
07/22/2025
साँझ की हल्की रोशनी प्लेटफॉर्म के पीले बल्बों में घुल रही थी। बारिश कुछ देर पहले थमी थी और हवा में मिट्टी की ताज़ी खुशबू तैर रही थी। रेलवे स्टेशन के पुराने बेंचों पर पानी की बूँदें अब भी ठहरी हुई थीं। दूर किसी खोखले से रेडियो पर पुराना गाना बज रहा था — “कोई लौट दे मेरे बीते हुए दिन” — और हवा उसके सुर को थामे-थामे घूम रही थी।
विनय प्लेटफॉर्म नंबर दो पर एक कोना पकड़कर बैठा था। उसके पास एक थैला था, जिसमें कुछ कपड़े और एक पुरानी किताब रखी थी। वह किताब कभी नेहा ने उसे दी थी। वही नेहा जो कभी उसकी थी, और फिर न जाने कब, बिना कुछ कहे, किसी और की हो गई।
बारह साल हो गए थे। ज़िंदगी अपनी रफ्तार से चली, और विनय ने भी खुद को समझा लिया। लेकिन कुछ जख्म ऐसे होते हैं जो वक्त के साथ भरते नहीं, बस थोड़े गहरे हो जाते हैं। आज जब वह इस शहर में आया था, तो कुछ नहीं सोचा था कि उसका सामना अतीत से हो जाएगा।
ट्रेन लेट थी। सामने एक बूढ़ा चायवाला धीरे-धीरे कपों में चाय उड़ेल रहा था। हवा में अदरक और पत्तियों की मिली-जुली महक थी। विनय ने एक चाय ली और खामोशी से सिप लेने लगा। तभी उसकी नज़र प्लेटफॉर्म के उस हिस्से पर पड़ी जहाँ से लोग आते हैं। वहाँ एक साड़ी में लिपटी महिला खड़ी थी — नीले रंग की सूती साड़ी, बालों को ढीला बाँधा हुआ, और आँखों में कुछ थकी-सी पर शांत रेखाएँ।
विनय की आँखें उसे देखती रह गईं। कुछ पल बीते और फिर उस औरत की नज़र भी विनय पर पड़ी। नज़रों ने जैसे वक़्त का पर्दा चीर दिया।
नेहा थी।
वही नेहा जिसकी हँसी कभी उसकी जेबों में रखे रहने वाले हाथों को खोल देती थी। वही नेहा जिसके लिए कॉलेज की हर शाम उसके पास एक कविता बन जाती थी।
नेहा ने एक पल के लिए अपनी आँखें झुका लीं, फिर हल्की मुस्कान के साथ उसकी ओर चली आई।
“तुम…?” उसकी आवाज़ धीमी थी, जैसे किसी पुराने गाने की धुन जो बरसों बाद कहीं से लौट आई हो।
विनय ने गर्दन हिलाई। उसकी मुस्कान अधूरी थी, जैसे कुछ कहने की कोशिश कर रही हो, पर शब्द कहीं गले में अटके हों।
“इतने सालों बाद… कैसे हो?” नेहा ने पूछा।
“जैसे तुमने छोड़ दिया था… वैसे ही,” विनय ने जवाब दिया, बिना शिकवे के।
नेहा चुप रही। उनके बीच बारिश से भीगी हुई ज़मीन की तरह एक चुप्पी पसरी रही।
“बैठो,” विनय ने अपने बगल की सीट की ओर इशारा किया।
नेहा बैठ गई। कुछ देर तक दोनों बस प्लेटफॉर्म की ओर देखते रहे। ट्रेन का शोर अब भी दूर था। जैसे वक़्त ने खुद को थोड़ा थाम लिया हो।
“शादी हुई तुम्हारी?” नेहा ने पूछा।
विनय ने सिर हिलाया — नहीं।
“क्यों?”
विनय ने आँखें मूँद लीं। “शायद इसलिए कि जहाँ दिल था, वहाँ कोई और ही नाम लिखा था।”
नेहा की आँखें भीग गईं, पर उसने उन्हें पोंछा नहीं। कुछ आँसू ऐसे होते हैं जो चेहरों पर नहीं, दिल की ज़मीन पर गिरते हैं।
“तुम कैसी हो?” विनय ने पूछा।
“सब कुछ है… पर कुछ भी नहीं,” नेहा ने हल्के से कहा।
“बच्चे?”
“एक बेटा है। अब बड़ा हो गया है। मुझे माँ नहीं कहता… बस 'मम्मी' कहता है, जैसे कोई फ़र्ज़ पूरा कर रहा हो,” नेहा की आवाज़ में एक हल्की सी काँप थी।
विनय ने उसकी ओर देखा। चेहरा वही था, पर आँखों में वो हँसी नहीं थी जिसे वह जानता था। वहाँ अब थकान थी, समझौते थे, और वो सब कुछ जो किसी रिश्ते को निभाने के लिए औरतें खुद में समेट लेती हैं।
हवा ने एक बार फिर चाय की महक बिखेरी। चायवाला अब पास आया और बोला, “एक और चाय दूँ साहब?”
विनय ने दो चाय लीं। कप नेहा को थमाया। उसने कप थामते हुए विनय की उंगलियों को हल्के से छुआ। जैसे किसी भूले हुए मोड़ की पहचान दोबारा हो गई हो।
“याद है… कॉलेज के दिन?” नेहा ने पूछा।
“हर दिन। हर बात। उस छत को भी जहाँ हम दोनों बैठते थे… और चुपचाप सिर्फ चाय पीते थे।”
“कभी समझ नहीं आया कि तुमने कहा क्यों नहीं…”
“क्योंकि तुम्हारी आँखों में पहले से कोई और था।”
“नहीं था।”
विनय चौंका।
“वो रिश्ता पापा ने तय कर दिया था। मैं बस उस चुप्पी में उलझ गई जहाँ ना हाँ थी, ना ना। और फिर… जाने कब सब छूटता चला गया,” नेहा की आवाज़ अब और भी धीमी थी।
एक बूंद फिर से गिरी। शायद आसमान से नहीं, किसी दिल की कोर से।
ट्रेन आने की घोषणा हुई। दोनों ने चाय खत्म की। विनय ने कप नीचे रखा और नेहा की ओर देखा।
“शायद अब कुछ कहना बचा नहीं…”
“शायद अब सुनने की हिम्मत भी नहीं,” नेहा ने धीमे से कहा।
ट्रेन पास आई। नेहा उठी। उसके हाथ में एक किताब थी — वही जो कॉलेज के दिनों में विनय को दी थी।
“ये अब तुम्हें लौटा रही हूँ। मैं जानती हूँ तुम इसे सँभाल कर रखोगे,” उसने वो किताब विनय के हाथ में रख दी।
“और तुम?” विनय ने पूछा।
“मैं बस… फिर कभी नहीं मिलूँगी शायद,” नेहा ने मुस्कुरा कर कहा।
वह चली गई। ट्रेन में बैठ गई। खिड़की से हाथ हिलाया। और फिर वही पुराना गीत — “कुछ तो लोग कहेंगे…” — किसी सीट से बहकर स्टेशन की हवा में घुल गया।
विनय खड़ा रहा। ट्रेन चली गई। प्लेटफॉर्म पर अब भीगी हुई चाय की खुशबू बची थी। दूर रेडियो का गाना अब भी चल रहा था।
विनय ने किताब खोली। पहले पन्ने पर नेहा की लिखी वही पंक्ति थी —
“कुछ लम्हे अधूरे ही अच्छे लगते हैं…”
कुछ लम्हे अधूरे रह जाएँ तो वो ज़िंदगी भर याद रहते हैं। कभी-कभी जो कहानी मुकम्मल नहीं होती, वही सबसे गहरी होती है।
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