किराए पर रहता था। नया था उस शहर में, नया उन गलियों में, जहाँ हर दरवाज़ा किसी पुराने किस्से का दरवाज़ा लगता था। नौकरी शुरू ही हुई थी और शहर अब भी अजनबी लगता था। लेकिन मीरा को पहली बार देखकर लगा कि शायद इस अजनबीपन में भी कोई अपनापन छुपा हो।

मीरा रोज़ शाम को छत पर आती थी। एक किताब, एक कप चाय और दूर से आती किसी पुराने गाने की धीमी धुन। उसकी चाल में ठहराव था और आँखों में कुछ बहुत पुराने सपनों की परछाइयाँ। मैं नीचे अपनी बालकनी से उसे देखता रहता। धीरे-धीरे वो मेरी हर शाम का हिस्सा बन गई। कुछ नहीं कहा हमने कभी एक-दूसरे से। पर हर दिन की चुप्पी, जैसे कोई नज़्म बन गई थी।

एक शाम अचानक मन हुआ कुछ लिखने का। रात को देर तक जागता रहा और एक चिट्ठी लिखी। मीरा के लिए। उसमें कोई इज़हार नहीं था, बस कुछ एहसास थे। वो लम्हे थे जो हमने साथ तो नहीं बिताए, पर महसूस ज़रूर किए। चिट्ठी लिखने के बाद सुबह होते ही हिम्मत जवाब दे गई। उसे किताबों के बीच छुपा दिया।

अगले दिन फिर एक चिट्ठी लिखी। इस बार थोड़ी हिम्मत ज़्यादा थी। उसमें मीरा की हँसी का ज़िक्र था, उसकी चूड़ियों की छनक, और वो हल्की गुलाबी साड़ी जो उसने पिछली बारिश में पहनी थी। हर चिट्ठी में कुछ ऐसा होता जो मैं बोल नहीं सकता था। और शायद वो सुन भी नहीं सकती थी। या शायद समझती हो, मगर कुछ कहे बिना।

धीरे-धीरे ये सिलसिला चल पड़ा। हर हफ्ते एक नई चिट्ठी। कभी मीरा की आँखों में दिखी उदासी के लिए, कभी उसकी मुस्कान के लिए। हर चिट्ठी में मेरी अपनी एक दुनिया थी, जो बस मैं जानता था और वो जिसके नाम थी, वो कभी जान नहीं सकी। एक बेआवाज़ रिश्ता बन गया था हमारे बीच। वो अपनी छत पर आती रही, मैं अपनी बालकनी से उसे देखता रहा और चिट्ठियाँ लिखता रहा।

एक दिन मीरा नहीं आई। सोचा, शायद तबीयत ठीक न हो। फिर अगला दिन भी वो छत पर नहीं आई। तीसरे दिन जब देखा कि उसके दरवाज़े पर ताला लटका है तो कुछ अंदर से टूट गया। मकान मालिक ने बताया कि मीरा अपने मायके चली गई है। शायद हमेशा के लिए। किसी ने कुछ नहीं पूछा, किसी ने कुछ नहीं बताया।

उस रात सारे कमरे में एक अजीब सी खामोशी थी। चिट्ठियाँ किताबों के बीच, दराजों में, तकिए के नीचे, हर जगह बिखरी पड़ी थीं। उन्हें समेटा, पढ़ा, सहलाया और एक पुराने लोहे के डिब्बे में बंद कर दिया। मन में आया कि किसी तरह उसका पता मिल जाए और सारी चिट्ठियाँ पोस्ट कर दूँ। पर फिर लगा, अब कहना भी क्या।

वो चिट्ठियाँ अब भी मेरे पास हैं। जब भी मौसम बदलता है, या कोई पुराना गाना रेडियो पर बजता है, मैं वो डिब्बा खोलता हूँ। पन्ने अब थोड़े पीले पड़ चुके हैं, लेकिन हर अक्षर अब भी वही है। वो सबकुछ कहता है जो मैं कभी कह नहीं पाया।

कभी-कभी सोचता हूँ कि क्या मीरा जानती थी। क्या उसने कभी महसूस किया कि कोई है जो बिना कहे उससे जुड़ गया है। शायद जानती हो। शायद नहीं। पर अब फर्क भी क्या पड़ता है।

कुछ बातें बस लिखी जाती हैं, भेजी नहीं जातीं। कुछ लम्हे बस जीए जाते हैं, पूरे नहीं किए जाते। कुछ चिट्ठियाँ बस इसलिए लिखी जाती हैं ताकि हम खुद को समझ सकें। ताकि जब वक्त गुज़र जाए, तो हमारे पास कुछ रहे जो हमें ये याद दिलाए कि हमने भी कभी किसी को चाहा था, बिना नाम, बिना उम्मीद, बस चुपचाप।

कुछ लम्हे अधूरे ही अच्छे लगते हैं। जो बात कह दी जाती है, वो कभी-कभी अपनी मिठास खो देती है। और जो रह जाती है, वो धीरे-धीरे याद बन जाती है।

जो रिश्ता कभी शुरू ही नहीं हुआ, वही सबसे गहरा छूट जाता है।

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सावित्री के घर की खिड़की ठीक उस गली में खुलती थी जहाँ से हर रोज़ सुधांशु अपने स्कूटर पर निकलता था — पुराना पीला स्कूटर, ...
07/20/2025

सावित्री के घर की खिड़की ठीक उस गली में खुलती थी जहाँ से हर रोज़ सुधांशु अपने स्कूटर पर निकलता था — पुराना पीला स्कूटर, जिस पर पिछली सीट की गद्दी थोड़ी उधड़ी हुई थी। मोहल्ले की वो सँकरी गली सुबह की धूप में चमकती नहीं थी, बस धीरे-धीरे जागती थी। और सावित्री? वो तो अपनी सिलाई मशीन के पास बैठी रहती थी, दिन भर, जैसे वही उसकी दुनिया हो।

पुराने किस्म का घर था — खपरैल की छत, दीवारों पर हल्की सी सीलन, और आँगन में तुलसी का छोटा सा चौबारा। उसके पापा की मौत के बाद सिलाई ही थी जिसने माँ-बेटी की जोड़ी को थाम रखा था। सावित्री ने कभी शिकायत नहीं की, वो हर बात को जैसे धागों में बुन लेती थी — तकियों के कवर, बच्चों की फ्रॉक, कभी-कभी किसी के शादी के ब्लाउज।

साँझ होते-होते, मोहल्ला थोड़ा सज-सा जाता था। घरों के आँगन में चाय की भाप उठती, रेडियो पर पुराने गाने बजते — "रिमझिम के तराने लेकर आई बरसात..." — और सावित्री तब भी उसी मशीन के पास बैठी रहती, पैडल मारती हुई, बीच-बीच में खिड़की से झाँक लेती।

सुधांशु, पड़ोस वाला लड़का था — कुछ साल बड़ा, सरकारी नौकरी में, लेकिन अब भी मोहल्ले में वैसे ही सादा जैसे पहले था। उसकी माँ अक्सर सब्ज़ी काटते हुए जोर से आवाज़ लगाती —
“सुधांशु! ज़रा सावित्री से पूछ ले, वो ब्लाउज कब तक देगी।”

और सुधांशु मुस्कुराते हुए दरवाज़े तक आता, कभी झाँक कर, कभी बिना देखे ही पूछ लेता —
“सावित्री, माँ ने पूछा है, वो जो नीला वाला कपड़ा है ना…”

“कल तक हो जाएगा,” सावित्री कहती, और आँखें नीची कर लेती।

इतना भर होता, मगर दिल में जैसे कुछ भारी-सा रह जाता — जैसे चाय में चीनी डाली हो लेकिन अच्छे से घुली न हो।

शामें धीरे-धीरे बदलने लगीं। सुधांशु की सरकारी नौकरी ने अब उसका तबादला माँ से दूर किसी और शहर कर दिया था। वो चला गया — मोहल्ला उतना ही रहा, पर सावित्री की खिड़की से धूप कुछ और तरह की दिखने लगी।

वो अब भी सिलती थी — वही मशीन, वही पैडल, वही झाँक कर देखना… पर अब स्कूटर की आवाज़ नहीं आती थी।

सावित्री की माँ कहती —
“ब्याह की उमर निकलती जा रही है बेटा, कब तक यूँ ही सिलाई करती रहेगी?”

सावित्री बस मुस्कुरा देती, जैसे हर सवाल को सूती कपड़े में लपेटकर अलमारी में रख देती हो।

एक दिन सुधांशु आया — अचानक। छुट्टी में। वही पुराना स्कूटर, लेकिन अब शायद और भी थका हुआ। वो माँ के साथ आया था — साड़ी का नाप लेने।

खामोशी थी, पुरानी दीवारों पर चुप्पी की परत जम गई थी। सावित्री ने पूछा —
“कैसे हो?”

“अच्छा हूँ,” उसने कहा, “तुम?”

“सिल रही हूँ,” और उसके होंठों पर एक मुस्कान आकर रह गई।

वो कपड़ा लेकर चला गया — बिना कुछ कहे, बिना कुछ पूछे।

सावित्री ने वो साड़ी ऐसी सिली जैसे हर टाँका एक याद में डूबा हो। जब सुधांशु की माँ लेने आई, तो उन्होंने जाते-जाते कहा —
“सावित्री, तू ना बहुत अच्छा सिलती है, मगर कभी अपने लिए भी कुछ सिला कर।”

और सावित्री ने बस सिर हिला दिया, जैसे किसी गाने की उदासी को समझकर चुप रह गई हो।

कुछ रिश्ते कहे बिना भी पूरे लगते हैं। जो नाम नहीं पाते, वही सबसे गहरे पैठ जाते हैं।

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कुल्हड़ की चाय और वो एक यादगार  सफ़र...जेठ की दोपहरी थी, लेकिन उस दिन की धूप जैसे साज़िश कर रही थी। स्टेशन की छत से लटके...
07/20/2025

कुल्हड़ की चाय और वो एक यादगार सफ़र...

जेठ की दोपहरी थी, लेकिन उस दिन की धूप जैसे साज़िश कर रही थी। स्टेशन की छत से लटके पंखे बस औपचारिकता निभा रहे थे। हवा कहीं छुप गई थी। प्लेटफॉर्म की ज़मीन तपकर अंगार हो चुकी थी, और हर बीतता पल एक बेचैन साँस में बदल गया था।

प्लेटफॉर्म नंबर तीन पर बैठा आकाश, अपने बैग को घसीट कर छाँव की सीमा में लाया। वो आँखें जो थकी थीं, उनमें एक नरम सुकून भी छिपा था। शायद घर लौटने की आस थी वो।

उसका टिकट शहडोल से प्रयागराज तक का था। जनरल डिब्बा, भीड़ भरा, गर्मी से बेहाल, लेकिन दिल के भीतर एक मीठी उम्मीद लिए। माँ के हाथ की दाल भात, बरामदे में लगी खटिया और मोहल्ले की वही पुरानी गली... सब उसके इंतज़ार में थे।

इन्हीं सोचों में घुलता हुआ आकाश तभी चौंका। उसकी नज़र एक लड़की पर ठहर गई। हल्के आसमानी सूट में, चोटी को कंधे पर साधे, हाथ में एक छोटा स्टील का टिफिन पकड़े हुए वो प्लेटफॉर्म की दीवार के पास धीरे-धीरे चल रही थी। उसकी चाल में कुछ अनजाना आकर्षण था, बिना किसी बनावट के, बिल्कुल खामोश सा आकर्षण।

आकाश कुछ पल उसे देखता रहा, फिर अपने मन को डाँट दिया। "ये कोई फिल्म नहीं चल रही... बस एक आम लड़की है।"

पर मन का क्या करे?

ट्रेन आई, और जैसे हर बार होता है, धक्का मुक्की के बीच आकाश किसी तरह दरवाज़े के पास एक कोना पकड़ने में सफल रहा। चंद मिनटों बाद वही लड़की उसी डिब्बे में चढ़ी… और संयोग से ठीक उसी कोने में आ खड़ी हुई।

नज़रें मिलीं। मुस्कानें टकराईं। कोई संवाद नहीं, लेकिन मौन में बहुत कुछ बोला गया।

"आप इलाहाबाद जा रहे हैं?"
पहली बार किसी ने चुप्पी को तोड़ा। वही लड़की थी।

"हाँ… आप भी?"
"जी, नानी के पास… गर्मियों की छुट्टियाँ।"
"मैं भी घर जा रहा हूँ, बहुत समय बाद।"

बातें ऐसी थीं जैसे दो पुराने गीत किसी नए राग में मिल रहे हों। धीरे-धीरे उनका मौन संवाद कहानियों में बदलने लगा। उसे कुल्हड़ वाली चाय पसंद थी, आकाश को भी। उसे पुराने गाने भाते थे, आकाश को भी। वो बारिश में खिड़की से बाहर देखती थी, आकाश भी वैसा ही था।

वो सफ़र जो गर्मी और बेचैनी से भरा था, अब किसी धीमी नदी की तरह बहने लगा।
कभी वो थककर उसकी हथेली पर सिर रख देती, कभी वो चुपचाप उसके लिए पानी ले आता।

शब्द कम थे, पर अनुभव गहरे।

शाम ढलने लगी थी। ट्रेन की खिड़की से आती हवा में अब दोपहर जैसी घुटन नहीं, बल्कि एक धीमा सुकून था। जैसे कोई भूली-बिसरी याद लौट आई हो।

"शायद अगला स्टेशन इलाहाबाद है," उसने कहा।

"हाँ... शायद।"

फिर कुछ नहीं कहा गया। कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं थी।

जब स्टेशन आया, और वो उतरने लगी, उसने बोतल लौटाई जो आकाश ने दी थी।

"तुम रख लो।"
"नहीं," वो मुस्कुराई, "कभी-कभी सफ़र को वहीं छोड़ देना अच्छा होता है।"

"अगर कभी फिर मिले… तो क्या पहचान लोगे?"
"अगर तुम्हारे हाथ में फिर से कुल्हड़ वाली चाय हुई… तो हाँ।"

और वो चली गई… भीड़ में समा गई।

सात साल बीत चुके थे।

अब न वो स्टेशन वैसा लगता था, न कुल्हड़ की चाय का स्वाद वही रहा। आकाश की ज़िंदगी अब समय सारिणी में बँधी हुई थी। ऑफिस, किराया, और लगातार बदलते शहर।

एक दिन भोपाल की मीटिंग के लिए उसे ट्रेन पकड़नी थी। स्टेशन पहुँचा, और वही पुरानी खुशबू। चाय की मिट्टी, गर्म हवा, भीड़ का कोलाहल। उसने मुस्कुराकर एक कुल्हड़ उठाया। “बस... वो सफ़र नहीं है अब।”

तभी पीछे से एक धीमी आवाज़ आई।
"माफ़ कीजिए… क्या आप आकाश हैं?"

वो पलटा। वही आँखें, वही मुस्कान। बस अब वो सूट की जगह साड़ी में थी, बाल थोड़े और सधे हुए, लेकिन पहचान वही।

"मैं नहीं जानती थी कि फिर कभी मिलेंगे," उसने कहा।

"मैंने कभी उम्मीद भी नहीं की थी… पर शायद कुछ कहानियाँ दोबारा लिखी जाती हैं।"

"शादी की?"
"नहीं। वक़्त निकल गया… माँ बीमार थीं… फिर नौकरी…"
"मैंने भी नहीं की।"

दोनों हँसे। वही पुरानी, धीमी हँसी, जो किसी भूली हुई किताब के पन्ने पलटने पर आती है।

"फिर से मिलकर अच्छा लगा।"
"इस बार… मैं बोतल नहीं रखूंगा… लेकिन चाय ज़रूर पिलाऊँगा।"

दोनों प्लेटफॉर्म की उसी बेंच पर बैठे।
और उसी समय एक पुरानी ट्रेन प्लेटफॉर्म पार कर गई। वही रूट, वही आवाज़, वही धड़कन।

कुछ सफ़र अधूरे ही सही… पर फिर से शुरू हो सकते हैं।
बस प्लेटफॉर्म बदल जाता है।
कहानी नहीं।

07/02/2025

07/01/2025

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